प्रकृति के सान्निध्य से मनोवैज्ञानिक लाभ? वन-वृक्ष-नदी-पर्वत का साधना से क्या सम्बन्ध ? ग्रंथ, ऋषि वाणियाँ प्रकृति वर्णन से क्यों भरे पड़े है? वनों में ऐसा क्या प्राप्त हो जाता है जो सामान्य नगरों में नहीं मिलता?
सनातन ग्रंथों में तपस्या के लिए वन गमन, हिमालय तथा कन्दराओं इत्यादि का वर्णन इस प्रकार मिलता है मानो तपस्या एवं ध्यान का आशय ही है वनों एवं प्रकृति का सान्निध्य। साधक तपस्या प्राकृतिक गुफ़ाओं में ही करते रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो ऋषि-मुनियों ने तपस्या करने के लिए ही वनों का विकास किया हो। सनातन ग्रंथों में एक भी ऐसी तपस्या, साधना एवं आश्रम का वर्णन नहीं जो मनोरम प्राकृतिक दृश्यों, पर्वतों से शोभायमान, पक्षियों का कलरव, पावन नदी के समीप तथा सुन्दर वन में नहीं हो। साथ ही अनेक तपस्थलियों के दुर्गम प्राकृतिक स्थलों में होने का भी वर्णन है। वन-वृक्ष-नदी-पर्वत का भला ध्यान साधना से क्या लेना देना? ग्रंथ तथा ऋषि-मुनियों की वाणियाँ सभी प्रकृति वर्णन से क्यों भरे पड़े है? वनों में भला ऐसा क्या प्राप्त हो जाता है जो सामान्य नगरों एवं ग्रामों में नहीं? क्या साधना एवं सुविचार में प्रकृति के सान्निध्य से किसी प्रकार का लाभ होता है?
यही नहीं, संस्कृत साहित्य का प्रकृति वैभव भी हृदयग्राही एवं सर्वोपरि है। सनातन धर्म में जीवन के चार प्रमुख आश्रमों में तीसरा वन प्रस्थान (वानप्रस्थ) है, जो कीर्ति अर्जन तथा समाज एवं देश के लिये योगदान देने का आश्रम है। किन्तु इसमें भी वन का क्या प्रायोजन? वन या प्रकृति का व्यक्ति के विकास में क्या कोई स्पष्ट योगदान है?
मनोहर उत्तम वन विहार के वर्णन के लिए भला किसी सनातन संदर्भ की क्या आश्यकता है? आर्ष वचनों, पुराणों तथा संस्कृत साहित्य में वर्णित प्रत्येक तपस्या से लेकर तथागत तक भला वन गमन का वर्णन किस ग्रंथ में नहीं है!
वैराग्य शतकम् में भर्तृहरि बुद्धिमान का मार्ग बताते हैं :
माने म्लायिनि खण्डिते च वसुनि व्यर्थे प्रयातेऽर्थिनि क्षीणे बन्धुजने गते परिजने नष्टे शनैर्यौवने।
युक्तं केवलमेतदेव सुधियांयज्जह्नुकन्यापयःपूतग्रावगिरीन्द्रकन्दरतटीकुञ्जे निवासः क्वचित् ॥
(सब कुछ नष्ट हो जाने पर बुद्धिमान के लिए एकमात्र यही उचित है कि गंगाजी के जल से पवित्र हिमालय की किसी गुफा के समीप कुंज में निवास करे।)
रम्यं हर्म्यतलं न किं वसतये श्रव्यं न गेयादिकं किं वा प्राणसमासमागतसुखं नैवाधिकप्रीतये ।
किंतु भ्रान्तपतङ्गपक्षपवनव्यालोलदीपाङ्कुरच्छायाचञ्चलमाकलय्य सकलं सन्तो वनान्तं गताः ॥
(सुंदर महलों में निवास से क्या सुख नहीं मिलता? क्या वाद्य-गीत सुनने में मधुर नहीं लगते? क्या प्राणसमान प्रिया से मिलना अत्यंत सुखद नहीं है? तथापि विवेकवान इन सभी को किसी मुग्ध पतङ्गे के पङ्ख से कम्पित लौ से उत्पन्न चञ्चल छाया के समान समझ वन चले गए।)
वृक्षों के लिए मत्स्य पुराण की प्रसिद्ध उक्ति है – दशपुत्रो समो द्रुमः ।
महाभारत के अनुशासन पर्व में भी भीष्म पितामह युधिष्ठिर को समझाते हैं कि वृक्ष तृप्त करने वाले तथा तारणहार हैं – पुष्पिताः फलवन्तश्च तर्पयन्तीह मानवान् । वृक्षदं पुत्रवत् वृक्षास्तारयन्ति परत्र च ॥
श्रीकृष्ण ने भी विभूति उद्घाटित करते हुये वृक्षों को महत्त्व दिया तथा कहा – अश्वत्थस्सर्ववृक्षाणाम्।
ये सभी अनायास ही तो नहीं हैं। आधुनिक मनोविज्ञान मनुष्य के वनों तथा प्रकृति के संसर्ग के विषय में क्या कहता है? क्या प्रकृति के सान्निध्य में जाने से शांति एवं सुखद अनुभूति होने के अतिरिक्त कोई मनोवज्ञानिक लाभ भी है? क्या इससे किसी प्रकार के संज्ञानात्मक लाभ भी हैं? अन्वेषण तथा रचनात्मक कार्यों में इसका किस प्रकार का योगदान हो सकता है?
