अतिथि सम्पादक – श्री त्रिलोचन नाथ तिवारी
हंस भारतीय साहित्य, कला, दर्शन एवं तन्त्र का बड़ा ही लाडला पक्षी है। पक्षी विज्ञान के ज्ञाताओं की विवेचनाओं से इतर, यह पक्षी वास्तव में ललित अभिव्यक्तियों हेतु एक ऐसी रूढ़ि है जिसके ढाई अक्षरों में प्रेम के ढाई अक्षरों से अधिक आकर्षण है किन्तु इतना अवश्य है कि प्रेम के ढाई अक्षर सरल मनों को अधिक समझ आते हैं किन्तु हंस के ढाई अक्षरों को समझने हेतु मन का सरल ही नहीं, तरल भी होना आवश्यक है। और ऐसे ही सरल-तरल मना साहित्यकारों ने, चित्रकारों एवं मूर्तिकारों ने, दार्शनिकों एवं तांत्रिकों ने, इस हंस शब्द को अपनी अपनी विधा में, अपने अपने ढंग से बहुत ललक कर अपनाया है।
हंस के साथ ढेरों किम्वदंतियाँ जुड़ी हैं, मिथक जुड़े हैं। वे वैज्ञानिक रूप से कितनी सत्य हैं इसकी चर्चा ही व्यर्थ है क्योंकि विज्ञान तो कहता है कि चन्द्रमा पर बड़े तथा बड़े-बड़े गड्ढे हैं, किन्तु इस कारण साहित्य एक सुन्दरी को चन्द्रमुखी कहना छोड़ तो नहीं देता? विज्ञान की सत्यता के साथ उसमें जो नीरसता है उस नीरसता को हर समय, हर स्थान पर नहीं ढोया जा सकता अतः मन के रेशमी वितानों को तानते समय बुद्धि के काँकर-पाथर बुहार कर कहीं किनारे लगा देना ही योग्य एवं उचित है। सत्य है कि मन के निरर्गल अश्व पर बुद्धि का नियन्त्रण आवश्यक है, किन्तु कभी–कभी कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में मन-तुरग को एकान्त-विचरण हेतु उन्मुक्त भी छोड़ देना चाहिये!
हंस के साथ जुडी एक महत्वपूर्ण रूढ़ि है कि हंस मोतियाँ चुगता है। हंसा तो मोती चुगे! हंस चुन-चुन कर मोतियों को चुगता है। मोती के उत्पन्न होने की प्रक्रिया अत्यन्त दारुण है। सीप के बाह्य-कठोर आवरण के भीतर उसके मृदु-गात्र में कोई बाह्य कटु-सिकता-कण समा जाये और वह निरन्तर चुभने लगे तो सीप उस चुभन से बचने को उस सिकता-कण पर अपनी अन्तःस्रावी ग्रंथियों द्वारा एक मृदु-लेप स्रवित करता है जिससे सिकता-कण के कोणीय चुभन से उसे मुक्ति मिल सके। किन्तु इस प्रक्रिया में वह चुभन भले कम हो जाय, एक अनिच्छित बाह्य-कण निरन्तर वर्धमान होता जाता है जिसकी चुभन भले कम हो चुकी हो, किन्तु उसकी उपस्थिति का अटपटापन बना ही रहता है और सीप के पास उस अटपटेपन से बचाव का कोई अन्य साधन नहीं अतः वह अपने अन्तःस्रावी ग्रंथियों से उस पर लेप पर लेप चढ़ाता जाता है, अटपटापन बढ़ता जाता है, और साथ ही बढ़ती जाती है सीप की अंतर्वेदना भी! संसार सीप की उस बढ़ती अंतर्वेदना के कारण को जब प्राप्त करता है तो उसे मिलता है एक मोती! चमकदार, पानीदार मोती! मोती वास्तव में सीप की अंतर्वेदना है! मन की अंतर्वेदना ही मन का मोती है और हंस मोती चुगता है, अंतर्वेदनाओं को पहचान कर, मुक्ता-मणि को पहचान कर उन्हें चुन-चुन कर चुगता है अर्थात् वह अंतर्वेदनाओं को स्वीकार करता है, अंगीकार करता है, अंतर्भुक्त करता है! यह गुण किसी हंस-मना व्यक्तित्व में ही हो सकता है जो मन की वेदना का महत्व समझे और उसे मोती बना कर अपना ले!
