वाल्मीकि रामायण – ४६ से आगे
कहते हैं, क्रोध में लाल पीला होना। हनुमान पिङ्गाक्ष थे – किञ्चित पीतवर्णी आँखें जो क्रोध में ताम्रवर्णी लाल हो गयी थीं। हनुमान के रावण से प्रथम साक्षात्कार वर्णन में लाल व पीले सहित अनेक रङ्गों के सुंदर बिम्ब प्रयुक्त हुये हैं।
इंद्रजित के कर्म से विस्मित हुये भीमविक्रम हनुमान ने राक्षसराज को रोष से रक्त हुये नेत्रों से देखा – ततः स कर्मणा तस्य विस्मितो भीमविक्रमः। हनुमान्रोषताम्राक्षो रक्षोऽधिपमवैक्षत ॥
रत्न, मणि माणिक्य, सोना आदि धन व ऐश्वर्य की दीप्ति से राक्षसराज दप दप हो रहा था। अद्भुत कृत्य दर्शाने हेतु कहा जाता है कि अमुक हस्तनिर्मित साधारण भौतिक वस्तु नहीं, मन का सृजन है। मानसपुत्रों की सङ्कल्पना के पीछे यह भाव भी है। हीरों व मणियों से चर्चित मण्डित रावण के आभूषण वैसे ही थे – मनसेव प्रकल्पितै:!
भाजमानं महार्हेण काञ्चनेन विराजता । मुक्ताजालावृतेनाथ मुकुटेन महाद्युतिम् ॥
वज्रसंयोगसंयुक्तैर्महार्हमणिविग्रहैः । हैमैराभरणैश्चित्रैर्मनसेव प्रकल्पितैः ॥
उसने बहुमूल्य क्षौम वस्त्र धारण किया हुआ था तथा उसके अङ्गों पर रक्तचंदन का लेप लगा हुआ था – महार्हक्षौमसंवीतं रक्तचन्दनरूषितम् लाल आँखें, चमकते तीखे बड़े (निकले) दाँत, लम्बे ओठ सहित वह विशाल दिख रहा था – विपुलैर्दर्शनीयैश्च रक्षाक्षैर्भीमदर्शनैः, दीप्ततीक्ष्णमहादंष्ट्रैः प्रलम्बदशनच्छदैः ।
वाल्मीकि भव्य व अद्भुत चाक्षुष बिम्ब गढ़ते हैं –
नीलाञ्जनचय प्रख्यं हारेणोरसि राजता । पूर्णचन्द्राभवक्त्रेण सबलाकमिवाम्बुदम् ॥
काजल के पहाड़ की भाँति काली देह पर (रक्तचंदन लेपित) पूर्ण चंद्र की भाँति मुख था तथा वक्ष पर मोतियों की माला दोलित थी मानो चंद्र से प्रकाशित काले बादलों की पृष्ठभूमि में श्वेत बलाक पक्षी उड़ रहे हों।
चंदनचर्चित मोटी बाहें केयूर आभूषणयुक्त थीं तथा अङ्गद आभूषण में अङ्गुलियों सहित वे ऐसी लग रही थीं जैसे पञ्चमुखी सर्प हों – बाहुभिर्बद्धकेयूरैश्चन्दनोत्तमरूषितैः, भ्राजमानाङ्गदैः पीनैः पञ्चशीर्षैरिवोरगैः। वह उत्तम आस्तरणयुक्त एक विचित्र रत्नजटित स्फटिक वरासन पर सुखपूर्वक विराजमान था – महति स्फाटिके चित्रे रत्नसंयोगसंस्कृते । उत्तमास्तरणास्तीर्णे उपविष्टं वरासने॥
उसकी सेवा में सजी सँवरी सुंदरी युवतियाँ सर्वत्र लगी हुई थीं – अलंकृताभिरत्यर्थं प्रमदाभिः समन्ततः।
दुर्धरेण प्रहस्तेन महापार्श्वेन रक्षसा । मन्त्रिभिर्मन्त्रतत्त्वज्ञैर्निकुम्भेन च मन्त्रिणा ॥
उपोपविष्टं रक्षोभिश्चतुर्भिर्बलदर्पितैः । कृत्स्नैः परिवृतं लोकं चतुर्भिरिव सागरैः ॥
