आज पता चला ‘शम्भू’ नहीं रहा।
शम्भू एक परंपरा की आखिरी कड़ी था। बहुत कुछ ऐसा था जो उसके साथ ही चला गया। उसकी कमी मुझे महसूस होगी। आजीवन। जिन्होंने भी उसे जाना लगभग सबको होगी। मुझे याद नहीं अपने परिवार के बाहर शम्भू के अतिरिक्त कोई भी और है जिससे मैं हर बार गाँव जाने पर मिला होऊँ। उससे मिलने में मेरा कोई योगदान नहीं। मैं नहीं मिलता था, वह मिलता था। शम्भू का गाँव हमारे गाँव से लगभग ४ किलोमीटर दूर…। बचपन में मैं एक बार गया था उसे बुलाने। मिट्टी के कच्चे घरों की बस्ती। कई वर्षों बाद जब मैं गाँव सिर्फ घूमने जाने लगा तब पता चला सरकार की किसी योजना के तहत उसे एक घर मिला। मैं उसके इस घर में कभी नहीं गया। उधर से आते जाते देखा था। तब से उसका घर हमारे घर से थोड़ा पास हो गया था फिर भी दूसरे गाँव में ही रहा लगभग दो किलोमीटर दूर।
शम्भू हमारे परिवार का नाई था। सफ़ेद कुर्ते पायजामे और सफ़ेद अंगोछे से सर बाँधे। बिलकुल दुबला पतला। एक पुराने कपड़े में लिपटे हुए उसके औजार – उस्तरा, कैंची, नाख़ून काटने की नोहरनी, उस्तरा घिसने का एक छोटा पत्थर। और एक साइकिल। घर में बिना बोले घुस जाता उसे हर जगह की इंट्री थी। बिना पूछे कुछ उठा लेने का हक़ बनाया था उसने।
माँ बताती हैं कि बचपन में जब मैं लिखना सीख रहा था उन दिनों उसने कहा था – तीनों गाँव में आजतक ऐसा लड़का मैंने तो नहीं देखा। बिना किसी के कहे ड्यूटी की तरह खुद रोज लिख के रख देता है। ये लड़का कुछ करेगा। इसकी पढ़ी कोई किताब दे दीजिये शायद मेरा लड़का भी कुछ लिखना पढ़ना सीख जाए! मेरा उस उम्र से शम्भू का परिचय था। जब से होश संभाला शम्भू ने बाल काटे। कितना भी कह लूँ शिखा ज़रूर छोड़ देता… मुझे शर्म आती स्कूल में चिढ़ाए जाने का डर भी… खुद चुटिया ढूँढ़ के कैंची सी काटता। वो कहता – ‘बबुआ फैशन में धरम ना छोड़ल जाला।’ आखिरी बार मिला था तो मुझसे कहा जनेऊ पहना कीजिये। … अपना धरम नहीं छोड़ना चाहिए।
जब मैं शहर चला गया तब भी गर्मी की छुट्टियों में बाल वही काटता। कॉलेज जाने के बाद भी जब भी मैं गाँव गया उससे बाल कटवाया। जमीन पर बैठकर। घर के आँगन में। या नीम के पेंड के नीचे। विदेश से जाने के बाद भी। मुझे इसकी परवाह नहीं होती थी कि वो कैसे बाल काटेगा। मुझे अच्छा लगता। उसे अच्छा लगता कि मैं उससे बाल कटवाता हूँ। और ये बात मुझे बहुत अच्छी लगती ! मेरा स्वार्थ ! ‘मिलिटरी काट काटूं कि दूल्हा काट?’ दो ही स्टाइल उसे आती। मुझे कभी समझ नहीं आया कि दोनों में क्या अंतर है। अंत में वैसा ही काटता पर पूछता ज़रूर… बहुत से लोग मिले जिंदगी में लेकिन उसके अंदर एक आत्मीयता थी जो कहीं और नहीं दिखती। घर के दरवाजे पर या गली में उसे मेरी आवाज सुनाई देती तो आँगन में या कमरे में जहाँ भी मैं होता आ जाता – ‘लागता कि बिदेश वाला बबुआ आइल बानी।’ कभी घर में घुसने से पहले किसी कमरे के अंदर जाने से पहले उसने खांसने या इजाजत लेने की जरुरत नहीं समझी।