हंस के साथ जुडी एक अन्य रूढ़ि है उसका नीर-क्षीर विवेक! कहते हैं कि हंस जल-मिश्रित दुग्ध में से दूध तो पी लेता है किन्तु जल उसके चञ्चु से बाहर टपक जाता है। इस जगती में शुद्ध सुवर्ण कहीं है ही नहीं! क्योंकि शुद्ध सुवर्ण से हेमालंकार निर्मित नहीं होते! अतः सृष्टि में जो कुछ भी है, शुद्ध एवं अशुद्ध का, सत्य एवं असत्य का, शुभ एवं अशुभ का, रूप एवं कुरूप का मिश्रण है। श्रेय को, प्रेय को, शुद्ध को, सत्य को, तत्व को, सत्व को, छान कर निकाल लेना ही हंस-मति है! कबीर ने कहा — साधू ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय! सार-सार को गहि रहे, थोथा देहि उड़ाय!! हंस साधू है, साधु है। अच्छा साहित्यकार भी जल मिश्रित दुग्ध का दूध और जल बिलगा कर जिन्हें दुग्ध चाहिये उन्हें दुग्ध एवं जिन्हें जल चाहिये उन्हें जल परोस देता है। साहित्य की समझ भी हंस की समझ सी ही है! जिन्हें यह समझ होती है वे दुग्ध-पान कर लेते हैं, जल के मिश्रण का दोषारोपण नहीं करते!
हंस को सरस्वती का वाहन माना गया है। सरस्वती ब्रह्मा की अर्धांगिनी हो कर भी देवकुल की नहीं, अप्सराकुल की देवी है। वह ज्ञान की नहीं कला की अधिष्ठात्री है। सरः स्वती, प्रवाहमान नदी की समानधर्मा सरस्वती अपने शान्त स्वरुप में जितनी ही आकर्षक-मोहक है, अपने क्रुद्ध रूप में भी उतनी ही! और ऐसी सरस्वती का वाहन है हंस! मानसर में तिरता – तैरता नतग्रीव हंस जितना ही भव्य दिखता है, शुष्क भूमि पर भी उसकी चाल की लचक तथा ठमक में एक अद्भुद लालित्य होता है! हो भी क्यों न? अन्ततः वह सरस्वती का वाहन ठहरा! हंस-पगा कामिनी संस्कृत साहित्य का एक मादक उपमेय एवं उपमान हैं! उन्नत ग्रीवा के साथ ठुमक-ठुमक कर हंस का चलना एक भिन्न ही छटा का सर्जन करता है। किन्तु हंस की उड़ान भी कम नहीं! उड्डीन – पड्डीन गति से सागर के वक्ष पर उड़ान भरते हंस से प्रतिस्पर्धा गरुड़ करे तो करे, अन्य किसी पक्षी में यह सामर्थ्य नहीं कि वह हंस को चुनौती भी दे सके! हंस के चलन में एक ललन है तो उसके उड्डयन में ललन के साथ दक्षता भी है।
हंस जल में तैरते हुए भी सो लेता है, या इसे ऐसे कहें कि वह सोते हुए भी तैर लेता है। हंस के प्रमाद से उसके कर्तव्य में बाधा नहीं पहुँचती! हंस से जुड़ी रूढ़ियाँ अनगिन हैं तथा प्रत्येक रूढ़ि एक कोमल किन्तु सुदृढ़ रहस्य का प्रतीक है। और इन रूढ़ियों की यही कोमल रहस्यात्मकता इसे भारतीय साहित्य, कला, दर्शन एवं तन्त्र में एक महत्वपूर्ण अवयव के रूप में स्थापित करती है। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध तथा भावप्रवण भारतीय चिन्तना ने जितने भी प्रतीक गढ़े हैं उनमें हंस शब्द के रहस्य का घनत्व एवं विस्तार दोनों ही सबसे अधिक है।
