सुन्दरकाण्ड आदिकाव्य रामायण से – 24 से आगे …
तुम्हारे लोगों में कोई तुम्हारा भला चाहने वाला नहीं है- नूनं न ते जनः कश्चिदस्ति निःश्रेयसे स्थित:। क्योंकि तुम्हें कोई भी इस गर्हित कर्म से रोक नहीं रहा।
आत्मगौरव उनकी वाणी में उतर आया, “अधम राक्षस! राम की अमिततेजस्विनी भार्या के प्रति पापपूर्ण वचन कहने के पश्चात उसके दुष्परिणामों से बचने तू कहाँ जायेगा? राम मातङ्ग हैं तो तू नीच शशक, तेरा उनसे बैर लेना ऐसा ही है जैसे कोई शशक हाथी के साथ खिलवाड़ करे मातङ्गवद्रामस्त्वं नीच: शशवत् स्मृतः। अनार्य! अपनी जिन क्रूर विरूप काली पीली आँखें से तुमने मुझ पर बुरी दृष्टि डाली है, वे भूमि पर गिर क्यों नहीं पड़तीं! धर्मात्मा राम की पत्नी तथा दशरथ की पुत्रवधू के प्रति पापमय बातें करते तुम्हारी जीभ गल कर गिर क्यों नहीं पड़ती!
दशग्रीव! श्रीराम की अनुमति नहीं है, नहीं तो मैं तुम्हें अपने तप अनुपालन के तेज से भस्म कर दूँ- तपसश्चानुपालनात्। न त्वां कुर्मि दशग्रीव भस्म भस्मार्हतेजसा। विधि ने तुम्हारे वध हेतु ही तुमसे यह कर्म करवाया है, इसमें संशय नहीं- विधिस्तव वधार्थाय विहितो नात्र संशयः। तू तो शूर कहलाता है, कुबेर का भाई है, सैन्य बल में भी बढ़ा चढ़ा है, तो भी राम को क्यों छल से हटा कर तूमने स्त्री की चोरी की?”
यह सुन कर रावण के क्रूर नेत्र क्रोधवश विकृत हो गये। रावण के अस्तित्त्व की सारी महिमा जोकि कल्पवृक्ष सी थी, मूर्तिमान वसन्त ऋतु सी थी, भूषित होते हुये भी भयङ्कर लगने लगी मानो श्मशान में बना चैत्य हो! श्मशानचैत्यप्रतिमो भूषितोऽपि भयङ्करः।
रक्तलोचन हो सीताजी को देखते हुये उसने विषधर के समान फुफकारते हुये उत्तर दिया- उवाच रावणः सीतां भुजङ्ग इव निःश्वसन्,
(वाल्मीकि ने अवेक्षमाण के साथ वैदेही शब्द का प्रयोग किया है। रावण सुन्दर देह पर आसक्त था किन्तु सीता तो दैहिकता से मुक्त वैदेही थीं! उसकी कुदृष्टि से क्या होना था? उनके इस नाम के प्रयोग से कवि ने तिनके की ओट की प्रतीकात्मकता को बहुत गहराई दे दी है।)
“नीति एवं अर्थ से शून्य (राम) की अनुव्रती! तुम्हें मैं अभी वैसे ही नष्ट किये देता हूँ जैसे सूर्य सन्ध्या को ओज से रहित कर देता है- नाशयाम्यहमद्य त्वां सूर्यः सन्ध्यामिवौजसा।“
(पुन: शब्द प्रयोग दृष्टव्य है। श्रीराम का कुल सूर्यवंशी है। उन्हें शून्य तथा सीता को सन्ध्या बता रावण द्वारा स्वयं को सूर्य बता उसके संहारक प्रभाव का वर्णन प्रतीप प्रभाव का सृजन करता है। साथ ही यह सङ्केत भी देता है कि रावण ने सब कुछ जानते बूझते हुये सीता अपहरण का कुकृत्य किया था।)
इत्युक्त्वा मैथिलीं राजा रावणः शत्रुरावणः, इस प्रकार रावण ने, जो कि राजा है तथा शत्रुओं को रुलाने वाला भी है, मैथिली को धमकाया। (रावण शब्द का दुहरा प्रयोग अनोखे प्रभाव का जनक है।)
यथा मद्वशगा सीता क्षिप्रं भवति जानकी। तथा कुरुत राक्षस्यः सर्वाः क्षिप्रं समेत्य च॥
प्रतिलोमानुलोमैश्च सामदानादिभेदनैः। अवर्जयत वैदेहीं दण्डस्योद्यमनेन च॥
उल्टा सीधा, साम, दाम, दण्ड, भेद उद्यम; चाहे जैसे हो, सीता को मेरे वश में करो।”
(क्षिप्रं का दो बार प्रयोग जहाँ रावण के उतावलेपन को रेखाङ्कित करता है, वहीं सीता एवं जानकी दोनों शब्द उसकी रुकावट बने क्रमश: धैर्य एवं स्थितप्रज्ञता को। दण्ड के लिये वैदेही संज्ञा के प्रयोग द्वारा रावण जैसे कहना चाह रहा है कि बहुत मानती है अपने को देह भाव से परे, देखें कि दण्ड प्रहार कैसे सहती है!)
उस राक्षस ने पुन: पुन: प्रहरी राक्षसियों को यह चेताया- इति प्रतिसमादिश्य राक्षसेन्द्रः पुनः पुनः। वह कामपीड़ित जब सीता को घुड़कने लगा तो धान्यमालिनी उससे आ लिपटी, “महाराज! आप मेरे साथ विहार करें। यह सीता आप के किस काम की। यह तो विवर्णा है, दीन मानुषी है।
जो नहीं चाहती उसकी चाहना से पुरुष का शरीर सन्तप्त रहता है, शोभन प्रीति की लब्धि से उसे होती है जो कामना रखने वाली की कामना करता है- अकामां कामयानस्य शरीरमुपतप्यते। इच्छन्तीं कामयानस्य प्रीतिर्भवति शोभना॥”
इस प्रकार खींच कर वहाँ से ले जाया जाता रावण मुड़ कर हँसा तथा अपने निवास को चल पड़ा। सीता वही थीं, विजयिनी – स मैथिलीं धर्मपरामवस्थितां।
रावण की शोभा का वर्णन करते हुये वाल्मीकि जी ने पहले ही लिखा है- चलाग्रमकुटः प्रांशु -चलायमान अग्रभाग वाले मुकुट के कारण ऊँचा दिखता हुआ। जाने क्या सङ्केत कर चुके थे!
(क्रमश:)