कविता, एन रणसिंहे, श्रीलंका
तीन लड़के, एक श्वान और एक रज्जु।
विहान में तट पर पछाड़ खाती लहरें,
नहीं डुबो पातीं श्वान की चीत्कार को,
न ही पवन के रविरश्मि गान उसे चुप कर पाते।
उसकी यातना दर्शक की आँखों में,
भेद देती है कृष्ण विवर।
उसका निस्सहाय क्लेश
तुम्हारे हाथों में ऐंठता है –
जैसे जैसे रज्जुपाश निबिडित होता है।
उसे पीटती है बेंत की तनु छड़ी –
कठोर, कठोरतम प्रहार!
तब वे बालू का करते हैं क्षेप
बालू भर जाती है उसकी आँखों में
बालू भर जाती है उसकी नाक
बालू भर देती है उसके कान।
और यद्यपि द्रष्टा के आँसू
मेरे मुँह भर जाते हैं क्षार स्वाद,
पराङ्गमुख वर्षों से
मेरी जीभ हो गयी है स्थावर क्लिन्न
(मैं कुछ नहीं कह सकती)।
और लोग
तैरते हैं
धूप नहाये समुद्र में –
एक सामान्य सा दिन!
वे करते हैं क्रीड़ा-रव,
आओ, खेलते हैं उसे गाड़ने का खेल।
और तब,
वे उसे सच में तोप देते हैं
बालू में!
श्रीलङ्का से एन रणसिंहे – यहूदी महिला थीं जो हिटलर द्वारा चलाये जा रहे नृजाति विनाश अभियान से भाग कर श्रीलङ्का में शरण ली।