सुन्दरकाण्ड आदिकाव्य रामायण से – 22 से आगे …
सीता देवी की स्थिति पर मन ही मन विलाप करते हनुमान जी दु:ख एवं सांत्वना के मनके पिरोते गये।
मान्या गुरुविनीतस्य लक्ष्मणस्य गुरुप्रिया।
यदि सीतापि दुःखार्ता कालो हि दुरतिक्रमः॥
ऐसे लक्ष्मण की आदरणीया जो कि गुरुओं के प्रति विनीत हैं एवं उनके गुरु स्वरूप श्रीराम की पत्नी सीता भी यदि इस प्रकार दु:ख से आर्त हैं तो काल के प्रभाव का अतिक्रमण करना दुस्साध्य ही है।
गुरुओं की सीख वह अनुशासन कवच प्रदान करती है जिसके संरक्षण में अप्रतिहत शौर्य नये आयाम स्थापित करता है। श्रीराम एवं लक्ष्मण, दोनों गुरुपरम्परा के दो स्तम्भ समान हैं। राम धैर्यधन हैं एवं लक्ष्मण उग्र, दोनों के लिये मात्र गुरु मर्यादा ही अनुशासन है। दोनों दो भिन्न विधियों के निकष हैं। उनकी रक्षणीया की भी यह स्थिति! मुनि वाल्मीकि दुखिया सीता को समर्पित इस श्लोक के माध्यम से मानों उनके लिये भी एक कसौटी रख देते हैं।
प्लवश्रेष्ठ को सुरसरि की स्मृति हो आई, सांत्वना मिली कि जलद घिर आयें तो भी देवी गङ्गा विशेष क्षुब्ध नहीं होती। उनके लिये उनकी बूँदों से क्या संकट? राम के पराक्रमी उद्योगी स्वभाव एवं लक्ष्मण की वीरता की स्मृति सीता को है। इस कारण ही संकट रूपी बादलों के घिरे होने पर देवी गङ्गा की भाँति ही देवी सीता भी कोई बहुत क्षुब्ध नहीं हैं – नात्यर्थं क्षुभ्यते देवी गङ्गेव जलदागमे।
दु:ख के समय विशेष प्रकार के धैर्य धारण की स्त्री सुलभ प्रकृति को यह उपमा रेखाङ्कित करती है।
कपि की स्मृति में वनवासी राम के महान कर्म एक एक कर उभरते चले गये, अहो! सभी तो इन्हीं देवी सीता के लिये ही किये गये – अस्या हेतो, अस्या निमित्ते, अस्या कृते!
ये ऐसी हैं कि इनके लिये यदि राघव राघव समुद्र पर्यंत मेदिनी या समूचे संसार को भी उलट पुलट दें तो मेरी मति से उचित ही होगा।
यदि रामः समुद्रान्तां मेदिनीं परिवर्तयेत् ।
अस्याः कृते जगच्चापि युक्तमित्येव मे मतिः ॥
सीता को समक्ष निहारते एवं श्रीराम द्वारा कहे की स्मृति का आश्रय ले हनुमान दु:ख की लहरों पर उतराते चले गये, मन दृढ़ होता चला गया – यही हैं, केवल यही सीता हो सकती हैं – इत्येवमर्थं कपिरन्ववेक्ष्य; सीतेयमित्येव निविष्टबुद्धिः।
वृक्ष पर छिपे हुये ही दिन ढल गया। कुमुदखण्डाभ निर्मल चंद्र आकाश में कुछ ऊँचे चढ़ आये जैसे कि नील जलराशि में तैरता कोई हंस हो – हंसो नीलमिवोदकम्। उनकी किरणें पूर्ण चंद्र समान मुख वाली सीता के दर्शन में सहयोग करने लगीं:
चन्द्रमा रश्मिभिः शीतैः सिषेवे पवनात्मजम्
स ददर्श ततः सीतां पूर्णचन्द्रनिभाननाम्
