जीवन सुखी, समृद्ध एवं आनंदमय बने, इसके लिए सनातन परम्परा में अनेक संस्कारों का विधान किया गया तथा दिनचर्या निश्चित की गई। निर्धारित दिनचर्या सनातन जीवन शैली का एक मुख्य स्तम्भ है। प्रातः काल से ही निर्धारित दिनचर्या संसार की किसी भी परम्परा में इस प्रकार परिभाषित नहीं है। दिनचर्या अर्थात आहार, विहार एवं आचरण के नियम (routines) । अनेक पुराणों में दिनचर्या, आह्निक, नित्यकर्म आदि की चर्चा है। प्राचीनकाल से ऋषि-मुनियों का दिन ब्राह्ममुहूर्त से आरम्भ होता था तथा दिनचर्या प्रकृति मास-दिवस-सूर्योदय-सूर्यास्त के अनुरूप थी।
आयुर्वेद में भी प्रकृति के अनुरूप दिनचर्या स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य मानी गयी है। प्रातः काल उठने से सोने तक किए गए कृत्य दिनचर्या के रूप में परिभाषित हैं। सनातन ग्रंथों में सूर्य गति के अनुसार ब्राह्ममुहूर्त1 में प्रातः विधि, स्नान एवं संध्या निर्धारित है, तत्पश्चात वेदाध्ययन एवं कृषि इत्यादि कार्य, सायंकाल संध्या वंदन तथा रात को शीघ्र शयन। धर्मशास्त्रों में आह्निक [अह्नि भवः, अह्ना निर्वृत्तः साध्यः ठञ्, निश्चित दैनिक कर्म] को प्रधानता दी गई है तथा इसे मानव शरीर के लिए अत्यंत उपयुक्त एवं पोषक माना गया है। साथ ही इसे मानसिक शांति, विकास का साधन भी माना गया है।
आह्निक के यथार्थपालन का अर्थ है दरिद्रता, व्याधि, दुर्व्यसन, मनोविकृति इत्यादि की अनुपस्थिति। सनातन दर्शन के अनुसार व्यक्ति को दिनचर्या में नियमित रहना चाहिए। जो समस्त क्रियाओं को विचारपूर्वक करता है, इन्द्रियों के विषयों में लिप्त नहीं होता, सदा दूसरों को देने की भावना रखता है, दानशील होता है, समभाव रखता है, सत्यवादी और क्षमावान तथा अपने पूज्य व्यक्तियों के वचनों का पालन करता है, वह प्रायः रोगों से दूर रह सकता है। इस सन्दर्भ में कहा गया है –
नित्यम् हिताहार विहार सेवी, समीक्ष्यकारी विषयेष्वशक्त ।
दाता समः सत्यपराक्षमावान्, आप्तोपसेवी च भवत्यरोगः ॥
मनु भी कहते हैं, श्रुति और स्मृति में कथित अपने नित्यकर्मों के अङ्गभूत धर्म का मूल सावधानी पूर्वक सेवन करना चाहिए –
श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यङ्निबद्धं स्वेषु कर्मसु। धर्ममूलं निषेवेत सदाचारमतन्द्रितः ॥
अष्टाङ्गहृदयम् के सूत्रस्थान में दिनचर्या, रात्रिचर्या तथा ऋतुचर्या का वर्णन है, यथा दैनिक –
(१) प्रातः उत्थान (२) मलोत्सर्ग (३) दन्तधावन (४) नस्य (५) गण्डूष2 (६) अभ्यङ्ग (तैल मर्दन) (७) व्यायाम (८) स्नान (९) भोजन (१०) सद्वृत्त (११) निद्रा
सामान्यतः दिनचर्या ब्रह्ममुहूर्त काल में उठने से लेकर प्रातःकाल3, संध्यावंदना, पूजन एवं प्रातर्वैश्वेदेव के पश्चात संगवकाल3 में उपजीविका के साधन, मध्याह्नकाल3 में मध्याह्नस्नान, मध्याह्नसंध्या, ब्रह्मयज्ञ एवं भूतयज्ञ इत्यादि तथा अपराह्नकाल3 में पितृयज्ञ एवं सायाह्नकाल3 में पुराणश्रवण परिचर्चा, सायंवैश्वदेव एवं संध्या। साथ ही दिनचर्या के प्रत्येक क्रियाकलापों के भी नियम तथा महत्त्व निर्धारित किए गए। यथा –