फलित ज्योतिष में हंस नामक एक योग होता है जिसके अनुसार यदि किसी जातक की कुण्डली में बृहस्पति लग्न से या चन्द्र-अधीष्ठित राशि से पहले, चौथे, सातवें और दशवें घर में कर्क, धनु अथवा मीन राशि में स्थित हों तो यह हंस योग है। इस योग वाले जातक को जीवन में सारी सुख-सुविधाएं प्राप्त होती हैं। यह योग बृहस्पति द्वारा बनने वाले पञ्च-महापुरुष योगों में से एक है।
पुनः खगोल में हंस एक तारामण्डल (Cygnus the Swan Constellation) का नाम है। बारह तारों के समूह में नौ कान्तिमान तारे आकाश में इस हंस की आकृति का निर्माण करते हैं। यह आकाश के उत्तरी गोलार्ध का तारामण्डल है।
सबसे कान्तिमान अभिजित नक्षत्र के साथ वीणा तारामण्डल (Lyra Constellation) हंस तारामण्डल के पश्चिम में स्थित है, और पूर्व में आप पर्णिन-अश्व या पॅगासस (Pegasus constellation) तारामण्डल को देख सकते हैं जिसकी आकृति एक उड़ान भरते अश्व (खगाश्व) की है। हंस तारामण्डल के दक्षिण की ओर आठ तारों का समूह गरुड़ तारामण्डल (Aquila Constellation) है जो हंस तारामण्डल की ओर एक गरुड़ की भाँति उड़ान भरता सा प्रतीत होता है। ये चारो तारामण्डल हंस, वीणा, गरुड़ एवं अश्व, परस्पर ऐसे स्थित हैं जैसे सरस्वती का वाहन हंस, सरस्वती का वाद्ययंत्र वीणा, विष्णु का वाहन गरुड़ तथा इन्द्र का प्रिय अश्व उच्चैःश्रवा किसी कारणवश एकत्र हो गये हों।
और भारतीय दर्शन में हंस आत्मा का प्रतीक है। आत्मा शब्द का मूल अर्थ है – निरन्तर यात्रा करने वाला, सदा गति में रहने वाला! और सदा – सर्वदा जो विद्यमान रहे वही सनातन है तथा यात्रा अथवा गति कैसी भी हो, वह सदा समय के, काल के सापेक्ष है। अतः आत्मा एक सनातन कालयात्री है। गति की परम अवस्था तो परमात्मा है किन्तु उसका स्थूल दर्शन सम्भव नहीं क्योंकि संसार की समस्त गतिशीलता को धारण करने वाला गति से अतीत होगा ही! वैसे ही जैसे सागर में आवर्त है, आलोडन है, तरंग है, किन्तु यह सागर के उपलक्षण हैं, स्वयं सागर नहीं! अतः परमात्मा अपने लक्षणों को प्रदर्शित कर देने के पश्चात् भी ज्ञानातीत है। परमात्मा ज्ञान की सीमा से बाहर है क्योंकि ज्ञान एक उपकरण है जो मूल की व्याख्या करने का प्रयास भले कर ले, मूल से तद्रूप नहीं हो सकता। अतः उस परम-गति परमात्मा की विवेचना में अगति ही नहीं, दुर्गति भी है, किन्तु परम-गति से सञ्चालित निरन्तर गतिमान हंस-प्रज्ञा संपन्न सनातन कालयात्री आत्मा की सर्वांग तो नहीं किन्तु खण्डशः विवेचना सम्भव है।
