गिरिजेश राव का जाना असहनीय है। उनकी कमी आजीवन रहेगी।
क्या समझें, क्या समझाएँ और क्या लिखें!
उनके नाम के आगे आचार्य स्वतः लग जाता है। उनको पढ़ने के साथ-साथ उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानना भी हुआ — आत्मीय। अद्भुत। अद्वितीय। विलक्षण। विगत बारह वर्षों से उनसे नियमित बात होती रही। मिलना भी हुआ। २१ मई को उनको भेजा मेरा अन्तिम सन्देश अनुत्तरित ही रह गया। अभी ११ मई को तो बात हुई थी। उनके अस्पताल जाने के बाद भी एक क्षण को भी ऐसा नहीं लगा कि ऐसा भी हो सकता है कि हमारी कभी बात नहीं होगी। मैंने अभी तक के अपने जीवन में ऐसे किसी आत्मीय को सदा के लिए ऐसे चले जाते नहीं देखा। सम्भवतः ये भी कारण हो कि जब से सुना… शब्द ही नहीं सूझे कि क्या लिखूँ।
पहचान के प्रारम्भिक दिनों में मनु-ऊर्मि लिखते गिरिजेश राव को पढ़ आश्चर्य होता था कि कोई ऐसा भी लिख सकता है! उन दिनों इस अद्भुत शृंखला की एक भी पोस्ट नहीं होती जिस पर हमारी बात नहीं होती। पोस्ट से जुड़ी एक-एक बात पर तो होती ही पोस्ट से परे भी। फिर बाऊ। केंकड़ा। सन्देश आ गया – “परबतिया के माई प्रसंग का अन्तिम भाग नहीं पढ़े?” और शुरू हो जाती अन्तहीन बातें!
उनकी कविताएँ। लम्बी कविताएँ। नरक के रास्ते कविता। कई छोटी कविताएँ जो याद रह गयी।
मेरे अपार्टमेंट में गमले की तुलसी के बीच सरसों ड़ाल दिया था मैंने। उसमें फूल आया तो मैंने उन्हें फोटो भेजा –”कविता आपकी कार्यान्वयन हमारा।” कविता ये थी —
तुम्हारी हँसी –
तुलसी बिरवे बीच
फूली
सरसो अकेली।
समय अपनी गति से चलता रहा। उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ अधूरी रही तो नए आयाम और कार्य प्रारम्भ भी हुए। वर्ष २०१५ में मैंने उनके जन्मदिन पर २०१० के जन्मदिन पर हुई वार्ता वाले पुराने ईमेल को ढूँढ कर पुनः भेजा। एक प्रश्न के साथ कि इन अधूरे कार्यों का क्या हुआ? तो उनका जवाब आया —
“धन्यवाद। अब मन बैरागी होने लगा है। अपने से किये वादे झांकते भर हैं और उठ कर बकैती करने चल देता है 🙂 याद दिलाने के लिए बहुत बहुत आभार। जाने क्या क्या याद आ गए! बाऊ लिख रहा हूँ धीरे धीरे। आनन्द आता है लेकिन ओसरती नहीं कथा, जाने क्यों। फिर भी चलते ही जाना है।”
उनके बैरागी मन वाली बात ये अनायास ही नहीं थी। ये मनु-ऊर्मि लिखते गिरिजेश नहीं थे जिनसे ऐसी बात होती —
“कोई मिली? ग्रेटा या गुंजा?”
“अभी तो कोई नहीं।”
“आजकल हडशन जमी है या बह रही है?”
“बह रही है।”
“तो डूब मरो अभिषेक!”
हमारी बातें होती – खगोल। काल गणना। गणित। दर्शन। वेद। पुराण। लंठ। कई बातें जो मेरे सिर के ऊपर से भी निकल जाती। मनु-ऊर्मि पढ़ते हुए इतना जीवन्त लिखते और कहानी कुछ इस तरह होती कि एक बार मैंने कहा था — “पता नहीं क्यों लग रहा है कि मनु अगले अंक में उलझ जाएगा।” बहुत हंसे। बोले बिल्कुल ऐसा ही होगा, पता कैसे चल गया? उनके साथ की गयी ऐसी अनेकों बातें चैट लॉग में हैं वर्ष २००८-०९ से। मैंने एक बार कहा था कि मैं किसी से बात ही नहीं करता पर जिनसे करता हूँ तो चुप भी नहीं होता। दो अलग लोग देखें तो समझ नहीं पाएँगे कि यही आदमी है। इस पर भी खूब हंसे बोले डिट्टो ऐसा ही हूँ मैं भी। हमारी बातें हो जाती।
ऐसी कितनी बातें होती। जो बातें किसी और से नहीं हो सकती। हंसी-मजाक की भी अनेकों बातें। कॉलेज की बातें। लंठो की बातें।
लेखन के परे अद्भुत व्यक्तित्व। अद्वितीय। ऐसा भी कोई कॉम्बिनेशन होता है?