दुर्धर, प्रहस्त, महापार्श्व व निकुम्भ; ये चार मन्त्रणा तत्त्वज्ञाता राक्षस मंत्री उसके पास बैठे थे। उनसे घिरा बल दर्प से भरा वह चार सागरों से घिरे समस्त भूलोक की भाँति सुशोभित था। मंत्रकुशल मंत्रियों तथा अन्य हितैषियों से सेवित रावण देवताओं द्वारा सेवित इंद्र की भाँति जान पड़ता था – मन्त्रिभिर्मन्त्रतत्त्वज्ञैरन्यैश्च शुभबुद्धिभिः । अन्वास्यमानं सचिवैः सुरैरिव सुरेश्वरम् ॥
हनुमान ने इस प्रकार अति तेजस्वी राक्षसपति रावण को देखा जो मेरु शिखर पर जल से पूर्ण मेघ की भाँति विराजमान था – अपश्यद्राक्षसपतिं हनूमानतितेजसं । विष्ठितं मेरुशिखरे सतोयमिव तोयदम् ॥
बलवान व भयङ्कर राक्षसों द्वारा पीड़ित किये जाते हुये भी हनुमान राक्षसराज को देखते हुये परम विस्मय से भर उठे – स तैस्सम्पीड्यमानोऽपि रक्षोभिर्भीमविक्रमैः। विस्मयं परमं गत्वा रक्षोऽधिपमवैक्षत॥ उस प्रदीप्त राक्षसराज के तेज पर मोहित हो वह मन ही मन सोचने लगे –
भ्राजमानं ततो दृष्ट्वा हनुमान्राक्षसेश्वरम् । मनसा चिन्तयामास तेजसा तस्य मोहितः॥
अहो रूपमहो धैर्यमहो सत्त्वमहो द्युतिः। अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता ॥
यद्यधर्मो न बलवान्स्यादयं राक्षसेश्वरः । स्यादयं सुरलोकस्य सशक्रस्यापि रक्षिता ॥
क्या रूप है! कैसा धैर्य है! कितना शक्तिमंत दिखता है! कैसी अद्भुत द्युति है! राक्षसराज समस्त राजोचित लक्षणों से युक्त है। यदि इसमें प्रबल अधर्म न होता तो यह राक्षसराज कदाचित इंद्र सहित समस्त देवलोक का संरक्षक हो सकता था।
अस्य क्रूरैर्नृशंसैश्च कर्मभिर्लोककुत्सितैः । सर्वे बिभ्यति खल्वस्माल्लोकास्सामरदानवाः ॥
अयं ह्युत्सहते क्रुद्धः कर्तुमेकार्णवं जगत्।
इति चिन्तां बहुविधामकरोन्मतिमान्कपिः । दृष्ट्वा राक्षसराजस्य प्रभावममितौजसः ॥
किंतु इसके क्रूर, नृशंस व लोकगर्हित कर्मों से निश्चय ही देव, दानव सहित समस्त लोक इससे भयभीत रहते हैं। क्रुद्ध हो अपनी पर आने पर यह समस्त जगत को प्रलय जल में निमग्न कर सकता है। राक्षसराज के प्रभाव और अमित ओज को देख बुद्धिमान बहुविध चिंता भी करने लगे।
…
जल से भरे बादल की उपमा मानो रुलाने वाले रौद्र रावण की भूमिका थी। रावणो लोकरावण:, समस्त लोकों को रुलाने वाला महाबाहु रावण पिङ्गाक्ष कपि को समक्ष देख अत्यधिक क्रोधाविष्ट हो गया। शङ्काहृतात्मा दध्यौ स कपीन्द्रं तेजसावृतम् – परम तेजस्वी कपि को देख वह शङ्का से भर सोच में पड़ गया। यह कोई साधारण वानर नहीं है, बलशाली है, उत्पात और विनाश का शत्रुकर्म किया है किंतु साथ ही दूत होने की घोषणा भी करता है।
स राजा रोषताम्राक्षः प्रहस्तं मन्त्रिसत्तमम् । कालयुक्तमुवाचेदं वचोऽविपुलमर्थवत् ॥
दुरात्मा पृच्छ्यतामेष कुतः किं वास्य कारणम् । वनभङ्गे च कोऽस्यार्थो राक्षसीनां च तर्जने ॥
रोष में आरक्तनेत्र हो उसने मंत्रिवर प्रहस्त से समयानुकूल संक्षिप्त अर्थयुक्त बात कही – उस दुरात्मा से पूछो कि कहाँ से, किस कारण से यहाँ आया है? वन को उजाड़ कर राक्षसियों को डराने का क्या अर्थ है?
