यः ज्ञः एन कल्पन्ताम्
मन के मधुवन में एक अकथनीय नीरवता है। कहीं से वेणु की कोई तान नहीं, किसी नूपुर की झंकार या किंकिणी का क्वणन नहीं, कोई रास नहीं, कोई रस नहीं, मात्र एक अनजानी चुप्पी, एक अज्ञात मौन, एक अबूझ निस्तब्धता! और यह इस कारण है कि मन की ललिता सखी न जाने कहाँ चली गयी है। दिन बीते, सप्ताह बीते, मास बीते, किन्तु ललिता सखी अब तक नहीं लौटी।
मन की ललिता सखी मन के समीप न रहे तो मन के मधुवन में न तो रास का आयोजन हो पाता है और न ही रस की उपलब्धि। वेणु के तान से विश्व को विस्मय-विमुग्ध करता संगीत हो, उस दिव्य संगीत की मूर्च्छनायें हों, शाश्वत नृत्य की चारिकायें हों, नूपुरों की रुनझुन हो, कंकण एवं किंकिणी का क्वणन हो, रास-रंग का सारा आयोजन, सारा रसोद्रेक ललिता सखी के कारण है। ललिता सखी ही लालित्य का हेतु है, स्रोत है, आधार है। घन-श्यामल काया पर पीताम्बर तथा सुवर्ण-गौर काया पर मयूरपंखी नीलहरित-परिधान, अतसिपुष्पवर्णी ललाट पर गोरोचन का तथा कांचन-सन्निभ भाल पर मृगमद-रस का तिलक, जिस लालित्य का सर्जन करता है उस लालित्य का अदृश्य सूत्रधार यह ललिता सखी ही है।
लौकिक से ले कर अलौकिक, सामान्य से ले कर असामान्य, सभी नायक-नायिकाओं के रूप-शृंगार का निर्धारण तथा उस शृंगार का क्रियान्वयन ललिता सखी ही तो करती है। वही है, जो धैर्य-मर्दित मलय-चन्दन का अवलेह जुटाती है, वही केतकी, पाटल, मल्लिका, यूथिका का पुष्पसार उपलब्ध कराती है, वही उत्पल-पराग एकत्र कर लोध्र-रेणु का निर्माण करती है, वही उस लोध्र-रेणु से कपोलों को चर्चित भी करती है और वही आपाद-मस्तक विविध वस्त्रों एवं आभूषणों की परिकल्पना एवं व्यवस्था भी करती है। सारा नीलाम्बर-पीताम्बर, सारा मोर-मुकुट, वैजयन्ती या वनगुंजा-माल, सारा चोवा-चन्दन, सारा पान-फूल, सारा अंजन-आलता, सारा चुमकी-बिंदी-अँगरज, सब, सब का सब, इस ललिता सखी के ही उपक्रम एवं उद्योग का परिणाम है। यह ललिता सखी ही विश्व-नायिका एवं जगन्नायक के सम्पूर्ण लालित्य का कारण भी है तथा केन्द्र भी, क्योंकि यह ललिता सखी वास्तव में अपने मूल रूप में ललिता त्रिपुरसुन्दरी है। अखिल सृष्टि में लालित्य की एक भी बूँद, या एक भी कण, या एक भी क्षण, यदि है, तो इसी ललिता सखी के, इसी ललिता त्रिपुरसुन्दरी के कारण है, और वह ललिता सखी, मेरे मन की वह ललिता सखी, मेरे मन की वह ललिता त्रिपुरसुन्दरी न जाने कहाँ चली गयी है। और जबसे वह गयी है, मेरे मन ने, मेरे वचनों ने, मेरे कृत्यों ने अपना लालित्य कहीं खो दिया है।
किन्तु वह ललिता सखी गयी कहाँ?
विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि राधा के वाम पद का नूपुर, वाम मणिबन्ध का सुवर्ण कंकण तथा वाम कर्ण का ताटंक कहीं खो गया है। कैसे? राधा के आभूषण कब खो गये? कैसे खो गये? कहाँ खो गये?
मन के मधुवन में मन की ही राधा वासक-सज्जा बनी प्रतीक्षारत थी। मन के कृष्ण के आने में विलम्ब हुआ तो समय व्यतीत करने को, और कृष्ण को प्रतीक्षा कराने की साध लिये मन के मधुवन में ही किसी कुञ्ज की ओर भ्रमण को निकल गयी। समय व्यतीत होता रहा, व्यग्रता बढ़ती रही पर कृष्ण नहीं आये।
मन में मात्र मधुवन और वृन्दावन ही नहीं होता! मन में अनगिन कंटकाकीर्ण वीथियाँ भी होती हैं, अनगिनत कंटीली झाड़ियाँ भी होती हैं। मन की ऐसी ही किसी वीथी में, ऐसी ही किसी झाड़ी से, मन उलझ गया – निश्चित ही किसी और के पास चला गया होगा छलिया!
मन उलझा, पाँव उलझे, वस्त्र उलझे, आभूषण भी उलझे और इस उलझन में राधा के वाम पद का नूपुर, वाम मणिबन्ध का सुवर्ण कंकण तथा वाम कर्ण का ताटंक कहीं खो गया। सारा शृंगार ही खण्डित हो गया। राधा भी वासकसज्जा से अब स्वयं को विप्रलब्धा अनुभव करते हुए क्रमशः खण्डिता हो रही – नहीं मिलना अब मुझे उस छलिये से! और यह खण्डित शृंगार लिये उसके समक्ष जाऊँ भी तो कैसे?
मन का कृष्ण जब मन की राधा से मिलने आया तो राधा कहीं थी ही नहीं! और ‘चंचलः हि मनः कृष्णः’ – यह चंचल मन ही कृष्ण है या मन कृष्ण की भांति ही चंचल है, तो यह मन-कृष्ण किसी की प्रतीक्षा नहीं करता! मन को यदि एक शाख पर ठौर न मिले तो वह तत्काल दूसरी पर, तीसरी पर, चौथी पर जा बैठता है। तो मन का कृष्ण विरजा देवी के साथ जा बैठा।
विरजा रज से हीन है या किसी विशिष्ट रज से भावित एवं परिप्लुत? रजोनिवृत्ति को प्राप्त नारी का कामभाव गौण होता है। ऐसी नारी का प्रधान भाव वात्सल्य है। विरजा के निकट जा कर, शान्तं-शुद्धम्-अद्वैतं विरजं-विशुद्धं विरजा के निकट जा कर हर चंचलता स्थिर हो जाती है। चंचल मन-कृष्ण भी वहाँ पहुँच कर स्थिर हो रहा। किन्तु राधा को जब यह ज्ञात हुआ कि कृष्ण तो विरजा के निकट जा बैठा, तो वह कलहान्तरिता हो उठी। उसका जी तो हुआ कि कृष्ण को वहीं विरजा के समक्ष ही जा कर थाम ले और ढेरों ऊँच-नीच सुना दे, किन्तु जाये कैसे? आभूषण-हीन स्थिति में, खण्डित शृंगार की स्थिति में, राधा से कृष्ण के समक्ष तो तब भी जाया जा सकता है, किन्तु विरजा के समक्ष? अरे नहीं! सपत्नी तो काष्ठ की भी हो तब भी दाहे! तो मन की राधा ने मन की ही विरजा के समक्ष अपदस्थ होने के भय से, मन की ही ललिता से, अपने ही मन के मधुवन में, अपने ही मन के खोये आभूषणों को खोज लाने को कहा। और ललिता तो एक बार जो गयी, सो गयी! अब तक नहीं लौटी। जाने कहाँ पड़े होंगे राधा के नूपुर, कंकण एवं ताटंक! राधा के वामांग के नूपुर, कंकण एवं ताटंक!और उसी दिन से आज तक, मन के मधुवन में एक अकथनीय नीरवता है, कहीं से वेणु की कोई तान नहीं, किसी नूपुर की झंकार या किंकिणी का क्वणन नहीं, कोई रास नहीं, कोई रस नहीं, मात्र एक अनजानी चुप्पी!
