मूल अंग्रेजी लेख Uttar Kuru and Jats : सुभाष काक
अनुवाद : अनुराग शर्मा
कुछ मित्रों ने उत्तर कुरु का व्याहृत माँगा था, जो यहाँ प्रस्तुत है। लगे हाथ मैं भारत से उत्तर-कुरु तक फैले हुए जाट समुदाय के बारे में भी कुछ अल्पज्ञात तथ्य प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नॉल्ड टॉयनबी ने उनके बारे में यह कहा था,“यह अनुमान लगाना विलक्षण नहीं हो सकता है कि ट्यूटनिक बोलने वाले गोथ और स्कैंडिनेविया के गौट्स, यूरेशियन मैदानों की समान भारोपीय भाषी जातियों, गेटे और थिससागेटे और मैसागेटे, के ऐसे अंश से उभरे हों, जो आज पंजाब के जाट समुदाय के रूप में हमारे समक्ष हैं।”
महाभारत में उत्तर कुरु व उत्तर मद्र का वर्णन है। आन्तरिक खगोलीय प्रमाण के आधार पर आज से लगभग चार सहस्राब्दी पूर्व प्राचीन निर्धारित ऐतरेय ब्राह्मण के 8.14 के अनुसार हिमालय के उत्तर पार, उत्तर कुरु और उत्तर मद्र देश के शासकों का अभिषेक वैदिक रीति से हुआ था।
ज्ञातव्य है कि कुरु और मद्र क्षेत्र क्रमशः गंगा-यमुना तथा वृहत्तर पंजाब में फैले थे। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐतरेय ब्राह्मण काल का उत्तर कुरु तारिम घाटी रहा हो तथा उत्तर मद्र बैक्ट्रिया (Bactria बाह्लीक) से परे का क्षेत्र हो।
मेगस्थनीज़ तथा स्ट्राबो, दोनों ने उत्तर कुरु को भारतीय क्षेत्र बताया है। टॉलेमी (Ptolemy, 43 वि.पू.) ने ऑतरोकोरा (Ottorokorrhas) नाम से उत्तर कुरु का वर्णन करते हुए इसे मध्य एशिया का पर्वतीय क्षेत्र बताया है, परंतु त्रुटिवश अधिक पूर्व की ओर इंगित किया है। इन यूनानियों ने उत्तर मद्र की बात नहीं की है, जिससे लगता है कि शास्त्रीय यूनान के काल में उत्तर मद्र सहित काश्यप सागर (Caspian Sea) तक का समस्त क्षेत्र उत्तर कुरु में समाहित था। महाभारत अनुशासनपर्व, तथा दीघ निकाय (आटानाटीय सुत्त) में वर्णित उत्तर कुरु की रीति-रूढ़ियाँ यूनानी वर्णन से साम्य दर्शाती हैं।
वाल्मीकि रामायण (Crit. Ed. 4.2.57) में भारतीयों के उत्तर कुरु से परिचय का प्रमाण सुग्रीव द्वारा अपनी सेना को किया गया उद्बोधन है, “उत्तर कुरु के पार न जायें, वहाँ की अनंत रात्रि के बारे में हम नहीं जानते हैं।” जो साइबेरियायी शीत की लम्बी रात्रि के ज्ञान का परिचायक है।
शक समुदाय
शक ( Śaka, Scythians, यूनानी में Σάκαι, Sákai), यूरेशिया के मैदानी क्षेत्रों तथा तारिम घाटी के भारतीय भाषा-भाषी बंजारे, संस्कृत में शक कहलाते थे। हेरोडॉटस (26 शती वर्तमानकाल-पूर्व) के अनुसार अक्मेनिड (Achaemenid) साम्राज्य में अनेक समुदायों में बँटे शकों (सिथियन, Scythians) को सम्मिलित रूप से शक पुकारा जाता था। इनका विस्तार चीन की तारिम घाटी से लेकर यूरोप की डेन्यूब (Danube) नदी तक था। ज़ैक्सीस प्रथम (Xerxes I, शासनकाल 2504–2483 वर्तमान-पूर्व) काल के एक शिलालेख में उन्हें मध्य एशिया के दास (Dahae, Dāsa) समुदाय का अंग बताया गया है।
