हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. डेनियल गिल्बर्ट ने हमारी भविष्य की मनोकामनाओं के मिथ्यानुमान के लिए एक नया शब्द दिया miswanting अर्थात इच्छा का मिथ्यानुमान। टीमथी विल्सन के साथ वर्ष 2000 ई. में छपे अपने शोधपत्र Miswanting: Some Problems in the Forecasting of Future Affective States में उनकी मूल बात यह है कि बहुधा हमें क्या चाहिए इस बात का हम दोषपूर्ण अनुमान लगाते हैं। इस संज्ञानात्मक पक्षपात के कारण हम अपने सुख के लिए उन बातों का पीछा करते रहते हैं जिनके प्राप्त हो जाने पर भी हमें सुख नहीं मिल सकता। हमें किन बातों से आनंद की प्राप्ति होगी इसका हम प्राय: मिथ्यानुमान ही लगाते हैं। इतना ही नहीं, मिथ्यानुमान के कारण सुख प्राप्ति के स्थान पर हम कई बार सङ्कट में भी पड़ जाते हैं। यह सुनने में असहज प्रतीत होता है कि भला हम मिथ्या इच्छा (miswant) कैसे कर सकते हैं? इसे समझने के लिए यह सोचें कि भविष्य में आपको किन बातों से सुख प्राप्त हो सकता है? जब इस प्रश्न के बारे में हम यह सोचते है तो प्रायः उन बातों के बारें में सोचते हैं जिनके होने से हमें वास्तविक सुख प्राप्त नहीं होना। यह पढ़ते हुए ‘कस्तूरी कुण्डल बसे मृग ढूँढ़े वन माहिं’ के साथ यह पूरा सिद्धान्त बचपन में सुनी उस कथा में सिमट आता है जिसमें एक श्रमिक ने कहा,“राजा लोगों की क्या बात है भाई! वे तो गुड़ खाकर भी रह जायेंगे।” – miswanting का इससे सटीक उदाहरण भला क्या होगा? वस्तुओं ही नहीं, भावनाओं के बारे में भी हम इसी प्रकार सोचते हैं। हमारे बुरे अनुभवों और अच्छे अनुभवों का हम पर भविष्य में क्या प्रभाव पड़ने वाला है, इसका हम मिथ्या आकलन कर लेते हैं।
इसीसे जुड़ा सिद्धांत हैं केन्द्रित भ्रान्ति (focusing illusion) का, जिसके अनुसार हम किसी बात के प्रभाव को सोचते समय उसके एक पक्ष पर ही ध्यान केन्द्रित करते हैं। यथा जब हम सोचते हैं कि किसी अन्य नगर में चले जाने पर हम सुख का अनुभव करने लगेंगे तो हम प्रायः उस नगर के केवल एक उज्जवल पक्ष के बारे में ही सोचते हैं – उस नगर की जलवायु, उसमें रहने वाले हमारे मित्र इत्यादि। सोचते समय एक पक्ष पर हमारा ध्यान इस प्रकार केन्द्रित हो जाता है कि हम न तो अपने वर्तमान नगर के अन्य पक्षों पर ध्यान देते हैं, न ही दूसरे नगर की बुरी बातों पर। डेनियल कहनेमैन केन्द्रित भ्रान्ति की व्याख्या करते हुए कहते हैं – nothing in life is as important as you think, it is when you are thinking about it. अपने एक शोधपत्र में उन्होंने दिखाया कि नगर परिवर्तन से सुख के स्तर में कोई परिवर्तन नहीं आता – ‘सियाराम मैं सब जग जानी’ समझ कर रहने की बात।
साथ ही हम अपने मानसिक अभ्यस्त (habituation) हो जाने के गुण से अनभिज्ञ होते हैं। हमें लगता है कि हमारे जीवन में घटी बुरी घटनाएं हम भूल नहीं पायेंगे या जीवन में घटने वाली एक अच्छी घटना का प्रभाव जीवन पर्यंत बना रहेगा, परन्तु चाहे वे अति सौभाग्य के पल हों या दुर्भाग्य के, अंततः हम दोनों के ही ‘अभ्यस्त’ हो जाते हैं। बड़े घर या अच्छे नगर में जाने पर हमें क्षणिक सुख प्राप्त तो होता है, पर अंततः हमें उस बात से प्रसन्नता मिलनी समाप्त हो जाती है। भौतिक वस्तुओं में ही नहीं, मानवीय सम्बन्ध भी प्रायः इसी गति को प्राप्त हो जाते हैं।
