आदिकाव्य रामायण – 20 से आगे …
जब कोई मार्ग न सूझता हो तो आशङ्कित मन अनिष्ट कल्पनायें करने लगता है। हनुमान जी का मन भी करने लगा। मन ने मन को ही अनिर्वेद अर्थात उत्साह बनाये रखने का प्रबोध दे सँभाला था – अनिर्वेदः श्रियो मूलमनिर्वेदः परं सुखम् किंतु रावण के महल में बारम्बार इस प्रकार ढूँढ़ने पर भी कि चार अङ्गुल स्थान भी न बचने पाये – चतुरङ्गुलमात्रोऽपि नावकाशः स विद्यते, जानकी के न मिलने एवं अपने महा-अभियान के असफल होने की परिणति सोच मन रह रह बैठा जाता था।
मेरी असफलता के कारण सभी वानर अग्निप्रवेश कर लेंगे – ध्रुवम् प्रायम् उपेष्यन्ति कालस्य व्यतिवर्तने।
असफल मैं वृद्ध जाम्बवान एवं कुमार अङ्गद को क्या उत्तर दूँगा – किं वा वक्ष्यति वृद्धश्च जाम्बवानङ्गदश्च सः?
गृधराज ने तो कहा था कि सीता यहीं हैं किंतु हैं कहाँ? मन विकल हुआ, मानवीय दुर्वलता चढ़ बैठी। मारुति अकल्पनीय की कल्पना कर बैठे। मन राघवप्रिया के चार नामों का चीत्कार कर उठा – सीता, वैदेही, मैथिली, जनकात्मजा, जैसे न मिल पाने की क्षतिपूर्ति कर रहा हो! कहीं रावण की दुष्टता से विवश हो उसके साथ तो नहीं हो गयीं!
किं नु सीताथ वैदेही मैथिली जनकात्मजा।
उपतिष्ठेत विवशा रावणं दुष्टचारिणम् ॥
जिसे सोचना भी पाप था, मन ने जब वह सोच लिया तो सारे बंध टूट गये। मानों आशङ्काओं का सागर उमड़ पड़ा जिसकी लहरों में हर प्रकार के अचिंत्य अनिष्ट अठखेलियाँ खेल रहे थे। श्रीराम के बाणों के भय से भागते रावण के हाथों से खिसक कर गिर तो नहीं गईं? सिद्धों द्वारा सेवित आकाशमार्ग से नीचे समुद्र को देख मारे भय के सीता के प्राण तो नहीं निकल गये? महावेग से चलने एवं भुजाओं में दबी होने से (घुट कर) उनके प्राण तो नहीं निकल गये? या अपने शील की रक्षा करती अनाथ सीता को रावण ही खा गया होगा? अथवा हो सकता है कि सौतिया डाह के कारण राक्षसियों ने खा लिया हो। श्रीराम का ध्यान करती, हा राम, हा लक्ष्मण, हा अयोध्या करती वपुरी सीता ने शोक के आधिक्य के कारण प्राण त्याग दिये होंगे। अथवा यह भी सम्भव है कि पिंजरे में बंदी शारिका की भाँति रावण के निवास में बंदिनी बनी विलाप कर रही होंगी।
क्षिप्रमुत्पततो मन्ये सीतामादाय रक्षसः
बिभ्यतो रामबाणानामन्तरा पतिता भवेत्
अथ वा ह्रियमाणायाः पथि सिद्धनिषेविते
मन्ये पतितमार्याया हृदयं प्रेक्ष्य सागरम्
रावणस्योरुवेगेन भुजाभ्यां पीडितेन च
तया मन्ये विशालाक्ष्या त्यक्तं जीवितमार्यया
उपर्युपरि वा नूनं सागरं क्रमतस्तदा
विवेष्टमाना पतिता समुद्रे जनकात्मजा
आहो क्षुद्रेण चानेन रक्षन्ती शीलमात्मनः
अबन्धुर्भक्षिता सीता रावणेन तपस्विनी
अथ वा राक्षसेन्द्रस्य पत्नीभिरसितेक्षणा
अदुष्टा दुष्टभावाभिर्भक्षिता सा भविष्यति
संपूर्णचन्द्रप्रतिमं पद्मपत्रनिभेक्षणम्
रामस्य ध्यायती वक्त्रं पञ्चत्वं कृपणा गता
हा राम लक्ष्मणेत्येव हायोध्येति च मैथिली
विलप्य बहु वैदेही न्यस्तदेहा भविष्यति
अथ वा निहिता मन्ये रावणस्य निवेशने
नूनं लालप्यते मन्दं पञ्जरस्थेव शारिका
शारिका से ज्यों पञ्जर देह मध्य प्राण की सुध आई। कपि ने सुरूपा जानकी के कुल एवं रघुकुल से उनके सम्बंध का ध्यान कर मन को प्रबोध दिया कि ऐसी स्त्री रावण की वशवर्तिनी नहीं हो सकती!
