शीर्षक पर न जायें! काव्यगत् दृष्टि में शृंगार पक्ष अद्भुत, किन्तु अब लुप्तप्राय। जैसा कि शीर्षक स्पष्ट कर रहा है, बारह मास से ही अभिप्राय है। लोक भोजपुरी में होली के अवसर पर गाया जाने वाला विरह शृंगार गीत। साहित्यिक हिन्दी वालों के लिए विप्रलंभ शृंगार। आइये, तनि गहरे गोता मारिये न!
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लगभग तेरह चौदह वर्ष पीछे चलते हैं, पूर्वी उत्तरप्रदेश का देवरिया जनपद। होली का दिन है। सुबह के पाँच बजे हैं। बीती रात गाँव बहुत देर तक जगा रहा था। “धुरखेल” जो था!
जो अनभिज्ञ हैं उनके हेतु बता दूँ कि होली गाँव गिराम में केवल रंङ्ग की नहीं होती। ऑर्गेनिक होली, वॉटरलेस होली, ड्रॉई होली। ये चोंचले तब नहीं थे। पेटा वाले भी तब भुअरी भँइसिया का रंङ्ग फागुन देख लेते तो हिमालय निकल लेते।
फागुन में बुढ़वो देवर लागे से प्रेरित गाँव फागुन आवक से मदमस्त हो गया है। सरेह में जहाँ तहाँ सरसों की पीली भीत दिखाई देती है। गोंएड़े वाले खेत में गेहूँ रेंड़ा रहा है। भिटका पर जौ में पानी चला, खाद मार, हम लोग बगीचे में सुस्ता रहे हैं! अचानक हो हल्ले से चौंक जाते हैं! का भईल हो?
का होई का? फगुआ चढ़ऽल, चकल्लस सुरु! भागते भागते जाकर देखा तो पोखरे की कचईटी माटी में कीचड़ से सराबोर सोनमतिया, और दाँत चियारते भिक्खन बाबा। हमके ते फगुआ खेलईबे? मात्र सँयोग से बचे भिक्खन अपनी जीत पर ठठा रहे हैं।
ए बाबा! कबले बचऽब? धोती खोल के गाँड़ि में गोबर ना लेवरनी त नाव सोनमती ना! गवने नईंखीं आईल कि लजाईब? राऊर साध हमहीँ पुराईब! सोनमतिया कीचड़ में ही फुँफकार रही है।
गेना काका गुनगुना रहे हैं…..सिवसँकऽर खेऽलऽत फाऽऽग!
आजुए नु सम्हत फुँकाई? बड़का गोल पँचगोईठी के लिए तैयार हो रहा है। पुरानी भउजाईयाँ नए देवरों के स्वागत हेतु तैयार हो रही हैं। एऽ रेसमी! हऊ फलाने भईया के बड़कू हईँ न रे? केतना हाथी नियन हो गईल बानी? का खाला लो रे बहारवाँ? एईजु रहनीँ त बुझाओ ना कि कबो हेरा चढ़ी? अब देखु! गुदगर हो गईल बानीँ…बहिना के चटनी रसदार ना लागेला बुझाता? भऊजी छत पर गेँहू पसारती ननद को ताना दे रही हैं।
जो रे छिनरी…..बोलाईँ का? ए भईया….अईबऽ हो! हई भऊजी गुदगर खोजऽताड़ी! बहिना क्योँ पीछे रहे?
आरे हई रण्डिया बड़ा जोर मारतिया रे! सगरो फगुआ तहरे में निकाल लेब हो छिनरो! का भईया के बोलावताड़ू? आवऽ हमहीं नाधि दीँ…! भउजी ननद को क्योँ जीतने दे?
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रात सम्हत के साथ आठ बोझा केराव भी दहका दिया गया! होरहा जबरदस्त लगा। खेदन के खेत से कट्ठा भर चना गायब है। चँवर पर की पलानी आ टिकुलीबीर बाबा की पुरनकी खटोली का कहीं पता नहीं! बबवा गरियावते रहऽल होई राति भर! आज सुबह सब देर से उठेंगे। कौन जाएगा पहले पेश होने?
बड़का दुआरे बोलावा बा मलिकाईन! नऊवा भिनसारे से गाँव घूम रहा है और सबको चेता रहा है। असो के फगुआ परचंड होखी! मास्टर साहब आ गईल बानी! ढोलऽकिया झलिया दे दीँ! पंडिताइन चुपचाप सब लाकर नउवा को थमा देती हैं!
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आज होली है। महीनें भर के हँसी ठट्ठे की पूर्णाहुति का दिन। जिसको देखो वही एलियन लगता है। घरघुमनी का समय खत्म। भौजाइयों की चोली रंगते देवर चिल्लाये थे, लगवा लऽ हो भऊजी…बनल रही! भौजाइयाँ देवर का गाल मीसते फुसफुसाईँ थीं, कहिँ त अम्मा से कहि के मझिली से गाँठ जोरवा दीँ। बा दम, भऊजी के आपन बनावे के?