एक हंस के शरीर पर सहस्राधिक पञ्ख होते हैं किन्तु जल में रह कर भी वे गीले नहीं होते! और मानसरोवर एक वास्तविक स्थल होने के साथ-साथ दर्शन का एक रहस्यमय शब्द भी है। आत्म-हंस हेतु मानसरोवर का जल ही माया है और माया है – मा या! मा संस्कृत में निषेधात्मक अर्थ में व्यवहृत होता है तथा या का अर्थ है जो! अतः ‘मा’ ‘या’ का अर्थ है – जो नहीं है! और काया जिसका सामान्य अर्थ शरीर समझा और जाना-माना जाता है उसका अर्थ है – ‘कौन है यह?” का या? का – कौन है?, या – यह! हंस-प्रज्ञा माया को “जो नहीं है” तथा काया को “कौन है यह?” के रूप में ही स्वीकार करती है। यह शरीर, यह काया, जिसमें आत्मा रूपी हंस का वास है, वह इसे एक अनजान संज्ञा के रूप में तथा माया को अस्तित्व-विहीन स्वरुप में ही ग्रहण करती है। आत्मा हेतु माया एक भ्रम है तथा काया एक अनजानी संज्ञा! यही कारण है कि आत्मा माया तथा काया दोनों से निर्लिप्त है, कभी भी, कहीं भी, किसी भी बहाने से इसे छोड़ देने को, त्याग देने को उद्द्यत, तत्पर, सज्ज! आत्मा हेतु, हंस हेतु, माया मानसरोवर का जल है तो काया काचा कुम्भ कुम्हार का!
शिव-स्वरोदय के अनुसार हकारो निर्गमे प्रोक्तः सकारेण प्रवेशणम्। हकारः शिवरूपेण सकारः शक्तिरुच्यते॥ अर्थात् योग-शास्त्र कहता है कि मानव के निःश्वांस से हं तथा श्वांस से सः की ध्वनि प्रस्फुटित होती है। अब हं शिव वाच्य है तथा सः शक्ति वाच्य! शिव तथा शक्ति का यह समवाय हंसः ही जीव का जीवन है। श्वाँस का आना और जाना, शक्ति तथा शिव का यह समन्वय, यह तालमेल ही प्राणों का हेतु है। इस तालमेल का बना रहना ही जीवन है तथा इसका भङ्ग होना ही मृत्यु है। किन्तु शिव तथा शक्ति का यह क्रम उलटा है। शुद्ध क्रम है प्रथम शक्ति तदुपरान्त शिव! प्रथम श्वाँस का आना, और बाद में जाना! प्रथम सः तब हं! और इस क्रम में शक्ति-शिव सायुज्य से बनता है सोऽहं! इस सोऽहं से स तथा ह को निकाल दें तो शेष रहता है ॐ जो निर्गुण ब्रह्म वाचक है। अतः सोऽहं है निर्गुण ब्रह्म के उभयतः स्थित शक्ति तथा शिव के रूप में प्राणों का हेतु – ब्रह्मतत्व तथा आत्मतत्व का ऐक्य, तथा हंस है वह आत्मा जो जीव रूप हो, माया के आवरण तथा काया के बन्धन में ॐ के परम-तत्व से वंचित है। हंस भी है तो वही सोऽहं ही, किन्तु ॐ से पृथक है, व्त्युक्रम में है, अतः हंसः है, परमात्मा का अंश हो कर भी आत्मा है, परम गति का भाग हो कर भी मात्र गति है, यद्यपि निरन्तर गति है। अतः प्रत्येक आत्मा एक सनातन कालयात्री है, या, सनातन कालयात्री एक आत्मा है जो अजर है, अमर है, अविनश्वर है – जीर्ण वस्त्रों को यथा-अवसर, यथा-समय त्याग कर नया पहनने वाला तथा नयी यात्रा पर चल देने वाला!
