Corona COVID-19 कोरोना कॅरोना विषाणु तथा उससे जनित प्रकोप की विश्व भर में चर्चा है। समाचार तथा संचार माध्यमों में हर पल इससे जुड़ी नवीन सूचनाएँ देखने को मिल रही हैं, साथ में अनेक प्रकार की मिथ्या तथा भ्रामक सूचनाएँ भी जिनके दुष्परिणाम भी हो रहे हैं। ऐसी घटनाओं का मानव समाज पर व्याधिग्रस्त होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी होता है जिसका एक प्रमुख कारण आकस्मिक भय (panic) है। मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्तियों में भय मात्र इसलिए नहीं है कि विषाणु का प्रकोप विश्व में तीव्र गति से पसर रहा है परंतु इसलिए भी कि मानव मस्तिष्क अज्ञात से अत्यधिक भयभीत होता है। इसी प्रकार की अन्य व्याधि अथवा समस्या, जो इससे अधिक घातक हो, परंतु उसके बारे में यदि हमें ज्ञान हो तो उससे इस प्रकार भय का प्रसार नहीं होता, यथा चक्रवात, धूम्रपान, वाहन चलाना, युद्ध, विषाणु जनित अन्य व्याधियाँ इत्यादि। मनोविज्ञान में अज्ञात के भय से घबराहट होना एक स्वाभाविक भ्रांति है। इसके साथ-साथ समाचारों में भी विरोधाभास हैं, सूचनाएँ उपलब्ध हैं पर विश्वसनीय नहीं।
चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार यह संक्रामक ज्वर (flu) की ही भाँति है और इस विषाणु के बारे में भी अज्ञात से कहीं अधिक बातें ज्ञात हैं। यथा यह विषाणु जिस वर्ग का है उसके बारे में बहुत कुछ पता है जिससे इसके लिए टीका ढूँढ़ने में अधिक समय नहीं लगना चाहिए परंतु सूचनाओं के इस युग में व्याधि से अधिक संक्रामक व्याधि का भय है। इसका एक प्रमुख कारण चीन से आने वाले आँकड़ों पर अविश्वास है, साथ ही संचार एवं समाचार माध्यमों द्वारा इसे सनसनीपूर्ण बना दिया गया है। तर्क रूप से सोचें तो समाचारों में अधिक आते रहने से व्याधि अधिक गम्भीर नहीं हो जाती परंतु इसका मनोवैज्ञानिक कुप्रभाव अवश्य पड़ता है।
इस मनोवैज्ञानिक भय का एक प्रभाव स्पष्ट रूप से संग्रह-प्रवृत्ति में दिखने लगा है। अनेक देशों के आपणों में आवश्यक सामग्रियों की न्यूनता होने लगी है जहाँ भयग्रस्त लोग आने वाले अनेक महीनों के लिए सामग्री एकत्रित करने में लग गए हैं। मनोविज्ञान में इसे झुंड-व्यवहार (herd-behavior) कहते हैं। इसके साथ ही व्यग्रता की अवस्था में व्यक्ति अनिवार्य व्यवहार (compulsive behaviour) से भी प्रभावित होता है, यथा मुखावरण (mask) का उपयोग। इसका एक दुष्प्रभाव यह भी होता है कि व्यक्ति मुखावरण पहन अपने को सुरक्षित समझने का भ्रम कर लेता है और आवश्यक सावधानियों यथा बार-बार हाथ धोना तथा संक्रमित होने पर अपने को पृथक करना, को व्यवहार में नहीं लाता।
मनोविज्ञान आधारित इस लेखमाला में हमने अनेक भ्रांतियों का अवलोकन किया जिसमें नकारात्मक भ्रांति (negativity bias) भी एक है अर्थात अज्ञात का अधिक भय होना। उत्तरजीविता के लिए मस्तिष्क की संरचना (survival mechanism) की उपज इस भ्रांति के अनुसार यदि हम किसी विशेषज्ञ को कहते सुनें कि इस व्याधि का अभी तक कोई उपचार नहीं है तो आकस्मिक भय (panic) का होना स्वभाविक है। नकारात्मक भ्रांति में सम्भावित संकट वाली सूचना को मस्तिष्क त्वरित रूप से ग्रहित कर लेता है। यह एक अत्यंत उपयोगी संरचना है परंतु इसके परिणाम स्वरूप ऐसी परिस्थितियों में हम तार्किक निर्णय नहीं ले पाते।
