सनातन बोध : प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 1 , 2, 3, 4 , 5 , 6, 7, 8, 9 , 10, 11,12, 13 से आगे
मध्यमान प्रत्यावर्तन (reversion to mean), सांख्यिकी, मनोविज्ञान और व्यावहारिक अर्थशास्त्र का एक सहज परन्तु महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। चार्ल्स डार्विन के चचेरे भाई फ़्रैन्सिस गॉल्टॉन को इसके प्रतिपादन का श्रेय दिया जाता है परन्तु यह सिद्धांत सदियों से किसी न किसी रूप में चला आ रहा है। ‘अगेन्स्ट द गॉडस – ए रिमार्केबल स्टोरी ओफ रिस्क’ में पीटर बर्न्स्टायन ने इस बहुआयामी सिद्धांत और इसके महत्त्व को रोचक विधि से प्रस्तुत किया है। सांख्यिकी में इस सरल से सिद्धांत से निकले कई महत्त्वपूर्ण सिद्धांत हैं। सरल शब्दों में इस सिद्धांत का अर्थ है – प्रकृति की हर बात प्राय: अपने औसत की दिशा में लौटती है अर्थात यदि कुछ अप्रत्याशित से रूप से अधिक हो जाय तो अगली बार उसके कम होने की सम्भावना बढ़ जाती है। फ़्रैन्सिस गॉल्टॉन को इस बात का श्रेय उनके द्वारा व्यक्तियों की लम्बाई के आनुवंशिक अध्ययन के लिये मिला। उनका अनुमान था कि लम्बे माता-पिता से जन्मी संतान भी लम्बी होगी परन्तु आँकड़ों के अध्ययन में उन्होंने पाया कि औसत से अधिक लम्बे माता-पिता से जन्मी संतान उन दोनों की औसत लम्बाई से छोटी एवं औसत से कम लम्बाई वाले माता-पिता की संतान माता-पिता की लम्बाई से अधिक होती है अर्थात प्रकृति औसत को बनाये रखती है।
‘अति’ को मध्यमान की दिशा में लौटाना प्रकृति का नियम है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि यदि ऐसा नहीं होता तो मनुष्य की अधिकतम लम्बाई बढ़ती चली जाती और न्यूनतम लम्बाई भी कम होती चली जाती।
(वैसे इस उदाहरण में यह ध्यान देने योग्य है कि भिन्न-भिन्न युगों में मनुष्यों की औसत लम्बाई भिन्न-भिन्न होती रही है परन्तु यह तथ्य मध्यमान प्रत्यावर्तन का विरोधाभासी नहीं होता अपितु अन्य पूरक सिद्धांतों के साथ इस तथ्य से भी मेल खाता है। मध्यमान प्रत्यावर्तन का सिद्धांत गतिमान दोलक के लोलक की गति की भाँति होता है)।
इस सहज से दिखने वाले सिद्धांत का अतिशय उपयोग होता है – शेयर बाज़ार निवेश में। उन कम्पनियों के शेयर जो बहुत ऊपर होते हैं अल्प काल में उनके नीचे आने की सम्भावना अधिक होती है। उसी प्रकार जिन कम्पनियों के शेयर बहुत नीचे चले गये होते हैं, अल्पकाल में उनके अपने मध्यमान की ओर लौटने की सम्भावना अधिक होती है। शेयर बाज़ार में संगणना आधारित निवेश (Quantitative trading strategies) के प्रतिरूपों में मध्यमान प्रत्यावर्तन प्रतिरूप (mean reversion based trading models) पिछले दशकों के सबसे लाभदायी प्रतिरूपों में से एक रहा है। भिन्न-भिन्न युगों में मानव की लम्बाई घटने-बढ़ने की भाँति ही यहाँ भी किसी शेयर का मूल्य दीर्घकाल में ऊपर या नीचे जाते रहने पर भी अल्प काल में प्राय: मध्यमान प्रत्यावर्तन के नियम का पालन करता प्रतीत होता है। भिन्न-भिन्न अवधियों में प्रतिभूतियों (शेयरों) एवं उनके समूहों के मूल्य के मध्यमान प्रत्यावर्तन होने के कई अध्ययन हैं। इस छोटे से दिखने वाले सिद्धांत को परिष्कृत कर अतिशय धन ‘बनाने’ की कई कहानियाँ हैं।