इस विषय पर पिछले दशक में अनेक अध्ययन किए गए हैं। वर्ष २०१४ में Frontiers in Psychology में डेविड पियर्सन और टोनी क्रेग ने एक शोध प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने मानसिक स्वास्थ्य पर प्राकृतिक वातावरण के प्रत्यक्ष प्रभाव का अध्ययन किया। इस शोध में वर्ष २००९ से २०१४ के बीच में प्रकाशित अनेकों चिकित्सा शास्त्र के तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययनों का संकलित संदर्भ दिया गया जिनमें हरे भरे वृक्षों तथा प्रकृति के सान्निध्य से तनाव, अवसाद तथा व्यग्रता (stress, depression, anxiety) जैसी मानसिक विकारों में कमी के प्रत्यक्ष साक्ष्य पाए गए। वर्ष २००९ में प्रकाशित एक अध्ययन में यह पाया गया कि जिन शिशुओं में एकाग्रता हानि (attention deficit) थी, उनमें प्रकृति के सान्निध्य से सकारात्मक सुधार हुआ।
इंग्लैंड में एक्स्टर विश्वविद्यालय के चिकित्सा विभाग के शोधकर्ताओं ने दस सहस्त्र नागरिकों के मानसिक स्वास्थ्य का इस संदर्भ में अध्ययन किया कि पिछले अठारह वर्षों से वे कैसे स्थानों में रह रहे थे। इस अध्ययन में यह पाया गया कि हरे भरे क्षेत्र में रहने वाले व्यक्ति सापेक्षतया न्यूनतर मानसिक तनाव में थे। अल्प आय, शिक्षा तथा जीवनवृत्ति के होते हुए भी, ये वे अन्य कारक हैं जो मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। वर्ष २००९ में डच शोधकर्ताओं के समूह ने हरे क्षेत्र के समीप रहने वाले व्यक्तियों में पंद्रह व्याधियों की न्यूनता पायी, जिनमें मानसिक अवसाद, व्यग्रता, हृदय रोग, मधुमेह, दु:श्वास तथा आधासीसी (depression, anxiety, heart disease, diabetes, asthma, and migraines) जैसी व्याधियाँ प्रमुख थी। इसी प्रकार के अन्य अध्ययन में टोरंटो के ३१००० निवासियों में पाया गया कि जिन स्थानों पर अधिक वृक्ष थे वहाँ के निवासियों के हृदय तथा पाचन तंत्र उतने अधिक स्वस्थ थे जितना कि २०,००० डॉलर की अधिक आय वाले व्यक्तियों में होता है। ऐसे व्यक्तियों में अल्प मृत्य दर तथा तनाव के अन्त:स्राव में भी घटोत्तरी पायी गयी।
अध्ययनों में यह भी पाया गया कि ऐसे स्थानों में रहने मात्र से भी ये लाभ प्राप्त होते हैं परंतु यह मात्र वातावरण के शुद्ध होने के लाभ ही नहीं है क्योंकि प्रकृति के दिखने मात्र से भी अर्थात प्राकृतिक दृश्य अवलोकन मात्र भी लाभकारी है, यथा चित्रों में भी!