बुधवार और रविवार को उसका आना होता। दिन भर घूमकर हजामत बनाता। आँगन में जो बर्तन दिख जाता उसमें पानी भरकर ले जाता। अक्सर बैठ कर बातें करने लगता… किसी की शिकायत या चुगली करते नहीं सुना मैंने। लोगों की बातें करता। सबकी खबर होती उसके पास। पर निष्पक्ष। बात की बात और अपना पक्ष जो हमेशा एक ज्ञानी के बात की तरह होती। बात करने की कला थी उसमें – उत्सुकता और निष्पक्षता। किसी का देखकर जलना, किसी के ख़ुशी में दुखी होना या किसी के दुःख में खुश होते मैंने उसे कभी नहीं देखा। हमेशा अच्छी बातें करता और मज़ेदार। एक बार हमारी खुराक देखकर उसने
‘ई का मरीज़ लेखा खातारs ऐ बबुआ, हम देखले बानी एही आँगन में खाए वाला के। जगी भईल रहे। बातें बात में बाज़ी लागी गइल आ हमरा सामनहीं छौ जोड़ी पूड़ी आ ऊपर से दू कहंतरी दही ! बुनिया त केहु देखबे ना कईल काताना। आ पूड़ी आजू के ज़माना वाला ना, बलिया ज़िला के असली हाथी के कान के साईज़ वाला पूड़ी। आ दही एकदम लाल माने सबेरे के सुरुज लेखा। पत्थर ऐसन टैट। उपर से दुई अँगूरी मोट सार्ही ।।।नादिया पलटी द त ना गिरी। आ उ रहबो कईले आठ फूट के लम्बा चौड़ा’ पता नहीं उसने किसको इस तरह खाते देखा था। किसी मनेजर सिंह की बात करता। पर उसके बाद से मैं हमेशा सोचने की कोशिश करता कि इतना खाना किसी इंसान के पेट के अंदर आ कैसे सकता है। और दही को वैसा लाल देखने की लालसा तब तक ख़त्म नहीं हुई जब एक चौधराइन ने अपनी दही तौलाते हुए मुझसे ना कह दिया – ‘अब कइसन लाल होला ए बबुआ। सजाव दही हा बानर के <अंग विशेष> ना’
कपडे-जूते-साइकिल। छोटी जरूरतें थी उसकी। ‘साँईं इतना दीजिये जामै कुटुम समाय’ कह कर मांगता – शान से। ।।। उसे माँगना आता था। लालची नहीं था। कुछ ले जाता तो सबकी आँखों के सामने से उठा कर। कभी कुछ गायब होता तो शम्भू का नाम कोई नहीं लगा सकता था। एक मत में राय होती – शम्भू ऐसा नहीं कर सकता। रेडियो सुनता। गानों के लिए। हमारे छत पर पड़ी पुरानी जंग लगी साइकिल लेकर गया और बनवाया। बोलता जितना चलती नहीं है उससे अधिक इसे ‘खोराकी’ चाहिए। इससे अच्छा तो पैदल ही था। और एक किस्सा सुना देता कैसे एक लंगोट के चक्कर में एक साधू को जेल जाना पड़ गया ! उसे बेकार से बेकार सामान में लगता कि नहीं बहुत कीमती है। क्यों फेकेंगे? कुछ भी ले लेता। मेरे कितने कपडे ले गया होगा। पैंट शर्ट नहीं पहनता था। लेकिन लेकर चला जाता था। बच्चो के लिए। भले वो कभी ना पहने ! उसे लगता कि उन्हें पहन लेना चाहिए अच्छे कपडे हैं क्या खराबी है। कुरता पायजामा दीजिये। कपडा नहीं सिलाई का झमेला होगा। खुद का पहना हुआ है तो वही दे दीजिये। आपका पैर बड़ा है ६ नंबर का नहीं है कुछ? एक मिलिटरी वाला कम्बल कहीं से दिला दीजिये। छोटी जरूरतें और उसकी आँखों में चमक आती। कुछ भी लेकर खुश हो जाता। जैसे मुझे कुछ देने में लगता कि ये बेकार हो गया है देने लायक नहीं है संभवत वैसे ही उसे भी लगता कि ज़रूरत हो या नहीं ये दे रहे हैं तो मना कैसे कर दूँ इन्हें बुरा ना लग जाए।