पापियों के मन में हजार शङ्कायें होती ही हैं जो उनके अनुगामी सेवक व सुहृद न तो जानते हैं, न अनुमान लगा सकते हैं। वानर के भीम कर्म देख रावण के मन में अनेक शङ्कायें उठ खड़ी हुई थीं किंतु उन्हें स्पष्ट बताने पर सभा में अच्छा प्रभाव न पड़ने की सम्भावना थी। उसने प्रश्न को वन उजाड़ने व राक्षसियों को डराने तक सीमित रखा जैसे जता रहा हो कि कोई विशेष बात नहीं है।[1]
बुद्धिमान प्रहस्त राजा की शङ्काओं व प्रश्न को सीमित रखने का मंतव्य समझ गया किंतु वह तो मंत्री था, उसके लिये सब जानना आवश्यक था। उसने कपि को आश्वस्त करते हुये कहा – तुम्हारा भला हो! तुम्हें भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, समाश्वसिहि भद्रं ते न भीः कार्या त्वया कपे। प्रहस्त ने वही प्रश्न पूछे जो रावण के मन के चोर थे। लङ्का विश्रवा के पुत्र कुबेर की नगरी थी जिसे रावण ने उनसे छीन लिया था। उसने चतुर्दिक आतङ्क भी मचाया था। चार दिक्पालों इंद्र, यम, वरुण व वैश्रवण कुबेर द्वारा भेजे जाने की पृच्छा कर उसने सीधी बात की –
यदि तावत्त्वमिन्द्रेण प्रेषितो रावणालयम् । तत्त्वमाख्याहि मा ते भूद्भयं वानर मोक्ष्यसे ॥
यदि वैश्रवणस्य त्वं यमस्य वरुणस्य वा । चारुरूपमिदं कृत्वा प्रविष्टो नः पुरीमिमाम् ॥
यदि तुम्हें इंद्र ने रावणालय भेजा है तो सच सच बताओ, डरो नहीं, (सच बताने पर) तुम्हें छोड़ दिया जायेगा। कुबेर, यम या वरुण में से किसी के गुप्तचर बहुरुपिये (चारुरूप) बन कर हमारी इस पुरी में प्रविष्ट हुये हो क्या?
प्रहस्त ने वह बात भी पूछी जो संयोगवश अवतारी राम के पक्ष से सचाई ही थी, विष्णुना प्रेषितो वाऽपि दूतो विजयकाङ्क्षिणा – या विजय की इच्छा रखने वाले विष्णु ने तुम्हें दूत बना कर भेजा है?
न हि ते वानरं तेजो रूपमात्रं तु वानरम् । तत्त्वतः कथयस्वाद्य ततो वानर मोक्ष्यसे ॥
अनृतं वदतश्चापि दुर्लभं तव जीवितम् । अथ वा यन्निमित्तस्ते प्रवेशो रावणालये ॥
तुम्हारा जो तेज है, वह वानर का नहीं हो सकता। तुमने वानर का रूप मात्र धारण किया हुआ है। आज सच सच बताओ, ऐसा करोगे तो तुम्हें छोड़ दिया जायेगा। असत्य बोले तो तुम्हारा जीना भी दुर्लभ हो जायेगा अथवा जिस किसी भी निमित्त से रावणालय में घुसे हो, बताओ।
बुद्धिमान हनुमान समझ गये कि यदि ठीक से चले तो ऐसा बहुत कुछ हो सकता है या हाथ लग सकता है जो आगे लाभदायी होगा। उत्तर में वह सीधे रावण से सम्बोधित हुये – नास्मि शक्रस्य यमस्य वरुणस्य वा ॥
धनदेन न मे सख्यं विष्णुना नास्मि चोदितः । जातिरेव मम त्वेषा वानरोऽहमिहागतः ॥
दर्शने राक्षसेन्द्रस्य दुर्लभे तदिदं मया । वनं राक्षसराजस्य दर्शनार्थे विनाशितम् ॥
ततस्ते राक्षसाः प्राप्ता बलिनो युद्धकाङ्क्षिणः । रक्षणार्थं च देहस्य प्रतियुद्धा मया रणे ॥
न तो मैं इंद्र का हूँ, न यम का, न वरुण का। कुबेर से मेरा कोई सख्य नहीं, न ही मुझे विष्णु ने प्रेरित किया है। जन्म से मेरा रूप यही है (कोई वेश नहीं बनाया), मैं एक वानर ही हूँ जो यहाँ आ पहुँचा है। मेरे द्वारा राक्षसराज का दर्शन दुर्लभ होता, आप से मिलने के उद्देश्य से ही मैंने वन का विनाश किया। तब वे बलवान राक्षस मुझसे लड़ने आ गये। आत्मरक्षा में मैंने उनसे रण में प्रतियुद्ध किया।
राजसभा में बड़ी ही चतुराई से हनुमान ने इस प्रकार अपने उद्देश्य एवं कर्म पर आवरण डालते हुये निजकृत विनाश को आत्मरक्षात्मक बताया जिससे ऐसी सभा में मृत्युदण्ड से दुहरी सुरक्षा निश्चित हो जाये जिसके मंत्री नीतिज्ञ बुद्धिमान प्रतीत हो रहे थे तथा जिन्होंने उनके द्वारा स्वयं को दूत बताये जाने पर प्रतिप्रश्न में दूत शब्द का प्रयोग भी किया था। चाहे जैसे हो, सन्देश गंतव्य तक पहुँचाना दूत का धर्म होता है। इस कारण उसे राजनयिक अभय भी होता है। प्रहस्त तो सच बोलने पर छोड़े जाने की बातें कर ही रहा था!