हकारेण तु सूर्यः स्यात् सकारेणेन्दुरुच्यते। सूर्य चन्द्रमसोरै क्यं हठ इव्भिधीयते॥
हठेन ग्रस्यते जाडद्य सर्वदोष समुद्भवम्। क्षेत्रज्ञः परमात्मा च तपोरैक्य तदाभवेत्॥
— योग शिखोपनिषद्
हकार का अर्थ सूर्य नाड़ी या दक्षिण स्वर होता है तथा सकार का अर्थ चन्द्र नाड़ी या वाम स्वर होता है। अर्थात् ह पिङ्गला का तथा स इड़ा का द्योतक है और इन दोनों का बलात् सामरस्य जो सुषुम्ना में किया या कराया जाता है वही हठ योग है। हठ का ह सूर्य वाच्य है तथा शिव वाच्य तो है ही, किन्तु हठ का ठ चन्द्र-वाच्य है, अतः वह शक्ति-वाच्य भी है। और, सकारं च हकारं च लोपयित्व प्रयोजनत। सन्धि च पूर्व रूपाख्याँ ततोऽसौ प्रणवो भवेत्॥ सोऽहं पद से सकार एवं हकार का लोप करके सन्धियोजना की जाय तो प्रणव अर्थात् ॐ की लब्धि होती है। यह योग शास्त्र का हंस है, यह साधना क्षेत्र का हंस है।
अजपा गायत्री के विधान एवं विज्ञान के समन्वय को हंस-योग साधना कहते हैं जो कुण्डलिनी जागरण में प्रयुक्त होने वाली सोऽहं साधना है। इस साधना का महत्व एवं प्रतिफल बताते हुए ‘हंसोपनिषद’ कहता है — हंससयाकृतिविस्तारं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम। सर्वेषु देवेषु व्याप्त वर्तते यथा ह्यग्निः काष्ठेषु, तिलेषु तैलमिव। त दिवित्वा न मृत्युमेति! हंस तत्त्व (तद् त्व) का आकार विस्तार भुक्ति तथा मुक्ति दोनों का प्रदाता है। जिस प्रकार काष्ठ में (गुप्त रूप से) अग्नि का तथा तिलों में तेल का वास है उसी प्रकार प्रत्येक देही में भी ब्रह्म का वास है। जो इसे जान लेता है वह मृत्यु से छूट जाता है।
सनातन का अर्थ है सार्वकालिक! जिसका नाश नहीं हो सकता वही सनातन है अतः वह सदातन भी है। और काल की यात्रा रैखिक या एक-दिशीय नहीं! हम उसे रैखिक या एक-दिशीय रूप में व्यवहृत करते हैं यह हमारी अज्ञानताजनित विवशता है अन्यथा काल के नियामक महानायकों में से किसी की भी गति रैखिक तथा एक-दिशीय नहीं है। ग्रह, नक्षत्र, तारे, सभी तारामण्डल, आकाशगङ्गा, नीहारिकायें, सभी की गति वर्तुल है, अपने अक्ष पर भ्रमित भी, अपने चक्रण के केन्द्र पर नर्तित भी, और प्रत्येक के चक्रण का जो केन्द्र है उस केन्द्र की भी अपनी एक वर्तुल गति है जिसका केन्द्र कहीं और है अतः आत्मा रूपी सनातन कालयात्री की यात्रा जन्म तथा मृत्यु नामक दो काल-बिन्दुओं के सापेक्ष प्रारम्भ या समाप्त नहीं होती! हो ही नहीं सकती! यह यात्रा तो एक वर्तुल में निरन्तर चलते रहने की यात्रा है! अब यात्री के स्थूल दर्शन इस वर्तुल मार्ग में कभी हो भी सकते हैं, कभी नहीं भी हो सकते क्योंकि काल के शाश्वत वर्तुल पथ की यात्रा में ग्रह अस्त तथा उदित होते ही रहते हैं किन्तु उनके अस्त होने का तात्पर्य उनका न होना नहीं! परिदृश्य से अनुपस्थित होना अस्तित्व से अनुपस्थित होना नहीं होता, यही कारण है कि आत्मा को अजर-अमर माना गया है क्योंकि आत्मा की यात्रा का, सनातन कालयात्री आत्मा की यात्रा का कहीं और कभी कोई अन्त नहीं! उसे चलना है, चलते रहना है!