यह सत्य है कि यदि इस विषाणु का उपचार अधिक दिनों तक नहीं मिला तो आज नहीं तो कल भीड़ वाले नगरों में रहने वाले लोगों का इससे सामना होना ही है परंतु इसका सामान्य संक्रामक ज्वर (flu) की भाँति होना यह भी दर्शाता है कि इससे अधिक भयभीत होकर मानसिक रूप से व्यथित होने की कोई आवश्यकता नहीं! एक पक्ष की पृथकता के लिए सैकड़ों खाने तथा आवश्यक वस्तुओं का संग्रह तो तार्किक नहीं ही कहा जा सकता। संग्रह प्रवृति से विश्व के अनेक देशों में आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता प्रभावित हुई है, ऐसी वस्तुओं की भी जिनके उत्पादन में कोई घटोत्तरी नहीं होने वाली परंतु जिनकी आपूर्ति आवश्यकता के अनुसार रखी जाती है क्योंकि ऐसी वस्तुओं का लोग संग्रह नहीं करते।
ऐसे में इस प्रकार की वस्तुओं के मूल्य में अनावश्यक रूप से वृद्धि होगी। साथ ही लोग उन सामग्रियों का भी क्रय तथा संग्रह कर रहे हैं जिनसे कोई लाभ नहीं – यथा मुखावरण जिससे लाभ नहीं पर जिसकी जहाँ आवश्यकता है वहाँ उसकी उपलब्धता प्रभावित हो रही है। चक्रवात इत्यादि की अवस्था में व्यक्तियों को अनुमान होता है कि उन्हें किन सामग्रियों की आवश्यकता पड़ेगी परंतु इस स्थिति में लोग कुछ भी अनावश्यक संग्रह कर रहे हैं।
इस व्यग्रता जनित संग्रह का अन्य कारण है- नियंत्रण में होने की भावना। मनोविज्ञान के अनुसार यदि संकट की अवस्था में अति साधारण कार्य करें (यथा हाथ धोना) तो हमें असहाय प्रतीत होता है इसलिए हम ऐसे कार्य करते हैं जिससे हमें यह प्रतीत हो कि हम नियंत्रण में हैं। हानि विमुखता (loss aversion) सिद्धांत के अनुसार (जिसकी चर्चा हम अन्य लेखांश में कर चुके हैं) व्यक्ति को लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि जब हम कुछ कर सकते थे, तब नहीं किया। इन सारे मनोवैज्ञानिक कारकों ने व्यक्तियों में आकस्मिक भय (panic) तथा अनावश्यक संग्रह (hoarding) की प्रवृत्ति को जन्म दिया है।
ऐसी परिस्थिति में भ्रांतियों के समक्ष तार्किक तथ्यों पर कोई ध्यान नहीं देता। यदि अन्य व्यक्ति भय से संग्रह कर रहे हैं तो स्वयं वैसा करने के विपरीत बुद्धिमान व्यक्ति को उस पर विचार करने की आवश्यकता है। समाचारों से स्पष्ट है कि विषाणु के प्रकोप से अधिक उसके भय का प्रकोप है। चीन से आ रहे समाचारों के अनुसार भय से लोग अवसाद तथा मनोरोग से पीड़ित हो रहे हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार चीन के 42.6% नागरिक कोरोना विषाणु जनित प्रकोप से व्यग्रता (anxiety) के शिकार हैं। विषाणु का उपचार मिल भी जाय तो मानसिक व्याधि का क्या?
आवश्यकता है, भय एवं व्यग्रता से अछूते रह मानसिक रूप से शांत एवं स्वस्थ रहने की, अथर्ववेद की इस उक्ति की भाँति —
यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा मे प्राण मा विभेः॥
जिस प्रकार आकाश एवं पृथ्वी न भयग्रस्त होते हैं और न ही इनका नाश होता है, उसी प्रकार हे मेरे प्राण! तुम भी भयमुक्त रहो।
भय से शारीरिक ही नहीं मानसिक रोग भी उपजते हैं, भय कैसा? परंतु भय से मुक्ति सरल कहाँ? यह समाचारों से तो स्पष्ट है ही। भर्तृहरि ने भी ऐसा ही कहा है। इस संसार की वस्तुएँ भय उत्पन्न करने वाली तो सदा से रही हैं —
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भभयं।
मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाभयम् ॥
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं।
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥
अज्ञात से भी भय कैसा?
