चीन की सीमायें भारत से नहीं मिलतीं, तिब्बत की मिलती हैं। यदि आप मानचित्र देखें तो समझ पायेंगे कि सारी उत्तरी सीमा पर तिब्बत चीन एवं भारत के बीच एक ‘बफर’ था। बौद्ध धर्म चीन एवं तिब्बत दोनों को भारत से मिला। भारत एवं चीन दोनों अति प्राचीन सभ्यतायें हैं एवं उनके आपसी सांस्कृतिक सम्बंध भी बहुत पुराने रहे। चीन द्वारा तिब्बत हड़पे जाने के साथ ही भारत एवं चीन की ‘पिछड़ेपन’ वाली समानतायें समाप्त होने लगीं, चीन आगे बढ़ने लगा। देखें तो चीन के विकास में तिब्बत का कोई योगदान रहा हो, ऐसा नहीं लगता। चीनी शासन के बढ़ते आत्मविश्वास, सोच में आधारभूत परिवर्तन एवं भौतिक स्तर पर बड़े प्रयोगों का एक लक्षण ‘तिब्बत का हड़पा जाना’ था।
तब से ब्रह्मपुत्र एवं गङ्गा में बहुत पानी बह चुका है तथा आज जो स्थिति है उससे स्पष्ट है कि भारतीय नेतृत्त्व ने चीन से कुछ नहीं सीखा। बहुधा वहाँ के कठोर साम्यवादी शासन की बातें होती हैं, विभिन्न ‘मार्चों’ में व्यापक जनहानि की भी होती हैं एवं इसकी भी कि वहाँ नागरिक स्वतंत्रता नहीं है। ये सब काहिलों के बहाने हैं। सीधा सा प्रश्न है – कोई भी देश अपने नागरिकों का दमन करते हुये आर्थिक, सैन्य, सामरिक, राजनीतिक, तकनीकी, जीवन स्तर इत्यादि सभी मोर्चों पर इतने कम समय में इतना आगे कैसे निकल सकता है? जो लोग दमन इत्यादि की बातें करते हैं, सम्भवत: उन्होंने जीवन स्तर के विभिन्न गणना बिंदुओं के आधार पर दोनों देशों की तुलना नहीं की होती। चीन हर बिंदु में हमसे आगे है, बहुत आगे।
अनुशासन सुनिश्चित करते हुये उन लोगों ने समय के अनुसार अपने को ढाला एवं आगे बढ़ते रहे। साम्यवादी कठोरता कहें या नियंत्रण, उनके लिये वरदान सिद्ध हुआ। कथित नागरिक स्वतंत्रता से भारतीय नागरिकों ने क्या पाया? शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन स्तर, पोषण इत्यादि के जो मानक एक विकसित देश को विकासशील से श्रेष्ठ सिद्ध करते हैं, क्या बीते 70 वर्षों में उनकी गति आवश्यकता अनुसार रही या ‘घाटे की व्यवस्था’ ही चलती रही – योजनायें ऊँची ऊँची, लब्धियाँ नीची नीची?
सोचने में वस्तुनिष्ठ होना चाहिये, हमारा सोचा हुआ न कोई सुनता है, न जानता है। यदि भारत देश के नागरिक निष्पक्षता के साथ सोचें तो पायेंगे कि उन्हें बहुत कम मिला एवं लूट ने जाने कितने नवसामन्त घराने स्थापित कर दिये। जो हुआ या जो हो रहा है उसका उत्तरदायित्त्व पूर्णत: भारतीय जन पर है क्योंकि चरित्र है नहीं एवं उसके अभाव में अनुशासन सुनिश्चित करने के लिये तंत्र यदि डण्डा चलाये तो प्रतिरोध में चौराहे के मोर्चे एवं आगजनी से ले कर न्यायालय तक सब खुले हुये हैं।
ऐसी बातें एकाङ्गी, एकपक्षीय, झोल झाल वाली लग सकती हैं किंतु नहीं लगता कि हम सब केवल संतुलित बातें ही करते रहे, व्यवहार पूर्णत: बातों के विरुद्ध रहा एवं जिसे जितना जैसा अवसर मिला उसने भ्रष्टाचार की मलाई काटी? कुछ जो अधिक चतुर थे, अधिक बना ले गये, बना रहे हैं, सूक्ष्म से विराट तक लूट की प्रतियोगिता आज भी भारत में चल रही है?