कश्मीर के उत्तर पूर्व में स्थित तारिम घाटी निवासी शक समूह ‘तुषारी’ (Tocharians) कहलाता था। उनकी भाषा भारोपीय थी। माना जाता है कि ये ही लोग चीनी गद्य में यूएज़ी (Yuezhi, चीनी में 月氏) कहे गये हैं। भारत से चीन जाने वाला, बौद्ध भिक्षुकों का राजपथ जिस तुषारी क्षेत्र से जाता है, वहाँ ~ 457 से 1257 वि.सं. काल के बौद्ध साहित्य की 7000 से अधिक पोथियाँ मिली हैं। भाषाशास्त्रियों के अनुसार तारिम घाटी के खोतान साम्राज्य की शक भाषा पर मध्य आर्य प्राकृत का प्रभाव है। तुषारी संस्कृति के अंश सातवीं शताब्दी तक जीवित रहे परंतु बाद में तुर्कमानी लोक में समाहित होकर आधुनिक वीगर (Uyghur) समुदाय में परिवर्तित हो गये।
दो हजार वर्ष पहले कुषाण तारिम घाटी से बैक्ट्रिया आये। अफ़गानिस्तान में 1993 प्र.स.(CE) में मिले बैक्ट्रियन लिपि में अंकित रबातक शिलालेख में सम्राट कनिष्क तक की कुषाण वंशावली उपलब्ध है।
हेरोडोटस (1.201, 1.204.1.) के अनुसार शकों का एक समूह मसाजट (Massagetae; संस्कृत: महाजट) था जो काश्यप सागर के पूर्व में स्थित बड़े मैदानी क्षेत्र में निवास करता था। टॉलमी के अनुसार वे कश्मीर के निकटस्थ थे। वे सामान्यतः जट्ट (Getae, Jat, Skt.: जट) तथा तिष्यजट (Thyssagetae) भी कहलाते थे।
नवीं शती (प्र.स., CE) के फ़्रैंकिश बेनेडिक्टाइन (Frankish Benedictine) इसाई रीति के भिक्षुक रैबनस मॉरस (Rabanus Maurus) ने कहा था, “मसाजट शकों का मौलिक स्वरूप हैं, और वे सशक्त जट होने के कारण मसाजट कहलाते हैं।”
सिकंदर के पश्चिम भारत अभियान के समय 272/71 विक्रम पूर्व में सॉग्डिगा (निवास: वर्तमान ताजकिस्तान व उज़्बेकिस्तान) वासी, बैक्ट्रिया (निवास: हिंदूकुश पर्वत के उत्तर में, वर्तमान अफ़गानिस्तान, ताजकिस्तान व उज़्बेकिस्तान) वासी, के साथ मसाजटों का भी विद्रोह हुआ था। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि तब मसाजट बैक्ट्रिया के दक्षिण में, पंजाब क्षेत्र में रहते थे। वे अश्वकों (Aśvakas) के पड़ोसी समझे जाते हैं, और अश्वक, भारतीय खगोलशास्त्री वराहमिहिर द्वारा अफगानों हेतु प्रयुक्त ‘अवगाना’ शब्द का पूर्ववर्ती लगता है।
सातवीं शती (प्र.स.) में जब अरब सिंध में प्रविष्ट हुये, तब जाट वहाँ की प्रमुख जाति थे जिन्हें अरबों ने ज़ट्ट कहा। इससे पता लगता है कि जाट सिंध, अफ़ग़ानिस्तान, और उनसे भी आगे तक फैले हुए थे।
महाभारत और शिव स्तोत्र में भगवान शिव को जट और महावट बताना उन्हें जाट समुदाय का इष्टदेव बताता है
अक्षसंतर्जनो राजन्कुनदीकस्तमोभ्रकृत् ॥ एकाक्षो द्वादशाक्षश्च तथैवैकजटः प्रभुः । (महाभारत, 9-44-53_54)
जाट आर्यभाषा बोलते थे। वे हरियाणा और पञ्जाब की जनसंख्या का 25% हैं और उत्तरप्रदेश, राजस्थान तथा कुछ अन्य क्षेत्रों में भी रहते हैं। यदि वे मध्य एशिया से आये होते तो उनकी एक अलग भाषा होती जैसे कि यूरोप और एशिया में सामान्यतः बाहर से आये समूहों की होती है।
राजा दक्ष की एक पुत्री के नाम पर आधारित रानी ताम्रिः (Queen Tomyris (Tahmirih, Skt. ताम्रिः) सर्वप्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक जाट है। रानी ताम्रिः ने 473 वि. पू. में सम्राट कुरुश (Emperor Cyrus) को हराकर उसका वध किया था। हेरोडोटस के शब्दों में इस महान विजय का वर्णन निम्न प्रकार है :