स्नानं दानं होमं स्वाध्यायो देवतार्तनम्। यस्मिन् दिने न सेव्यन्ते स वृथा दिवसो नृणाम् ॥
सनातन धर्म ने प्रत्येक क्रिया को नियम में बांधा है – नित्य-कर्म। प्रकृति के दिवा एवं रात्रि के अनुरूप नियमित। रात्रि के प्रथम प्रहर में सोना और ब्रह्म मुहूर्त में उठ संध्यावंदन। वर्तमान जीवनशैली में यह कठिन प्रतीत होता है परंतु इनमें से प्रत्येक के अनेक लाभ हैं। यह तो स्पष्ट है कि ब्रह्म मुहूर्त में जागरण से मनुष्य की दिनचर्या नियमित होती है और नित्यकर्म, व्यायाम इत्यादि के लिए उचित समय प्राप्त होता है।
सनातन दर्शन के अनुसार दिनचर्या से शारीरिक व मानसिक शक्ति का विकास होने के साथ ही आध्यात्मिक प्रगति भी होती है। जीवन सार्थक होता है। आयुर्वेद के अनुसार दिनचर्या शरीर और मन का अनुशासन है जिससे प्रतिरक्षा तंत्र बली होता है। आधुनिक अस्त-व्यस्त दिनचर्या व विपरीत आहार के समय में जहाँ लोग किसी भी नित्य-नियमित को व्यर्थ का बंधन व नीरस समझते हैं तथा प्रति दिन एक नए रूप में जीना चाहते हैं; क्या बँधी बँधाई दिनचर्या के विषय में मनोविज्ञान के कुछ निष्कर्ष उपलब्ध हैं?
इस विषय पर किए गए शोध में मनोवैज्ञानिकों ने पाया कि दैनिक जीवनके साधारण नियमित कार्य जीवन को सार्थक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विचित्र से लगने वाले इस सिद्धांत का हमारे सम्पूर्ण स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, कार्य में सफलता तथा दीर्घायु होने में अद्भुत रूप से योगदान होता है। मनोवैज्ञानिकों ने सार्थक जीवन के तीन महत्त्वपूर्ण कारक निर्धारित किए – अभिप्राय, आशय तथा सामञ्जस्य (significance, purpose and coherence) अर्थात जीवन सार्थक है यदि वो महत्त्वपूर्ण लगे, जीवन का सार्थक लक्ष्य हो।
इन कारकों में से सामंजस्य पर न्यूनतम अध्ययन हुए हैं। वर्ष २०१३ में मिज़ुरी विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिकों ने Psychological Science में इस विषय पर मह्त्त्वपूर्ण शोध प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने यह सिद्ध किया कि नियमबद्धता का इतना लाभ है कि साधारण दृश्य अभिरचना (visual pattern) से भी जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है।
शोधकर्ताओं ने व्यक्तियों को विभिन्न प्रकार के चित्र दिए। जिन व्यक्तियों ने चित्रों में वर्गीकरण में प्रतिरूप को पहचाना उन्होंने उन व्यक्तियों की तुलना में जीवन को अधिक सार्थक बताया जिन्हें चित्र अनियमित लगे। शोधकर्ताओं ने वर्ष २०१४ में American Psychologist में छपे एक आलेख में कहा – that meaning is common and that it can be drawn from coherence, we started to think, what are the coherent aspects of our daily lives? One answer lies in routines.
