सावित्री के तर्क सुनकर धर्मराज किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए, इस वाक्य में एक शब्द है- किंकर्तव्यविमूढ। यह एक शब्द न हो कर तीन शब्दों का समूह है- किम् +कर्तव्य+विमूढ।
इस शब्द के प्रत्येक घटक शब्द को देखते हैं :
किम्
यह दो प्रकार से प्रयोग किया जाता है।
(१) अव्यय रूप में :
(अ) ‘क्या’ अर्थ को प्रकट करता है। जैसे- त्वं किं पठसि? (तुम क्या पढ़ रहे हो?)
लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः,
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम् ।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः,
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना ॥
[नीति शतक, भर्तृहरि]
यदि लोभ है तो अन्य दुर्गुण की क्या आवश्यकता है? यदि चुगली करना स्वभाव है तो और पातकों का क्या काम? यदि जीवन में सत्य है तो तप करने की क्या आवश्यकता? यदि मन शुद्ध और पवित्र है तो तीर्थों में भटकने का क्या लाभ? यदि प्रेम है तो और गुणों की क्या आवश्यकता? यदि यश है तो आभूषणों की क्या आवश्यकता? यदि सद् विद्या है तो धन की क्या आवश्यकता? यदि अपयश है तो मृत्यु की क्या आवश्यकता?
(आ) किम् का ह्रास, दोष, कलङ्क, निन्दा आदि भावों को व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया जाता है। जैसे- किंसखा (कुत्सित मित्र), किन्नर: (विकृत पुरुष), किंपुरुष (घृणा योग्य अथवा विकृत मनुष्य) आदि।
(२) सर्वनाम के रूप में :
किम् सर्वनाम के रूप में भी प्रयुक्त होता है। सर्वनाम में इसके रूप लिङ्गानुसार इस प्रकार होते हैं-
(अ) पुल्लिङ्ग – क: (आ) स्त्रीलिङ्ग – का (इ) नपुंसक लिङ्ग – किम्। (=कौन, क्या)। जैसे-
का ते कान्ता कस्ते (क: ते) पुत्रः, संसारोऽयं अतीव विचित्रः।
कस्य त्वं कः कुत आयातः तत्त्वं चिन्तय यदिदं भ्रातः ॥
[द्वादशमञ्जरिका]
तेरी पत्नी कौन है? तेरा पुत्र कौन हैं? यह संसार विचित्र है? तुम किसके (अंश) हो, कौन हो और कहाँ से आए हो? हे भाई! इसका विचार करो।
कर्तव्य
दूसरा शब्द है- कर्तव्य। यह कृ धातु से बना शब्द है, जिसका अर्थ है ‘करना’। कृ धातु में तृच् प्रत्यय जोड़ने पर शब्द बनता है, कर्ता अर्थात् (क्रिया) करने वाला, निर्माता, ब्रह्मा, परब्रह्म आदि। इसी कृ से बनता है शब्द कृति (कृ+ क्तिन्) अर्थात् रचना। इस कृति में मप् प्रत्यय जोड़ने पर मिलता है शब्द कृत्रिम (कृष्ण+क्तिन्+मप्) अर्थात् काल्पनिक अथवा बनावटी।
कृ में तव्यत् प्रत्यय जोड़ने पर कर्तव्य शब्द मिलता है जिसका अर्थ होता है- करने योग्य, करना चाहिए, धर्म।
[ध्रियते लोकोऽनेन धरति लोकं इति धर्म: = संसार के/लोगों द्वारा धारण किया गया आचार/व्यवहार धर्म है।
अथवा
धार्यते इति धर्म: अर्थात् जिन कर्मों अथवा दायित्वों को स्वेच्छा से धारण/स्वीकार किया जाय वही धर्म है। हमारा धर्म Religion नहीं है।]
विमूढ (संस्कृत में ढ़ वर्ण नहीं है)
विमूढ शब्द मुह् धातु से बना है। इसी मुह् धातु से मोह एवं मुग्ध शब्दों की रचना भी होती है। वि+मुह्+क्त से बने इस विमूढ शब्द के अर्थ है- मोहित, भ्रान्त, मन्दबुद्धि, विचलित, घबराया हुआ, व्याकुल, जड़ आदि।
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः । अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
[श्रीमद्भगवद्गीता, ३-२७]
अर्थात् जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं ।
पुनः आते हैं हमारे किंकर्तव्यविमूढ शब्द पर। तीनों शब्दों के अर्थ क्रमशः लिखने पर होता है- क्या, करना चाहिए, भ्रान्त/ जड(ड़)। अर्थात् जब कर्ता इसका निर्णय ही न कर पाए कि क्या करे, क्या न करे? कह सकते हैं कि कर्ता धर्मसङ्कट में पड़ जाए तो कहलाता है-किंकर्तव्यविमूढ।
जैसे माता के गुण सन्तति में परिलक्षित होते ही हैं। कोई यह नहीं कह सकता कि मेरे गुण माता ने ग्रहण किए। इसी प्रकार उपर्युक्त शब्द मूलतः संस्कृत का ही है। अन्य भारतीय भाषाओं में मिलना सुखद हो सकता है; किन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी भारतीय भाषा से संस्कृत में ग्रहण किया गया है। संस्कृत जननी है।
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संस्कृत वाङ्मय में विमूढबुद्धि, विमूढचेता जैसे प्रयोग मिलते हैं। राजतरङ्गिणि का यह प्रयोग देखें –
किंं अन्तरेण तद्धूममालान्ध्यं प्रोन्मिषदृशः । मार्गामार्गविभागस्य परिज्ञाने विमूढता ॥
कथासरित्सागर में यह प्रयोग मिलता है – स कर्तव्यविमूढः सन्नुपाध्यायगृहं ययौ।
Joshi Sir,
Aapko Bahut Bahut Saadhuvaad. Bahut khoobsurati se samjhaya aapne.
Aanand prapti hui.