यह जो हमारी वर्णमाला है न? ‘अ’ से ‘ह’ तक की हमारी चिर-परिचित वर्णमाला, वह भी वर्णमालिनी कही जाती है जो ललिता त्रिपुरसुन्दरी का ही एक रूप है। यह अक्षरा परमाप्रकृति है; अक्षर रूप में निराकार निर्गुण भगवती शक्ति का प्रतीक! यही सिद्धमात्रिका भी है – मात्राओं से सिद्ध होकर जो विभिन्न संयोजनों द्वारा स्वयं को शब्दों में ढाल कर, स्वयं को एक रूप, एक आकार देती है तथा इस प्रकार स्वयं को अनगिन विभिन्न सगुण रूपों में अभिव्यक्त करती है। किन्तु शब्द-रूप में सगुण-साकार होने के पश्चात् भी वह मात्र मूर्तिमती होती है।
उसका शक्तिमती स्वरूप तो उन शब्दों के अर्थ से अभिव्यक्त होता है। शब्द उस आद्या के मृण्मय विग्रह हैं जिनके समक्ष पंचोपचार या षोडशोपचार निवेदित करना आत्मिक संतुष्टि का कारक है। किन्तु मात्र आत्मिक संतुष्टि! अल्प तो यह भी नहीं है, किन्तु उपलब्धियों की सीमा इतनी ही नहीं है। और वे उपलब्धियाँ सन्निहित हैं, विग्रह के मूर्ति-रहस्य में! शब्दों की शक्ति सन्निहित है, उनके अर्थ में, और उससे भी अधिक उनके निहितार्थ में, उनके मंतव्य में! शब्द ईंधन की भांति भारी हैं, चन्दन-काष्ठवत, समिधा-स्वरूप, जो अग्नि को धारण करने में समर्थ हैं, किन्तु अर्थ अग्नि की दृश्यमान लपलपाती ज्वाला है, फूल की भाँति सुगन्धित, सुरंग तथा भारहीन! और शब्द का निहितार्थ है – उस अग्नि का ताप! जो दिखता नहीं, मात्र अनुभव होता है! और यही इस वर्णमालिनी देवी का, इस सिद्धमात्रिका का, ऋ, ॠ, लृ सहित ‘अ’ से ‘अः’ तक की षोडश मात्राओं वाली षोडशमात्रिका भगवती का रहस्य है।
इस भगवती का मूर्तिमती स्वरूप सबको उपलब्ध हो सकता है, हो जाता है, जिसे अक्षत-पुष्प-धूप-दीप-नैवेद्य कोई भी अर्पित कर सकता है किन्तु उसके शक्तिमती स्वरूप का बोध किसी-किसी को हो पाता है; मात्र उन्हें, जो उस भगवती शक्ति का तात्त्विक रहस्य समझ पाते हैं, उन मूर्तिमान शब्दों का शक्तिमान अर्थ ग्रहण कर पाते हैं। पण्डित तथा ज्ञानी का भेद यहीं परिलक्षित होता है। पण्डित शब्द के बाह्य-परिधि की परिक्रमा करता है, अधिक से अधिक शब्दार्थ तक पहुँचता है, या नहीं भी पहुँचता है, किन्तु ज्ञानी वह, जो शब्द पर नहीं रुका, अर्थ पर भी नहीं रुका, निहितार्थ के संधान में लगा! यही कारण है कि पण्डितों-विद्वानों के भाग्य में तक्र ही तक्र आया, नवनीत, आज्य, तथा घृत तो ज्ञानियों को ही उपलब्ध हुआ! निहितार्थ को बूझना ही शब्द-योग है! जो निहितार्थ की ओर बढ़ा, वह रस की ओर बढ़ा! और रस सबके भाग्य में नहीं! बहुत तपना होता है! विद्युत् की धन तथा ऋण धाराओं को प्रवाहित करने वाले तन्तुओं को परस्पर एक दूसरे से टकरा कर उनसे निकलते स्फुलिंगों को अपनी तालु की ओर उलटी मुड़ी जिह्वा पर रोप लेना होता है, तब शब्द तथा उनके अर्थ का निहितार्थ सहस्रार से झरती अमृत-धारा बन कर मन, मस्तिष्क तथा काया को झंकृत कर पाता है!
और तन्त्र-शास्त्र मात्र ऐसों को ही साधक कहता है, योगी कहता है, विद्वान् कहता है, ज्ञानी कहता है जो इस भगवती शक्ति का तात्विक रहस्य समझ जाते हैं। और यही कारण है कि ‘ह’ पर समाप्त होती यह वर्णमाला, ‘ह’ पर समाप्त भले होती है, पूर्ण नहीं होती! यह पूर्ण होती है ‘क्ष’, ‘त्र’ तथा ‘ज्ञ’ इन तीन संयुक्ताक्षरों से संयुक्त होने के उपरान्त! ज्ञानी होने को ‘ज्ञ’ तक तो जाना ही होगा!