पता चला उसके मरने के बाद उसकी बहु ने उसके घर से ढेर सारे बेकार सामान, कपडे और जूते फेंके।
ज्ञान की बातें करता… अपने जवानी के दिनों की। पढाई के दिनों की। पुरानी बातें। इंटर पास था। सिनेमा देखने के दिनों की। अच्छा लगता उसकी बातें सुनकर कि कभी इसने भी गुदगुदाने वाली भावनाओं के दिन देखें हैं। आत्मा परमात्मा की बातें करता। ब्रह्मा ने जो ‘लिलार’ में लिख दिया इस जन्म के लिए उसकी – ‘जाहि बिधि राखे राम’! ये जो हमारा है और हमारा नहीं होकर तुम्हारा है एही में जिला का हर घर बर्बाद हो गया… लोगों के माया में अझूराए रहने की बात करता। चौपाइयों की। दोहो की। कहानियों किस्सों और कहावतों की। रामचरितमानस की। हर बात पर एक कहानी, किस्सा, चौपाई और दोहा होता उसके पास। फ़िल्मी गानो की लाइनें होती। कहीं नयी बात सुनता तो आकर बताता। ज्ञान बघारने के लिए नहीं।। पूछने के लिए, सीखने के लिए। चर्चा करने के लिए। अपनी उत्सुकता के लिए। बहुत उत्सुकता से सवाल करता और ध्यान से सुनता… अपनी समझ बताता। घर के लोगों से धर्म की चर्चा करना। पुराणों की कहानियाँ। प्रवचन की बातें। टीवी में महाभारत में देखी हुई बातें – ‘कौरव कम बीर थोड़े रहले सा। उ त सब भगवान के लीला ना ता भीष्म आ कर्ण के सामने के टिकित जी ! …।आछे इ बतायीं रऊरा मालूम बा मंदोदरी का केहल बिया अंत में?’ पता नहि कहाँ कहाँ से सुन कर अजूबी बातें ले आता। पढ़ कर खोज कर चौपाई निकालने को कहता।
हवाई जगह में बैठने से कैसा लगता है? डर लगता है कि नहीं…। कान बंद करना पड़ता है क्या आवाज से। नीचे कैसा दीखता है। बिदेश में लोग कैसे होते हैं। बाल कटवाने का वहां तो बहुत पैसा लगता होगा? माने पचास रुपया से भी ज्यादा? दो सौ चार सौ? वहां का पैसा कैसा दीखता है? और आफिस में लईकी है कि नहीं कोई? दोस्ती प्रेम नहीं हुआ? साथ ऑफिस में काम करते हैं तो नहीं होता है? स्विट्ज़रलैंड चांदनी सिनेमा में देखे थे। फोटो देख के लग रहा है एकदम वैसा ही। बिदेसी सब के बनारस में देखे हैं। बड़ी मजबूत देह होता है। बोरा जैसा बैग पीठ पर लिए पैदले चल देता है। रिक्सा वाला लोग पूछते ही रह जाता है। तेज होता है सब समझ गया है उ लोग भी। वो लोग कैसे रहते हैं? उन लोगों में जाति कैसे होती है? हजाम होते हैं? आप को वहां मीट-मछरी के बिना काम चल जाता है? ये क्या सही बात है कि जानकी जी ने त्रिजटा को आशीर्वाद दिया था कि तेरे वंशज दुनिया पर राज करेंगे और कलयुग में वही अंग्रेज हो गए? अमेरिका में भी अंग्रेज ही होते हैं कि खाली इंग्लैंड में ही? अमेरिका वाले कौन होते हैं।? माने वो अंग्रेज़ से अलग है कि एके जात है?
