हिन्दी सिनेमा की भाषा में अरबी प्रदूषण हिन्दीभाषी भारत को जड़ से काटने के लिये किया गया। हिन्दी का अभिनेता उर्दू के लिए मानद पीएचडी पाए तो चौकन्ना हो जाना चाहिये।
बँगला इतिहास के बहाने
वर्तमान बँगलादेश (पूर्वी बंगाल) के मैमेनसिंह जनपद की स्थापना 1 मई 1787 को तत्कालीन ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा हुई। ब्रह्मपुत्र के किनारे स्थित इस नगर का पुराना नाम नसीराबाद था जो कालांतर में शासक मोमेन शाह के नाम से मोमेनशाही कहलाया जिसके ब्रिटिश उच्चारण (Mymensingh) ने मैमेनसिंह रूप ले लिया।
बीसवीं सदी तक यहाँ की जनसंख्या हिन्दू बहुल ही रही जब मुसलमानों ने यहाँ बाहर से आ कर बसना प्रारम्भ किया। वे अपने साथ उर्दू के फारसी और अरबी शब्द ले आये और बँगला भाषा प्रभावित होने लगी। इन पराये शब्दों को ले कर उहापोह की स्थिति रही किंतु धीरे धीरे ये शब्द ‘बँगला प्रगतिवाद’ और कथित ‘ब्राह्मण प्रभाव के विरोध’ की आड़ ले कर पैठ बनाते गये। लोकगीतों में भी इनका प्रदूषण बढ़ता चला गया।
हिन्दू मुस्लिम संवाद में प्रवाह और सहजता बनाये रखने के नाम पर उन शब्दों को स्थान तो मिलता गया किंतु साथ ही मुस्लिम हठधर्मिता की आँच का भी भान होता रहा। दिनेशचन्द्र सेन द्वारा 1923 में प्रकाशित The Ballads of Bengal में तत्कालीन स्थिति की मीमांसा मिलती है। उनके द्वारा सङ्कलित ‘मैंमनसिंह गीतिका’ की भूमिका में तनाव साफ परिलक्षित होता है।
भाषिक प्रदूषण सांस्कृतिक रूप से निर्बल करता है और भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर अपनी संस्कृति से धीरे धीरे दूर भी करता जाता है। सहज रूप से दूसरी भाषाओं से शब्द आने एक बात है और जान बूझ कर किसी बृहत मंशा के तहत प्रदूषित करना और बात।
भारत विभाजन के समय निर्बल हिन्दुओं वाले भाग पूर्वी पाकिस्तान बन कर अलग हो गये। मजहब भाषा पर भारी पड़ा। पश्चिमी पंजाबियों की थोपने वाली प्रवृत्ति ने अत्याचार नहीं किये होते, जिसमें कि उर्दू भी एक अस्त्र थी, तो बंगालियों की चेतना मजहब से ऊपर उठ कर ‘आमार सोनार बँगला’ तक पुन: नहीं पहुँचती और न ही बँगलादेश बनता।
आज के भारतीय पश्चिमी बंगाल में विचित्र स्थिति है। बँगला अस्मिता और ऐक्य के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण चरम पर है और हिन्दू सिमटते जा रहे हैं। बँगलादेश में स्थिति तो भयावह है ही। ऐसे में बंगाली मुसलमानों की अरबी और उर्दू के प्रति मोह की तीव्रता कितनी है, इसकी जाँच रोचक होगी।
हिन्दी सिनेमा की भाषा का प्रदूषण
जैसा बंगाल में लघु स्तर पर किया गया वैसा ही कुछ वृहद स्तर पर हिन्दी सिनेमा की भाषा का प्रदूषण कर सम्पूर्ण हिन्दीभाषी भारत को उसके जड़ से काटने के लिये किया गया। सिनेमा का हिन्दी और उर्दू विवाद इतिहास है। इतिहास यह भी है कि कैसे पेट्रो डॉलर के धन का प्रयोग कर हिन्दी को उसी के सिनेमा में किनारे लगा दिया गया। आज तो स्थिति यह हो गयी है कि शुद्ध हिन्दी बोलने वाला हँसी का पात्र है और जाने कितने अबूझ अरबी शब्द हिन्दी सिनेमा के गीतों में घुसे बज रहे हैं जिन पर आपत्ति करने वाला कोई नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि अपने पाँव कुल्हाड़ी मारने में हिन्दू जन अगुवा बने हुये हैं, ठीक वैसे ही जैसे पुराने बङ्गाल में थे।
जो बंगाल में हुआ वह आगे उसके ‘हिन्दुस्तान’ में भी हो सकता है। अरब श्रेष्ठता स्थापित करने के राजनैतिक आन्दोलन का लक्ष्य यही है कि जनसंख्या अनुकूल होने तक अपनी सांस्कृतिक जड़ से पूरी तरह कटा प्रतिरोध इतना निर्बल हो चुका हो कि ‘मुगलिस्तान’ का स्वप्न साकार किया जा सके। क्या होगा और क्या नहीं, वह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन जिहादियों की मंशा स्पष्ट है।
किसी संस्कृति को मारने के लिये उसकी भाषा और उसके शब्दों की हत्या एक सफल अस्त्र है। हिन्दी सिनेमा का अभिनेता सिनेमा में उर्दू के उत्थान के लिये मानद पी एच डी प्राप्त करे तो चौकन्ना हो जाना चाहिये। एक पीढ़ी के अंतर में ही यदि पढ़े लिखों के लेखन में ‘नमन’ के स्थान पर ‘सलाम’ स्थापित हो गया है तो समझ लेना चाहिये कि रोग जटिल हो चुका है। इस समस्या का हल देसभाषाओं और संस्कृत के सक्रिय उपयोग में है। घर घर इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देना चाहिये और अरबी शब्दों के प्रदूषण आक्रमण पर प्रतिरोध के स्वर भी उठाये जाने चाहिये।
अभी तो लोग स्वयं ही जा-जाकर अपना समय,श्रम और धन तीनों का ही चंदा इस प्रदूषण को अर्पित कर-करके गर्वित हो रहे हैं!