हमने बचपन से ही सीखा है – ‘ज्ञ’ से ज्ञानी! हमारी बालपोथियों में वर्णित ‘ज्ञ से ज्ञानी’ मात्र एक उदाहरण नहीं है! ‘ज्ञ’ तो स्वयं में एक पूरा शब्द है जिसका अर्थ ही ‘ज्ञानी’ या विद्वान् होता है। ‘ज्’ तथा ‘ञ’ के संयोग से निर्मित यह संयुक्ताक्षर अपने मूल में ही ‘जानने’ से सम्बद्ध है। विज्ञ/भिज्ञ – ज्ञाता, विशेषज्ञ – विशेष ज्ञानी और मात्र ‘ज्ञ’ – ज्ञानी! वर्णमाला के ‘अ’ से ‘ज्ञ’ की यह यात्रा ‘अज्ञान’ से ‘ज्ञान’ तक की यात्रा है और इस ‘ज्ञ’ तक पहुँचने के उपरान्त आगे कुछ और नहीं! ‘ज्ञ’ से आगे यदि कुछ है भी, तो वह है दिव्य ज्योति से भरा एक चिदाकाश या अनिर्वाच्य सुख का अमृतार्णव – चरम शान्ति का एक क्षीरसागर! इसी कारण जो ‘ज्ञ’ को उपलब्ध हुआ, वह मूक हो जाता है क्योंकि तब उसे कुछ जानने को शेष नहीं रह जाता और यदि कुछ ‘शेष’ रह भी जाता है तो उस ‘शेष’ को वह कुण्डलीबद्ध कर के उस पर शयन कर लेता है। वह जीवन में रहते हुए ही जीवन्मुक्त हो चुका होता है। ‘ज्ञ’ की उपलब्धि सशरीर मोक्ष की उपलब्धि है।
मोक्ष चार पुरुषार्थों में अंतिम तथा सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है किन्तु वह मुझ जैसे पामर हेतु नहीं! यहाँ तो मुझसे धर्म को ही ढंग से नहीं पकड़ा जा सका! ‘अर्थ’ तथा ‘काम’ के गड्डलिका-प्रवाह में चक्कर खाते जीवन व्यतीत हुआ। अतः मोक्ष मेरे लिये न शक्य है, न काम्य ही है। मेरे लिए तो चतुर्थ पुरुषार्थ है सुख! मैं तो माया-उदधि में जन्म लेने वाला एक लघु रोहित-मत्स्य हूँ जो इसी माया-जल में जीता है, यही माया जल डूब-डूब कर पीता है तथा इसी में ऊभ-चूभ होने में ही सुख पाता है। यदा-कदा इस माया जल से बाहर अपना मुख निकाल कर मुक्त वायु में साँस भले ले ले, किन्तु मेरी आत्मा का सुख तो इस माया-जल में निमग्न रहने में और माया-जल के आस्वादन में ही है। अपने मन की वासनाओं से झरता अपना ही रक्त चाटते हुए अनुभूत मुदित-चक्षु सुख ही मेरा मोक्ष है! और मोक्ष भी अंततः है क्या? परम सुख ही तो? अतः मैं ‘ज्ञ’ की यात्रा पर नहीं जाता! मैं तो ‘ह’ तक ही जाकर रुक जाना चाहता हूँ, रुक ही जाता हूँ! मेरी यात्रा ‘अ’ से ‘ह’ तक की, अज्ञान से अहं तक की यात्रा है। इससे आगे की यात्रा मुझसे शक्य नहीं, संभव नहीं, अभिलषित भी नहीं!
मनुष्य रूप में जीव के दो सम्बल हैं – मन एवं बुद्धि! मन इस जीव के दश-द्वारी महालय का अंतःप्रकोष्ठ रचता है तथा बुद्धि इस काया-द्वारिका के बाहर का कार्य-व्यापार संभालती है। मन को प्रेय की आसक्ति है तथा बुद्धि को श्रेय की। अतः मन का आँगन ललित को बीनता-बटोरता रहता है तथा बुद्धि जीवन का गणित हल करने में लगी रहती है। और जीवन में ऐसे क्षण बहुत कम आते हैं जब इस प्रेय तथा श्रेय दोनों की उपलब्धि एक साथ हो सके, जब ललित तथा गणित दोनों घुल-मिल कर एकाकार हो जाँय। कम से कम ‘ह’ तक की यात्रा में तो ऐसे क्षण किसी पूर्वकृत पुण्य का ही प्रतिफल हो सकता है। ऐसे क्षण तो ‘ज्ञ’ तक की यात्रा पूर्ण कर चुके परमहंसों को ही उपलब्ध हो पाते हैं, या ऋषियों को, जिनका मन तथा बुद्धि एकाकार है, जो ललित में गणित तथा गणित में ललित देख पाते हैं। हमारे वैदिक ऋषि ऐसा कर पाते थे, तभी तो उन्होंने मन्त्रों एवं ऋचाओं के ललित प्रांगण में ज्ञान और गणित का चन्दन रोप दिया!
यजुर्वेदीय ऋषि ने भी कभी ऐसा ही कुछ किया था। एकीकृत मन एवं बुद्धि का प्रमाण देती, ललित में गणित तथा गणित में ललित को समन्वित करती उस ऋषि की ऐसी अभिव्यक्ति का एक उदाहरण यजुर्वेद-संहिता अध्याय १८ के मंत्र २४ तथा २५ हैं जो इस प्रकार हैं —
एका च मे तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च मे सप्त च मे नव च मे नव च मऽएकादश च मऽएकादश च मे त्रयोदश च मे त्रयोदश च मे पञ्चदश च मे पञ्चदश च मे सप्तदश च मे सप्तदश च मे नवदश च मे नवदश च मऽएकविम्̐शतिश्च मऽएकविम्̐शतिश् च मे त्रयोविम्̐शतिश्च मे त्रयोविम्̐शतिश्च मे पञ्चविम्̐शतिश्च मे पञ्चविम्̐शतिश्च मे सप्तविम्̐शतिश्च मे सप्तविम्̐शतिश्च मे नवविम्̐शतिश्च मे नवविम्̐शतिश्च मऽएकत्रिम्̐शच्च मऽएकत्रिम्̐शच्च मे त्रयस्त्रिम्̐शच्च मे त्रयस्त्रिम्̐शच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥
(मंत्र २४)
[एक, तीन, पाँच, सात, नौ, ग्यारह, तेरह, पंद्रह, सत्रह, उन्नीस, इक्कीस, तेईस, पचीस, सत्ताईस, उनतीस, इकतीस, तैंतीस (संख्यक स्तोम) मुझे यज्ञ से प्राप्त हों।]
चतस्रश् च मेऽष्टौ च मेऽष्टौ च मे द्वादश च मे द्वादश च मे षोडश च मे षोडश च मे विम्̐शतिश्च मे विम्̐शतिश्च मे चतुर्विम्̐शतिश्च मे चतुर्विम्̐शतिश्च मे ऽष्टाविम्̐शतिश्च मे ऽष्टाविम्̐शतिश्च मे द्वात्रिम्̐शच्च मे द्वात्रिम्̐शच्च मे षट्त्रिम्̐शच्च मे षट्त्रिम्̐शच्च मे चत्वारिम्̐शच्च मे चत्वारिम्̐शच्च मे चतुश्चत्वारिम्̐शच्च मे चतुश्चत्वारिम्̐शच्च मेष्टाचत्वारिम्̐शच्च मे ऽष्टाचत्वारिम्̐शच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥
(मंत्र २५)
[चार, आठ, बारह, सोलह, बीस, चौबीस, अठाईस, बत्तीस, छत्तीस, चालीस, चौवालीस, अड़तालीस (संख्यक स्तोम) मुझे यज्ञ से प्राप्त हों।]
उद्धृत मन्त्रों के ये अर्थ वेदों के विद्वानों के अनुसार हैं तथा इनका निहितार्थ बताने वाले विद्वानों ने यह बताया है कि इन मन्त्रों में गणित है। चौबीसवाँ मन्त्र क्रमागत विषम संख्याओं को व्यक्त करता है तथा पचीसवाँ मन्त्र चार के गुणन से प्राप्त होने वाली संख्याओं को व्यक्त करता है।
