मुहम्मद बिन अबद, अल-अन्दलूस, यूरोप महाद्वीप
Muhammad bin Abad, Hispania, Iberian Peninsula or al-Andalus, Europe
उत्फुल्ल हृदय भ्रूमोद सङ्ग जो
अभिवादन करता था पर्व प्रात
वह मुहम्मद करे कैसे स्वागत
है बंदी अब वञ्चित असहाय –
जब कि ये प्रिय कन्यायें पुष्पित सौंदर्य
दमित अभिलाषा और चिथड़ों के बीच
करतीं करघे पर नित निन्दित काम
पाने को अनिश्चित दरिद्र दीन आहार।
वे पाँव जिन्हों ने किया कभी न भूमा स्पर्श
जब तक न पथ हो कस्तूरी कपूर आस्तीर्ण
बाध्य विवृत अब बहुव्रण पीवस स्फीत
घिसटते कीचड़ में, करने पड़ते हैं संघर्ष।
वे उजले कपोल हैं दु:ख गुण्ठित
हर आँख से निर्झरिणी बहती है
बह सकता न कोई आँसू पहला
संग जिसके न ऊँसास जगती है।
मेरी गति का भाग्य जो पहले रक्षक था
और मेरी मति को प्रेमनमन था करता
पाता मुझे अब नियति बद्ध आज्ञाकारी
और दण्ड अवमर्दन के नीचे झुकता।
वे मर्त्य सभी जो आशा की,
छल रश्मियों में सुख तकते हैं
सफलता से भावित सावधान
मुहम्मद का भाग्य लिखते हैं
सुख सपना हो रहे उसका
यह यत्न से निश्चित करते हैं ।
शब्द : भ्रूमोद – प्रसन्नता में भौहों की स्थिति; आस्तीर्ण – ढका हुआ; स्फीत – फूला हुआ, बढ़ा हुआ; ब्रण – बिगड़ा घाव; फोड़ा; गुण्ठित – ढके, घिरे ।
पृष्ठभूमि
प्रख्यात गणितज्ञ एवं ज्योतिषाचार्य (६५५ – ७२२+ वि.) ब्रह्मगुप्त के अवसान के कुछ दशकों पश्चात एशिया एवं यूरोप महाद्वीपों हेतु दो बड़ी घटनायें हुईं जिनका प्रभाव कालांतर में सम्पूर्ण विश्व पर गणित, विज्ञान, काव्य, दर्शन आदि विद्याओं के अद्भुत विकास के रूप में पड़ा।
७६९ वि. में अरबों ने सिन्ध पर अधिकार कर लिया तथा खलीफा अल-मन्सूर (८११वि.+) के दरबार में सिंध से एक दूतमण्डल पहुँचा जिसमें भारतीय ज्योतिषाचार्य कनक भी थे। कनक ब्रह्मगुप्त की कृति ब्रह्मस्फुटसिद्धांत के ज्ञाता थे तथा मुहम्मद-अल-फ़ज़ारी ने उसका अनुवाद सिंदहिंद व अरखंद नामों से किया। फलत: भारतीय दाशमिक पद्धति वहाँ प्रचलित हुई। आगे अल-खवारीज्मी (८२५+वि.) ने अल-जम वल-तफरीक़ बी हिसाल-अल-हिंद नाम से ब्रह्मस्फुटसिद्धांत के आधार पर कृति लिखी। चार सौ वर्ष पश्चात उसका लैटिन Algorithmi de numero indorum में अनुवाद हुआ। भारतीय दाशमिक पद्धति एवं ब्रह्मगुप्त के प्रमेय इन कृतियों के कारण पूरे सभ्य संसार में पसरते चले गये। उपर्युक्त कविता की पृष्ठभूमि में यही कालखण्ड है।
जिस समय अरब सिंध पर चढ़े थे, उसी समय भाड़े के बर्बर एवं उम्मयद अरब सैन्य मिल कर यूरोप की मुख्य महाद्वीपीय भूमि के सबसे दक्षिणी बिंदु Punta de Tarifa, आधुनिक स्पेन से तब के हिस्पेनिया (इबेरियाई प्रायद्वीप, अन्दलूशिया) पर भी धावा बोल दिये थे। वहाँ के इसाइयों को जीतने के पश्चात उस स्थान का नाम अल-अंदलुस रखा गया। अंदलुस नाम में Vandal जन की छाप है, बर्बर तो Barbarian कहलाते ही हैं। आज का तारिफ़ा नाम भी वहाँ के अरब प्रशासक से है। वहाँ के मुसलमान मूर कहलाते थे।
इसाइयों एवं मुसलमानों में चार सौ वर्ष तक युद्ध चला जिसमें अन्तत: इसाई विजयी हुये तथा हिस्पेनिया मुक्त हुआ। किंतु इन दोनों अब्राहमी मतों में परस्पर वैमनस्य उतना कटु नहीं था जिसके कारण काव्य, भारत से गये विज्ञान, गणित आदि पर बहुत काम हुआ तथा वह काल इस दृष्टि से एक स्वर्णिम काल बना।
मुहम्मद बिन अबद इसी समय हुआ था। प्रकरण को लघु कर कहें तो इसाई प्रांत के एक राजा अलफांसो-षष्ठम के आक्रमण के समय सहयोग हेतु उसने अपने अफ्रीकी मित्र, मोरक्को क्षेत्र के एक मुस्लिम सुल्तान युसुफ को बुलाया। उस युद्ध में अलफांसो विजयी हुआ तथा उसने मुस्लिम सुंदरी राजकुमारी ज़ैदा का हाथ माँगा। मूर शासक अबद को मानना पड़ा तथा ज़ैदा का बपतिस्मा कर उसे इसाई बनाने के पश्चात अलफांसो ने विवाह किया। इस प्रकार युद्ध का सुखद अंत हुआ किंतु अबद से एक भूल हो गई। आगे शांतिकाल में उसने युसुफ को अपनी राजधानी दिखाने के लिये निमंत्रण भेजा। वह आया तथा अल-अंदलूस का वैभव देख मन ही मन यह निश्चय कर लौटा कि इसे अपना बनाना है और यही किया भी।
इसाई समधी राजा के होते हुये भी अबद अपने मित्र युसुफ से पराजित हुआ। अबद को उसके समस्त परिवार एवं पुत्रियों सहित युसुफ ने अपने जलपोत पर बंदी बना लिया तथा जो अत्याचार किये, उन्हीं को देखते घुट घुट कर जीते मुहम्मद बिन अबद ने अपनी पुत्रियों की दुर्दशा पर यह कविता रची (~११४४ वि.)। वैसे यह काल यूरोप में मुस्लिम स्वर्णिम युग के पतन का काल था।