वह भयानक राक्षसियों से घिरी हुई थीं:
एकाक्षीमेककर्णां च कर्णप्रावरणां तथा
अकर्णां शङ्कुकर्णां च मस्तकोच्छ्वासनासिकाम्
अतिकायोत्तमाङ्गीं च तनुदीर्घशिरोधराम्
ध्वस्तकेशीं तथाकेशीं केशकम्बलधारिणीम्
लम्बकर्णललाटां च लम्बोदरपयोधराम्
लम्बौष्ठीं चिबुकौष्ठीं च लम्बास्यां लम्बजानुकाम्
ह्रस्वां दीर्घां च कुब्जां च विकटां वामनां तथा
करालां भुग्नवस्त्रां च पिङ्गाक्षीं विकृताननाम्
विकृताः पिङ्गलाः कालीः क्रोधनाः कलहप्रियाः
कालायसमहाशूलकूटमुद्गरधारिणीः
वराहमृगशार्दूलमहिषाजशिवा मुखाः
गजोष्ट्रहयपादाश्च निखातशिरसोऽपराः
एकहस्तैकपादाश्च खरकर्ण्यश्वकर्णिकाः
गोकर्णीर्हस्तिकर्णीश्च हरिकर्णीस्तथापराः
अनासा अतिनासाश्च तिर्यन्नासा विनासिकाः
गजसंनिभनासाश्च ललाटोच्छ्वासनासिकाः
हस्तिपादा महापादा गोपादाः पादचूलिकाः
अतिमात्रशिरोग्रीवा अतिमात्रकुचोदरीः
अतिमात्रास्य नेत्राश्च दीर्घजिह्वानखास्तथा
अजामुखीर्हस्तिमुखीर्गोमुखीः सूकरीमुखीः
हयोष्ट्रखरवक्त्राश्च राक्षसीर्घोरदर्शनाः
शूलमुद्गरहस्ताश्च क्रोधनाः कलहप्रियाः
कराला धूम्रकेशीश्च रक्षसीर्विकृताननाः
पिबन्तीः सततं पानं सदा मांससुराप्रियाः
मांसशोणितदिग्धाङ्गीर्मांसशोणितभोजनाः
ता ददर्श कपिश्रेष्ठो रोमहर्षणदर्शनाः
स्कन्धवन्तमुपासीनाः परिवार्य वनस्पतिम्
तस्याधस्ताच्च तां देवीं राजपुत्रीमनिन्दिताम्
[5015005-018]
ऐसी वीभत्स एवं क्रूर राक्षसियों तथा प्रिय से वियोग के महान क्लेश से घिरी, केवल अपने शील से रक्षित – रक्षितां स्वेन शीलेन सीता मौन थीं जैसे कि अपने स्वामी की अंगुलियों के स्पर्श से वञ्चित वीणा हों!
क्लिष्टरूपामसंस्पर्शादयुक्तामिव वल्लकीम्
कीचड़ में लिपटी कमल नाल की भाँति शोभा एवं अशोभा, दोनों से युक्त दुखियारी सीता – मृणाली पङ्कदिघ्देव विभाति च न भाति च– की पहचान को पुष्ट कर मारुति को अतुलनीय हर्ष हुआ – प्रहर्षमतुलं लेभे मारुतिः प्रेक्ष्य मैथिलीम्। उधर अतुलनीय दु:ख था इधर अतुलनीय हर्ष, विरुद्धों के सामञ्जस्य स्थापित हुये, विलाप करते हनुमान के आँसू जाने कब हर्ष के आँसुओं में परिवर्तित हो गये:
हर्षजानि च सोऽश्रूणि तां दृष्ट्वा मदिरेक्षणाम्
उन्होंने मन ही मन श्रीराम को नमस्कार किया। पहचान सुनिश्चित होना तथा शोक एवं हर्ष की लहरों पर सवारी करते भावनाओं से पार पाना मानों दूसरा समुद्र लङ्घन ही था।
वृक्ष पर बैठे बैठे ही रात किञ्चित बीत चली। अंतिम प्रहर में ब्रह्मराक्षसों द्वारा किये जाने वाले वेदपाठ के स्वर सुनाई देने लगे – शुश्राव ब्रह्मघोषांश्च विरात्रे ब्रह्मरक्षसाम्।