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षातु।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु ॥
हमें मित्र से अभय हो, अमित्र (शत्रु) से अभय हो, जिसको जानते हैं उससे अभय हो, जिसको नहीं जानते उससे भी अभय हो, रात्रि में भी अभय हो, दिन में भी अभय हो, समस्त दिशायें हमारी मित्र हों अर्थात् हमें सब काल में सभी ओर से निर्भयता प्राप्त हो।
यदि ऐसा सोचें तो नकारात्मक भ्रांति कहाँ टिक पाएगी!
पुनश्च:
मनोविज्ञान से परे इस लेखमाला के प्रारम्भ में हमने सनातन प्रज्ञा की चर्चा की थी जिसमें अंतःकरण के विज्ञान के अतिरिक्त भौतिक विज्ञान के भी अद्भुत प्रसंग मिलते हैं। सूक्ष्म जीवों यथा विषाणु, जीवाणु इत्यादि की परिकल्पना के भी सनातन ग्रंथों में संदर्भ मिलते हैं। ऐसी परिकल्पना का उस काल के संसार की अन्य किसी भी पुस्तक में मिलना असम्भव है। योग वासिष्ठ के तृतीय प्रकरण में सूक्ष्म-अदृश्य विषूचिका (सम्भवतः कॉलरा/ हैजा विषाणु) का वर्णन मिलता है —
अन्या वभूव लग्ना सा तथा जीवविषूचिका । व्योमात्मिका निराकारा व्योमवृत्तिशरीरका ॥ २४ ॥
तेजस्तनुप्रवाहाभा प्राणतन्तुमयात्मिका । मूलसंवेदनाकारा चन्द्रार्कांशुकसुन्दरी ॥ २५ ॥
पृथगेवासिधाराभा परमाण्ववलीय सा । कौसुमी गन्धलेखेव कला कलनरूपिणी ॥ २६ ॥
पापात्मिका मनोवृत्तिः सो हि तस्यास्तथा स्थिता । परप्राणवशादेव परमार्थपरायणा ॥ २७ ॥
एवमस्यास्तनुर्जाता सूचीद्वयमयी हि सा । नीहारांशुकवत्तन्वी कार्पासांशुसुपेलवा ॥ २८ ॥
तनुद्वयेन तेनासौ प्रविश्य हृदयं नृणाम् । वेधयन्ती ततः क्रूरा प्रबभ्राम दिशो दश ॥ २९ ॥
स्टेट यूनिवर्सिटी ओफ़ न्यू यॉर्क से छपे अनुवाद के इस अंश का अवलोकन करें —
[She became so subtle that her existence could only be imagined. …Though she was extremely subtle and unseen, her demoniacal mentality underwent no change at all. She had gained the boon of her choice; but she could not fulfill her desire to devour all beings! …the demoness roamed the world afflicting all the people… entered into the physical bodies of people who, on account of previous illness had been greatly debilitated or had become obese, entered into the heart of even a healthy and intelligent person, and perverted his intellect. In some cases, however, she left that person when the latter underwent a healing treatment either with the aid of the mantra or with drugs. …her numerous hiding places: dust and dirt on the ground, (unclean) fingers, threads in a cloth, within one’s body in the muscles, dirty skin covered with dust, unclean furrows on the palms and on other parts of the body (due to senility), places where flies abound, in a lusterless body, in places full of decaying leaves, in places devoid of healthy trees, in people of filthy dress, people of unhealthy habits, in tree-stumps caused by deforestation in which flies breed, in puddles of stagnant water, in polluted water, in open sewers running in the middle of roads, in rest houses used by travelers, and in those cities where there are many animals like elephants, horses, etc]
महाभारत में भी सूक्ष्म योनि के अदृश्य जीवों का एक प्रसंग शांति पर्व में मिलता है —
सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्क गम्यानि कानि चित।
पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां सयात सकन्धपर्ययः॥