कविता, मानेक पीठावाला, सिंध
जिस माटी पर हम आज चले हैं,
थी युगों पहले वह –
टीथस सागर के तल पर।
कलकल जिसकी,
रजती थी भव्य प्रवाहित।
अरावली की पहाड़ियों से,
सुदूर तिब्बत के विस्तार तक।
उसकी गूढ़ पपड़ी ने मानो,
धकेला हिमालय को तीन बार –
पुनर्जन्म का अवसर देते सिंध को,
पुण्यभू हिन्द के गर्व को।
उठता रहे प्यारा सिंध
सनातन उस ऊँचाई तक!
हे सिंधु से जन्मे देश!
जाने कब से पंजाब के झरने,
पर्वतराज के क्षार कंकड़ कण कण से
सुकर बैराज के जल से
तुम्हारी जीवाश्म मृदा को
समृद्ध बनाते रहे!
तुम उन्नत हो वैसे ही समृद्ध
मानवता के सञ्चित सारे पुण्य भर,
स्तुति करता है तुम्हारा अपना देश।