भारतीय जन का एक बहुत बड़ा वर्ग या तो पाकिस्तान से अपनी तुलना कर गद्गद रहता है या अपनी प्रांतीयता या क्षेत्रीय स्वायत्तता को सबसे ऊपर रखता है। मजहबियों के लिये मजहब तो सर्वोपरि है ही। लोकतंत्र के नाम पर हमने जो स्वामी-कुत्ता तंत्र विकसित कर लिया है उसमें हड्डी फेंकने वाले अत्यल्प, हड्डी की छिछोड़ से रिसते अपने ही रक्त के स्वाद से तृप्त बहुसंख्य जन पर शासन करते रहे हैं। चाहे जैसी स्थिति हो, श्वानों को हड्डी छिछोड़ने एवं भोंकने की स्वतंत्रता चाहिये ही चाहिये। नवसामंत वर्ग इसे बहुत अच्छी तरह से समझता है एवं अपने हित उपयोग करता रहता है।
क्या करना ऐसी स्वतंत्रता का जिसमें लोग टुच्चे कृत्य कर के निहाल हैं? नहीं लगता कि पिछले वर्षों ने हमें ऐसा बना दिया है कि हम निर्बाध स्वतंत्रता के योग्य रहे ही नहीं? जनसमूह के स्तर पर देखें तो हम स्वतंत्रता का अर्थ तक नहीं जानते एवं बातें सत्ता एवं अधिकार के विकेंद्रीकरण की करते हैं, रहे हैं?
कहने वाले कहेंगे कि भारत अनेक ‘राष्ट्रीयताओं’ का संघ है। ‘अनेक राष्ट्रीयताओं वाली बातें’ आज अति-बुद्धिविलासी वर्ग के विमर्श के केंद्र में है। खण्ड खण्ड करने की मंशा वाली इन बातों पर आपत्ति बहुत कम दिखती है किंतु स्वतंत्रता के वेश में जड़ जमा चुकी उच्छृंखलता को सीमित करने की बात कर के देखिये, लगेगा कि जैसे सबको सूली पर चढ़ाने की तैयारी हो रही है! इसे सोच का विकृत अनुकूलन कहते हैं। संसार के किस विशाल एवं पुराने देश में ऐसी अनेक कथित ‘राष्ट्रीयतायें’ नहीं हैं? चीन जैसा विशाल देश हो या सिंगापुर जैसा लघु देश, भिन्न राष्ट्रीयताओं के रहते हुये भी वे कठोर एवं सफल केंद्रीकृत राज्य हैं या नहीं?
किसी भी राज्य तंत्र की सफलता की एकमात्र कसौटी जन का जीवन स्तर है। यदि वह ठीक है एवं क्षमता भर भरपूर गति से अभिवृद्धि की ओर विकासमान है तो कथित स्वतंत्रता कोई महत्त्व नहीं रखती। भारतीय मॉडल की ‘स्वतंत्रता’ वस्तुत: मानसिक दासता ही है, घर में भी एवं घर से बाहर राष्ट्र की सीमाओं तक भी, उलझा हुआ छ्द्म जिसने अच्छे अच्छों के मस्तिष्क पर जाल डाला हुआ है। क्षेत्रीय स्वायत्तता, विकेंद्रीकरण, जन अधिकार के कोलाहल बीच यह आवश्यक हो चला है कि ‘स्वतंत्रता’ के इस असफल मॉडल पर पुनर्विचार हो। हमें सफल एशियाई देशों से सीखना ही होगा। हमारी ‘स्वतंत्रता’ हमें रसातल में ले जा रही है! जनतंत्र को जन हेतु अर्थात स्वयं द्वारा स्वयं हेतु नियंत्रण एवं विनय के तंत्र विकसित करने ही होंगे। अब भी समय है!