और देवर किसी तरह आँख मीसते, मुँह में गया रङ्ग बाहर थूकते, चिल्लाते हुए….बड़ा अगियाइल बाड़ू भईया नईखन त? ज्जा….उहे रहि गईलू!
भईया नईखन त! ये क्या? होली खेलती भउजी की आँखें अचानक डबडबा उठी हैं।
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बलमा परदेशी! हरजाई, कठकरेज! मेहरारू होते तब समझते न! फगुआ कैसे डँहकाता है?
दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता कमाने वालों! गौना कराके बिदेस जाने वालों! इस अभागी बिपतमारी भऊजी का हाल तुम क्या जानो? सवति के अँचरा में जवानी की गाँठ बाँधते पिया परदेशिया हेतु पल पल तड़पती जवानी जैसे आग! भऊजी तो कुछ न बोली…. चुपचाप सर झुकाए मालपुआ बनाने लगी, किन्तु दरवाजे पर फगुआ गाने वाले मानों भऊजी के हाल बिन बताए समझे बैठे हैं!
सखि का तकसीर हमारी….तजो बनवारी!
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अब प्रारम्भ होता है… सपनों और अपनों का अद्भुत संधान! शब्द कितने गूढ़, किन्तु अर्थ स्पष्ट! व्याख्याएँ मीलों दूर, सन्दर्भ सम्मुख उपस्थित!
व्यञ्जनाएँ काव्यगत्, अनुसन्धान लोक का! उपमाएँ साल के बारह महीनों की, पीड़ा अङ्कशायिनी की अपनी!
सखी! ऐसी कौन सी गलती कर बैठी मैं? जो स्वामी ने मुझे तज दिया?
श्याम और गोपियों के प्रेम का आलम्ब ले कवि लोक भोजपुरी में अद्भुत चमत्कार करता है! रामनवल, द्विज छोटकुन? कौन हैं ये लोग? कब हुए? कहाँ हुए? कुछ पता नहीं पड़ता!
बारहमासा तो पद्मावत में भी है! नागमती का वियोग वर्णन!
अगहन दिवस घटा निसि बाढी। दूभर रैनि जाइ किमि काढी॥
अब यहि बिरह दिवस भा राती। जरौं बिरह जस दीपक बाती॥
अगहन में दिन छोटा हो गया है, रात लम्बी। यह रातें, दूभर रातें… मैं कैसे काट रही हूँ! अब यही विरह की दिन-रात है और इस विरहाग्नि में दीपक की बाती की भाँति जलती मैं!
वह एक अलग ही समय है। हम तो लोक भोजपुरी के चितेरे ठहरे!
जेठ तपे तन अंग भावे नहिं सारी,
बाढ़े बिरह आषाढ़ देत आर्द्रा झनकारी!
सुधी जन कह गए हैं…..जेठ के दारुण आतप से, पृथ्वी तल जावै जला! बिरहन साड़ी कैसे पहने? एक तो जेठ का आतप…..दूसरे विरह अग्नि की ज्वाला! आषाढ़ में बारिश की बूंदें मानों गर्म तवे पर गिरकर भाप जैसे झनक रही हैं!
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बारहमासा झूमर
सखि का तकसीर हमारी, तजो बनवारी!
जेठ तपे तन अंग भावे नहिं सारी,
बाढ़े बिरह आषाढ़ देत आर्द्रा झनकारी!
सावन सेज भयावन लागत,
सखि प्रीतम बून्द कटारी!
(द्वितीय रूप- सखि भादो के बून्द कटारी)
भादो गगन गंभीर पीर अति हृदय मंझारी,
करि गए क्वार करार सवति संग फंसे मुरारी!
कातिक सीत अधिक संतावत,
सखि कोचत मोचत बारी!
(द्वितीय रूप)
कातिक रास रचें मनमोहन,
निज लोचन मुख निहारी!
अगहन अधिक सनेह विकल वृषभान दुलारी,
पूस पड़े तन जाड़ देत कुबजा को गारी!
माघ बसन्त हमें नहिं भावे,
पपिहा पिया टेर पुकारी!
(द्वितीय रूप)
आगे माघ बसन्त जनावत,
झूमर चऊताल धमारी!
फागुन उड़त गुलाल कुमकुम केसर डारी,
चइत फुले बन टेस पिया परदेस हमारी!
राम नवल बइसाख जनावत,
सखि नाथहिं मोहिं बिसारी!
(उलारा)
हम भईनी फकीर, तोहरे सुरति पर प्यारी!
अँखिया ह अमवाँ के फँकिया हो नकिया सुगा ठोड़ उड़ि जा नेबुल
नौरँगिया!
बिहँसे मुख मोर, बेदि बरनि नहीं जाए!
नाभि गजब गँभीर हरे सुरति पर प्यारी!