जिसके चित्त में विचलन न हो वही अथर्व है! अविचलित चित्त वाला अथर्व ऋषि अथर्ववेद के अष्टम काण्ड के प्रथम सूक्त में प्रारम्भ में ही कहता है – अन्तकाय् मृत्यवे नमः! मृत्यु के देवता को नमस्कार है! प्राणा अपाना इह ते रमन्ताम्! इहायमस्तु पुरुषः सहसुना सूर्यस्य भागे अमृतस्य लोके! प्राण एवं अपान उसकी कृपा से शरीर में विहार करें तथा प्राण-त्याग की आशंका से ग्रस्त पुरुष सूर्य के एक भाग रूप पृथ्वी पर प्राण एवं प्रजा से युक्त हो निवास करे!
किन्तु मृत्यु को, मृत्यु के देवता को भी कोई नमस्कार करता है? हाँ! करता है! अथर्व ऋषि, अविचलित मन वाला ऋषि, काल का सत्य जानने वाला ऋषि मृत्यु को तथा मृत्यु के देवता को भी नमस्कार करता है। किन्तु अथर्व मन तनिक नीरस होता है! थोड़ा शुष्क, थोड़ा कठोर! उसका समस्त लालित्य-रस किसी नारिकेल-फल की भाँति एक कड़े आवरण में निबद्ध रहता है जिसे तोड़ कर मीठा डाभ पी पाना श्रमसाध्य कर्म है। सहज-सरल लालित्य तो साम में है! सङ्गीत का बहता झरना! का साम्नो गतिरिति स्वरिति होवाच। स्वर की गति ही साम है। किन्तु ऋत तथा क्रतु का, सत्य एवं आदर्श का समवेत स्वर अपने सम्पूर्ण सरसता के साथ यदि कहीं है तो वह ऋक् में है! ऋक् के साथ स्वर-सम्मिश्रण होने से ही साम की विशेषता साम है — सा च अमश्चेति तत्साम्नः सामत्वं! ऋग्वेद दशम मण्डल सूक्त १६ में ऋग्वैदिक ऋषि कहता है —
मैनमग्ने वि दहो माभि शोचो मास्य त्वचं चिक्षिपो मा शरीरम्।
यदा शृतं कृणवो जातवेदोऽथेमेनं प्र हिणुतात्पितृभ्यः॥१॥
शृतं यदा करसि जातवेदोऽथेमेनं परि दत्तात्पितृभ्यः।
यदा गच्छात्यसुनीतिमेतामथा देवानां वशनीर्भवाति॥२॥
सूर्यं चक्षुर्गच्छतु वातमात्मा द्यां च गच्छ पृथिवीं च धर्मणा।
अपो वा गच्छ यदि तत्र ते हितमोषधीषु प्रति तिष्ठा शरीरैः॥३॥
अजो भागस्तपसा तं तपस्व तं ते शोचिस्तपतु तं ते अर्चिः।
यास्ते शिवास्तन्वो जातवेदस्ताभिर्वहैनं सुकृतामु लोकम्॥४॥
अव सृज पुनरग्ने पितृभ्यो यस्त आहुतश्चरति स्वधाभिः।
आयुर्वसान उप वेतु शेषः सं गच्छतां तन्वा जातवेदः॥५॥
— ऋग्वेद, दशम मण्डल, सूक्त १६, मन्त्र १ से ५ तक
हे अग्नि! इस मृत पुरुष को कष्ट न देना! इसकी देह को छिन्न-भिन्न मत करना! जब तुम्हारी ज्वाला इसका देह भस्म करने लगे तभी इसे इसके पितरों के पास पहुँचा देना! ॥१॥
हे अग्ने! इस मृतक को जब तुम दग्ध करने लगो, तभी इसे पितरों को सौंप देना। जब तक यह पुनः प्राणवान होगा तब तक यह देवाश्रय में रहेगा! ॥२॥
हे मृत पुरुष! तेरा श्वांस वायु में जा मिले, तेरे नेत्र सूर्य से संगति करें, अपने पुण्य कर्मों के फल प्राप्ति हेतु तू पृथ्वी अथवा जल में निवास कर, तथा तेरे शरीर के अंश वनस्पतियों में व्याप्त हों! ॥३॥
हे अग्ने! इस देहधारी जीव में जो अजन्मा था उसे अपने ताप से तपा तथा अपनी कल्याणमय विभूतियों द्वारा इसे पुण्यलोक की प्राप्ति करा! ॥४॥