विद्वान् पुरुषों के कथन पर शंका नहीं करनी चाहिये। यदि वे ऐसा कहते हैं तो सत्य ही कहते होंगे! तो भी यह विचार अवश्य उगता है कि क्या द्रष्टा ऋषि ने मात्र विषम संख्याओं को तथा चार के गुणन को अभिव्यक्त करने हेतु मन्त्र रच दिया? सत्य है कि गणित के क्षेत्र में विषम संख्याओं तथा चार के गुणनों का महत्व भी अल्प तो नहीं ही है, परन्तु क्या ये दोनों तथ्य इतने महत्वपूर्ण थे कि इन्हें वेदों में स्थान मिले? यदि वैदिक ऋषि अपनी संततियों को यह साधारण गणित ही सिखाना चाहता था तो उसे ऐसे ही अन्य पाठ भी मंत्रसिद्ध करने चाहिये थे जो उसने नहीं किया। और यदि उस ऋषि को ये संख्यायें ही बतानी थीं तो वह एक संख्या को दो बार क्यों कह गया – तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च मे सप्त च मे या ऽष्टौ च मे ऽष्टौ च मे द्वादश च मे द्वादश च मे षोडश च मे षोडश च मे ? जो मंतव्य संख्याओं को एक बार कहने से स्पष्ट हो जाता हो उसे ऋषि ने दो बार क्यों कहा होगा? प्रतीत होता है कि इन मन्त्रों में कोई और भी रहस्य है। कुछ है, जो छूट गया है और छूट रहा है।
किन्तु इस सबसे मुझे क्या? मैं तो ललिता सखी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। और ललिता सखी तो अब तक नहीं लौटी! किन्तु प्रतीक्षा तो करनी ही होगी क्योंकि इस प्रतीक्षा हेतु मन विवश है। तब तक क्या करें? चलिये, जब तक ललिता सखी लौट कर नहीं आ जाती तब तक कुछ गणित ही करते हैं। संख्याओं के वर्ग का गणित। अधिक नहीं, मात्र बीस तक की संख्याओं को उदाहरण के रूप में ले कर एक तालिका बनाते हैं।
तालिका संख्या १ | ||
क्रमागत संख्यायें | संख्याओं का वर्गफल | दो क्रमागत संख्याओं के वर्गों का अंतर |
१ | १ | १ |
२ | ४ | ३ |
३ | ९ | ५ |
४ | १६ | ७ |
५ | २५ | ९ |
६ | ३६ | ११ |
७ | ४९ | १३ |
८ | ६४ | १५ |
९ | ८१ | १७ |
१० | १०० | १९ |
११ | १२१ | २१ |
१२ | १४४ | २३ |
१३ | १६९ | २५ |
१४ | १९६ | २७ |
१५ | २२५ | २९ |
१६ | २५६ | ३१ |
१७ | २८९ | ३३ |
१८ | ३२४ | ३५ |
१९ | ३६१ | ३७ |
२० | ४०० | ३९ |
कुछ आभासित हुआ? इस तालिका का तृतीय स्तम्भ यजुर्वेद के अध्याय अठारह के मन्त्र संख्या चौबीस में उल्लिखित संख्यायें ही तो हैं? ऋषि ने तैंतीस पर मन्त्र रोक दिया, यहाँ उनतालीस तक है, बस यही तो अंतर है?
किन्तु यह तालिका संभवतः कुछ और भी स्पष्ट कर सकेगी। इस तालिका को ध्यान से देखने पर यह भी ज्ञात होता है कि —
०१. दो क्रमागत संख्याओं के वर्गों का अंतर एक विषम संख्या होती है। यथा,
जो एक विषम संख्या है, या जो पुनः एक विषम संख्या है।०२. दो क्रमागत संख्याओं के वर्गों का अंतर उन दोनों संख्याओं के योग के बराबर है। यथा,
या०३. किसी भी संख्या का वर्ग तद्संख्यक समस्त क्रमागत विषम संख्याओं के योग के बराबर है। यथा,
जो पाँच क्रमागत विषम संख्यायें हैं, या जो आठ क्रमागत विषम संख्यायें हैं।आधुनिक पद्धति में इन सभी की उपपत्ति बीजगणित द्वारा प्रस्तुत की जा सकती है, जैसे –
माना
कोई पूर्णांक संख्या है। इसकी पूर्ववर्ती संख्या तथा पश्चवर्ती संख्या होगी।०१. दो क्रमागत संख्याओं के वर्गों का अंतर एक विषम संख्या होती है।
का वर्ग = तथा इसके पूर्ववर्ती का वर्ग अतः दोनों का अंतर =अब यदि
एक विषम संख्या है तो उसका दूना एक सम संख्या होगी जिसमें से एक घटाने पर एक विषम संख्या प्राप्त होगी तथा यदि एक सम संख्या है तो उसका दूना भी एक सम संख्या होगी जिसमें से एक घटाने पर एक विषम संख्या ही प्राप्त होगी।यह उपपत्ति
तथा हेतु भी सिद्ध है यथा –…(इति उपपत्तिः)
पुनः
०२. दो क्रमागत संख्याओं के वर्गों का अंतर उन दोनों संख्याओं के योग के बराबर है। अत:,
[ सूत्र : ]किन्तु यहाँ
तथा वही दोनों क्रमागत संख्यायें हैं जिनके वर्गों का अन्तर निकाला गया है और परिणाम उन्हीं दोनों के योग के तुल्य है। यह उपपत्ति तथा हेतु भी सिद्ध है यथा – …(इति उपपत्तिः)पुनश्च
०३. किसी भी संख्या का वर्ग तद्संख्यक समस्त क्रमागत विषम संख्याओं के योग के बराबर है। इसकी उपपत्ति बीजगणित के समान्तर श्रेणी के गुणधर्म पर आश्रित है। किसी समान्तर श्रेणी का प्रथम पद
, सार्व-अंतर , तथा उसके कुल पदों की संख्या है तो उस श्रेणी का संख्यक पद, वाँ पद, तथा उस श्रेणी का योग होता है। अब यदि एक से प्रारम्भ विषम संख्याओं की कोई श्रेणी जिसमें कुल संख्यक पद हैं तो उसका वाँ पद – तथा वह श्रेणी होगी।अतः श्रेणी का योग =
यहाँ प्रथम पद
, सार्व-अंतर अतःयोग =
आधुनिक गणित में यही उपपत्ति सामान्य रूप से –
के रूप में अभिव्यक्त करते हैं जहाँ प्रथम पद
तथा सार्व-अंतर ।…(इति उपपत्तिः)
क्या ऐसा नहीं प्रतीत होता कि वैदिक ऋषि अपने मन्त्र द्वारा हमें विषम संख्यायें नहीं वरन् क्रमिक संख्याओं के वर्गों को ज्ञात करने का यही सूत्र बताना चाहता था? एका च मे तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च मे आदि का तात्पर्य कहीं यही तो नहीं कि उसने एक में तीन, तीन तक के योग में पाँच, पुन: पाँच तक के योग में सात आदि क्रम से जोड़ते जाने से तद्संख्यक पूर्णांक का वर्ग प्राप्त हो जाता है यही बताना चाहा हो? कहीं यही कारण तो नहीं कि उसने मन्त्र में एक का प्रयोग तो मात्र एक बार किया किन्तु तीन, पाँच, सात आदि को दो-दो बार कहा?