पढ़ाई और पेशे से अभियन्ता, आईआईटियन, और वेदपाठी। वेद, पुराण, उपनिषद, खण्डहरों, और मूर्तियों पर लिखते तो लिखते ही चले जाते। लोक गीतों, जीउतिया और नाग पञ्चमी जैसे पर्वों के अस्तित्व और उद्भव पर कैसी-कैसी अद्भुत बातें बतायी उन्होंने। कैसी अद्भुत दृष्टि! साथ में ये भी तो हुआ — एक बार उनके ऑफ़िस में जर्मन उपकरणों की ख़रीद का टेण्डर आया था जिनकी तुलना करते हुए ल्यूमिनस को समझने के एक प्रश्न पर कैंडेला पर स्कवायर और लक्स में उलझे तो मैंने भी उनके साथ माथा-पच्ची की। अन्तत: बात यहाँ तक गयी कि …उससे जुड़ा प्रश्न मैंने जगत प्रसिद्ध एच.सी. वर्मा से पूछा! जिन्होंने एक किताब बतायी जिसमें इसका वर्णन था। आप जानते हैं किसी सरकारी अधिकारी को जो अपनी नौकरी में इतनी गम्भीरता से काम करता हो?!
अद्भुत विचार थे उनके पास। और जुझारू भी वैसे ही। मात्र कोरे विचार नहीं। उन पर काम भी करते। एक बार एक विज्ञान के पाठ्यक्रम को लेकर कई दिनों तक चर्चा हुई। उन्हें कुछ भेजने में एक भय भी रहता क्योंकि कह देते — “चलिए हम भी ऐसा करते हैं!” अच्छा लगने भर से वाह-वाह कर रुकना नहीं होता था उन्हें। किसी किताब में महाभारत के समय के नक्षत्रों की स्थिति का वर्णन मिला तो स्वयं भी गणना करने बैठ जाते।
वास्तविकता जानते हुए भी जुझारूपन में कभी कमी नहीं आती। एक बार उन्होंने कहा था “चार लोगों को लेकर कुछ छोटा सा भी निःस्वार्थ करने का प्रयास कर लीजिए। उसके बाद आप बैठे-बैठे कभी किसी ऐसे को गाली नहीं देंगे जो कुछ भी करने का प्रयास कर रहा हो।”
उनकी सुझायी कितनी किताबें पढ़ा होगा। ऐसे-ऐसे नाम जो मैंने सुने नहीं थे। एक बार बोले — मोतीलाल बनारसीदास चलेंगे कभी साथ वहाँ मिलेगी रुचि की किताबें। उनसे जब पूछा कि तिरुकुरल पढ़ने का मन है कौन सा अनुवाद पढ़ूँ? तो बोले — “असली पढ़िए। तमिळ सीख लीजिए इतना कठिन नहीं है।” कहाँ हो पाएगा! पर हाँ वो व्यक्ति ऐसे थे जो करवा देते।
जैसे एक बार एक ग्राफ़ भेजा तो उन्होंने कहा ऐसे ही जगन्नाथ को बनाइए ना। जगन्नाथ के चित्र में तो बस रेखा चित्र ही है! ज्यामिति है — मैंने कभी देखा नहीं था उस दृष्टि से। ऐसे ही बातों-बातों में एक चर्चा चली तो बोले यही लिखिए मघा के लिए… और वो ९० लेख हो गए। समयाभाव में कहाँ से समय निकला वो मेरे लिए चमत्कार है। पटना में था तो हर कुछ दिन पर फोन कर पूछते कि पटना डायरी की अगली कड़ी कब आ रही है? — “अरे बाहर जाइए ये बैठ कर नहीं लिखाएगा।” और वो एक किताब बन गयी।
रोचक बातें और लिंक भेजते रहते और मैं हर बार आश्चर्य में पड़ता जाता कि कितने जिज्ञासु व्यक्ति हैं। कितना कुछ आता है उन्हें। कई बार सवाल के साथ भेजते, विशेष कर गणित हो तो। मुझे जो थोड़ा-बहुत आता है सम्भवतः उन्हें लगता कि मुझे उससे कई गुना ज़्यादा आता है। मैं नहीं दे पाता था उनके कई प्रश्नों के उत्तर। कभी महीने में एकाध बार फ़ोन या वो कर लेते या मैं तो हम बहुत बातें करते। कितनी योजनाएँ थी — कोणार्क जाने की, कहीं बैठ कर चर्चा करने की। मघा प्रकाशन से पहली किताब आने की। मघा पर आने वाली लेखमालाओं की — “इसके बाद लिखिए दर्शन को आधुनिक रूप में! मिल कर लिखते हैं। उपनिषद के महा वाक्यों पर।”
