[शीर्ष चित्र : मंदिर में पाकिस्तानी हिंदू बच्चे, By Jeetesh Maheshwari (Own work) [CC BY-SA 4.0 (https://creativecommons.org/licenses/by-sa/4.0)], via Wikimedia Commons]
हिंदुओं में 84 लाख योनियों की अवधारणा है। आधुनिक वैज्ञानिक 10 करोड़ तक की संख्या के बारे में अनुमान करते हैं जिसका कि अधिकांश अभी भी आँखों से या कहें कि वैज्ञानिक प्रलेखन से ओझल है। लगभग 15 लाख से भी अधिक प्रजातियों का प्रलेखन आज उपलब्ध है। यह भी कहा जाता है कि बहुत सी प्रजातियाँ तो मानव द्वारा पहचान या वैज्ञानिक विश्लेषण से पूर्व ही लुप्त हो गईं या हो रही हैं। भूमि पर रहने वाले एवं ज्ञात उभयचरों, पक्षियों तथा स्तनधारियों के वैश्विक वितरण के आँकड़े अब तक उपलब्ध थे जिनके आधार पर उनकी संरक्षण स्थिति, वैविध्य तथा समझ से सम्बंधित अनेक प्रकार के प्रकल्प चल रहे हैं। गत वर्ष नवम्बर में Nature Ecology and Evolution में प्रकाशित एक लेख की मानें तो सरिसृपों की प्रजातियों के वैश्विक वितरण के बारे में व्यवस्थित आँकड़े उपलब्ध नहीं थे, जो अब उपलब्ध हो गये हैं। कुल 10064 सरिसृप प्रजातियों के बारे में विस्तृत आँकड़े प्राप्त हैं जोकि भूमि पर पाये जाने वाले कुल सरिसृप जातियों का 99% है। इसके साथ ही भूमि पर पाये जाने वाली एवं ज्ञात सकल रीढ़धारी जैविक प्रजाति जनसंख्या का प्रलेखन अब लगभग पूर्णत: उपलब्ध है जिससे उन सबके संरक्षण एवं वितरण के बारे में अध्ययन तो हो ही पायेंगे, जैव विविधता को सुरक्षित रखने एवं संवर्द्धन के लिये उपयुक्त उपाय किये जा सकेंगे। देखें तो गत वर्ष की यह एक बड़ी उपलब्धि रही।
मानव की ऐसी उपलब्धियों पर गौरवान्वित होने के साथ एक सहज प्रश्न उठता है कि मानव स्वयं अपनी विभिन्न प्रजातियों के प्रलेखन एवं संरक्षण के बारे में कितना चैतन्य है? चूँकि बात मानव की है, यह प्रश्न निरपेक्ष, शुष्क एवं मात्र भौतिक स्तर तक न रह कर विविध विराट रूप ले लेता है। केवल ऐसे समूहों या प्रजातियों तक सीमित रहते हुये जोकि वैश्विक स्तर पर दमन, उत्पीड़न एवं विनाश झेल रही हैं, इस प्रश्न पर दुबारा विचार करें तो सिहरन होती है। कुछ विशिष्ट मानव समूहों कुर्द, यजिदी, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के हिंदू एवं कलश को देखें तो हम पाते हैं कि वे हमारी आँखों के समक्ष ही, वैश्विक स्तर पर सबके संज्ञान में नष्ट किये जा रहे हैं। उनके संरक्षण हेतु वैज्ञानिकों या अकादमिक जन का कोई उद्देश्य केंद्रित समूह सामने आया हो, आह्वान किया हो या बृहद स्तर पर आंदोलन किये हों; ऐसी कोई सूचना नहीं मिलती। यह भयावह है कि जो मानव परिवेश के अन्य जीवधारियों के संरक्षण एवं सम्वर्द्धन हेतु जाने कितने सक्रिय प्रयासों में लगा हुआ है, वह अपने प्रति ही इतना उदासीन है!
ऐसा क्यों है?