हे अग्ने! तू यज्ञार्पित हव्य का सेवन करने वाले निज स्वरुप को पितरों के हेतु प्रेरित कर जिससे इस (मृतक) की अवशेष आयु पुनः प्राणवान हो तथा यह पुनर्जीवन को प्राप्त करे! ॥५॥
चंद्रिमा का कोई भार नहीं होता, भावनाओं के प्रतिबिम्ब नहीं बनते, दर्पण में निरखी जाती प्रतिच्छाया का आयतन या द्रव्यमान नहीं होता, कोमल बीरबहूटियाँ अपने पगों के चिह्न नहीं छोड़तीं, सुधियों के वातायन पर कोई कपाट नहीं होता अतः वे कभी अवरुद्ध नहीं होते और स्मृतियों पर भी कोई प्रतिबन्ध नहीं होता! और सुधियों के वातायन से स्मृतियों के अनायास चले आने का कोई इतिहास लिख सकना भी सदा सम्भव नहीं होता क्योंकि स्मृतियाँ सदैव शब्दों में नहीं ढल पातीं, अतः स्मृतियाँ कहने-सुनने हेतु नहीं, सँजोने और ढोने हेतु होती हैं।
वैखरी की क्षमता सीमित है तथा स्मृतियाँ, मध्यमा तथा पश्यन्ती से भी परे, परा वाक् का विषय हैं। परा है आत्मा के मूल आधार मूलाधार से उत्पन्न ध्वनि, जो किसी भी उपस्कर, उपकरण या यन्त्र द्वारा अग्राह्य है। वह अनुभूति का विषय है, अभिव्यक्ति का नहीं! पश्यन्ती है छाया, एक झलक दिखा कर तिरोहित हो जाने वाली वह तो किसी की नहीं, और मध्यमा बिन कहे समझने की है, प्रीति की प्रतीति! ले-दे कर हमारे पास बची वैखरी, तो वह अत्यन्त सक्षम हो कर भी कहीं-कहीं और कभी-कभी बहुत असहाय होती है क्योंकि वह आदान-प्रदान की, विपणन-वाणिज्य की, हाट तथा आपण की, समन एवं मेले की वस्तु है। इस टकसाली वाक् में सौदे हो सकते हैं, मन नहीं खोला जा सकता! अतः किसी संज्ञा को परा कहने का अर्थ ही यही है कि वह वाणी के उस सूक्ष्मतम स्वरुप का विषय है जिसे वैखरी से, लौकिक शब्दों से, अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।
स उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम्।
उतो त्वस्मै तन्वं वि सस्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः॥
— ऋग्वेद, दशम मण्डल सूक्त ७१, मन्त्र ४
वाणी की रहस्यमयी शक्ति को कुछ लोग देखते हुए भी नहीं देखते, सुनते हुए भी नहीं सुनते! वे लोग बड़े भाग्यवान हैं जिनके समक्ष वाणी का नग्न स्वरुप उद्भासित होता है।
वाणी प्रत्येक बार अविकल रूप से वही नहीं अभिव्यक्त कर पाती जो मन अभिव्यक्त करना चाहता है अतः यह सत्य है कि मेरी वाणी अधिक कुछ कह सकने में असमर्थ है किन्तु यह भी सत्य है कि हंस की, आत्मा की, सनातन यात्री की, सनातन कालयात्री की वर्तुल यात्रा एक जन्म तथा एक मृत्यु के बीच संक्षिप्त नहीं! वैदिक ऋषि आत्मा के पुनर्जन्म की प्रार्थना अनायास नहीं कर गया! वह जानता था, और मैं मानता हूँ कि मृत्यु उस हंस आत्मा के सोऽहं होने की प्रक्रिया में एक नयी यात्रा पर निकलने से पूर्व का एक पड़ाव मात्र है। पञ्चतत्वों के पञ्चतत्वों में विलीन होने के पश्चात् पुनः उन्ही पञ्चतत्वों से एक नयी अचम्भित करने वाली काय-रथ ‘काया’ का निर्माण कर आगे की यात्रा हेतु प्रस्थान करने से पूर्व का एक विश्राम!