लोगों से बहुत मजाक करता। सबसे। पर गंभीर बातें भी बहुत। किससे कैसी बात करनी है उसे बहुत अच्छे से आता था।।। एक आप ही के घर के लोगों का बुद्धि विचार हमें अच्छा लगता है। बाकी तो पूछिए मत – बात करने की कला हो या सच वो पता नहीं। टीवी, रेडीयो, प्रवचन, चौराहे पर लोगों को चर्चा, अखबार में कुछ पढता तो आकर माँ से पूछता कि उन्हें पता है क्या? उन्होंने पढ़ा है? भागवत में है? किस पुराण में है? बाल्मीकि रामायण में है कि तुलसी रामायण में? सुन सुन कर उतना जिसे पता था बड़े बड़े लोगों को नहीं पता होता – नहुष, ययाति, धुँधकाली, भानुप्रताप …
मैं कॉलेज में गया तो उसने कहा – ‘हमराके एगो घडी दे द बबुआ।’ घड़ियों का शौक था उसे…। बताया कि पुरानी घडी ठीक टाइम नहीं दे रही। टाइटन सोनाटा गोल्डन कलर की ! उसने सबको दिखाया और बताया कि किसने दिया है। मुझसे मिलना हुआ तो बताया कि जब वो लोगों को बताता है तो किसी को भरोसा नहीं होता कि ऐसे ही उसे किसी ने घडी दी है। क्यों देंगे तुम्हे? फिर मुझसे कहा कि बैटरी बहुत जल्दी ख़त्म हो जाती है। पैंतीस रुपया लग जाता है एक बैटरी का। बहुत जल्दी ख़त्म हो जाता है। बहुत महंगा पड़ जा रहा है। पहले बता देना चहिये था कि चाभी वाली घडी चाहिए। एतना नक्सा वाला घडी है अब अपना औकात देख के माँगना चाहिए था हमको भी। हमको कमाई मिलता है साल में एक बार गेंहू, मसूर, चना… अब भूसा भर के तो चलेगी नहीं। मोटरसाइकिल माँगियों लेब त ते कहाँ से भराई! फिर एक लोक गीत की लाइन बोल दिया- जिसका अर्थ था कि मेहरिया मिल जाए वैसी तो सम्भलेगी कहाँ से – वाला हाल हो गया है। उसके साथ ‘कमाई’ लेने की परम्परा चली गयी। बार्टर सिस्टम जो मैंने देखा उसकी आखिरी कड़ी था वो। बेटे बम्बई, सूरत में रहते हैं।
मोबाइल उसने कभी नहीं रखा। आखिरी बार जब मुझसे मिला था तो बोला – ‘बहुत लोग के बर्बाद कई दिहलसि मोबाईल। आजकालू के लइका लईकी त… संपर्क बढ़ी गइल बा त खटास भी बढ़ता। पाहिले था कि एक बार देखे उसके बाद आधे लोगों से दुबारा संपर्क ही नहीं होता था वही तस्वीर बना रह जाता था मन में। अब कड़वाहट बढ़ गया है। दोस्ती होता है, मंगनी होता है। मंडप से लोग उठ जाते हैं। रिंग का फैशन है वही रिंग का बाद में फेंका फांकी होता है। शादी तोड़ते हैं फिर शादी भी कर लेते हैं। उसकी अपनी परिभाषायें थी। अपने अनुभव। मैं सहमत होऊं या नहीं… बातें कहीं न कहीं सही भी लगती।
उसने कभी सैलून में काम नहीं किया। एक बाजार में दो दिन बैठता। ‘ले आव दाढ़ी बना दीं। रेज़रवे से। तानी देखीं ता बिदेशी साबुन कैसन होला।’ फिर बोला इससे कुछ नहीं होता है। जितनी देर पानी लगा रहेगा उतना मुलायम। नहाने के बाद दाढ़ी बनाइए एकदम सही बनेगा बिना साबुन के ही। नहाने के बाद? ‘अरे हजामत भी सनाने में आवेला। आ ताहरा कवन चापा कल चलावेके बा। झरना होयी ओईजा ता?’
‘भगवान के दिए’ ढेर सारे बच्चे थे उसके। बड़े वाले मुझसे बहुत बड़े छोटे बहुत छोटे। बड़ों की शादी के बाद छोटे बच्चो को लेकर खुद अलग रहने लगा था। बहुओं के पक्षपात उसे पसंद नहीं आये। पत्नी के मरने के बाद थोड़ी थकान दिखने लगी थी उसपर। उम्र हो चली थी… पता चला चुपचाप चलते फिरते चला गया। पेट में दर्द हुआ… खुद दस बीस रुपये की दवाई लेकर आया। खाकर आराम करने लेटा तो उठा ही नहीं।
