पेटी एकांत नवसंवत्सर
एकांत शब्द में ‘एक’ है किंतु जिस एकांत की बात हम करने जा रहे हैं, वह किसी एक व्यक्ति का नहीं, एक समूह का एकांत है जिसके अपने कोलाहल हैं। इसे आप पेटी एकांत कह सकते हैं मानो एक पेटी में बहुत से लोग भरे हों जो अधिकांशत: केवल परस्पर ही सम्वाद करते हों, आवश्यक नहीं कि उनमें से किन्हीं जन को किसी दूसरी पेटी में चल रहे या उसमें भरे लोगों के बारे में ज्ञात न हो किंतु वे पेटी में चल रहे पर ही केंद्रित रहते हैं। बाहर की बातें अपवाद स्वरूप ही होती हैं। सामाजिक सञ्चार माध्यमों ने सम्पूर्ण विश्व को एक प्रकार से पेटियों में बाँट दिया है। लोग बहुस्तरीय जीवन जी रहे हैं, अनूठे अभिनय भरे जीवन जिनमें किसी एक के एक से अधिक पेटियों के ‘एकांतवासी’ होने की सम्भावना भी है।
हमलोग जुड़ने का भ्रम लिये कटते जा रहे हैं, स्वयं से, परिवार से, मित्रों से, समाज से और आश्चर्य की बात यह है कि यह सर्वस्वीकृत सा हो चला है। होना ही है क्योंकि सबके अपने अपने एकान्त हैं, अपने अपने अनुमोदन हैं – पेटी में रहो और रहने दो! जियो और जीने दो!!
पेटी एकान्त गोपनीयता भी नहीं है। पेटी युग में कुछ गोपनीय रहा भी है? यह वाद विवाद का विषय है किंतु आश्चर्यजनक रूप से हम निरंतर ही एक दूसरे के बारे में जानने में असमर्थ होते जा रहे हैं या कहें कि हमें रुचि ही नहीं रही! रुचि एवं जानना – चुगली या सर्वेक्षण नहीं, गहन मानवीयता की बात है। बाहर न देख, परिवार में ही देखें कि लोग अपने परिवारी सदस्यों के बारे में भी कितनी गहराई से जान रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमसे वह गुण ही छीज रहा है जिसके उदात्त रूप में मनुष्य ही नहीं, सम्पूर्ण परिवेश से हम सम्वादित रहते थे?
टुकड़ा टुकड़ा जीते हम कुछ क्षेत्रों में अपने ‘परिचय’ का स्तर बहुत ऊँचा रखते हैं किंतु शेष में शून्यप्राय होते हैं। नगरीकरण के कारण यह बहुत तीव्र गति से बढ़ रहा है और देखें तो इसकी चपेट में गाँव अधिक आ रहे हैं। नयी पीढ़ी का बहुत बड़ा भाग अब अप्रवासी हो चला है। असंतुष्ट व अभावग्रस्त गाँव से भाग कर वह सुविधाओं के द्वीप नगरों में जाता है और वहाँ भी कटा कटा ही रहता है।
विचित्र सा जीवन है। दो पेटियों के एकांत सहेजता, नगर से कमा कर गाँव का घर सँजोता कोई कब दोनों से निर्वासित हो जाता है, पता ही नहीं चलता! है तो भविष्य के गर्भ में किंतु नगरों की अंधाधुंध बाढ़ को अपनी जवानी से सँभालता निजी बुढ़ापे में कहाँ और किस पेटी में कैसे जीवन व्यतीत करेगा, सोच कर सिहरन सी होती है। हम कैसा भविष्य अपने लिये बना रहे हैं?
कथित प्रगति के पथ पर बढ़ता समाज उस ‘प्रगति’ की कभी मीमांसा करता ही नहीं कि वह जा कहाँ रहा है! किस लिये?
चीनी विषाणु कोविड-19 के भय ने पेटी एकांत में जीने वाले सभी की उन समस्याओं को एक साथ उभार दिया है जिनसे वे मुँह चुराते रहे हैं। कितनों के रोटी और नियोजन छिनेंगे, उन कितनों के सम्मुख जीवित रहना ही एक चुनौती होगी जिनके पास कोई ऐसा मूल बचा ही नहीं जहाँ वे स्वयं को सहारा दे सकें। सबसे बड़ी समस्या बढ़े हुये जीवन स्तर से सहसा नीचे आने की होगी, सरकारें तो कुछ समय तक ही सहारा दे सकती हैं, उसके पश्चात?
लगभग एक सदी पूर्व भारत में कथित स्पेनिश विषाणु से एक से दो करोड़ के बीच लोग मृत हुये थे। एक सदी बड़ी अवधि होती है तथा उक्त विनाश की कोई स्मृति हममें नहीं बची। यह शुभेच्छा रखनी ही चाहिये कि वैसा दुबारा न हो किंतु इतना तो सिद्ध है कि हमने सीखा कुछ नहीं! तब औपनिवेशिक शासन था, जनसंख्या एवं प्रवजन न आज इतना था और न ही उसकी प्रकृति आज जैसी थी। यह भी कह सकते हैं कि जो कुछ हुआ या जो हो रहा है – गाँवों का विनाश एवं नगरों का अनियंत्रित कुरूप बजबजाता विकास, वह सहज ही है किंतु इस प्रश्न पर अवश्य विचार किया जाना चाहिये कि क्या हमने इस दूरदर्शिता के साथ अपने को आगे बढ़ाया कि हम अपनी नियति स्वयं लिखेंगे? या क्या आज भी हम ऐसी दृष्टि के साथ चल रहे हैं? हम आगामी पीढ़ियों को कैसा भारत देना चाह रहे हैं? विविध पेटियों में रिरियाते हुये जीने वालों से भरा भारत या ऐसा भारत जो भारतीय मूल्यों से सहज ही बँधा आगे बढ़ रहा हो, जिसमें सीमायें हो कर भी न हों तथा जो अपनी अर्थव्यवस्था, अपने जीवन स्तर एवं अपनी समृद्धि आदि के लिये कथित सुविधाओं के कुछ द्वीपों पर निर्भर न हो?
सम्भावित वैश्विक महामारी के पश्चात हो सकता है कि विश्व पूर्ववत रहे ही नहीं, प्रिय या अप्रिय बड़े परिवर्तन हों। ऐसे परिदृश्य में इस पर सोचा जाना चाहिये कि तब हम कहाँ होंगे? वे कौन से कारक हैं जो एक बड़ी जनसंख्या को द्वैध की स्थिति में पेटियों में जीने को विवश करते हैं तथा जिस समूह को वे सहारा दिये रहते हैं, वही समूह आपदा के समय उनकी सहायता करना तो दूर, नितांत अपरिचित एवं शत्रु भी हो जाता है? भारत का हर नगर जाने कितनी ऐसी अवैध पेटियों के सहारे डगर रहा होता है, जिन्हें स्लम कहा जाता है। क्या यह स्थिति वांछित है?
परिवर्तन एक दिन में नहीं होते तथा उचित समय का अभिज्ञान कर आवश्यक पहल एवं उद्योग न करने वाले यथास्थिति या नाश को अभिशप्त होते हैं।
आपदा की छाया में नवसंवत्सर आया है। वासंतिक नवरात्र का ऐसे समय में प्रारम्भ हो रहा है। आवश्यक है कि वे जो उपर्युक्त से क्षुब्ध रहते हैं, वे आत्ममंथन व मनन कर वह धारा प्रवाहित करें जो सबको सोचने पर विवश करे। शुभमस्तु।