धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:। ‘मामकाः‘ पाण्डवाश्चैव किम् अकुर्वत सञ्जय॥
संस्कृत में अपने लिए ‘अस्मद्‘ शब्द होता है। इसकी षष्ठी विभक्ति में सम्बंधवाचक रूप बनता है – मम। कतिपय जन अज्ञानतावश इसे अशुद्ध लिखते हैं। ध्यान दीजिए ‘मम‘ शब्द में हलन्त या विसर्ग नहीं है। मम का अर्थ होता है ‘मेरा‘। यह मेरा अथवा स्वकीय का भाव ही ममत्व है।
ममत्व का पद-परिचय इस प्रकार है :
मम + त्व। यह पुल्लिङ्ग शब्द है। मम के भाव से भरे को ममत्वपूर्ण कहा जाता है। स्वकीय भाव से पूर्ण अर्थ में स्त्रीलिङ्ग शब्द है – ममता (मम+तल्+टाप्)। तल्+टाप् से बनने वाले शब्द सदा स्त्रीलिंग होते हैं, यथा – समता, एकता, अधीरता आदि।
जहाँ मम अर्थात् स्वकीय भाव का अभाव रहता है, वहाँ शब्द होता है – निर्मम, नि:+मम।
मम का ही विस्तार होकर बनता है शब्द ‘मामक:‘ यह स्व के भाव में दृढ़ता को व्यक्त करता है (मेरे ही) बहुवचन में मामकाः रूप बनता है। यह मामकाः ही धृतराष्ट्र ने कहा। इस मामका: का अर्थ ‘हमारे ही‘ होता है। यह मामकाः पद ही धृतराष्ट्र के स्वभाव का मूल बिन्दु है।
सम्पादकीय टिप्पणी
समय के साथ शब्दों के अर्थ रूढ़ होते जाते हैं। निर्मम शब्द का अर्थ अब बहुधा नकारात्मक रूप में लिया जाता है, क्रूरता से, बिना किसी करुणा आदि के किया गया अवांंछित कर्म निर्मम कह दिया जाता है। यह शब्द अपने पुरातन अर्थों में औपनिषद प्रज्ञा का प्रतिनिधित्व करता है – आसक्ति का अभाव। उपनिषदों सहित भगवद्गीता में भी यह शब्द आसक्ति से परे उच्च वस्तुनिष्ठ स्थिति को व्यक्त करता है।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः। निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति ॥
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च। निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी ॥
भारतीय आन्वीक्षिकी में राजपुरुषों, धर्मस्थों आदि हेतु निर्ममता को एक आदर्श की भाँति लिया गया है।