हर शादी में मैंने उसे देखा, हर पूजा में। शम्भू के बिना कोई काम नहीं होता था। शम्भू के बिना अब सब कुछ होगा। कैसे होगा पता नहीं। हमेशा आशीर्वाद देता। कहता कि मैं बड़े शान से लोगों को बताता हूँ आप लोगों के बारे में। परिवार, संस्कार इसे बनाये रखियेगा। प्रणाम भी करता और आशीर्वाद भी देता। उसकी कही एक बात – ‘लोग जिनको जानते हैं उन्हीं से जलन करते हैं। आप कुछ बड़ा काम करेंगे आ हम आपको जानते हैं तो कुछ फायदा नहीं होगा तो घाटा क्या होगा? ये जवार एक दूसरे को नीचे खींचने में ही चला गया। बहुत आगे जाइये बबुआ। कुछ बुरा काम मत कीजियेगा। हम ढ़ाला पर के हनुमानजी से आपके लिए भी गोड़ लागते हैं। बहुत ख़ुशी होता है हमको जब आप लोग अच्छा करते हैं’
कभी कभी मुझे लगता है कितने लोगों का सपना जीना होता है हमें। हमें हक़ नहीं कि हम दुखी हो जाएँ। हमें हक़ नहीं है कि हम कुछ ऐसा करें जिससे उनके उम्मीदों को आंच आये। मुझे नहीं।
माँ ने कहा – बहुत अच्छा आदमी था। बहुत। मैं थी नहीं गाँव। आयी तो पता चला उसके मरने के तीन महीने बाद… पापा गए थे। बहुत दुःख हुआ। लगता नहीं अभी भी कि वो नहीं रहा। लगता है किसी दिन आ जाएगा। उन्हीं की तरह मुझे अभी भी भरोसा नहीं हो रहा मैं इस बार गाँव जाऊँगा तो शम्भू नहीं होगा। मैं यहाँ का बाल कटवाए वापस यहीँ आकर बाल कटवाऊंगा। कोई मास्टर स्टाइलिस्ट ना दूल्हा काट काट सकता है ना मिलिटरी काट।
शम्भू को कोई याद नहीं रखेगा। उसके बिना कोई काम नहीं होता था पर।। वो किसी की यादों में शायद ही रहे। वो अति साधारण इंसान था। पर मुझे लग रहा है कि उससे असाधारण आदमी मैंने देखा ही नहीं। अपने घर वालो के भी यादों में शायद वो न रहे। जीते जी अपने बेटों से अलग हो गया था। उसकी व्यक्तिगत जिंदगी के परे उसके जिंदगी के जिस पहलू को मैंने देखा… वो जिंदगी प्रतीक थी अभाव में संतोष का। वो प्रतीक था त्याग का। ख़ुशी का। आत्मीयता का। वो प्रतीक था उस परंपरा का जिसमें अभाव में भी खुश रहा जा सकता है। समस्याओं से घिरे रहते हुए भी खुल कर हँसा जा सकता है। अपने आस पास सबको खुश देखकर भी खुश रहा जा सकता है। दूसरों के खुश में निश्छल खिलखिलाया जा सकता है। दूसरों के ग़म में डूबा जा सकता है। सारे गम झाड़-झुड कर फिर खड़ा हुआ जा सकता है। वो प्रतीक था जिसे धर्म मान लिया उसे निभाने का। वो प्रतीक था – जिसके लिए वो हँसते हुए कह उठता – ‘राज कपूर ने कहा है न एक सिनेमा ने किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार’।
… आज लगा कि जिंदगी का कुछ चला गया जो अब देखने को नहीं मिलेगा। संसार में कुछ ऐसा था जो हमेशा के लिए चला गया। समय आगे बढ़ गया कुछ ऐसा ले गया वो लौट कर फिर नहीं आ सकता। बहुत कुछ मिलेगा जिंदगी में लेकिन वैसा विशुद्ध कुछ नहीं। जैसे ख़त्म हो गयी एक प्रजाति – एक्सटिंक्ट। वो हमारी बातों में, हमारी यादों में जिन्दा है। हमेशा हमेशा के लिए। काश वैसे लोग और मिलते जिंदगी साधारण लोगों को भी विशेष होने का अहसास करा जाते हैं। जिन्हें देख पता चलता है जिंदगी होती क्या है ! हर दर्शन का निचोड़ उनकी जिंदगी होती है। जो किसी किताब, किसी ग्रन्थ में नहीं लिखा जाता – जिनसे सीख कर जिंदगियां खड़ी होती हैं। जो समाज की आलीशान इमारत की नींव के उस ईंट की तरह होते हैं जिनका जिक्र कहीं नहीं आता।
मुझे अपने गाँव के नाई की याद आ गयी, उसका कटोरा कट होता था, आज भी है हर शादी और पूजा मे रहता है. हर गाँव के नाई की कहानी तकरीबन एक जैसे ही होती होगी, लेकिन ये परम्परा विलुप्त हो रही है, वो भी अब सूरत बम्बई काम करने निकल गए…
साधारण होते हुए भी वह असाधारण था , पूरा पैराग्राफ ही लाजवाब है , ज़िन्दगी का सार कि साधारण होना कितना कठिन है….
अद्भुत।