पितृब्भ्य: स्वधायिब्भ्य: स्वधा नम: ।
पितामहेब्भ्य: स्वधायिब्भ्य: स्वधा नम: प्प्रपितामहेब्भ्य: स्वधायिब्भ्य: स्वधा नमः ।
अक्षन्न्पितरो मीमदन्त पितरोतीतृपन्त पितर: पितर: शुन्धद्ध्वम् ।
आज से श्राद्धपक्ष अथवा पितृपक्ष का आरम्भ हुआ है। इसमें हम अपने पितरों को कृष्णतिल एवं पयमिश्रितजल अर्पण करते हैं, जिसे तर्पण कहा जाता है। एक गृहस्थ द्वारा षोडश दिवसपर्यन्त नित्य तर्पण किया जाना चाहिए।
श्राद्ध अर्थात् श्रद्धा हेतुत्वेनास्त्यस्य अण् = श्रद्धा हेतु है, जो वह कर्म श्रद्ध होगा इसमें अण् प्रत्यय लगने पर शब्द बना ‘श्राद्ध‘। ‘श्रद्धया दीयते यस्मात् तस्मात् श्राद्धं निगद्यते‘ – श्रद्धा से दिया जाए वह श्राद्ध। अमरकोश के अनुसार ‘श्रद्धा सम्प्रत्यय: स्पृहा‘ अर्थात् श्रद्धा, विश्वास और लगाव पर्याय हैं। अपने पूर्वजों पर विश्वास एवं उनके प्रति लगाव से जो कर्म किया जाता है वह श्राद्ध है।
यह श्राद्ध तीन प्रकार का होता है- नित्य (जो नित्य किया जाता है), नैमित्तिक (जो किसी दिवङ्गत की तिथि-विशेष पर किया जाता है) तथा काम्य ( जो किसी कामना से किया जाता है)।
अस्तु। हम तो इस ब्याज से कुछ सम्बन्धों को व्याकरण की दृष्टि से समझेंगे।
श्राद्ध कर्म में हम जिन सम्बन्धियों का तर्पण करते हैं, उनमें मुख्यत: तीन गोत्रज होते हैं।
प्रथम गोत्र अर्थात् पितृ गोत्र
इस पक्ष में पहला शब्द है- पिता। यह पितृ शब्द का प्रथमा एकवचनीय पद है। ‘पाति, रक्षति इति पिता‘ अर्थात् जो रक्षा करता है वह पिता है। इस पा धातु को आपने ‘पातु माम्‘ में देखा है। जो संसार के कष्टों व दुर्गुणों से रक्षा करे, वह पिता होता है। चाणक्य के अनुसार ये पाँच पिता कहलाते हैं-
जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता,भयत्राता पञ्चैता: पितर:स्मृता:॥
(जन्म देने वाला, उपनयन संस्कार करने वाला, विद्या प्रदान करने वाला, अन्नदाता और भयमुक्त करने वाला; ये पाँच पिता कहे गए हैं।)
पिता के पिता ‘पितामह‘ कहलाते हैं और उनकी भार्या ‘पितामही‘। इसी प्रकार पितामह के पिता व माता ‘प्रपितामह‘ एवं ‘प्रपितामही‘।
तब आते हैं पितृव्य। पिता के भ्राता (अग्रज अथवा अनुज)। पिता की भगिनी पितृस्वषा।
ध्यातव्य है कि पिता व जनक पृथक्-पृथक् हो सकते हैं। जैसे, वसुदेव कृष्ण के जनक अथवा बाप हैं तथा नन्द पिता। जनक अर्थात् जननं करोति इति जनक: – जन्म देता है वह जनक। यह हिन्दी के बाप का पर्याय है – वपनं करोति इति वाप:। वाप का तद्भव है बाप। जो (बीज) बोता है वह बाप है।
माता– मान+तृच् तथा न के लोप से बनता है शब्द ‘मातृ‘। मातृ का प्रथमा एकवचनीय रूप है ‘माता‘। माता का व्याकरणीय अर्थ है ‘पूज्या‘। ये पाँच माता कही जाती हैं-
राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्रपत्नी तथैव च।
पत्नी-माता स्वमाता च पञ्चैता मातर स्मृताः॥
कहा गया है-
मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्।
आत्मविश्वास सर्वभूतेषु, य: पश्यति स: पण्डित:॥
‘जननी‘ जन्मदात्री को कहते हैं। जन्मदात्री की समानता किसी से नहीं की जा सकती। स्वयं राम के मुख से महर्षि वाल्मीकि कहलाते हैं- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। ध्यान दीजिए- माता मातृभूमि नहीं कहा है। अस्तु।
भ्राता– जगमगाने अथवा दमकने हेतु संस्कृत में ‘भ्राज्‘ धातु है। इस भ्राज् धातु से बना है शब्द भ्राता – भ्राज्+तृच्। जिसे देखकर मन और मुख दमकने लगे, वह भ्राता है। भ्राता की पत्नी ‘भ्रातृजाया‘।