क्या वैज्ञानिक समाज राजनैतिक औचित्य के प्रभाव में है? क्या उसे भय है कि स्वर उठाने पर घातक परिणाम भी भुगतने पड़ सकते हैं? या कीड़ों फतिंगों से लेकर विलुप्त डायनासोरों के अवशेषों की चिंता में दुबले होते अकादमिक, समाजकर्मी एवं प्रबुद्ध जन मानव प्रजाति के विलुप्तीकरण को समस्या मानते ही नहीं? अनेक प्रश्न पूछे जा सकते हैं जिनके उत्तर भी होंगे, दिये जायेंगे किंतु क्या उनसे हमारी आँखों के समक्ष घटित होती भयानक सचाई के प्रति हमारा दायित्व पूरा हो जायेगा? नहीं, कदापि नहीं। हम इतने संवेदनहीन क्यों होते जा रहे हैं जबकि मानवता के शत्रुओं का बाड़ा कसता ही जा रहा है? इस पर बृहद स्तर पर विचार होना चाहिये जिसके कि अनेक आयाम सामाजिक, वैज्ञानिक, भौतिक, जैविक इत्यादि होंगे। ऐसा नहीं है कि व्यक्तिगत स्तर पर स्वर उठाये नहीं जा रहे। डॉ. सुभाष काक नियमित रूप से अपने लेखों एवं सोशल मीडिया संवाद द्वारा ध्यान आकर्षित करा रहे हैं। इस पत्रिका में भी उनका एक लेख पहले छप चुका है किंतु इतने से क्या होना? हम जानबूझ कर, देखते हुये भी नृजाति संहार होने दे रहे हैं। हमारी चुप्पी, हमारी उदासीनता इस सदी की कुछ सबसे बड़ी दुर्घटनाओं का कारण बनने जा रही है। हम त्रासदियों के समक्ष साक्षी मात्र हैं।
कुर्दों पर युद्ध सम्बंधी आक्रमण हों, पाकिस्तानी एवं बांग्लादेशी हिंदुओं के विरुद्ध दीर्घकालिक सुनियोजित शांति समय के अभियान हों, कलशों का बलात पंथ परिवर्तन हो या यजिदियों का दासत्व एवं बर्बर यौन शोषण के प्रयोग द्वारा उनका नाश करना हो; विश्व समुदाय या तो निरपेक्ष रहा है या औपचारिक लफ्फाजियों के साथ मूक दर्शक। मानव की ऐसी समस्यायें उसके द्वारा पोषित राजनीति से नहीं सुलझनीं, साथ ही वह युद्ध के प्रति आत्महंता लगाव से कहीं बहुत गहरे स्तर पर जुड़ा हुआ है। ऐसे में सामूहिक छ्ल एवं वर्ग स्वार्थ का उपयोग स्वहित वह लघु वर्ग करता रहा है जोकि किसी भी देश का शासक होता है। सामान्य जन को फुसलाना तथा बहका देना बहुत सरल है किंतु वह वर्ग जोकि चेतना के शीर्ष पर विराजमान है तथा जिसका काम ऐसे पक्षों पर केंद्रित होना भी है, भोलेपन का अभिनय क्यों कर रहा है? सुविधाजीवी बौद्धिक पाखण्ड का प्रभाव तो नहीं?
आज समस्त विश्व सूचना क्रांति के विविध उपादानों के माध्यम से जुड़ा हुआ है। विमर्श या आंदोलन या दबाव समूह बनाने हेतु भौतिक रूप से सभी घटकों का एक स्थान पर एकत्रित होना भी आवश्यक नहीं। इस हेतु तकनीकी का प्रयोग उतनी ही गम्भीरता एवं दक्षता से क्यों नहीं किया जा रहा जितनी गम्भीरता से अन्य जीवधारियों के लिये किया जाता है? मानव का स्वभाव ही आत्महंता होने का है या विशेष प्रकार का आलस्य ही उसका समग्र है? इन प्रश्नों पर सोचना होगा, वैश्विक स्तर पर वैज्ञानिकों एवं अकादमिक जन को किसी भी प्रकार की मानसिक जड़ता से मुक्त हो, खोल से बाहर आ अपना समूह स्वर ऊँचा करना ही होगा। मनुष्य का सबसे पहला उत्तरदायित्व स्वयं के अस्तित्त्व के प्रति है तथा गिनाये गये वर्ग या प्रजातियों पर चल रहा संकट उसकी सबसे बड़ी परीक्षा। सफल होना ही होगा।