ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी या ढोल गँवार शूद्र पशु नारीपिछली कड़ियाँ : 1 , 2 , 3 , 4, 5, 6 , 7, 8, 9, 10, 11 , 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19 से आगे …
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी
(१) मार्गशीर्ष मास वि. संवत १८६७ [शक १७३२, 1810 ग्रे.] की छपी हुई रामचरितमानस की एक २०८ वर्ष पुरानी प्रति में प्रकाशक का नाम तो नहीं है किन्तु आमुख में ही उसके प्रकाशन की तिथि एवं सम्बद्ध जन बाबू राम एवं सदल मिश्र के नाम संस्कृत भाषा में दिये हुये हैं। गीताप्रेस का प्रचलित संस्करण इससे प्राय: सवा सौ वर्ष पश्चात प्रकाशित हुआ था।
(२) आषाढ़ मास वि. सं. १९३३ [शक १७९९, 1877 ग्रे. ] में मुम्बई (मंमई) से प्रकाशित तुलसीदास कृत रामचरितमानस की एक, १४१ वर्ष पुरानी, प्रति मिली है। यह हाथ से लिखी हुई है किन्तु चित्र तकनीक से छापाखाने में छपी हुई है। लेखक अपना परिचय ‘पूरणकवित्त’ में इस प्रकार दिये हैं :
रामकोगुलाम/नाम/देससिंह/वयस/वंस/छत्रि/जाति/वसोवासअंत्रवेदिजानिये॥
ग्रामनाम/नगवा/है/पंचकोस/कानपुर/तीनकोस/जाजमऊ/सिद्धिनाथमानिये॥
नव/कोस/ब्रह्मावर्त्त/वसे/वालमीक/जहां/रामसुतसियाजुत/लोकसबरवानिये॥
सेवकोस/वृंदावन/साठि/कोस/प्रागराज/असी/कोस/औधपुर/रामसुखदानिय॥
[मूल पाण्डुलिपि में शब्दों के बीच रिक्त स्थान नहीं छोड़े गये हैं। यहाँ ‘/’ चिह्न स्पष्टता हेतु लगाया गया है।]
उल्लेखनीय है कि देशसिंह ने अपने गाँव की स्थिति कानपुर एवं जाजमऊ से तो बताई ही है, तब तीर्थस्थानों का कितना मान था, यह भी दर्शाया है। लोग तीर्थस्थलों के सापेक्ष भी अपने गाँव की भौगोलिक स्थिति जानते बताते थे। भारत की सांस्कृतिक (एवं भौगोलिक भी) एकता का यह महत्त्वपूर्ण सूत्र है।
देशसिंह बताते हैं कि उनके यहाँ से वाल्मीकि का ब्रह्मावर्त्त नौ कोस, वृन्दावन सेव(सौ?) कोस, प्रयागराज साठ कोस एवं अयोध्या अस्सी कोस की दूरी पर हैं।
देशसिंह ने अपना गोत्र बैस (वत्स?) एवं जाति क्षत्रिय बताई है। वसोवास अंत्रवेदि का सम्बन्ध सम्भवत: उस मूल स्थान से हो सकता है जहाँ से उनके पुरखे नगवा गाँव आ कर बस गये थे। पुरखे, कुल, मूल स्थान, गाँव गिराम एवं तीर्थस्थान – भारत अपने अभिज्ञान के बारे में बहुत जागृत था। आश्चर्य नहीं कि जो लोग कभी विदेश जा कर बस गये, उनकी संतानें आज भी अपना मूल ढूँढ़ने भारत में आ कर भटकती हैं।
उल्लेखनीय है कि देशसिंह की ‘तुलसी रामायण’ का प्रकाशन प्रथम स्वतन्त्रता सङ्ग्राम के बीस वर्षों पश्चात हुआ था अर्थात कम्पनी के स्थान पर देश ब्रिटिश राजतन्त्र के अधीन हो चुका था। देशान्तर प्रवजन की यह स्थिति थी कि उत्तर पश्चिमी प्रान्त अवध (वर्तमान उत्तरप्रदेश) के एक निवासी के हाथ की लिखी तुलसीरामायण मुम्बई में छपी।
लिपि देखें तो ‘उ’ की मात्रा अक्षर के नीचे न लगा कर पार्श्व में लगायी गयी है, ड़ एवं ढ़ के स्थान पर ड एवं ढ हैं तथा न के स्थान पर ण के प्रयोग भी हुये हैं; ये नागरी लिपि के विकास एवं वैविध्य को दर्शाते हैं।
इतनी पुरानी प्रतियों के मिलने पर एक सहज उत्सुकता होती है कि प्रचलित मानस की चर्चित चौपाई – ‘ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी ॥‘ का इनमें क्या रूप है?