मघा के एक लेख के बाद उनका सन्देश आया — “अब सम्पादित करना शुरू कीजिए इसे, ये मघा प्रकाशन की पहली किताब बनेगी।” मैंने वो लेख बार-बार पढ़ा कि ऐसा क्या है जो उन्हें इतना अच्छा लग गया। वो लेखमाला मैंने लिखा नहीं उन्होंने लिखवा लिया।
उनके आख़िरी सन्देशों में से एक —
“एक के पश्चात एक समस्याएँ। सोचा था कि विस्तृत लिखूँगा आपकी पुस्तक पर किंतु माताजी के देहावसान के पश्चात सप्ताहों तक मन:स्थिति नहीं बन पाई। व्यर्थ के फेसबुकिया हीही फीफी भी व्यर्थ ही सिद्ध हुए… इतने निकट से अच्छी भली को जाते देखना बड़ा त्रासद रहा। आपकी पुस्तक लेकर घूमना प्रारम्भ किया पटना पहुँचने से आगे नहीं बढ़ पाया। माता की शुश्रूषा के लिए लखनऊ स्थानान्तरण माँगा था, मिला तो कोई अर्थ ही नहीं रहा। ज्वाईन करने पहुँचा ७ मई को और उसी दिन से भयानक त्वचा संक्रमण से जूझ रहा हूँ! कुछ बातें मन को कचोटती रहती हैं, उनमें से एक यह भी कि लेबंटी चाह पर कुछ लिख नहीं सका अब तक। चाहे जितना समय लगे, लिखना तो है ही।”
उनकी माताजी को गए अभी कुछ सप्ताह ही तो हुए थे। मैंने उनसे बारम्बार कहा था कि अभी सञ्कोच में पुस्तक पढ़ने को प्रथमिकता नहीं देना है बहुत काम होंगे आपके पास। तो उन्होंने जवाब दिया —
“सब हो जाएगा। इसी में सब चल ही रहा है। जीवन रुकता थोड़े है! टाइमिंग का लफड़ा रहेगा केवल।”
मेरी आँखें सरलता से नम नहीं होती। पर ये सन्देश देख रो पड़ा। हर बार। जीवन को ऐसे नहीं रुक जाना था।
वो मित्र थे, अग्रज थे, आचार्य थे, ऋषि थे। स्यात ही मैंने कुछ ऐसा लिखा हो जिसमें उनका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से योगदान नहीं था। “वर्तनी का अपराध अक्षम्य है आर्य” कहने वाले पता नहीं कैसे मघा के लिए लिखे मेरे लेखों को झेल जाते और सुधार कर देते। कभी कुछ नहीं कहा।
कितना कुछ अधूरा रह गया — मनु-ऊर्मि, बाऊ, मघा के अनगिनत लेख, मघा प्रकाशन, कोणार्क, आपका उपन्यास जिसे आपने कहा था कि आप कभी लिखेंगे जो मैनहैट्टन में चलता, जिसकी नायिका का नाम ग्रेटा होता और नायक बलिया में जन्मा।
इतनी भी क्या जल्दी थी? आप तो अपनी अनन्तता लिए अनन्त में विलीन हो गए… पर ऐसे अकस्मात! क्या समझें? आपने ही ये भी तो लिखा था।
“…नहीं पूरना मुझे वह कहानी,
मैं कुछ रखे हुए मारना चाहता हूँ।”
अभी समय ही कितना हुआ था आपने अपने माताजी के देहावसान के बाद लिखा था…
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास॥
तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव॥
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद॥
🙏 सनातन कालयात्री।