Cruel to Be Kind हितकर कठोरता
सकारात्मक प्रोत्साहन और भावनाएं तथा मधुर वचन सदा ही किसी व्यक्ति को उत्तम कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं पर क्या नकारात्मक और कड़वे वचन भी किसी व्यक्ति के लिए हितकारी हो सकते हैं? या किन अवस्थाओं में हम अपने आत्मीय स्वजनों को भी कटु वचन बोल देते हैं?
Psychological science में वर्ष २०१७ में छपे शोध Cruel to Be Kind: Factors Underlying Altruistic Efforts to Worsen Another Person’s Mood में बेलेन लोपेज़-पेरेज़ इन प्रश्नों से जुड़े विषय का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं। यह नवीन शोध अनेक आलेखों में चर्चा का विषय रहा। इस शोध में वह दर्शाते हैं कि यदि हमें यह प्रतीत हो कि ऐसा करने से किसी व्यक्ति को दीर्घकालिक लाभ सम्भव है तो हम उस व्यक्ति के भले के लिए कठोर वचन प्रयुक्त करते हैं। यही नहीं उस व्यक्ति के मन में नकारात्मक भावनाओं को बढ़ावा देने वाले कार्य भी करते हैं अर्थात निष्ठुर या कटु हो जाना मात्र क्रोध या स्वार्थ के कारण नहीं वरन परहित के लिए भी होता है। उदाहरण के लिए हमारे किसी आत्मीय विद्यार्थी के प्रति यदि हमारा अवलोकन होता है कि परीक्षा होते हुए भी आलस्य या अवहेलना के कारण वह अध्ययन नहीं कर रहा तो ऐसी अवस्था में हम प्रोत्साहन करते करते श्रांत होकर अंततः उसके भले के लिए कटु वचन से असफलता, भय, आकुलता जैसी नकारात्मक भावनाओं की सहायता लेने लगते हैं अर्थात परहित के लिए निष्ठुरता । यह हमारी स्थायी प्रकृति नहीं होती, न ही अपने आत्मीयों का अनादर करना या उन्हें नीचा दिखाना ही हमारा लक्ष्य होता है । इनके विपरीत हम ऐसा उनके हित के लिए कर रहे होते हैं।
स्वजनों के बीच सदा प्रेम और सकारात्मक भावनाएं होने की आदर्श अपेक्षाओं की प्रचलित मान्यता के विपरीत इस शोध में ये निष्कर्ष निकला कि बहुधा सहानुभूति होने के कारण तथा सहायता करने के उद्देश्य से व्यक्ति अपने स्वजनों को नकारात्मक भावनाओं की अनुभूति कराते हैं। सामाजिक व्यवहार को समझने में भी इस शोध से सहायता मिलती है कि क्यों हम अपने स्नेही स्वजनों के लिए भी कभी कभी निष्ठुर हो जाते हैं। परन्तु इस मानवी प्रवृति का सटीक बोध नहीं होने के कारण भ्रान्ति होनी भी स्वाभाविक ही है और यह हितकारी प्रवृत्ति बहुधा वाद-विवाद का रूप भी ले लेती है।
ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि हमें इस मानवी प्रवृत्ति की मनोवैज्ञानिक अवस्थाओं का सटीक संज्ञान हो और ऐसे नकारात्मक संदेशों एवं भावनाओं को वस्तुनिष्ठ रूप में समझकर हम उस बात की कड़वाहट को अनसुनी कर उसमें से अपने हित की बात को समझें। यहाँ रोचक बात यह है कि ये सिद्धांत पश्चिमी मनोविज्ञान के लिए नए हैं, अविश्वनीय, जहाँ नकारात्मक भावनाओं को पूर्णतया व्यर्थ ही समझा जाता है परन्तु सनातन काल से चली आ रही परम्पराओं में यह बात स्वतः ही दिखती है – किसी भी बात के एक पक्ष को न देखते हुए उसे बहुआयामी रूप में देखना। विशेष रूप से इस शोध के सन्दर्भ में देखें तो सज्जन और मित्र व्यक्ति के कटु वचन को स्वभावजन्य न मानते हुए उनकी बात को किस प्रकार समझना चाहिए इसके लिए इस तुलसीदास के इस दोहे से उत्तम सीख भला क्या होगी ?