किन्तु मुझे इससे क्या? मैं तो ललिता सखी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जो अब तक नहीं लौटी! जाने कब तक प्रतीक्षा करनी होगी! यह तो विश्वास है कि वह आयेगी, किन्तु जब तक राधा के नूपुर, कंकण एवं ताटंक उसे मिल नहीं जाते तब तक वह नहीं आयेगी। तब तक हम क्या करें? थोड़ी गणित और कर लें? क्योंकि गणित से समय का भान नहीं रह जाता तथा प्रतीक्षा भी प्रतीक्षा जैसी त्रासद नहीं रह जाती। इसी कारण तो जीवन के गणित में उलझा मनुष्य अपने अंतिम क्षण तक पहुँच कर भी यह जान नहीं पाता कि समय-सीमा तो समाप्त हुई! कि चलने की बेला आ गयी! कि सब छोड़-छाड़ कर चलने की घड़ी आ गयी!
परन्तु अब तक इतनी बकधुन तो हो चुकी! अब कौन सा गणित करें? उद्धृत मन्त्रों में से दूसरे मन्त्र, यजुर्वेद अध्याय १८ के पचीसवें मन्त्र की चर्चा करें? कर तो सकते हैं किन्तु दोनों मन्त्रों में कोई पूर्वापर सम्बन्ध नहीं दिखता। प्रथम मन्त्र विषम संख्याओं को ले कर चला है तो दूसरा सम संख्याओं को, उनमें भी चार के गुणन को ले कर। नहीं! पूर्व में जो बकधुन छेड़ी गयी थी उसे अब और आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। यजुर्वेद के इन दो क्रमागत मन्त्रों के सन्दर्भ में तो कदापि नहीं। और इस मन्त्र को तो मेरे द्वारा एक बार पूर्व में पर्याप्त घिसा भी जा चुका है। स्मरण है वह ‘पाव, पौना, सवा, डेढ़, ढाई, साढ़े’? छोड़िये भी! तो क्या करें? तो हम एक नई तालिका बनाते हैं। यदि उस पर विचार करते कोई नयी बकधुन प्रारम्भ हुई भी, तो अल्पश: वह नयी तो होगी? तो नयी बकधुन छेड़ी जाय?
तालिका संख्या २ | |||
क्रमागत संख्यायें | संख्याओं का वर्गफल | दो क्रमागत संख्याओं के वर्गों का योग | क्रमागत योग का अंतर |
१ | १ | १ | १ |
२ | ४ | ५ | ४ |
३ | ९ | १३ | ८ |
४ | १६ | २५ | १२ |
५ | २५ | ४१ | १६ |
६ | ३६ | ६१ | २० |
७ | ४९ | ८५ | २४ |
८ | ६४ | ११३ | २८ |
९ | ८१ | १४५ | ३२ |
१० | १०० | १८१ | ३६ |
११ | १२१ | २२१ | ४० |
१२ | १४४ | २६५ | ४४ |
१३ | १६९ | ३१३ | ४८ |
१४ | १९६ | ३६५ | ५२ |
१५ | २२५ | ४२१ | ५६ |
१६ | २५६ | ४८१ | ६० |
१७ | २८९ | ५४५ | ६४ |
१८ | ३२४ | ६१३ | ६८ |
१९ | ३६१ | ६८५ | ७२ |
२० | ४०० | ७६१ | ७६ |
अरे! यह क्या? इस तालिका का चतुर्थ स्तम्भ तो यजुर्वेद के उसी उद्धृत दूसरे वाले मन्त्र की संख्यायें प्रदर्शित कर रहा है! बस एक अंतर है – तालिका के प्रथम पंक्ति में एक की संख्या मन्त्र में नहीं है। तो छोड़िये उसे! ऋषि ने भी तो छोड़ ही दिया था! शंका हो सकती है कि क्यों छोड़ें? और ऋषि ने भी क्यों छोड़ा? करेंगे विचार इस पर भी, पर अभी नहीं! अभी तो तालिका की प्रथम पंक्ति को बिसरा कर इस तालिका को किञ्चित ध्यान से देखें तो ज्ञात होता है कि :
०१. दो क्रमागत संख्याओं के वर्गों का योग भी एक विषम संख्या ही होती है। यथा,
जो एक विषम संख्या है, या जो पुन: एक विषम संख्या है आदि।०२. दो क्रमागत संख्याओं के वर्गों का योग उन दोनों संख्याओं के गुणनफल के दूने से एक अधिक होता है। यथा,
या०३. दो क्रमागत संख्याओं का वर्ग, चार के समस्त क्रमागत गुणनों वाली संख्याओं के प्रथम संख्या के तद्संख्यक पदों के योग से एक अधिक के बराबर होता है। यथा,
किन्तु अर्थात् के चार क्रमागत गुणनों से एक अधिक, या किन्तु अर्थात् ४ के आठ क्रमागत गुणनों से एक अधिक आदि।और इसी क्रम में यह भी स्पष्ट होता है कि –
०४. किसी भी संख्या का वर्ग चार के क्रमागत गुणनों के उस संख्या से एक अल्प संख्यक पदों के योग में उस संख्या का दूना जोड़ने पर जो संख्या प्राप्त होती है उसके आधे के बराबर होता है। यथा —
(चूँकि पाँच का वर्ग ज्ञात करना है अतः चार के गुणनों के पदों की संख्या
क्रमागत पद)या
(सात का वर्ग ज्ञात करना है अतः चार के गुणनों के पदों की संख्या
क्रमागत पद)आधुनिक पद्धति में इन सभी की उपपत्ति भी बीजगणित द्वारा प्रस्तुत की जा सकती है, जैसे –
०१. दो क्रमागत संख्याओं के वर्गों का योग भी एक विषम संख्या ही होती है,
अब किसी भी पूर्ण संख्या का दूना एक सम संख्या ही होती है अतः २ क२ तथा २ क सम संख्याएं ही होंगी जिनका योग या अंतर भी सम संख्या ही होगी और उस परिणाम में एक जोड़ने से प्राप्त होने वाली संख्या एक विषम संख्या ही होगी। इति उपपत्तिः।
०२. दो क्रमागत संख्याओं के वर्गों का योग उन दोनों संख्याओं के गुणनफल के दूने से एक अधिक होता है।
माना
तथा दो क्रमागत संख्यायें हैं, अतः याअब
[ सूत्र : ]किन्तु चूँकि
, अतः
…(इति उपपत्तिः)।
०३. दो क्रमागत संख्याओं का वर्ग, चार के समस्त क्रमागत गुणनों वाली संख्याओं के प्रथम संख्या के तद्संख्यक पदों के योग से एक अधिक के बराबर होता है।
माना दो क्रमागत संख्यायें जिनमें प्रथम संख्या
तथा दूसरी हैं। चार के संख्यक पद क्रमशः होंगे जिसका प्रथम पद तथा सार्व-अंतर भी चार है।इस निष्कर्ष की उपपत्ति हेतु प्रथम चरण में इस समान्तर श्रेणी का योगफल निकाल लेते हैं। माना इस श्रेणी के
पदों तक का योग ।अतः
= ……… समीकरण १.किन्तु इन दोनों क्रमागत संख्याओं के वर्गों का योग
अर्थात्
। के स्थान पर समीकरण १. का मान प्रतिस्थापित करने परऔर यह
, चार के गुणनों वाली वही समान्तर श्रेणी है जिसका योग हमने प्रथम चरण में ज्ञात किया था अतः दो क्रमागत संख्याओं के वर्गों का योग उस श्रेणी के योगफल से एक अधिक है। …इति उपपत्तिः।इसी उपपत्ति को आधुनिक गणित की सांकेतिक भाषा में
के रूप में व्यक्त कर सकते हैं।यहाँ यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि यह सूत्र २ से छोटी पूर्णांक संख्या के लिये सुसंगत नहीं है। कथन का तात्पर्य यह है कि
का प्रारम्भिक मान २ से अल्प अर्थात् १ या शून्य नहीं ग्रहण किया जा सकता क्योंकि तब पद का मान शून्य अथवा ऋणात्मक आने लगेगा और हमें समान्तर श्रेणी का प्रथम पद ४ ही स्वीकार करना है।कुछ चमका?