Society for Personality and Social Psychology में २०१५ में प्रस्तुत किए गए अध्ययन में मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तियों को पाँच पाँच भूलभुलैया (mazes) हल करने को दिया। कुछ व्यक्तियों के लिए पाँचों पहेलियाँ एक प्रकार की ही थीं अर्थात उन्हें बारंबार एक ही कार्य करने को कहा गया। जिन व्यक्तियों ने एक ही कार्य बारंबार अर्थात एक प्रवृत्ति (habit) के रूप में किया उन्होंने जीवन के अधिक सार्थक होने की बात की। वैज्ञानिकों ने उसी अध्ययन में यह भी प्रस्तुत किया कि जिन व्यक्तियों ने कहा कि वे प्रतिदिन एक जैसा कार्य ही करते हैं (pretty much the same things every day) उन्होंने अपने व्यक्तित्व तथा धार्मिक मान्यताओं से परे (controlled for mindfulness, positivity and religiousness) जीवन को अधिक सार्थक माना।
इसी विषय पर साइंटिफ़िक अमेरिकन में छपे एक आलेख के अनुसार – “The notion that meaning can be found in mundane habits and patterns is a bit surprising, It’s not the way that we’ve historically thought about meaning in life. It sort of knocks it off its pedestal. The coherence of an ordered life also lays the groundwork for pursuit of larger goals—and thus the equally important aspects of purpose and significance.”
इन अध्ययनों में मात्र नियमित दिनचर्या (उदाहरण के लिए एक ही मार्ग से नियमित जाना) के सीमित लाभों का अध्ययन है। नियमित सनातन दिनचर्या के अनेक लाभों और पहलुओं के विस्तृत अज्ञात लाभों की ओर ये अध्ययन इङ्गित करते हैं।
अन्य लाभों के अतिरिक्त इतना तो स्पष्ट है कि यदि किसी को जीवन निरर्थक लगे तो उसका जीवन सुखी, समृद्ध, आनंदमय एवं सार्थक बने इसके लिए –
कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती ।
करमूले तु गोविंदः, प्रभाते करदर्शनम् ॥
तथा
समुद्रवसने देवि, पर्वतस्तनमंडले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे ॥
जैसे संस्कार सदा से ही हल थे।
नियमित दिनचर्या के बिना जीवन का निर्मल और सार्थक होना संभव नहीं।
1 सनातन परम्परा में दिन के २४ घण्टे ३० भागों में विभाजित हैं। इस प्रकार का एक भाग मुहूर्त कहलाता है जो ४८ मिनट का होता है। सूर्योदय पूर्व दूसरे मुहूर्त से पहले मुहूर्त तक का काल ब्राह्म या ब्रह्ममुहूर्त कहलाता है। एक अन्य विभाजन मुहूर्त का आधा होता है जिसे घटी, घटिका या घड़ी कहते हैं। एक घटी २४ मिनट की अवधि होती है।
2 गण्डूष – चुल्लू भर पानी। वस्तुत: यह गण्ड अर्थात मुख केन्द्रित है, भर मुख जितना पानी आ जाये उतना। उससे धावन।
3 दिन के सामान्यीकृत १२ घण्टों में हुये १५ मुहूर्त। तीन तीन मुहूर्त कर सूर्योदय से सूर्यास्त के समय को पाँच भागों में बाँट कर नाम दिये गये। प्रात: तीन मुहूर्त; सङ्गव – जबकि चरवाहा गायों को ले कर चराने निकलता है, तीन से छ:, मध्याह्न – छ: से नौ मुहूर्त जिसमें दिन का मध्य पड़ता है; अपराह्न – नौ से बारह मुहूर्त; सायांह्न – बारह से पंद्रह मुहूर्त। एक अन्य विभाजन प्रहर का है जिसमें दिन को चार भागों में बाँटा जाता है, लोकप्रचलित चार नाम – प्रात, दुपहर, तिजहर और संझा।