एंड्रू क्लार्क, एड डाईनर, और येनिस जिओर्जेलिस के 2003 ई. में छपे शोधपत्र Lags and Leads in Life Satisfaction में उन्होंने दिखाया कि किस प्रकार जीवन की घटनाओं के पूर्व एवं पश्चात जीवन से संतुष्टि के स्तर में परिवर्तन आता है, उदाहरणत: विवाह के पहले एवं उपरांत होने वाले परिवर्तन। इसकी एक व्याख्या यह भी है कि जब जीवन से संतुष्टि के बारे में प्रश्न किया जाता है, उस समय दिया गया उत्तर इस बात पर भी निर्भर करता है कि व्यक्ति उस समय क्या सोच रहा है। इस बात के कई अध्ययन हैं कि उस समय यदि व्यक्ति को किसी अच्छी बात, भले ही उसी समय केवल दस पैसे का सिक्का मिल जाए, का ध्यान आ जाए तो व्यक्ति अपने संतुष्ट होने की बात कर देता है। साथ ही यह भी कि नगर परिवर्तन की ही भाँति जीवन की हर घटना हमारे जीवन के कई पक्षों में परिवर्तन लाती है परन्तु हम उसका आकलन करते समय प्रायः उसके एक पक्ष को ही देख पाते हैं। सम्बन्धों से असंतुष्ट व्यक्ति उसी प्रकार उनके अन्य उजले पक्षों को नहीं देख पाते जिस प्रकार नगर परिवर्तन कर दूसरे स्थान चले जाने पर सुखी हो जाने का आकलन कर लेते हैं। हम कुछ पलों के मोह में इस प्रकार उलझे रहते हैं कि उससे आगे बढ़कर सोच ही नहीं पाते। हम अपनी रूचि के नगर के बारे में सोचते समय यह भूल जाते हैं कि जीवन में सुख और संतुष्टि किसी एक नगर, समुद्र, पहाड़ या तापमान जैसे कारकों से परे होते हैं। किसी उत्पाद को बेचने वाले इस भ्रान्ति का दुरूपयोग करते हैं, यह दिखाकर कि एक उत्पाद कैसे हमारा जीवन स्तर सुधार सकता है या राजनेता एक ही विषय को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं। उसी प्रकार दूसरे का जीवन देख हमें लगता है उनका जीवन बहुत सुखमय है – बड़ी टीवी, बड़ा घर, बड़ा फ़ोन।
क्या ये सिद्धांत अनेकान्तवाद की ही बात नहीं करते? पुन: वही मरीचिका जिसकी बारम्बार चर्चा हमने कई लेखांशो में की !
मर्मस्पर्शी पूर्वानुमान (affecting forecasting) नाम से भी विदित इस सिद्धांत में यह बात भी सामने आई कि बड़ी बातों के अतिरिक्त छोटी बातों के प्रभाव का भी हम मिथ्यानुमान लगा लेते हैं यथा किसी के द्वारा किया अपमान, हमें लगता है कि हम भूल जायेंगे पर हम नहीं भूल पाते।
अर्थात आधुनिक मनोविज्ञान एवं तंत्रिकाज्ञान (न्यूरोसाइंस) के इन सिद्धांतों के अनुसार इस परिवर्तनशील जीवन में सुख के लिए हमें क्या चाहिए इसका ज्ञान हमें स्वयं ही नहीं होता।
तथा मन में उत्पन्न आशायें भविष्य के सुख का मिथ्या पूर्वानुमान होती हैं। तभी तो भगवान् श्रीकृष्ण सुखी व्यक्ति के लिये समय समय पर मन में उत्पन्न आशाओं से अविचलित रहने की बात कहते हैं, वैसे ही जैसे सागर अनेक नदियों के जल को प्राप्त करते रहने पर भी शांत रहता है।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥भगवद्गीता, 2.70॥
अनेकान्तवाद के साथ हर पक्ष को देख अविचलित रहने की बात पर भी तो सुभाषित है –
हर्षस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च । दिवसे दिवसे मूढं आविशन्ति न पण्डितम् ॥
गीता के अन्य श्लोक से इस भ्रान्ति को समझने में सहायता मिलती है। क्रियाशील जीवन में उत्थान और पतन कर्मों से होता है। कर्म, अकर्म एवं विकर्म का भेद सामान्य मनुष्य के लिए सहज नहीं होता क्योंकि कर्म की गति गहन है। कर्म का मूल्याङ्कन केवल उसके बाह्य स्वरुप को नहीं देखते हुए, अपितु उसके मूल तत्व एवं उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए करना चाहिये।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥भगवद्गीता, 4.17॥
पुनश्च विषयों में आसक्ति न करने वाली सनातन बात तो आधुनिक मनोविज्ञान के हर लेखांश पर ही लागू होती है।