ऐसी ब्रह्मबेला में सो कर उठते ही कामभाव से पीड़ित – मदनेन मदोत्कट:, कामपराधीन – रावण सज धज कर कुछ ऊँघती, कुछ चेतन शत स्त्रियों एवं मदिरापान के उपादानों के साथ सीता को देखने अशोकवनिका में पहुँच गया।
मारुतिनंदन ने स्त्री करधनियों का कलनाद सुना, नूपुरों की झनकार सुनी – काञ्चीनिनादं च नूपुराणां च निःस्वनम्। अप्रतिम कर्म एवं अचिंत्य बल सम्पन्न रावण वनिका के द्वार पर दिखा। पत्तों के झुरमुट में पुष्पों से ढक से गये हनुमान ने उसे पहचानने का प्रयत्न किया। विचित्र वस्त्राभरणों को धारण किये हुये रावण के कान ऐसे थे जैसे कि खूँटे गाड़ रखे हों! – क्षीबो विचित्राभरणः शङ्कुकर्णो।
यह निश्चय कर कि यही रावण है, मारुति जहाँ बैठे थे, वहाँ से कुछ नीचे उतर आये ताकि ठीक से देख सकें:
रावणोऽयं महाबाहुरिति संचिन्त्य वानरः
अवप्लुतो महातेजा हनूमान्मारुतात्मजः
सीता ने रावण को देखा तथा ऐसे काँपने लगीं जैसे अंधड़ में केले का पौधा हिल रहा हो! – प्रावेपत वरारोहा प्रवाते कदली यथा। श्रेष्ठवर्णा सीता ने अपने उरुओं से उदर तथा बाहों से वक्षों को आच्छादित कर लिया तथा बैठी ही रोने लगीं – ऊरुभ्यामुदरं छाद्य बाहुभ्यां च पयोधरौ । उपविष्टा विशालाक्षी रुदन्ती वरवर्णिनी॥
5017004c ददर्श दीनां दुःखार्तं नावं सन्नामिवार्णवे
5017005a असंवृतायामासीनां धरण्यां संशितव्रताम्
5017005c छिन्नां प्रपतितां भूमौ शाखामिव वनस्पतेः
…
5017006a समीपं राजसिंहस्य रामस्य विदितात्मनः
5017006c संकल्पहयसंयुक्तैर्यान्तीमिव मनोरथैः
…
5017008a वेष्टमानामथाविष्टां पन्नगेन्द्रवधूमिव
5017008c धूप्यमानां ग्रहेणेव रोहिणीं धूमकेतुना
…
सन्नामिव महाकीर्तिं श्रद्धामिव विमानिताम्
प्रज्ञामिव परिक्षीणामाशां प्रतिहतामिव
आयतीमिव विध्वस्तामाज्ञां प्रतिहतामिव
दीप्तामिव दिशं काले पूजामपहृतामिव
पद्मिनीमिव विध्वस्तां हतशूरां चमूमिव
प्रभामिव तपोध्वस्तामुपक्षीणामिवापगाम्
वेदीमिव परामृष्टां शान्तामग्निशिखामिव
पौर्णमासीमिव निशां राहुग्रस्तेन्दुमण्डलाम्
उत्कृष्टपर्णकमलां वित्रासितविहंगमाम्
हस्तिहस्तपरामृष्टामाकुलां पद्मिनीमिव
पतिशोकातुरां शुष्कां नदीं विस्रावितामिव
परया मृजया हीनां कृष्णपक्षे निशामिव
सुकुमारीं सुजाताङ्गीं रत्नगर्भगृहोचिताम्
तप्यमानामिवोष्णेन मृणालीमचिरोद्धृताम्
गृहीतामालितां स्तम्भे यूथपेन विनाकृताम्
निःश्वसन्तीं सुदुःखार्तां गजराजवधूमिव
एकया दीर्घया वेण्या शोभमानामयत्नतः
नीलया नीरदापाये वनराज्या महीमिव
उपवासेन शोकेन ध्यानेन च भयेन च
परिक्षीणां कृशां दीनामल्पाहारां तपोधनाम्
आयाचमानां दुःखार्तां प्राञ्जलिं देवतामिव
भावेन रघुमुख्यस्य दशग्रीवपराभवम्
समीक्षमाणां रुदतीमनिन्दितां; सुपक्ष्मताम्रायतशुक्ललोचनाम्