देख कर आश्चर्य होता है कि दोनों ही पोथियों में उस चौपाई का रूप यह है :
ढोल गवार क्षुद्र पशु नारी । ये सब ताडन के अधिकारी ॥
दूसरी अर्द्धाली का रूप गीताप्रेस के पाठ से भिन्न है। ध्यातव्य है कि लोक में दूसरी अर्द्धाली का यह रूप अधिक प्रचलित है किन्तु जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, वह है सूद्र (शूद्र) के स्थान पर क्षुद्र का प्रयोग। एक अक्षर के परिवर्तन से अर्थ तो परिवर्तित होता ही है, एक पूरा इतिहास समा गया है !
कुछ अन्य प्रतियों में देखते हैं :
1. खेमराज प्रकाशन [1851 ग्रे.], खेमराज श्रीकृष्णदास, वेङ्कटेश्वर स्टीम प्रेस, बम्बई, सं, १९५८ [1901 ग्रे.]
ढोल गँवार शूद्र पशु नारी। ये सब ताड़नके अधिकारी ॥
इसमें शूद्र एवं पशु के ‘श’ पर ध्यान दें तथा चन्द्रबिन्दु के स्थान भेद पर भी। अवधी में ‘श’ का प्रयोग नहीं होता। इसकी दूसरी अर्धाली गीताप्रेस से भिन्न है।
2. 1875 ग्रे. के गुजराती काव्यानुवाद में भी शुद्र पाठ ही है।
3. नवलकिशोर बुक डिपो, लखनऊ (लवकुशकाण्ड सहित) (सातवाँ संस्करण, 1924 ग्रे.) :
ढोल गँवार शूद्र पशु नारी। ये सब ताड़नके अधिकारी ॥
4. अंग्रेजी अनुवाद, ड्बल्यू डगलस पी. हिल, 1952 ग्रे., Geoffery Cumberlege, Oxford University Press, Printed in India by Norman A. Ellis, Baptist Mission Press, Calcutta
इस प्रति में Śudra पाठ ही है।
5. 1936 ग्रे. में प्रकाशित एक सज्जन रामनरेश की टीका में मोहनदास गांधी का पत्र पाठ लगा हुआ है जिसमें गान्धी ने उनके अनुवाद में श्रद्धा प्रकट की है। इसमें उक्त चौपाई का गीताप्रेस वाला पाठ यथावत है। 1936 ग्रे. तक गीताप्रेस ने कल्याण विशेषाङ्क में मानस प्रकाशित कर दिया था।
6. गान्धी के जन्म के वर्ष 1869 ग्रे. में ही ‘बनारस’ से ‘तुलसीदास कृत रामायन’ छपी जिसके बारे में यह सूचना लिखी हुई है :
इस वाक्य से पता चलता है कि हिन्दी का वर्तमान रूप तब विकासशील अवस्था में था। दुर्भाग्य से इस प्रति से वह पृष्ठ लुप्त है जिसमें उक्त चौपाई थी। यदि मिल जाय तो बहुत ही उपयोगी साक्ष्य होगा।
इस चौपाई को गरुड पुराण के इस श्लोक से प्रेरित बताया जाता है :
दुर्जनाः शिल्पिनो दासा दुष्टाश्च पटहाः स्त्रियः । ताडिता मार्दवं यान्ति न ते सत्कारभाजनम् ॥ १,१०९.३१ ॥ [गरुडपुराण, नीतिसार]
उल्लेखनीय है कि अन्यत्र संदर्भों में दास, दासी एवं शिल्पी को राजा, राजसेवक, वैद्य, ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मचारी, सत्री, व्रती आदि के साथ साथ सद्य:शौच वाला बताया गया है अर्थात इन पर सूतक की अशौच अवधि लागू नहीं होती :
कारवः शिल्पिनी वैद्य दासीदासास्तथैव च । राजानो राजभृत्याश्च सद्यःशौचाः प्रकीर्तिता ॥
[प्रचेता, उद्धृत मिताक्षरा संहिता, याग्यवल्क्य स्मृति]
कारवः शिल्पिनो वैद्या दासीदासास्तथैव च । दातारो नियमाच्चैव ब्रह्मविद्ब्रह्मचारिणौ ।
सत्रिणो व्रतिनस्तावत् सद्यः शौचम् उदाहृतम् ॥ [कूर्मपुराण, उत्तरखण्ड, २३.५७]