उत्तम मध्यम नीच गति पाहन सिकता पानि।
प्रीति परिच्छा तिहुँन की बैर बितिक्रम जानि॥
इससे आधुनिक लोकप्रिय मनोविज्ञान की भाषा में ३x३ का आव्यूह निर्मित किया जा सकता है।
और सौन्दरनन्दकाव्यम् के इन श्लोकों का अवलोकन करें तो !
वरं हितोदर्कं अनिष्टं अन्नं न स्वादु यत्स्यादहितानुबद्धं ।
यस्मादहं त्वा विनियोजयामि शिवे शुचौ वर्त्मनि विप्रियेऽपि ॥
बालस्य धार्त्रीविनिगृह्य लोष्टं यथोद्धरत्यास्यपुटप्रविष्टं ।
तथोज्जिहीर्षुः खलु रागशल्यं तत्त्वां अवोचं परुषं हिताय ॥
अनिष्टं अप्यौषधं आतुराय ददाति वैद्यश्च यथा निगृह्य ।
तद्वन्मयोक्तं प्रतिकूलं एतत्तुभ्यं हितोदर्कं अनुग्रहाय ॥
इसी शोध के समरूप बच्चों के लालन-पालन (विद्यार्थी जीवन) से जुड़ी एक बहुचर्चित और अति लोकप्रिय पुस्तक है Battle Hymn of the Tiger Mother। येल विश्वविद्यालय के विधि विभाग की प्रोफ़ेसर एमी चुआ ने इस पुस्तक में अपने बच्चों के लालन-पालन के अनुशासित, कठोर और पारम्परिक एशियाई पद्धति पर अपना संस्मरण लिखा है। पश्चिमी जनमानस के लिए यह पुस्तक रोचक होने के साथ साथ चौंकाने वाली तथा विवादित भी है। पुस्तक में उन्होंने इस बात का उल्लेख भी किया कि कैसे पूर्वी पारम्परिक एवं कठोर लालन-पालन पश्चिमी अभिभावकों के तनाव मुक्त तथा शिथिल लालन-पालन से उत्कृष्ट है। उन्होंने पूरी पुस्तक में इस बात पर बल दिया कि सफलता हेतु यह आवश्यक है कि बच्चों को कठिन परिश्रम का यह पाठ सिखाया जाय कि संसार में कुछ भी आनन्ददायक तब तक नहीं, जब तक हम उसमें पारङ्गत नहीं हो जाते और किसी भी विषय में पारङ्गत होने के लिए कठिन परिश्रम आवश्यक है। पुस्तक में वर्णित उनके स्वयं के बच्चों को दण्ड देने की कुछ घटनाओं को कई पश्चिमी पाठकों ने वीभत्स कह डाला। इस पुस्तक पर हुई बृहद चर्चा ने पूर्व और पश्चिम के जनमानस की भिन्नता को प्रकाशित तो किया ही, इस पुस्तक में वर्णित सिद्धान्तों पर हुए मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में मिश्रित पद्धति पर भी बल दिया गया, जिसमें कि कठिन परिश्रम की सीख के लिए दण्ड की आवश्यकता हुई तो वह भी करने के साथ-साथ तनावमुक्त वातावरण भी हो। साथ ही बच्चों को कठोर दण्ड के प्रतिकूल अनेक आलेखों के बीच स्टैनफ़र्ड विश्वविद्यालय के एक शोध में यह बात भी स्पष्ट की गयी कि विरोधाभासी होते हुए भी दोनों ही पद्धतियाँ प्रभावी हो सकती हैं।
पुनः इस अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक और उसके पश्चात आये अनगिनत आलेखों तथा शोधपत्रों में जिस दण्ड और कठोरता की बात की गयी वह पश्चिमी जनमानस के लिए भले नयी हो, सनातन संस्कारों के लिए तो उसमें कुछ भी नया नहीं! गुरु शिष्य परम्परा हो या सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतः सुखम् । सुखार्थी वा त्यजेत्विद्यां विद्यार्थी व त्यजेत् सुखम् जैसे अनेक सुभाषितों में इन्ही बातों को स्थापित किया गया है। तुलसीदास का एक और दोहा इस लेखांश के लिए अत्यंत उपयुक्त है :
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥
गुरु के आशीष एवं स्नेह के साथ साथ सोने और आग सदृश गुरु द्वारा शिष्य की कठोर तथा निष्ठुर परीक्षाएं लेने की जाने कितनी कथाएं प्रचलित हैं। उन सहज ग्राह्य बोध कथाओं और इन नवीन सिद्धांतों में कहाँ कोई विरोधाभास है !
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