अनुव्रतां राममतीव मैथिलीं; प्रलोभयामास वधाय रावणः
[5017010-021]
जैसे सागर में डूबती नाव हो, जैसे भूमि पर कटी पड़ी वृक्ष की शाखा हो। सङ्कल्प संयुक्त मनोरथ एवं आत्मज्ञान के साथ अपने राजसिंह राम के समीप जाने को उत्सुक तापसी हो, जैसे कुण्डली मारे नागवधू हो, धूमकेतु द्वारा धूमावृत रोहिणी हो। मंद हुई महाकीर्ति हो, जैसे अपमानित श्रद्धा हो, भ्रष्ट पूजा हो, निराश आशा हो। जैसे ध्वस्त पद्मिनी हो, हत शूरों वाली सेना हो, तम से घिरी प्रभा हो, जैसे सूख गयी जलधार हो। जैसे बिगाड़ दी गयी वेदी हो, बुझा दी गयी अग्निशिखा हो, जैसे राहुग्रस्त पूर्णिमा का इन्दु हो। हाथियों द्वारा जिसके कमल रौंद दिये गये हों, व्याकुल पक्षियों से घिरी उत्कृष्ट पत्तों से युक्त कोई पुष्करिणी हो, पतिशोक से दीन जैसे कोई सूख गयी नदी जिसका पानी अर्घ्य अर्पित करने योग्य भी न रह गया हो, जैसे कृष्णपक्ष की निशा, जैसे धूप में तपती तोड़ कर फेंक दी गयी कमलनाल हो। अपने यूथप से बिछड़ी यूप में बाँध दी गयी बारम्बार उसाँस भरती जैसे कोई गजराजवधू हो, एकल वेणी युक्ता जैसे वर्षा ऋतु बीत जाने पर श्यामल वृक्षों की एकल पंक्ति से शोभित मही हो।
ऐसी सीता तपोधना को जो उपवास, शोक, प्रिय के ध्यान एवं निरंतर भय से क्षीण कृशगात हो गयी थीं, ऐसी राम की अनुव्रती सीता को इस अवस्था में रावण ने प्रलोभन दिये तथा न मानने पर वध करने की धमकी दी।
मां दृष्ट्वा नागनासोरुगूहमाना स्तनोदरम्
अदर्शनमिवात्मानं भयान्नेतुं त्वमिच्छसि
कामये त्वां विशालाक्षि बहुमन्यस्व मां प्रिये
सर्वाङ्गगुणसंपन्ने सर्वलोकमनोहरे
नेह केचिन्मनुष्या वा राक्षसाः कामरूपिणः
व्यपसर्पतु ते सीते भयं मत्तः समुत्थितम्
स्वधर्मे रक्षसां भीरु सर्वथैष न संशयः
गमनं वा परस्त्रीणां हरणं संप्रमथ्य वा
[5018002-005]
मुझे देख तुम अपने अङ्ग छिपाने लगती हो ताकि मैं तुम्हें निहार न सकूँ। तुम सभी अङ्गों से गुण सम्पन्न हो, सभी लोकों के लिये मनोहर हो, हे विशालाक्षी! मैं तुम्हारी कामना रखता हूँ। मनुष्य, राक्षस या कामरूपी; इनमें से कोई भी तुम्हें मेरे भय से मुक्ति नहीं दिला सकता।
परस्त्रीगमन एवं उनका बलात हरण, हे भीरु!
ये राक्षसों के सर्वदा स्वधर्म रहे हैं, इसमें संशय नहीं है। मान जाओ।
(क्रमश:)
तृणमन्तरतः कृत्वा प्रत्युवाच शुचिस्मिता
तिनके की ओट कर पवित्र मुस्कान के साथ सीता ने उत्तर दिया:
अकृतात्मानमासाद्य राजानमनये रतम्।
समृद्धानि विनश्यन्ति राष्ट्राणि नगराणि च॥
मनमाने आचरण वाले दुष्टबुद्धि राजा के कारण
समृद्ध राष्ट्र एवं नगर भी विनाश की गति को प्राप्त हो जाते हैं।