इन्हें भी सूतक के निषेधों में सम्मिलित करने पर समस्त कार्य ठप्प पड़ जायेंगे। उल्लेखनीय है कि इनमें शूद्र शब्द प्रयोग नहीं है, शिल्पी एवं दास दासी शब्द हैं। आधुनिक नैतिक औचित्य बोध के स्थान पर इस प्रकार के विधान एवं मान्यतायें पुरुष नेतृत्त्व वाले समाज के शताब्दियों में विकसित उस व्यावहारिक पक्ष को अभिव्यक्त करती हैं जो आगे विकृतियों से भी ग्रस्त हुआ।
अन्य कुछ संस्करणों को देखने से ये बातें स्पष्ट होती हैं :
(1) कुछ पुरानी प्रतियों में क्षुद्र पाठ है, शूद्र नहीं। सम्भव है कि लोकवाणी में ये दोनों पाठ प्रचलित रहे हों।
(2) गीताप्रेस से पूर्व के पाठ दूसरी अर्द्धाली में ‘सकल ताड़ना के अधिकारी’ के स्थान पर ‘ये सब ताड़न के अधिकारी’ ही रखते हैं। इस चौपाई का विश्लेषण पूर्वार्द्ध के स्थान पर उत्तरार्द्ध पर आधारित होना चाहिये जो कि एक भाषिक कुञ्जी है। तुलसीदास की मानस में भाषा ब्रजावधी कही जाती है। उनकी भाषा पर भोजपुरी, खड़ी बोली एवं हिन्दी क्षेत्र की अन्य भाषाओं का भी प्रभाव है, संस्कृत तत्सम को अवधी में स्थान दिलाने में वह अग्रणी थे ही।
‘सकल’ शब्द देखें तो संस्कृत प्रभाव लगता है किन्तु पुराना ‘ये सब’ पाठ खड़ी बोली के निकट है। पुराने या कहें तो गीताप्रेस के पूर्व के अंकों में समान रूप से ‘ये सब ताड़न के अधिकारी’ पाया जाना एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। क्या तुलसीदास ने ऐसा भाषिक प्रयोग अन्यत्र कहीं किया है? प्रश्न बढ़ते ही जाते हैं। जो पुराने संस्करण हैं, वे प्राय: क्षेपकों के साथ रामचरितमानस प्रकाशित किये हैं जिनमें लवकुशकाण्ड या रामाश्वमेधलवकुशकाण्डम् जैसे संस्कृत नाम वाले आठवें सोपान तो हैं ही, अहिरावण, नरान्तक इत्यादि अनेक प्रसङ्ग हैं जिन्हें क्षेपक नाम से ही छापा गया है। गीताप्रेस की प्रति में क्षेपक प्रसङ्ग नहीं मिलते।
कम्पनी एवं ब्रिटिश सरकार की ‘फूट डालो एवं राज करो’ की नीति अनुसार ‘शूद्र’ पर अत्याचारों का नरेटिव स्थापित करते समय इस चौपाई के साथ छेड़छाड़ तो नहीं की गयी?
या कहीं ऐसा तो नहीं कि यह चौपाई अंश ‘ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी’ तुलसीदास रचित मूल रामचरितमानस में थी ही नहीं? वाल्मीकीय रामायण में इस अर्थ का कोई श्लोक नहीं है।
ज्ञान का अथाह समुद्र है
महाशय, बहुत दिन से मेरे अज्ञान और दुर्भाग्य से इस तथ्य से अनिभिज्ञ रहा । साधुवाद, आपने दिशा दी, और तथाकथित व्यख्या जो की राजनितिक है, उसका खंडन किये बिना बहुत ही सुन्दर रूप से अपने अध्ययन को साझा किया है ।
नमस्कार स्वीकार करें ।
क्या क्षुद्र और शूद्र भिन्न है? मैं अब तक शूद्र/ सूद्र को क्षुद्र का अपभ्रंश ही समझता आया था. कृपया समाधान करें.
क्षुद्र a. [क्षुद्-कर्तरि रक्] (compar. क्षोदीयस्; superl. क्षोदिष्ठ) 1 Minute, small, tiny, little, trifling. -2 Mean, low, vile, base
शूद्रः [शुच्-रक् पृषो˚ चस्य दः दीर्घः Uṇ.2.19] A man of the fourth or the last of the four principal Varṇa-s.