सनातन बोध : प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 1 , 2, 3, 4 , 5 , 6, 7, 8, 9 , 10, 11,12, 13, 14 से आगे
पिछले कुछ वर्षों से सुख (happiness) का अध्ययन मनोवैज्ञानिकों का प्रिय विषय रहा है। इस शाश्वत विषय पर अधुना वर्षों में अनेक शोध एवं अध्ययन किये गये हैं। इन्हीं अध्ययनों में से एक है – अनुभव (experience) और स्मृति (memory) का अध्ययन। 2005 में छपे शोधपत्र ‘Living and thinking about it: Two perspectives of life’ में दो आत्म स्वरूपों की चर्चा है – अनुभूति आत्मरूप (experiencing self) एवं स्मृति आत्मरूप (remembering self)। इस वर्गीकरण के अनुसार हम अपनी अनुभूतियों और स्मृतियों में जीते हैं। हम अपने (और किसी अन्य के भी) सुख-दुःख का निर्धारण इन दो आत्मरूपों के परिदृश्य में करते हैं। हमारे विचार और निर्णयों पर स्मृति आत्मरूप का प्रभाव अनुभूति आत्मरूप से अधिक होता है अर्थात हम अपने अनुभवों से अधिक उन अनुभवों की स्मृति में जीते हैं।
इस शोध में जीवनकाल को पलों (moments ) की एक शृंखला के रूप में देखने का प्रयास किया गया यदि समझने के लिये एक पल को तीन सेकेंड की अवधि का मान लें तो प्रति दिन जागृत अवस्था में हम लगभग ऐसे बीस हज़ार पलों का अनुभव करते हैं। ऐसे हर पल में कितना कुछ घटित होता है। यदि हम हर पल का अवलोकन करें तो हर बीतते क्षण में ही हमारे जीवन में अनंत बातें होती हैं। अनंतर इन क्षणों में हुई उन अनुभूतियों का होता क्या है? कुछ अपवाद छोड़ ये सारे पल ‘विलुप्त’ ही तो हो जाते हैं! हमारी अनुभूतियाँ विलुप्त होती जाती हैं।
अनुभूति आत्मरूप (remembering self) अर्थात हमारे मस्तिष्क का अनुभव करने वाला भाग, जिसका कार्य है वर्तमान अनुभूति, इस बात का उत्तर देना कि ‘अभी कैसा अनुभव हो रहा है?’, पीड़ा हो रही है क्या?’ एवं स्मृति आत्मरूप (experiencing self) का कार्य है इस बात का उत्तर देना कि ‘कुल मिला कर अनुभव कैसा था?’।जैसे कोई देशाटन कर लौटे और उससे प्रश्न किया जाय – ‘कैसा रहा अवकाश?’ तो इसका उत्तर अनुभूति आत्मरूप नहीं देता, वह देशाटन के समय सक्रिय था। उसके बीतने के पश्चात ‘स्मृति आत्मरूप’ उत्तर देता है जो बीते हुये पलों का मूल्याँकन करता है और चुनी हुई घटनाओं का विवरण स्मृति में रखता है। अनुभूति आत्मरूप की भाँति यह क्षणिक या अनित्य नहीं होता बल्कि स्थायी होता है। हमारे जिये हुये अनगिनत पलों के अनुभव विलुप्त हो जाते हैं, अंततः बस छनी हुई स्मृतियाँ ही शेष रह जाती हैं। इन्हीं स्मृतियों के रूप में हम अपना अब तक का जीवन देखते हैं और भविष्य के लिये निर्णय भी इन्हीं के प्रभुत्व में लेते हैं।
उदाहरण के लिये, यदि हम किसी साँझ संगीत सुनने गये हों और समारोह के अंत में किसी तकनीकी समस्या के कारण संगीत बंद करना पड़ जाये तो हम पूरे अनुभव को ही बेकार कह देते हैं परन्तु गड़बड़ी के उस एक अंतिम क्षण के पहले तो हमने संगीत का आनंद पूरा उठाया होता है! मनोविज्ञान में स्मृति आत्मरूप का त्रुटिपूर्ण होते हुये भी अनुभूति आत्मरूप के ऊपर उसके प्रबल होने को एक संज्ञानात्मक पक्षपात के रूप में देखा जाता है। प्रयोगों में पाया गया कि कम अवधि में अधिक पीड़ादायी चिकित्सा