स्वीडन में डॉक्टर मटिल्डा वन डेन बाश ने पाया कि तनाव उत्पन्न करने वाले गणितीय अभ्यास के पश्चात व्यक्तियों को यदि १५ मिनट के आभासी प्राकृतिक सान्निध्य तथा पक्षियों के कलरव ध्वनि में रखा जाय तो उनकी हृदय गति त्वरित रूप से सामान्य हो जाती है जो तनाव के स्तर का एक मापांक है। यहाँ रोचक यह है कि इन व्यक्तियों को वास्तविक नहीं परंतु आभासी (virtual reality) वातावरण में रखा गया था।
मात्र १५ मिनट के वन सान्निध्य से व्यक्ति की शरीरक्रिया (physiology) में सकारात्मक परिवर्तन पाए गए। जापानी शोधकर्ताओं ने ८४ व्यक्तियों को १२ के समूह विभाजित कर उन्हें भिन्न वनों में भेजा तथा उतने ही व्यक्तियों को नगर में भी भ्रमण करने को भेजा। वन में जाने वाले व्यक्तियों में तनाव हार्मोन १६% अल्प, रक्तचाप में २% घटोत्तरी और हृदय गति में ४% की घटोत्तरी पायी गयी। शोधकर्ताओं का स्पष्ट निष्कर्ष था कि हमारे मानसिक एवं संज्ञानात्मक तंत्र वनों के सान्निध्य के लिए विकसित एवं अनुकूलित हैं, कृत्रिम वातावरण के लिए नहीं।
इन शोधों के आधार पर अनेक देशों में इसे स्वास्थ्य नीति का अंग भी बनाया जा रहा है। फ़िनलैंड, जहाँ अवसाद, मदिरापान, और आत्महत्या की दर अधिक है; वहाँ सरकारी शोधकर्ताओं ने सभी को न्यूनतम ५ घंटे प्रति माह प्रकृति के सान्निध्य में रहने का सुझाव दिया। टांपेरे विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर कलेवी कोर्पेला ने फ़िनलैंड में अनेक प्राकृतिक पगडंडियों (power trails) के प्रारूप की परिकल्पना और विकास में योगदान दिया है। नेशनल जियोग्राफिक पत्रिका में छपे एक आलेख के अनुसार ‘A 40 to 50 minute walk seems to be enough for physiological changes and mood changes and probably for attention, power trails encourage walking, mindfulness, and reflection. Signs on them say things like, – Squat down and touch a plant.’
इसी प्रकार दक्षिण कोरिया में स्वास्थ्य लाभ के अनेक वन विकसित किए गए हैं, जिनके भ्रमण कार्यक्रमों में वनों की पैदल यात्रा तथा योग सम्मिलित हैं। यही नहीं, वहाँ के कुछ विश्वविद्यालयों में Forest Healing नामक पाठ्यक्रम में उपाधियाँ भी प्रदान की जाती हैं। दक्षिण कोरिया के तंत्रिका शोधकर्ताओं (neuroscience) ने विभिन्न प्रकार के चित्र देखते हुए व्यक्तियों के मस्तिष्क में होने वाली गतिविधि का अध्ययन किया। महानगरों से सम्बंधित चित्रों को देखते हुए प्रमस्तिष्कखंड (amygdala) में अधिक रक्त प्रवाह पाया गया जो भय और व्यग्रता को दर्शाता है। इसके विपरीत प्राकृतिक चित्रों को देखते हुए मस्तिष्क के उन भागों में (anterior cingulate and the insula) में गतिविधि पायी गयी जो संवेदना और परोपकार की भावना को दर्शाते हैं अर्थात प्रकृति का सान्निध्य व्यक्ति को शांत एवं उत्तम भी बनाता है। यही परिणाम स्टैन्फ़र्ड विश्वविद्यालय के ग्रेग बर्टमैन और सहयोगियों के शोध Nature experience reduces rumination and subgenual prefrontal cortex activation में भी पाया गया।
ऐसे अनेक अध्ययन हैं जिनमें प्रत्यक्ष रूप से वन गमन तथा प्रकृति सान्निध्य के आश्चर्यजनक लाभ प्रमाणित हुए हैं। वर्ष २०१२ में प्रकाशित अध्ययन Creativity in the Wild: Improving Creative Reasoning through Immersion in Natural Settings में मनोविज्ञानिक रूथ ऐन ऐच्ली तथा डेविड स्ट्रयर ने यह प्रमाणित किया कि मात्र चार दिन के तकनीक रहित वन निवास (technology-free hiking trip ) के उपरांत समस्या-हल तथा रचनात्मक कार्य (problem solving and creative solutions) करने में व्यक्ति की क्षमता ५०% से अधिक संशोधित होती है अर्थात प्राकृत सान्निध्य से रचनात्मक सोच एवं ध्यान में सहायता मिलती है।
विभिन्न परिस्थितियों में किए गए ऐसे अनेक मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के परिणामों में वन विहार उसी प्रकार वर्णित हो रहा है जैसे सनातन बोध में – गिरिराज हिमालय की चोटियाँ हों, सुरसरी का किनारा, फल फूल से लदे वृक्ष, पक्षियों का कलरव हो और मृगों का झुण्ड। इन आधुनिक मनोविज्ञानिक शोधों को पढ़ते हुए प्रतीत होता है मानो सुख, साधना एवं अन्वेषण के लिए यदि कोई सर्वोत्तम आधुनिक स्थान हो सकता है तो वह वैसा ही होगा जैसा कालिदास वर्णित कण्व ऋषि का आश्रम।