[1.214] “अपने दल-बल के साथ ताम्रिः ने सायरस को युद्ध में उलझा लिया। मैं मानता हूँ कि यूनानेतर समुदायों के मध्य का यह अब तक का सबसे भीषण युद्ध था। वे लम्बे समय तक निकटता से, बराबरी पर लड़ते रहे। अंततः महाजट विजयी हुए। अधिकांश ईरानी सेना का नाश हो गया और कुरुश (Cyrus) मारा गया।”
महाजट: जीवन-शैली के बारे में हेरोडॉटस के शब्द:
“[1.215] वेशभूषा और जीवन-शैली में महाजट शकों (Scythians) की भाँति ही हैं। उनकी सेना में अश्वारोही और पैदल, दोनों ही हैं। धनुष और भाले के प्रयोग के साथ ही वे परशुधारी भी हैं।”
“[1.216] वे कभी बीजारोपण नहीं करते; उनके पोषण स्रोत उनके पशु और मछलियाँ हैं, जिन्हें वे अरस (Araxes, अज़रबैज़ान की एक नदी) से प्रचुरता में प्राप्त करते हैं। वे दूध पीते हैं। सूर्य उनका अकेला देव है जिसे वे घोड़ों की बलि देते हैं; उनका तर्क है कि सूर्य सबसे गतिशील देव है अत: वे उसे नश्वर जीवों में सबसे गतिवान को अर्पित करते हैं।”
यूरोप में इस समुदाय को डायोनिसस देव (Dionysus, जिन्हें शिव का यूनानी रूप माना जा सकता है) और बेण्डिस देवी (Artemis, दुर्गा का यूनानी रूप) को पूजने वाले थ्रेशियन (Thracians) समुदाय के समकक्ष समझा जाता है।
वृहत्तर उत्तर कुरु के पड़ोस में यूरोप होने के कारण, यह सरलता से समझा जा सकता है कि जाट तथा अन्य शक जातियों द्वारा पालित वैदिक संस्कृति, किस प्रकार भारत से चलकर स्लाव, लिथुआनियायी तथा अन्य यूरोपीय क्षेत्रों में पहुँची।
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सम्पादकीय टिप्पणियाँ :
- कनिष्क निष्क चित्र स्रोत : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/a/a6/KanishkaCoin3.JPG
- मूल लेख में प्रयुक्त BCE (Before Common Era) को विक्रम संवत में परिवर्तित कर लिखा गया है जो कि 57 BCE से प्रचलित माना जाता है।प्रागैतिहासिक काल को आधुनिक प्रचलन अनुसार वर्तमान-पूर्व में परिवर्तित कर लिखा गया है। प्रचलित सन् CE, Common Era को प्र. स. लिखा गया है। समस्त विश्व अब BC माने Before Christ एवं CE माने Christ Era लिखना तज चुका है किन्तु हिन्दी में अभी भी ईसा पूर्व एवं ई.सं. प्रचलित हैं। इस प्रचलन को समाप्त करने की दिशा में यह एक अति लघु प्रयास मात्र है।
Informative. It affirms my guess about Jat identity with Uttar Kuru. However, I feel that Uttar Kuru was in Kyrgistan and Kazhakhstan, where places like Karagandy and Astana exists. As Meru and Ilavrta varsha can be located in Kashmir, the Neelaparvat to its north (Eastern Hindukush which is richest source of Blue stones), Sweta and Shrngavan mountans to its further north and then is KuruVarsha or Uttara Kuru is placed. Probably they were the “deva” people also called “Somavarga Saka” (Soma consuming Saka) who where always in conflict with “Asura” the Bactrian Aryas of Zaratushtra (Ahura worship). I also feel that Balhika’s(Bactrian) and Uttara Madra of Mahabharat migrated to western Iran and Maadra is the old persian “Maada”(Medes by Greeks).