क्या अब इस शंका का निरसन सरल नहीं है कि ऋषि ने सारणी में दी हुई प्रथम पंक्ति को क्यों छोड़ा? कहीं यही कारण तो नहीं कि ऋषि ने अपने तत्संबंधी मन्त्र में एक को ग्रहण नहीं किया और उसके द्वारा बताये “चतस्रश्च मे ऽष्टौ च मे ऽष्टौ च मे द्वादश च मे द्वादश च मे.. .. ” मन्त्र में एक या शून्य का उल्लेख नहीं है?
किन्तु वास्तव में वह प्रथम पंक्ति छूटी दिखती मात्र है, छूटी है नहीं! उद्धृत प्रथम मन्त्र में (अध्याय अठारह के चौबीसवें मन्त्र में) ही ऋषि ने श्रेणी के योग में एक के सम्मिलित होने का संकेत कर दिया है तथा चार के गुणकों की श्रेणी में क्रमिक पदों का मान निकालने में वह १ सम्मिलित करने पर मन्त्र सार्वत्रिक नहीं रह जाता अतः सूत्र को विसंगति से बचा लेने के उद्देश्य से दूसरे मन्त्र में १ का उल्लेख नहीं है। किन्तु दूसरा मन्त्र प्रथम मन्त्र का अनुक्रामी है तथा प्रथम मन्त्र का एका च मे दूसरे मन्त्र में भी ग्राह्य है। सिद्ध मन्त्र तो वही मन्त्र है जो सार्वत्रिक हो, सार्वकालिक हो! दूसरे मन्त्र में १ को त्याग कर, किन्तु उस मन्त्र को प्रथम मन्त्र के साथ रख कर ऋषि ने मन्त्र को सार्वत्रिक तथा सर्वकालिक कर दिया। एक छूट भी गया और छूटा भी नहीं!
०४. अब चतुर्थ संकेत बिन्दु की उपपत्ति तो अत्यंत सरल हो गयी जिसके अनुसार किसी भी संख्या का वर्ग चार के क्रमागत गुणनों के उस संख्या से एक कम संख्यक पदों के योग में उस संख्या का दूना जोड़ने पर जो संख्या प्राप्त होती है उसके आधे के बराबर होता है।
यदि दो क्रमागत संख्यायें जिनमें प्रथम संख्या
तथा दूसरी हैं तो, जैसा कि सिद्ध किया जा चुका है, उन दोनों संख्याओं के वर्गों का योगअतः
अतः
अतः
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि यजुर्वेद के ये दोनों मन्त्र वास्तव में न तो क्रमागत विषम संख्याओं को गिनवा रहे हैं और न ही चार का पहाड़ा सिखा रहे हैं। ये मन्त्र तो क्रमागत संख्याओं के वर्गों के गुणधर्म बताने वाले हैं तथा अपने प्रतिपाद्य विषय को लेकर इतने आग्रही हैं कि परस्पर एक दूसरे से अभिन्न हैं और इसी कारण दोनों मन्त्र भी क्रमागत हैं।
अब यहाँ एक प्रश्न यह उठ सकता है कि क्या उद्धृत दोनों मन्त्रों का यही निहितार्थ है जो इस बकधुन से निकल कर आया? मन्त्रों में यह तो कहीं कहा नहीं गया है कि ये मन्त्र संख्याओं के वर्गों से सम्बंधित हैं या इनका संख्याओं के वर्गों से कोई सम्बंध भी है! यह प्रश्न निरर्थक है क्योंकि मन्त्र में तो कहीं स्तोम या पुण्यफल आदि का भी संकेत नहीं है! मन्त्र में तो कुछ संख्याओं का उल्लेख मात्र है और कामना की गयी है कि ये संख्यायें, पुनः ध्यान दें कि संख्यायें मात्र ही, यज्ञ से प्राप्त हों, यही उल्लिखित है। स्तोम प्राप्त हों, यज्ञों के फल प्राप्त हों, यह भी तो स्वयं हमारी ही कल्पना है, कि संभवतः ऋषि का मंतव्य यही रहा होगा! किन्तु गणित एक ऐसा विषय है जिसके सिद्धांत गणित के नियमों तथा संक्रियाओं द्वारा ही प्रतिपादित एवं सिद्ध होते हैं तथा वे सिद्ध हो रहे हैं। अतः यह प्रश्न तो उठना ही नहीं चाहिये।
प्रश्न तो यह उठना चाहिये कि क्या वैदिक ऋषि यह जान चुका था कि संख्याओं के वर्गफल जो दिखने में परस्पर इतने असम्बद्ध दिखते हैं उनके बीच एक सुस्पष्ट परिभाषित तारतम्य है तथा उस तारतम्य को गणित की भाषा में व्यक्त भी किया जा सकता है?
प्रश्न तो यह उठना चाहिये कि क्या ऋषि को बीजगणित के वर्ग आधारित सूत्र तथा साथ ही समान्तर श्रेणी के वे नियम ज्ञात थे जिन पर आधुनिक गणित का ज्ञाता इतराता है?
प्रश्न तो यह उठना चाहिये कि क्या वैदिक ऋषि इन मन्त्रों द्वारा गणित के एक महत्वपूर्ण सूत्र को व्यक्त करने हेतु, भाषा गणित की और शैली ललित की, चुन कर अपनी संततियों को अपने ज्ञान के आगार के रहस्यमय तालयन्त्र की कोई गुप्त कुञ्चिका दे गया था जिसे उसकी संततियों ने अज्ञानवश, प्रमादवश, अविश्वासवश, या काल के क्रम में कहीं खो दिया?
कहीं ऐसा तो नहीं कि इस मन्त्र का “यज्ञेन कल्पन्ताम्” जिसका अर्थ हम “हमें यज्ञ के फलस्वरूप प्राप्त हो!” रटते रहे, वह “यः ज्ञः एन कल्पन्ताम्” – “जिसे विद्वान् इस प्रकार जानने में समर्थ हों” रहा हो? ‘कल्पन्ताम्’ का अर्थ ‘समर्थ हों’ ही तो होता है! महान खेद है, और दुर्भाग्य भी, कि उन वैदिक ऋषियों की हम सन्ततियाँ आज भी इन प्रश्नों का, जो इन दोनों मन्त्रों के सम्बंध में उठने चाहिये, विश्वासपूर्वक सकारात्मक उत्तर दे सकने में अक्षम हैं।
किन्तु मुझे इन सबसे क्या? उधर वैदिक ऋषि प्रदत्त ज्ञान के आगार के रहस्यमय तालयन्त्र की एक गुप्त कुञ्चिका खो गयी है, और इधर राधा के अलंकार खोजे नहीं मिल रहे! मेरे हाथ तो न गणित ही आया और न ललित ही! और एक मैं अकर्मण्य हूँ, कि बस ललिता सखी की प्रतीक्षा ही कर रहा हूँ!