जनकस्य कुले जाता रामपत्नी सुमध्यमा
कथमुत्पलपत्राक्षी रावणस्य वशं व्रजेत्
भुँइधरे में छिपाई जाने से नष्ट हुईं कि समुद्र में गिर जाने से कि शोकवश ही मृत हो गयीं! मैं राम सम्मुख ऐसा एक भी निवेदन नहीं कर सकता।
विनष्टा वा प्रनष्टा वा मृता वा जनकात्मजा
रामस्य प्रियभार्यस्य न निवेदयितुं क्षमम्
कहने में भी दोष है, न कहने में भी। कर्तव्य निश्चित कर पाना विषम समस्या है।
निवेद्यमाने दोषः स्याद्दोषः स्यादनिवेदने
कथं नु खलु कर्तव्यं विषमं प्रतिभाति मे
अकुलाहट में मन ने अनिष्टों की एक शृंखला ही प्रस्तुत कर दी – सीता देवी के बारे में ऐसा सुन श्रीराम प्राण त्याग देंगे। लक्ष्मण तब कहाँ बचने वाले? दोनों की मृत्यु सुन भरत भी मर जायेंगे। भरत की मृत्यु देख शत्रुघ्न भी प्राण त्याग देंगे। पुत्रों का अवसान देख मातायें कहाँ जीवित बचने वाली? श्रीराम की मृत्यु देख उनके प्रति कृतज्ञ सुग्रीव की भी वही स्थिति होगी, उनकी पत्नी रूमा भी प्राण त्याग देगी। बालि की मृत्यु के समय ही तारा मरने वाली थी, सुग्रीव के अवसान पश्चात वह कभी नहीं बचने वाली! अङ्गद इनके शोक में मर जायेंगे। ऐसा विनाश देख सिर धुनते सभी वानर भी प्राण त्याग देंगे। उनके परिवारी फाँसी लगा, विष खा, आग में कूद, पर्वत से कूद, उपवास कर या शस्त्र से स्वयं को नष्ट कर लेंगे।
मेरे खाली हाथ लौटने से घोर हाहाकार मच जायेगा – घोरमारोदनं मन्ये गते मयि भविष्यति!
कपि को पलायन सूझने लगा। मैं किष्किंधा नहीं जाऊँगा – सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्किन्धां नगरीमितः। वहाँ न जा कर यहीं वानप्रस्थ ले लूँ तो मेरे लौटने की आशा में सभी जीवित तो रहेंगे – आशया तौ धरिष्येते वानराश्च मनस्विन:… वानप्रस्थो भविष्यामि।
हनुमान जैसे महाउद्योगी को ऐसी सोच से कहाँ शांति मिलने वाली! चित्त ने करवट ली, आत्मघात की भावना प्रबल हो उठी – चिता में जल कर या प्रायोपवेश द्वारा इस देह का अंत कर दूँगा। मेरी शरीर को कुत्ते एवं कौवे नोच खायेंगे – शरीरं भक्षयिष्यन्ति वायसाः श्वापदानि च या ऐसी परिस्थिति में ऋषियों द्वारा बताई गई विधि जलप्रवेश कर अपने प्राण हर लूँगा – इदमप्यृषिभिर्दृष्टं निर्याणमिति मे मतिः। सम्यगापः प्रवेक्ष्यामि न चेत्पश्यामि जानकीम्॥
आत्महत्या महापाप है। नैराश्य के चरम पर अपनी कीर्ति का स्मरण जनकात्मजा सीता के ब्याज से हुआ। आदिकवि ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जिनसे हनुमान की विमल कीर्ति एवं सीता दोनों का शृंगार होता है – सुजातमूला सुभगा कीर्तिमाला यशस्विनी!