प्रक्रिया की तुलना में रोगी अधिक अवधिवाली कम पीड़ादायी उपचार को प्राथमिकता देते हैं, भले ही अधिक अवधि वाली प्रक्रिया में पीड़ा की मात्रा (अवधि और पीड़ा की तीव्रता के मात्रा निर्धारण के पश्चात उनका गुणनफल) कई गुना अधिक हो। इन प्रयोगों से निष्कर्ष निकले – स्मृति द्वारा अवधि की अवहेलना (duration neglect) तथा केवल अंतिम या चरम अनुभव का शेष रह जाना यथा एक लम्बे सम्बंध के बुरे मोड़ पर टूटने के पश्चात लोग उस संबंध की केवल घुटन के रूप में स्मृति रखते हैं, वर्षों की अच्छी अनुभूतियाँ विलुप्त हो जाती हैं एवं स्मृति में शेष रह जाती है, केवल कड़वाहट। स्मृति आत्मरूप सर्वदा अनुभूति आत्मरूप पर प्रबल पड़ती है और अनुभूति मूक रह जाती है। हमारे विचार, सोच, मत और निर्णयों पर स्मृति आत्मरूप का प्रभुत्व होता है जो दोषपूर्ण भी होता है। किसी प्रसंग का अंत बुरा होने का अर्थ यह नहीं होता कि पूरे प्रसंग में सब कुछ बुरा ही था परन्तु स्मृति आत्मरूप की अवधि अवहेलना (duration neglect) के कारण अच्छे क्षण अधिक भी रहे हों तो हम उन्हें बुरे क्षणों की तुलना में कम पाते हैं या प्राय: पूर्णत: ही नकार जाते हैं। स्मृति आत्मरूप चुने हुये क्षणों से एक कहानी बना कर सहेज लेता है जिसे ध्यान में रखते हुये हम भविष्य के लिये (वास्तविक अनुभूतियों की अवहेलना करते हुये क्योंकि हम उन्हें देख ही नहीं पाते) निर्णय लेते हैं – पक्षपाती स्मृति की दृष्टि से अच्छे दिखने वाले।
डेविड बराश ‘बुद्धिस्ट बायआलॉजी’ नामक पुस्तक में इसे बुद्ध के अनित्यता से जोड़ते हुये प्रश्न करते हैं कि हमारा नित्य आत्मरूप (true self) है क्या? अनुभूति और स्मृति आत्मरूप तो नहीं? और यदि ये अनुभूति और स्मृति आत्मरूप हमारे गुणसूत्रों में ही अंतर्निहित हैं तो इससे केवल यह पता चलता है कि हमारे गुणसूत्र भी हमारे नित्य आत्मरूप नहीं है, हमारा वास्तविक आत्मरूप इससे परे है एवं इस संज्ञानात्मक पक्षपात से बचने के लिये हमें उस वास्तविक स्वरूप का चिंतन करना चाहिए।
परन्तु इस आधुनिक सिद्धांत की इससे सटीक व्याख्या उपनिषद के एक प्रसिद्ध गूढ़ भुरिक्पङ्क्ति छंद में मिलती है:
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयारन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यश्रत्रन्यो अभिचाकशीति॥
यहाँ विलक्षणता इस बात में है कि आधुनिक मनोविज्ञान में जहाँ इन सिद्धांतों को विरोधाभासी बता कर अंत कर दिया जाता है, वहीं सनातन दर्शनों में इन विरोधाभासों का हल भी बड़ी सुंदरता से बताया गया है।
अंतरात्मा और चैतन्य का अवलोकन करने को प्रेरित करने वाले इस छंद का अर्थ है – सदा साथ रहने वाले तथा परस्पर सख्यभाव रखने वाले दो पक्षी एक ही वृक्ष (शरीर) का आश्रय लेकर रहते हैं। उन दोंनो में से एक तो उस वृक्ष के फलों (कर्म फलों) को स्वाद ले ले कर खाता है किन्तु दूसरा उनका उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है ।
श्वेताश्वतरोपनिषद, मुण्डकोपनिषद तथा कठोपनिषद में वर्णित दो पक्षियों की उपमा वाला यह दर्शन मूलत: ऋषि दीर्घतमा औचथ्य द्वारा दर्शित ऋग्वेद की ऋचा (1.164.20) का यथारूप है:
द्वा सु॑प॒र्णा स॒युजा॒ सखा॑या समा॒नं वृ॒क्षं परि॑ षस्वजाते । तयो॑र॒न्यः पिप्प॑लं स्वा॒द्वत्त्यन॑श्नन्न॒न्यो अ॒भि चा॑कशीति ॥
दो पक्षी अभिन्न रूप से एक ही वृक्ष पर रहते हैं। एक फल का स्वाद लेता है दूसरा केवल अवलोकन करता है। स्वाद लेने वाले पक्षी की उपमा अनुभूति करने वाले आत्म रूप सदृश है। दूसरे पक्षी से यहाँ यह भी इङ्गित है कि जीवात्मा भी अनुभूतियों में संलिप्त न होकर एक बाहरी की तरह उनका अवलोकन कर सकता है – उससे होने वाले दुःख या सुख से परे। सुख-दुःख जो अनित्य हैं, क्षणभंगुर हैं। क्षणिक सांसारिक कर्म फलों से भिन्न अनुभव – फल न खाने वाले पक्षी की तरह अवलोकन कर। जीवात्मा के द्वैत रूप की यह अद्भुत उपमा है – सहभागी भी, साक्षी भी।
इसी कड़ी में सनातन दर्शन से एकरूपता का दूसरा अद्भुत उदाहरण है भगवद्गीता में। इन श्लोकों में उपनिषद के शाश्वत श्लोक वाली बात भी परिलक्षित है। द्वितीय अध्याय के इन श्लोकों का अवलोकन कीजिये, यही बात कितनी सुंदरता से वर्णित है! पिछले लेखांशों में सांख्य की चर्चा के संदर्भ में मस्तिष्क के प्रतिरूप की चर्चा करते हुये हमने विभेदकारी बुद्धि (discriminating intelligence) की चर्चा की थी। उसी संदर्भ में इन श्लोकों को पढ़ें तो!
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्। आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उसमें आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से मनुष्य नष्ट हो जाता है। आत्मसंयमी पुरुष रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसन्नता प्राप्त करता है जिससे सम्पूर्ण दुखों का अन्त हो जाता है एवं प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।
समस्या की जड़ ‘आसक्ति’ है। जिसे आधुनिक मनोविज्ञान संज्ञानात्मक पक्षपात कहता है, उस ‘स्मृति विभ्रम’ से यहाँ विभेदकारी बुद्धि का नाश होता है। उस बुद्धि का नाश जो वास्तविक अनुभव और विभ्रमित स्मृति में विभेद कर सके। विषयों का चिंतन न करते हुये उनमें आसक्ति नहीं करना इसका निवारण है, वस्तुगत जागरूकता (objective awareness) के साथ हर पल की अनुभूति।
इस दृष्टि से देखें तो हमारी संगीत संध्या का अनुभव व्यर्थ हो गया क्योंकि उसमें हमें गहरी आसक्ति हो चली थी। इच्छा, इच्छा से क्रोध, क्रोध से मोह और फिर स्मृति विभ्रम जिससे विभेदी बुद्धि का क्षय; मानो आधुनिक सिद्धांत अनुवाद हो इस सनातन दर्शन का। अद्भुत! वही भ्रम, वही मरीचिका, पक्षी के स्वाद में उलझ जाने की बात।
इस दर्शन में भौतिक अनुभवों के स्मृति से विभ्रमित नहीं होने देने का बेहतर तरीक़ा सुझाया गया है। विभेदकारी बुद्धि के साथ – पसंद, नापसंद की जागरूकता के साथ, आसक्त हुये बिना, उपद्रष्टा बनकर – ‘उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः’, प्रकृति के गुणों से परे -‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’।
यहाँ क्षणों को उनके वास्तविक रूप में देखने की बात है – मानो मनोविज्ञान के आधुनिक सिद्धांतों की अपूर्ण कड़ी को पूर्ण कर रहा हो। आत्मरूप और स्मृति आत्मरूप के साथ क्षणों के प्रवाह के लिये उपद्रष्टाआत्मरूप (spectating self) की बात कर- जो निष्पक्ष है। अनासक्त और वस्तुनिष्ठ उपद्रष्टा है – ‘अन्य: अभिचाकशीति’।
(क्रमश:)