गुरग्रन्थ में ‘मुक्ति’ हेतु ‘खलासी’ शब्द शताधिक बार दुहराया गया है किन्तु मूल के ही गड़बड़ होने के कारण खालिस्तानी आतङ्की द्वेष व मिथ्या श्रेष्ठताबोध के विष से ‘खलासी’ पायेंगे, इसमें शङ्का ही शङ्का है।
आसा महला १ ॥ खुरासान खसमाना कीआ हिंदुसतानु डराइआ ॥ आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ ॥ एती मार पई करलाणे तैं की दरदु न आइआ ॥१॥ करता तूं सभना का सोई ॥ जे सकता सकते कउ मारे ता मनि रोसु न होई ॥१॥ रहाउ ॥ सकता सीहु मारे पै वगै खसमै सा पुरसाई ॥ रतन विगाड़ि विगोए कुतीं मुइआ सार न काई ॥ आपे जोड़ि विछोड़े आपे वेखु तेरी वडिआई ॥२॥ जे को नाउ धराए वडा साद करे मनि भाणे ॥ खसमै नदरी कीड़ा आवै जेते चुगै दाणे ॥ मरि मरि जीवै ता किछु पाए नानक नामु वखाणे ॥३॥५॥३९॥
{पन्ना ३६०}
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रागु आसा महला १ असटपदीआ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
जिन सिरि सोहनि पटीआ मांगी पाइ संधूरु ॥ से सिर काती मुंनीअन्हि गल विचि आवै धूड़ि ॥ महला अंदरि होदीआ हुणि बहणि न मिलन्हि हदूरि ॥१॥ आदेसु बाबा आदेसु ॥ आदि पुरख तेरा अंतु न पाइआ करि करि देखहि वेस ॥१॥ रहाउ ॥ जदहु सीआ वीआहीआ लाड़े सोहनि पासि ॥ हीडोली चड़ि आईआ दंद खंड कीते रासि ॥ उपरहु पाणी वारीऐ झले झिमकनि पासि ॥२॥ इकु लखु लहन्हि बहिठीआ लखु लहन्हि खड़ीआ ॥ गरी छुहारे खांदीआ माणन्हि सेजड़ीआ ॥ तिन्ह गलि सिलका पाईआ तुटन्हि मोतसरीआ ॥३॥ धनु जोबनु दुइ वैरी होए जिन्ही रखे रंगु लाइ ॥ दूता नो फुरमाइआ लै चले पति गवाइ ॥ जे तिसु भावै दे वडिआई जे भावै देइ सजाइ ॥४॥ अगो दे जे चेतीऐ तां काइतु मिलै सजाइ ॥ साहां सुरति गवाईआ रंगि तमासै चाइ ॥ बाबरवाणी फिरि गई कुइरु न रोटी खाइ ॥५॥ इकना वखत खुआईअहि इकन्हा पूजा जाइ ॥ चउके विणु हिंदवाणीआ किउ टिके कढहि नाइ ॥ रामु न कबहू चेतिओ हुणि कहणि न मिलै खुदाइ ॥६॥ इकि घरि आवहि आपणै इकि मिलि मिलि पुछहि सुख ॥ इकन्हा एहो लिखिआ बहि बहि रोवहि दुख ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ नानक किआ मानुख ॥७॥११॥
{पन्ना ४१७}
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आसा महला १ ॥ कहा सु खेल तबेला घोड़े कहा भेरी सहनाई ॥ कहा सु तेगबंद गाडेरड़ि कहा सु लाल कवाई ॥ कहा सु आरसीआ मुह बंके ऐथै दिसहि नाही ॥१॥ इहु जगु तेरा तू गोसाई ॥ एक घड़ी महि थापि उथापे जरु वंडि देवै भांई ॥१॥ रहाउ ॥ कहां सु घर दर मंडप महला कहा सु बंक सराई ॥ कहां सु सेज सुखाली कामणि जिसु वेखि नीद न पाई ॥ कहा सु पान त्मबोली हरमा होईआ छाई माई ॥२॥ इसु जर कारणि घणी विगुती इनि जर घणी खुआई ॥ पापा बाझहु होवै नाही मुइआ साथि न जाई ॥ जिस नो आपि खुआए करता खुसि लए चंगिआई ॥३॥ कोटी हू पीर वरजि रहाए जा मीरु सुणिआ धाइआ ॥ थान मुकाम जले बिज मंदर मुछि मुछि कुइर रुलाइआ ॥ कोई मुगलु न होआ अंधा किनै न परचा लाइआ ॥४॥ मुगल पठाणा भई लड़ाई रण महि तेग वगाई ॥ ओन्ही तुपक ताणि चलाई ओन्ही हसति चिड़ाई ॥ जिन्ह की चीरी दरगह पाटी तिन्हा मरणा भाई ॥५॥ इक हिंदवाणी अवर तुरकाणी भटिआणी ठकुराणी ॥ इकन्हा पेरण सिर खुर पाटे इकन्हा वासु मसाणी ॥ जिन्ह के बंके घरी न आइआ तिन्ह किउ रैणि विहाणी ॥६॥ आपे करे कराए करता किस नो आखि सुणाईऐ ॥ दुखु सुखु तेरै भाणै होवै किस थै जाइ रूआईऐ ॥ हुकमी हुकमि चलाए विगसै नानक लिखिआ पाईऐ ॥७॥१२॥
{पन्ना ४१७-४१८}
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तिलंग महला १ ॥ जैसी मै आवै खसम की बाणी तैसड़ा करी गिआनु वे लालो ॥ पाप की जंञ लै काबलहु धाइआ जोरी मंगै दानु वे लालो ॥ सरमु धरमु दुइ छपि खलोए कूड़ु फिरै परधानु वे लालो ॥ काजीआ बामणा की गल थकी अगदु पड़ै सैतानु वे लालो ॥ मुसलमानीआ पड़हि कतेबा कसट महि करहि खुदाइ वे लालो ॥ जाति सनाती होरि हिदवाणीआ एहि भी लेखै लाइ वे लालो ॥ खून के सोहिले गावीअहि नानक रतु का कुंगू पाइ वे लालो ॥१॥ साहिब के गुण नानकु गावै मास पुरी विचि आखु मसोला ॥ जिनि उपाई रंगि रवाई बैठा वेखै वखि इकेला ॥ सचा सो साहिबु सचु तपावसु सचड़ा निआउ करेगु मसोला ॥ काइआ कपड़ु टुकु टुकु होसी हिदुसतानु समालसी बोला ॥ आवनि अठतरै जानि सतानवै होरु भी उठसी मरद का चेला ॥ सच की बाणी नानकु आखै सचु सुणाइसी सच की बेला ॥२॥३॥५॥
{पन्ना ७२२-७२३}
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मः १ ॥ हरणां बाजां तै सिकदारां एन्हा पड़्हिआ नाउ ॥ फांधी लगी जाति फहाइनि अगै नाही थाउ ॥ सो पड़िआ सो पंडितु बीना जिन्ही कमाणा नाउ ॥ पहिलो दे जड़ अंदरि जमै ता उपरि होवै छांउ ॥ राजे सीह मुकदम कुते ॥ जाइ जगाइन्हि बैठे सुते ॥ चाकर नहदा पाइन्हि घाउ ॥ रतु पितु कुतिहो चटि जाहु ॥ जिथै जीआं होसी सार ॥ नकीं वढीं लाइतबार ॥२॥
{पन्ना १२८८}
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ये अंश गुरग्रन्थ से लिये गये हैं जोकि खालसापंथ का सर्वोच्च मान्य ग्रंथ है। इनमें से पहले चार बाबरबानी या बाबरवाणी नाम से प्रसिद्ध हैं जिसका आधार यह पङ्क्ति है – बाबरवाणी फिरि गई कुइरु न रोटी खाइ। यह बाबर वही आक्रांता है जिसने भारत में मुगलराज की स्थापना की। संवत १५७८ विक्रमी में बाबर द्वारा बलत्कृत एवं लूटे गये स्थान सैदपुर पर नानक पहुँचे। वहाँ की स्थिति का वर्णन इस अंश में आया है। नानक के अवसान से कुछ ही दशकों में उनके साथ चमत्कार जोड़ कर ढेर सी ‘जनम-साखियाँ’ रची गईं। जनमसाखियों में बाबर द्वारा नानक एवं मरदाना को बंदी बनाये जाने का उल्लेख है। नानक को कुली का काम मिला और मरदाना को सईस का। चमत्कारप्रियता के आवेश में यह लिखा गया कि नानक के सिर का बोझ उनके सिर से कुछ ऊपर उड़ता चलता था! समाचार बाबर तक पहुँचा तो वह दोनों से मिला। नानक ने बंदियों को छोड़ने को कहा। उसने इसके लिये अपने वंश के भारत पर शासन के आशीर्वाद की माँग की जिसे नानक ने प्रदान किया और बंदी छोड़ दिये गये।
अन्य स्रोतों में उसका वंश कितना शासन करेगा, इसकी भी भविष्यवाणी नानक द्वारा की गयी बताई जाती है जिसमें शेरशाह द्वारा हमायूँ से राज छीने जाने की भी बात है। स्पष्टत: ये साखियाँ घटनाओं के हो जाने के पश्चात भविष्यपुराणी शैली की रचनायें हैं जिनका उद्देश्य नानक को दिव्यता प्रदान करना है।
सूफियों से अत्यधिक प्रभावित नानक के कृत्यों एवं उनसे जुड़ी रचनाओं में भी सूफी प्रभाव दिखता है। उन रचनाओं में बाबर एक कलन्दर है। कलन्दर शब्द फारसी से अरबी में गया एवं पुन: वहाँ से क़लन्दर हो कर सूफियों के लिये रूढ़ हो फारसी में लौटा। इसका अर्थ देखने में भद्दा व असंस्कृत व्यक्ति होता है जिसे गंदे सूफियों से ‘आदरस्वरूप’ जोड़ दिया गया, Being filthy is a merit! खालसा पंथ का फारसी प्रेम स्वयंसिद्ध है किन्तु जो सबसे बड़ी गड़बड़ी है, वह है सूफियों द्वारा पोषित काफिर-घृणा को अपना लेना। इसका विकृत स्वरूप आज के खालिस्तानी आंदोलन एवं खालिस्तान समर्थकों में दिखता है।
आक्रांता बाबर कलंदर हो गया एवं उसे भारत के राज का आशीर्वाद देने में नानक की महिमा हो गई! सैदपुर के बलात्कार एवं लूट का भी जो चित्रण नानक ने किया, उसमें सहानुभूति भाव के ऊपर ‘हिंसक सुख’ का भाव प्रबल है। नानक उसके कुकर्म को पापियों पर ईश्वर द्वारा भेजे गये दण्ड के रूप में देखते हैं। इस प्रसङ्ग को दार्शनिकता प्रदान करने हेतु बड़ी बड़ी व्याख्यायें लिखी गयी हैं किन्तु मूल का जो स्वर है, वह नग्न रह ही जाता है। व्याख्या करने वालों ने बानी को वाणी के स्थान पर बाण से भी जोड़ा है किंतु है वह वाणी ही, दुहाई बाबर की!
मुगलों के अत्याचार पर तुलसीदास ने भी लिखा – खेती न किसान को भिखारी को न भीख … किंतु उनका स्वर आक्रोश से भरे भक्त का है जिसमें लोक के प्रति करुणा ही करुणा है न कि नानक जैसे सूफी हिंसक आनन्द कि छाँई कि अच्छा हुआ जो ईश्वर ने इस प्रकार दण्डित किया।
गुरग्रन्थ में ‘मुक्ति’ हेतु ‘खलासी’ शब्द शताधिक बार दुहराया गया है किन्तु मूल के ही गड़बड़ होने के कारण खालिस्तानी द्वेष व मिथ्या श्रेष्ठताबोध के विष से ‘खलासी’ पायेंगे, इसमें शङ्का ही शङ्का है।