मुझमें एक बहुत बड़ा दुर्गुण है। मैं जिस लक्ष्य को सम्मुख रख कर अपनी यात्रा प्रारम्भ करता हूँ, उसे दो-चार डगों तक चलने के पश्चात ही विस्मृत कर देता हूँ। प्रथम पड़ाव से पूर्व ही मैं अपने निर्धारित लक्ष्य से भटक जाता हूँ। कहाँ तो मैं मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व से खो चुके लालित्य के पुनर्प्राप्ति की अभिलाषा में लालित्य की अधिष्ठात्री ललिता त्रिपुरसुन्दरी की, ललिता सखी की प्रतीक्षा कर रहा था, और कहाँ मैं वैदिक ऋषि की गुप्त कुञ्चिका खोजने के क्रम में गणित के सूत्रों में उलझ गया। मन के अन्तःप्रकोष्ठ में, मन के आँगन में अल्पनाओं की रचना का लोभी मन, मन के बाह्यप्रकोष्ठ के काष्ठ-स्थाणुओं की गणना में व्यस्त हो गया।
ज्योतिषी कहते हैं कि यदि जन्मांग के कर्म भाव में कोई वक्री ग्रह बैठा हो तो जातक तन से और मन से भी, बहुत भटकने वाला होता है। अतः मेरा भटक जाना तो कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि यह तो मेरे जन्मांग का ही दुष्प्रभाव है, किन्तु मैं अपने साथ आपको भी भटका ले गया यह उचित नहीं हुआ।
किन्तु ज्योतिषी यह भी कहते हैं कि यदि व्यक्ति के जन्मांग में द्वादश भाव में केतु के साथ चन्द्रमा हो तो जातक भावुक, भावकातर, नेत्ररोगी, निद्रासुख से वंचित, एक अकर्मण्य होता है तथा इन सबके साथ उसके व्यक्तित्व में एक और दुर्बलता होती है। वह स्वयं भले कुछ न कर सके, किसी योग्य न हो, किन्तु वह जिस वंश में उत्पन्न होता है, उस वंश में उसके पूर्वपुरुष धनाढ्य, ज्ञानी, विद्वान्, कर्मठ, संपूज्य रहे होते हैं। अतः वह अपने पूर्वपुरुषों की प्रशंसा करता ही रहता है, करता ही रहता है, करता ही रहता है। इसके अतिरिक्त और कुछ भी कर सकना ऐसे जातक हेतु संभव ही नहीं! इसके सुनने वाले उससे इस कारण चिढ़ते भी हैं। ऐसे व्यक्ति हेतु फारसी की एक व्यंग्योक्ति है – पिदरम सुल्तान बूद। पुरबिया भोजपुरी में इसकी समानार्थक उक्ति है – दादा पहलवान रहे! तो मुझ अयोग्य, अकर्मण्य, मूर्ख द्वारा अपने पूर्वपुरुषों का यशोगान करना भी मेरा नहीं, मेरे जन्मांग का ही दोष है अन्यथा मैं तो अब तक अपने मन की उस ललिता सखी की प्रतीक्षा ही कर रहा हूँ। न वह मुझसे दूर गयी होती, न मुझे उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ती, न आपको इस निठल्ले की बकधुन सुननी पड़ती! जाने राधा ने अपने आभूषण कहाँ खो दिये जिनके संधान में ललिता सखी को इतना विलम्ब हो रहा है?
किन्तु इसमें राधा का भी क्या दोष? ‘अ’ से ‘ज्ञ’ तक की यात्रा अज्ञान से ज्ञान तक की यात्रा है जो मनुष्य-मात्र की एक स्वाभाविक यात्रा है – नितान्त सहज, नितान्त अभीप्सित! यह गंगा की गंगोत्री से निकली और गंगासागर तक जाने वाली एक सहज धारा है जिसके आगे अगाध सागर का सायुज्य है, विश्रांति है, चरम सुख है। यह ब्रह्मरंध्र से मूलाधार की यात्रा है, रेतस्खलन की यात्रा है। किन्तु ‘ज्ञ’ तक पहुँच कर यदि उस अनुक्रामी धारा की कोई लहर ‘ज्ञ’ से पुनः ‘अ’ की ओर लौट चले तो धारा उलट जाती है। यह उजान की यात्रा है – नितान्त अस्वाभाविक एवं असहज, मूलाधार से ब्रह्मरंध्र की यात्रा, उर्ध्वरेतस् की यात्रा, जिसका परिणाम चरम सुख से भी अधिक, परम सुख है! और तब यह धारा, धा रा नहीं रह जाती, रा धा हो जाती है, राधा हो जाती है। तब यह ‘ज्ञ’ से ‘अ’ की यात्रा ‘ज्ञान’ से ‘अज्ञान’ तक की यात्रा नहीं, ‘ज्ञात’ से ‘अज्ञात’ तक की यात्रा हो जाती है। इस असहज, अस्वाभाविक, हठपूर्वक की जाने वाली यात्रा में पग-पग पर प्राणों का संकट होता है, प्रवाह की शाश्वत शक्तियों से संघर्ष होता है, किन्तु अपने उद्गम को, अपने आदि स्रोत को जानने की, उससे मिलन की उत्कंठा ऐसे हठी यात्री को व्यग्र किये रहती है जिसके कारण वह यह उजान की यात्रा, उत्स के ओर की यात्रा, रोकता नहीं। धारा तो कभी रुक भी सकती है, या रोकी भी जा सकती है, किन्तु राधा नहीं! उसके प्राणों की अमित-अमिट पिपासा उसे रुकने अथवा कुछ और सोचने दे ही नहीं सकती! तो ऐसे में, उस राधा के अलंकार कब गिर गये, कहाँ गिर गये यह उसे कैसे ध्यान रह सकता है? ऐसे किसी यात्री को बाह्याडम्बरों का ध्यान रह ही कैसे सकता है जो उत्स की यात्रा पर हो?