अतः कालयात्री लौट कर तो आयेगा! हो सकता है कि हमारी प्रतीक्षा थक जाय, हो सकता है कि उसके नवीन रूप-स्वरुप को हम पहचान न सकें, हो सकता है कि जब तक वह लौट कर आये तब तक हम ही एक नयी यात्रा हेतु प्रस्थान कर चुके हों, किन्तु इस कारण हम उसके पुनः आगमन की प्रतीक्षा से विरत नहीं हो सकते! क्योंकि हो सकता है कि किसी पल अचानक वह सामने आ खड़ा हो और पूछ बैठे — “पहचाना मुझे? मैं वही हूँ! सोऽहं!”
और यदि हमने प्रतिप्रश्न कर दिया कि कौन वही? तो हो सकता है कि उसका उत्तर हो — हंसः! आत्मा! अर्थात् निरन्तर गतिशील! एक यात्री! काल के सापेक्ष यात्री! रैखिक एवं एक-दिशीय काल जिसे समय कहते हैं, उसके सापेक्ष नहीं, वर्तुल काल के सापेक्ष, महाकाल के सापेक्ष, आ आ कर लौट जाने वाला, और जा जा कर लौट आने वाला एक सनातन यात्री! जो सदातन भी है! वही हूँ मैं! सनातन कालयात्री! सोऽहं हंसः!
और यह हो भी सकता है, सम्भवतः नहीं भी हो सकता है, किन्तु ऐसा नहीं है कि हो ही नहीं सकता! किसी अन्य प्रकार से नहीं तो सम्भवतः सुधियों के वातायन से ही सूने में एक शरीर धरे वह सम्मुख आ खड़ा हुआ, जो निश्चित ही उसकी अविराम यात्रा के क्रम में एक ठिठका हुआ क्षण होगा जो पुनः अपनी यात्रा में कहीं और आगे चल देगा, उस क्षण, या ऐसे प्रत्येक क्षण में मैं तो उससे यही कहूँगा — शिवास्ते पन्थानः! तुम्हारा मार्ग शुभ हो! तुम्हारी यात्रा शुभ हो!
ऐसे आलेख पढ़कर मन में कुछ बंद है जो खुलता जाता है और आश्चर्य चकित रह जाते हैं हम.🙏
सर पंचवा एवं सूक्ष्म ग्रंथ कबीरसगर का क्या रहस्य है। एक अनपढ़ संत ने 33 करोड़ वाणियो को बाखा है। ये कोई साधारण पुरुष नहीं कर सकता। वेदों, कुरान, बाइबल, गुरु ग्रंथ साहिब में कविर्देव के जिक्र क्यों है क्या यह महज एक इत्तेफाक है या कुछ और। गीता का सही रूपान्तरण इंसानों तक क्यों नहीं पहुंच रहा है।
अत्यंत सरस आलेख। सर्वथा नवीन और संशय ग्रंथि छिन्न करने वाला । वेद, पौराणिक इतिहास और कवि समयों में अनेक प्रतीकों का प्रयोग है जिनका रहस्य उनके नामों में ही अवगुंठित है। हंस पक्षी के सभी पक्षों को आपने इस ललित निबंध में अनिबद्ध कर दिया।
आपकी लेखनी यूँ ही अनवरत चलती रहे ।