रात बीत गयी, सीता नहीं मिलीं, कीर्ति नष्ट हुई किंतु स्मरण मात्र ने कर्तव्य का ध्यान दिला मन को आत्मघात भाव से हटा कर तापस भाव में ला पटका – तापसो वा भविष्यामि। मैं जीवित रहूँगा क्योंकि विनाश में बहुत दोष हैं, जीवित रहने पर शुभप्राप्ति की आशा बनी रहती है।विनाशे बहवो दोषा जीवन्प्राप्नोति भद्रकम्
तस्मात्प्राणान्धरिष्यामि ध्रुवो जीवति संगमः
शोक आधिक्य में रावण का वध कर देने का विचार मन में आ पहुँचा, प्रतिशोध पूरा हो जायेगा या उसे पशु की तरह हाँकता हुआ ले जा कर श्रीराम को भेंट न कर दूँ!
रावणं वा वधिष्यामि दशग्रीवं महाबलम्
काममस्तु हृता सीता प्रत्याचीर्णं भविष्यति
अथवैनं समुत्क्षिप्य उपर्युपरि सागरम्
रामायोपहरिष्यामि पशुं पशुपतेरिव
श्रीराम को ही यहाँ न ले आऊँ! किंतु यहाँ आने पर सीता जी नहीं मिलीं तो वे क्रोधवश वानरों का नाश कर देंगे। अत: उचित है कि मैं यही रहूँ।
मन जाने कितने अनिष्टशिखरों का आरोहण अवरोहण कर चुका था। कोई विकल्प शेष नहीं था, इतना स्पष्ट हो गया था कि जीवन बचाते हुये वहीं रहना था। मन की धुंध कुछ छँटी, स्पष्टता आई तथा कपि की दृष्टि भी स्वच्छ हुई। विशाल वृक्षों से युक्त अशोकवनिका दिखी – अरे! इसमें तो मैंने ढूँढ़ा ही नहीं!
अशोकवनिका चापि महतीयं महाद्रुमा
इमामभिगमिष्यामि न हीयं विचिता मया
छूट गया विकल्प समक्ष था। कर्म की सम्भावनायें शेष थीं। आशा शेष थी। तपस्वियों के सिद्धि उद्योग ध्यान में आये। संकल्प के साथ देवों की स्मृति हो आई – वसून्रुद्रांस्तथादित्यानश्विनौ मरुतोऽपि च।
मानों पुन: आरम्भ कर रहे हों, बीता हुआ सब भूल गया। अशोकवनिका में प्रवेश पूर्व महाकपि वंदना करने लगे:
नमोऽस्तु रामाय सलक्ष्मणाय; देव्यै च तस्यै जनकात्मजायै
नमोऽस्तु रुद्रेन्द्रयमानिलेभ्यो; नमोऽस्तु चन्द्रार्कमरुद्गणेभ्यः
स तेभ्यस्तु नमस्कृत्वा सुग्रीवाय च मारुतिः
दिशः सर्वाः समालोक्य अशोकवनिकां प्रति
पहरा गहरा होगा, यह विचार कपि ने प्रहरियों की दृष्टि से बचने के लिये देह को संक्षिप्त कर लिया – संक्षिप्तोऽयं मयात्मा च रामार्थे रावणस्य च।
रामकाज की सिद्धि हेतु कपि जगत के समस्त आराध्यों के सामने नतमस्तक होते चले गये:
सिद्धिं मे संविधास्यन्ति देवाः सर्षिगणास्त्विह
ब्रह्मा स्वयम्भूर्भगवान्देवाश्चैव दिशन्तु मे
सिद्धिमग्निश्च वायुश्च पुरुहूतश्च वज्रधृत्
वरुणः पाशहस्तश्च सोमादित्यै तथैव च
अश्विनौ च महात्मानौ मरुतः सर्व एव च
सिद्धिं सर्वाणि भूतानि भूतानां चैव यः प्रभुः
दास्यन्ति मम ये चान्ये अदृष्टाः पथि गोचराः
विश्वास बली हुआ। कपि की कल्पना ने दर्शन इच्छा जताने के ब्याज से जैसे माता सीता के रूप का दर्शन मन ही मन कर लिया:
तदुन्नसं पाण्डुरदन्तमव्रणं; शुचिस्मितं पद्मपलाशलोचनम्
द्रक्ष्ये तदार्यावदनं कदा न्वहं; प्रसन्नताराधिपतुल्यदर्शनम्
पुलकित वज्राङ्ग महाकपि को अब कौन रोक सकता था? उन्होंने तो आत्मसंघर्ष कर स्वयं को भी जीत लिया था।
(क्रमश:)
धीर धरो रे मना! संध्योपासना करने सुंदर वर्ण वाली सीता नदी तट अवश्य आयेंगी।
संध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी
नदीं चेमां शिवजलां संध्यार्थे वरवर्णिनी