किन्तु ललिता सुन्दरी को अब तक तो आ जाना चाहिये था! इधर मन के मधुवन में वेणु की कोई तान नहीं, नूपुरों की झंकार नहीं, रास नहीं, रस नहीं। उधर विरजं – विशुद्धं विरजा के सतखंडा महालय का प्रहरी बना, परात्पर ब्रह्म स्वरूप कृष्ण का बालसखा महाबली श्रीदामा, शनैः-शनैः शंखचूड़ में परिवर्तित होता जा रहा है। वह श्रीदामा है न! श्री के दाम से, लक्ष्मी की रज्जु से आबद्ध है। किन्तु कृष्ण का एक और बालसखा है – मनसुखा! वह मन-मधुवन की सीमा के भीतर ही कहीं पर निर्निमेष जागता बैठा है क्योंकि वह मनसुखा है। उसे तो अपने मन का सुख ही काम्य है! उसके हाथ में ललिता सुन्दरी के मूर्तिमती स्वरूप का, शब्दों का मृण्मय आकार है और वह उस मूर्तिमती स्वरूप के शक्तिमती स्वरूप का रहस्य जानने को, अपने मन का सुख पाने को, सदियों से निरंतर जागता हुआ त्रिपुरसुन्दरी ललिता सखी की प्रतीक्षा मात्र कर रहा है। वह शब्दों के अर्थ तथा निहितार्थ का प्रजागर पाने को कोई उद्योग नहीं कर रहा, और त्रिपुरसुन्दरी की शब्दरूपी मूर्तिमती प्रतिमा सम्मुख हो, और उसके अर्थ के शक्तिमती स्वरूप को जानने का मन से उद्योग न करे, भले ही उस उद्योग का कोई परिणाम निकले या न निकले, शब्दों के अध्ययन का व्रत लिये उस अधीती के प्रति शोक है। इसी कारण मुझे स्वयं ही अपने ही प्रति शोक है! महत्शोक!
किन्तु क्या आपने कहीं देखे हैं अपने उत्स की यात्रा में चली धारा के, अरे! राधा के, मन के कंटकाकीर्ण वीथियों में मन की ही कंटीली झाड़ियों में उलझ कर कहीं गिर गये बायें पाँव का नूपुर, बायीं कलाई का कंगन और बायें कान का कनफूल? या आपने मेरे मन की उस ललिता सखी को ही कहीं देखा है? यदि नहीं, तो कृपया खोजिये उन्हें! और यदि वे आपको दिख जाँय तो कृपया मुझे न हो तो न हो, अपने ही मन को सूचित अवश्य करियेगा!
मेरे मन का मनसुखा श्रीदामा होने की लालसा नहीं रखता! वह मनसुखा बने रह कर, अपने मन का सुख पा कर, अपने मति-अनुसार अपने मन का सुख पा कर, ही प्रसन्न हो लेता है। क्योंकि मन के मनसुखा का विश्वास है कि ललिता सुन्दरी कभी न कभी तो लौटेगी। और वह जब भी लौटेगी, राधा के नूपुर, राधा के कंकण, राधा के ताटंक ले कर लौटेगी। और तब, रासेश्वरी रसेश्वरी अपनी छंदोबद्ध काया पर उन अलंकारों को पुनः धारण करेगी! और तब रास होगा, रस बरसेगा, वेणु की तान गूंजेगी, नूपुरों की झंकार, कंकणों तथा किंकिणी का क्वणन मन के मधुवन को पुनः गुंजित कर देंगे! इसी कारण वह मनसुखा अनादि-काल से मन में बहती एक साँवरी भाव-नदी के तट पर बसे मन के मधुवन में निरोद्योग, निरुद्वेग, निर्निमेष जाग रहा है। उसके हाथ में शब्द तो हैं, ढेर-ढेर शब्द, किन्तु उसके पास उन शब्दों के अर्थ नहीं हैं। और शब्दों के अध्ययन का फल तो उन शब्दों के अर्थ तथा निहितार्थ का ज्ञान है। यह ज्ञान उस अकर्मण्य को ललिता सुन्दरी ही दे सकेगी, किन्तु तब, जब अपने उत्तरासंग के कोने में वह राधा के सुवर्ण-वलय, कर्णावतंस, तथा नूपुर गँठिया कर लौटेगी।
किन्तु न जाने वह ललिता सुन्दरी, वह ललिता सखी, वह आद्या, वह परमाप्रकृति लौटेगी कब? कब मिलेंगे उसे राधा के नूपुर, कंकण एवं कर्णावतंस? कब टूटेगी मन के मधुवन की यह अकथनीय नीरवता? कब? मैं नहीं जानता! संभवतः कोई नहीं जानता! क्योंकि यदि कोई जानता होता, तो वह निश्चित बताता! और तब वह कहता, तब वह अवश्य कहता – यः ज्ञः एन कल्पन्ताम्, यः ज्ञः एन कल्पन्ताम्, यः ज्ञः एन कल्पन्ताम्!
यजुर्वेद के अध्याय अठारह के सभी मन्त्रों के द्रष्टा ऋषियों का नाम अध्याय के प्रारम्भ में एक साथ ही प्राप्त होता है अतः निबंध में उद्धृत दोनों मन्त्रों में से किस मन्त्र का वास्तविक द्रष्टा कौन है यह लेखक को ज्ञात नहीं। किन्तु यह ध्यातव्य है कि अध्याय अठारह के मन्त्रों के द्रष्टा ऋषियों के उन नामों में दो नाम विश्वामित्र तथा शुन:शेप (आजीगर्ति) के भी हैं। विश्वामित्र तथा शुन:शेप को आप भूले तो नहीं न?
कहिबे को कछु और है]
लेखक का पाठकों से व्यक्तिगत निवेदन
यह निबंध एक अज्ञात भय तथा अकथ्य संकोच के साथ लिखा गया है जिसका कारण निबंध का प्रतिपाद्य विषय है। लेखक न तो वेदों का ज्ञाता है और न ही उसे गणित का ही कोई विशेष ज्ञान है। साथ ही, जो प्रतिपाद्य विषय चुना गया है उस विषय पर कुछ भी कह सकने की लेखक के पास न कोई योग्यता है, न कोई अधिकार! किन्तु वह क्या करे? मन की किसी ललिता सुन्दरी की प्रतीक्षा में व्यग्र, किसी प्रजागर रात्रि में, अपने एकांत के एकालाप को उसे कहीं तो कह सुनाना ही था! किन्तु इस निबंध में प्रस्तुत परिकल्पना को आप मान लें, या इसे सत्य समझें, या इस पर विचार ही करें, लेखक का ऐसा कोई आग्रह नहीं है। लेखक का निवेदन तो मात्र इतना है कि यदि ललिता सुन्दरी की प्रतीक्षा में व्यग्र-व्याकुल लेखक ने अल्पमात्र भी कुछ ललित रच दिया हो तो पाठक कृपया उस लालित्य-मात्र का आस्वाद लें, तथा यदि कोई प्रमाद, कोई त्रुटि, कोई अपराध हो गया हो, तो अज्ञ समझ कर क्षमा कर दें क्योंकि इन पंक्तियों के लेखक की ‘अ’ से ‘ज्ञ’ तक की यात्रा उसे अब तक अधिक से अधिक ‘अज्ञ’ ही बना सकी है।Editorial comment:
This video, in English, by a वैदिक घनपाठी Dr. K Suresh explains the mathematics, referring to कृष्णयजुर्वेद।
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प्रभु, आज के समय में ऐसा आलेख। अद्भुत एवं अतुलनिय. हम धन्य है कि इसे पढ़ने का सौभाग्य मिला।
प्रभु, आज के समय में ऐसा आलेख। अद्भुत एवं अतुलनिय
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भाषा विकास में वर्तनी और व्याकरण का समायोजन पर महत्व देकर हिंदी भाषा साहित्य को दिव्य और भव्यता के अनूठे स्तर तक पहुंचा दिया है आपने भैया ।।
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