संस्मरण, वृत्तान्त, मेमोयर या जो भी कहें व्यतीत की स्मृति सुखदायी तो नहीं हो सकती। “This too shall pass.” और “Life goes on.” की व्यञ्जनाओं के मध्य पड़े मानव की स्थिति दो पाटों के मध्य फंसे गेहूं के घुन सदृश ही तो है। किन्तु जीवन का उत्स इसी परम सत्य की स्वीकृति में है की “कालो न यातो वयमेव याताः” ‘अभिज्ञता’ एक ऐसा शब्द है जो स्वयं पर लागु करते ही ‘स्व’ के भीतर की परतें उघड़ती प्रतीत होती है। इसी अभिज्ञता के मूल में सदा स्पन्दित जिज्ञासा की स्वीकारोक्ति हमें हमारे दो पाटों के मध्य फसें होने की जागृति क्षण मात्र के लिए विस्मृत करा देती है।
जिज्ञासा अर्थात जानने की इच्छा।
“ज्ञातुमिच्छा जिज्ञासा” (ब्रह्मसूत्र 1:1:1)
प्रश्न-प्रतिप्रश्न के माध्यम से सत्य तक पहुँचने का सङ्कल्प। सत्य के मार्ग पर बढ़ते समय जिज्ञासा ही हमारे भीतर के यात्री को मार्ग से विमुख नहीं होने देती। यही जिज्ञासा हमें मिथक, मिथ्या तथा मिथ्याग्रह के परे जाने का सामर्थ्य प्रदान करती है। जिज्ञासु टूटते मिथकों एवं खण्डित पूर्व धारणाओं से आहत नहीं होते हैं। वे रहते हैं सदा सज्ज — नवनिर्माण के लिये, सत्य एवं तथ्य के स्वागत के लिये। परिवर्तन के लिए सदा तत्पर एवं मान-अपमान जैसी स्थितियों में सदा सम रहने वाले ही जिज्ञासु कहे जाने योग्य हैं।
जिज्ञासा ने ही तो कुरुक्षेत्र की रणभूमि में पार्थ एवं योगेश्वर कृष्ण के अनुपम संवाद को सूत्रबद्ध किया था। कह उठे थे पार्थसारथी –
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥
— श्रीमद् भगवद्गीता 7.16
एक प्रश्न यह भी उठता है की जिज्ञासा को व्यवहार में कैसे उतारा जाय? किस प्रकार उचित परिप्रश्नों से यथार्थ को आविर्भूत किया जाय? यहीं से प्रारम्भ होती है ज्ञान प्राप्ति की सनातन यात्रा जो देश, काल व परिस्थितियों से बद्ध नहीं होती। न ही उदासीनता से लिप्त होती है। अधिक महत्वपूर्ण यह भी है कि जिज्ञासु तर्क एवं कुतर्क के भेद को समझे अन्यथा उसकी ज्ञान प्राप्ति की यात्रा सायास ही अनुशासनहीनता को जन्म दे देगी। यही कुतर्क जिज्ञासु को पतनोन्मुख कर देता है।
जिज्ञासा को केन्द्र में रखने का मन्तव्य यह था कि ज्ञान-प्राप्ति के अपूर्ण लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सङ्कल्प के साथ-साथ एक रणनीति होना आवश्यक है। मन में भाव जाग्रत करें, जिज्ञासा का शमन उचित माध्यम यथा मूल पाठ अथवा ऐसे व्यक्ति के सानिध्य में करें जिसने विवेक के माध्यम से सत्यान्वेषण किया हो।
गिरिजेश जी के प्रयासों में भी मूल भावना जिज्ञासा ही थी। हम भी इस जिज्ञासा की यज्ञाग्नि प्रज्वलित रखें तथा उन्हीं के सदृश ओरों को भी इसी मार्ग के यात्री बनने में सहायता करें। यही उनके प्रति वास्तविक श्रद्धाञ्जलि होगी।
जब ज्ञान प्राप्ति एवं सनातन धर्म की रक्षा के मार्ग कण्टकाकीर्ण लगें तो यह तथ्य आत्मसात करें कि मार्ग में मिलने वाले वृक्षों की छाया यात्री का पथ्य नहीं होती।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥
— श्रीमद् भगवद्गीता 8.20
— डॉ. भूमिका ठाकोर
उदयपुर, राजस्थान