निवेश के अतिरिक्त जीवन के अन्य पहलुओं में भी इस सिद्धांत का विस्तृत उपयोग है। इस क्रम में मनोविज्ञान का एक प्रसिद्ध अध्ययन काहनेमैन का है जिनकी चर्चा कई लेखांशों में आयी। यह अध्ययन 1968 का है जब वह एवं उनके सहयोगी प्रो. ट्रेवसकी हीब्रू विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर होने के साथ साथ इजराइली वायु सेना के विमान चालकों के प्रशिक्षकों को पढ़ाते भी थे। उन्हीं दिनों उन्होंने पाया कि मनोवैज्ञानिकों के ‘प्रोत्साहन तथा पुरस्कार दण्ड की तुलना में उत्तम प्रभावी होते है’’ के सिद्धांत के विपरीत प्रशिक्षकों का मानना था कि जब भी वे किसी प्रशिक्षार्थी विमान चालक को पुरस्कृत करते तब अगली उड़ान में उसके प्रदर्शन एवं कौशल में कमी आ जाती। ठीक इसी प्रकार हर दण्ड के पश्चात वाली उड़ान में संशोधन या सुधार आ जाता। इस अवलोकन के आधार पर प्रशिक्षक, दण्ड देने को प्रशिक्षण की उत्कृष्ट युक्ति मानते। इस अवलोकन के स्वरूप की एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से व्याख्या यह निकली कि विमान चालकों का कौशल सीखना एक धीमी प्रक्रिया है एवं हर एक उड़ान के पश्चात दण्ड या प्रोत्साहन के गणित से कौशल में गिरावट या संशोधन होना संभव नहीं है, यह केवल मध्यमान प्रत्यावर्तन भर है अर्थात बहुत अच्छे प्रदर्शन के पश्चात अगले प्रदर्शन में गिरावट की सम्भावना बढ़ जाती है। प्रशिक्षक जिसे अपने पुरस्कार या दण्ड से जोड़कर देख रहे थे,वह केवल एक यादृच्छिक (रैंडम) प्रक्रिया थी।
ऐसी कितनी ही बातों के लिये हम प्रतिभा मान लेते हैं जो कि मात्र एक यादृच्छिक (रैंडम) प्रक्रिया है! मध्यमान प्रत्यावर्तन का एक अर्थ यह भी हुआ कि दोषी के भीतर भी अच्छाई होती है एवं केवल इस प्रक्रिया के गणित से भी एक त्रुटि के पश्चात अगली बार उस व्यक्ति में सुधार आता है, यह आवश्यक नहीं कि वह सुधार दण्ड के कारण आया हो। यही बात पुरस्कार के लिए भी सच है। यह कुछ इस तरह है कि यदि हम पाँच लोगों के एक समूह को एक एक सिक्का देकर कहें कि 10 बार उछालने पर सबसे अधिक ‘हेड’ लाने वाले को एक पुरस्कार दिया जायेगा। पहली बार जिस व्यक्ति के सबसे अधिक ‘हेड’ आये, अगली बार उसे दण्ड दें या पुरस्कार, पुनः उसी व्यक्ति के सबसे अधिक ‘हेड’ आने की सम्भावना स्वतः ही कम हो जाती है।
सांख्यिकी में यही सिद्धांत कहता है कि यादृच्छिक आँकड़ों में जब मध्यमान से विचलन अधिक होता है तो अगले आँकलन के मध्यमान के समीप होने की प्रायिकता अधिक होती है अर्थात अति (extreme event) होने के पश्चात सामान्य होना – अति सर्वत्र वर्जयेत्। ‘सब दिन होत न एक समान’ जैसे सरल दिखने वाले इस सिद्धांत को एक अलग ढंग से व्यक्त कर दिए जाने से पिछले कई दशकों में कितना कुछ हुआ, यह अनुमान लगाना कठिन है। इसे एक अलग ढंग से व्यक्त ही तो कहेंगे?
दर्शन में यह सिद्धांत अनेकों ग्रंथों में अंतर्निहित है। धन के बाद ऋण, सुख के बाद दुःख के चक्रवत आते रहने की बात कहाँ कहाँ अंकित नहीं है, जन जन की कथाओं में तो अनेकों रूप में प्रचलित है ही! नीतिशतक में भर्तृहरि लिखते हैं –
छिन्नोऽपि रोहति तरुश्चन्द्रः क्षीणोऽपि वर्धते लोके।
इति विमृशन्तः सन्तः संतप्यन्ते न लोकेऽस्मिन्॥
अर्थात तने और डालियों के कटने पर भी पेंड पुनः उग कर बड़ा होता है। चंद्रमा कृष्णपक्ष में छोटा होकर पुनः शुक्लपक्ष में बड़ा होता है। नाश और वृद्धि क्रमशः आते जाते हैं, इस तथ्य से परिचित होने के कारण ही सज्जन संतप्त नहीं होते। मध्यमान प्रत्यावर्तन की इससे सटीक और कालातीत क्या परिभाषा होगी भला!
मेघदूत में महाकवि कालिदास लिखते हैं –
कस्यैकान्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा।
नीचै र्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण॥
अर्थात किसे केवल सम्पूर्ण सुख या केवल दुःख ही मिला है? सुख और दुःख की दशा तो चक्र की तरह सर्वदा ऊपर नीचे होती रहती है। इससे मिलने वाली सीख कि सुख-दुःख में समरस रहना चाहिये, के संदर्भों की तो कमी है ही नहीं!
हितोपदेश में इस चक्र की बात यूँ है –
सुखमापतितं सेव्यं दुखमापतितं तथा।
चक्रवत् परिवर्तन्ते दु:खानि च सुखानि च॥
(क्रमश:)