“अम्मी! अम्मी! आज अब्बू ने हमसे पहली कुरबानी करवाई – इन्नी उज्बिहुक। प्यार से धीरे धीरे छूरी फेरनी होती है कि जानवर को तकलीफ न हो।”
गयासुद्दीन मियाँ ने सुना और छाती चौड़ी कर मुस्कुराने लगा।
“लेकिन उतना मजा नहीं आया अम्मी। अब्बू ने जब लाला को चाकू मारा था तो कैसा फव्वारा निकला था! तब भी इन्नी उज्बिहुक पढ़े होंगे? लाला को तकलीफ नहीं हुई होगी?”
गयासू मियाँ की त्यौरियाँ चढ़ गयीं – चुप रह अहमक! वो कुरबानी नहीं थी।
सहमे छोटे को अम्मी ने आँचल में छिपा कर बहलाया – बेटे! काफिरों की कुरबानी नहीं होती, उन्हें बस दोजख का अजाब होता है।
छोटा खेलने बाहर भागा।
गली का एक और छुट्टन तय्यार हुआ, गयासू का सीना फिर से चौड़ा हो गया।