भगिनी– भगिन् अर्थात् भाग्यशाली। इसका स्त्रीलिङ्ग रूप बनेगा भगिनी। भगिनी(बहन) अर्थात् भाग्यशालिनी।
सहोदर– सह+उदर। एक ही उदर (गर्भ) से जन्म लेने वाला सहोदर (सगा भाई) होता है। सहोदर का स्त्रीलिङ्ग में रूप बनता है ‘सहोदरी‘।
अग्रज, अनुज – अग्रे जायते। पहले जन्म लिया वह ‘अग्रज’ एवं अनु जायते इति अनुज:। अनु अर्थात् पीछे यथा – अनु+करण, अनु+सरण। जिसने अनन्तर जन्म लिया, वह ‘अनुज’।
द्वितीय गोत्र – मातृ गोत्र
जहाँ से माता का आगमन हुआ है, वह गोत्र। माता के पिता व माता ‘मातामह‘ एवं ‘मातामही‘। माता के भाई ‘मातुल‘। मातुल की भार्या ‘मातुलानी‘ है।
तृतीय गोत्र – पत्नी का पितृगृह
वहाँ प्रमुख हैं ‘श्वसुर‘। स्वादिगण की धातु है- ‘अश्‘। आशु: अश्नुते इति (अ का लोप) श्वसुर: – शीघ्र ही प्रसन्नता से भर जाए वह श्वसुर। श्वसुर की भार्या ‘श्वश्रु:‘ – सास।
इसके अतिरिक्त अन्य गोत्रजों में प्रथम है मित्रम्– ‘मेद्यति स्निह्यति इति मित्रम्‘ अर्थात् जो जीवन को स्नेह से भर दे, वह मित्र होता है।
गुरु– ये तो पितृवत् होते हैं; अनिवार्य नहीं कि गोत्रज हों। गृणाति इति गुरु:, इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो संबोधन, घोषणा अथवा उच्च स्वर करता है, वह गुरु। गुरु का एक अर्थ भारी भी होता है, जिसका तुलनात्मक शब्द है- गरीयस तथा निर्धारणात्मक शब्द है गरिष्ठ।
आप्त– आप्+क्त। इसका अर्थ हुआ प्राप्त किया अथवा पूर्ण कर दिया। यह भी अन्य गोत्रज होता है। जो व्यक्ति आपके जीवन को प्रेम, आनन्द व प्रसन्नता से भर दे; वह आप्त कहलाता है। यह आपका हितचिन्तक होता है। जिसने आपके जीवन को उन्नत बनाने में सफल भूमिका निभाई हो वह आप्त होता है।
सम्बन्ध का अर्थ हुआ सम् बन्ध। समान (रक्त अथवा भाव से) बन्धे हुए। ऐसा नहीं कि एक तो प्रिय मान रहा हैं, वहीं दूसरा अप्रिय अथवा शत्रु मान रहा है, रक्त सम्बन्ध में एक स्वीकार रहा है, दूसरा अस्वीकार रहा है। ऐसे होते तो सम्बन्ध नहीं होते।
जो बन्धे हैं, वे ही बान्धव हैं। बन्धु एकवचनीय पद है।
सनातन धर्म की विशेषता देखिए कि वह केवल इस जन्म के सम्बन्धियों को ही नहीं, अपितु अन्य जन्मों के बान्धवों, देव, ऋषि और अखण्ड ब्रह्माण्ड के प्राणियों को जल अर्पण करता है-
ये ऽबान्धवा बान्धवा ये, येऽन्यजन्मनि बान्धवा: ।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मया दत्तेन वारिणा ॥
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्त देवर्षि पितृमानवाः,तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृ माता महादय:।
अतीत कुल कोटीनां सप्तद्वीप निवासिनाम् आब्रह्म भुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम्॥
अंत में कुशा को बाहर छोड़ते हुए भी सद्भावना देखिए-
येषां पिता न च भ्राता, न पुत्रो नान्यगोत्रिणः।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मयोत्सृष्टैः कुशै: सदा॥
जिनके पिता, भाई, पुत्र या अन्य कोई सगोत्री न हों, वे इस कुशा के जल को ग्रहण करें।
अन्त में सभी पितरों से प्रार्थना-
तृप्यध्वम् तृप्यध्वम् तृप्यध्वम् ।
Please tell me sradh swrgwas hone parse kitne din bad suru hote hai
बहुत सुंदर और सरलता से संस्कृत शब्दों को समझाने वाला लेख है, एक ही स्थान पर सभी संबंधी शब्दों का संस्कृतानुसार अर्थ बढ़िया है ।