इतना कुछ निश्चित सा करने के पश्चात हनुमान ने सोचा कि अपनी सामर्थ्य के बारे में भी बताना अब आवश्यक है। राक्षसों का क्या भरोसा?
अस्त्रपाशैर्न शक्योऽहं बद्धुं देवासुरैरपि । पितामहादेव वरो ममाप्येषोऽभ्युपागतः ॥
राजानं द्रष्टुकामेन मयास्त्रमनुवर्तितम् । विमुक्तो अहमस्त्रेण राक्षसैस्त्वतिपीडितः ॥
दूतोऽहमिति विज्ञेयो राघवस्यामितौजसः । श्रूयतां चापि वचनं मम पथ्यमिदं प्रभो ॥
देवों और असुरों के लिये भी मुझे अस्त्रपाश में बाँध लेना शक्य नहीं। ऐसा मुझे पितामह देव का वरदान है। हे राजन! आप के दर्शन की इच्छा के कारण ही मैंने इस अस्त्र से स्वयं बँधने का निर्णय लिया। आप के राक्षसों द्वारा अतिपीड़ित मैं अस्त्र विमुक्त हो गया हूँ।
इस प्रकार इंद्रजित के मन में जो शङ्का हनुमान को बाँधते हुये उठी थी, उसे यथार्थ बता कर हनुमान ने सभा में अपनी अजेयता की सूचना दे ही दी, यह भी इङ्गित कर दिया कि तुम्हारा सबसे योग्य अस्त्रविद मेरे समक्ष इतना ही है कि उसके द्वारा भी मैं अपना उद्देश्य साध सकता हूँ।
सभा को एक प्रकार से आतङ्कित कर हनुमान अब सुविधा की समता में आ गये थे – न इंद्र, न यम, न वरुण, न कुबेर; नहीं रावण! तुम्हें उनसे कोई भय नहीं। तुम्हारे समक्ष महारण्य के पार स्थित कपीश्वर का दूत तो है ही, वह सुदूर उत्तर के अमित तेजस्वी रघुवंशी का भी दूत है:
दूतोऽहमिति विज्ञेयो राघवस्यामितौजसः ।
वह तुम्हारे पास राजकार्य से आया है – राजकार्येण आगत: तवान्तिकम् !
एक वानर, एक मनुष्य; दो नितांत भिन्न राजवंशों का, उनकी मैत्री की साखी बना उनका संयुक्त दूत कह रहा है, सुनो प्रभु! मेरी बात सुनो, यह रोगी हेतु वैद्य के पथ्य सी कल्याणकारी है, अपनाने योग्य है – श्रूयतां चापि वचनं मम पथ्यमिदं प्रभो ॥
[1] प्रचलित पाठ में ये अतिरिक्त पंक्तियाँ भी मिलती हैं जिनमें अभेद्य पुरी में प्रविष्ट होने और युद्ध छेड़ने से भी सम्बंधित प्रश्न हैं किंतु तीनों शोधित पाठों में ये नहीं हैं अर्थात इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। वैसे ये मनोवैज्ञानिक रूप से भी ठीक नहीं लगतीं – मत्पुरीमप्रधृष्यां वाऽगमने किं प्रयोजनम्। आयोधने वा किं कार्यं पृच्छयतामेष दुर्मतिः ॥
अगले अङ्क में :
सुनो! भ्राता सुग्रीव की
भ्रातुः शृणु समादेशं सुग्रीवस्य महात्मनः ।
धर्मार्थोपहितं वाक्यमिह चामुत्र च क्षमम् ॥