Valmiki Ramayan Sundarkand वाल्मीकीय रामायण सुन्दरकाण्ड भाग – 31 से आगे
रामो भामिनि लोकस्य चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता[1]
मर्यादानां च लोकस्य कर्ता कारयिता च सः
अर्चिष्मानर्चितोऽत्यर्थं ब्रह्मचर्यव्रते स्थितः
साधूनामुपकारज्ञः प्रचारज्ञश्च कर्मणाम्
हे अधीरा! राम जगत के चारो वर्णों की रक्षा करते हैं। वह लोकमर्यादा का पालन करते हैं एवं उसका पालन करवाने वाले भी हैं। वे कांतिमान हैं एवं अत्यंत अर्चित हैं, पूजनीय हैं। ब्रह्मचर्य व्रत[2] में स्थित हैं। साधु पुरुषों का उपकार मानते हैं तथा आचरण द्वारा सत्कर्मों का प्रचार करना भी जानते हैं।
राजविद्याविनीतश्च ब्राह्मणानामुपासिता
श्रुतवाञ्शीलसंपन्नो विनीतश्च परंतपः
ऋजुर्वेदविनीतश्च वेद विद्भि: सुपूजित:[3]
धनुर्वेदे च वैदेहि वेदाऽङ्गेषु च निष्ठित:
वह राजनीति में पूर्ण प्रशिक्षित हैं एवं ब्राह्मणों के उपासक हैं। वे श्रुति शास्त्रज्ञ, शीलसम्पन्न, विनीत एवं शत्रुओं को सन्तप्त करने वाले हैं। हे वैदेही ! वे सरल-प्रकृति एवं वेदज्ञ हैं। वेदादि के मर्म ज्ञाताओं द्वारा भली भाँति पूजित हैं एवं वेदाङ्गों तथा धनुर्वेद में निष्णात हैं ।
विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवः शुभाननः
गूढजत्रुः सुताम्राक्षो रामो देवि जनैः श्रुतः
दुन्दुभिस्वननिर्घोषः स्निग्धवर्णः प्रतापवान्
समः समविभक्ताङ्गो वर्णं श्यामं समाश्रितः
हे देवी ! उनके कन्धे विपुल हैं, भुजायें प्रलम्ब हैं, ग्रीवा शङ्ख के समान है एवं मुख सुंदर है। उनके गले की हँसली (अस्थि) मांस से ढकी छिपी हुई है। उनकी सुन्दर आँखें तम्बई कांति लिये हुये हैं। वे जन में राम के नाम से जाने जाते हैं। वे प्रतापवान हैं। उनका स्वर दुन्दुभि के समान गम्भीर है एवं (देह का) वर्ण स्निग्ध (सुचिक्कण) है। उनके अङ्ग सम (अनुपातिक) एवं सुडौल हैं तथा वर्ण श्याम है।
एक सुशिक्षित राजकन्या शास्त्र जानती होगी। जिसकी भार्या है, उस पति की देह के बारे में तो उसे अवश्य ही शास्त्र लक्षणों के अनुसार ज्ञान होगा। सीता देवी का विश्वास दृढ़ एवं स्थिर हो, इस हेतु हनुमान सामुद्रिक [4] शास्त्रानुसार राम की शोभन देह का वर्णन करने लगे। जीवात्मा एवं ईश्वर के मध्य भक्तपुङ्गव हनुमान मानो सेतु हो गये, तीन की संख्या का आश्रय ले उन्हों ने कहना आरम्भ किया। साङ्केतिक भाषा यह स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त थी कि कहने वाला शिक्षित एवं बुद्धिमान है :
त्रिस्थिरस्त्रिप्रलम्बश्च त्रिसमस्त्रिषु चोन्नतः
त्रिवलीवांस्त्र्यवणतश्चतुर्व्यङ्गस्त्रिशीर्षवान्
उनके तीन अङ्ग दृढ़ हैं – वक्षस्थल, मणिबन्ध एवं मुट्ठी। तीन अङ्ग लम्बे हैं – भौहें, भुजायें एवं जननाङ्ग। तीन अङ्ग सम हैं – केशाग्र, वृषण एवं जानु (घुटने) एवं तीन उन्नत हैं – नाभि का अभ्यन्तर भाग, कुक्षि एवं वक्ष। उनके गले एवं उदर में त्रिवलि (तीन रेखाये पड़ती) हैं। पाँवों के तलवे, चरणरेखा एवं स्तनाग्र गहरे हैं। पीठ एवं शिश्न(अनुत्थित) धँसे हुये हैं तथा गला एवं पिण्डलियाँ, लघु हैं। केशों में तीन भँवर हैं।
चतुष्कलश्चतुर्लेखश्चतुष्किष्कुश्चतुःसमः
चतुर्दशसमद्वन्द्वश्चतुर्दष्टश्चतुर्गतिः
उनके अङ्गूठों के मूल में चार रेखायें हैं (जो चारो वेदों में उनकी प्रवीणता की सूचक हैं)। ललाट पर दीर्घायु सूचक चार रेखायें हैं। वे चार हाथ ऊँचे हैं एवं उनके कपोल, भुजायें, जंघायें एवं घुटने सम हैं। देह में जो जोड़े में चौदह अङ्ग होते हैं, वे सभी सम हैं – भौंह, नथुने, आँखें, कान, होठ, स्तनाग्र, कोहनी, मणिबंध, घुटने, वृषण, कटि के दो अर्द्ध, हाथ, पाँव एवं जँघा।
महौष्ठहनुनासश्च पञ्चस्निग्धोऽष्टवंशवान्
दशपद्मो दशबृहत्त्रिभिर्व्याप्तो द्विशुक्लवान्
ओठ, नासिका एवं ठोड़ी; प्रशस्त हैं। पाँच अङ्ग स्निग्ध हैं – केश, आँखें, दाँत, त्वचा एवं पाँवों के तलवे। जानुद्वय, ऊरुद्वय, पृष्ठ, हस्तद्वय एवं नासिका, ये ‘आठ वंश’ सुपुष्ट हैं। जिह्वा, ओष्ठ, तालु, नेत्र, हाथ, पैर, नख, स्तनाग्र एवं मुख – ये दस अंग पद्म के समान कान्ति से युक्त हैं। हाथ, पैर, मुख, ग्रीवा, कर्ण, वक्षस्थल, सिर, ललाट, उदर एवं पृष्ठ – ये दस अङ्ग बृहदाकार हैं। उनकी आँखें एवं दाँत स्वच्छ कान्तियुक्त हैं।
षडुन्नतो नवतनुस्त्रिभिर्व्याप्नोति राघवः
सत्यधर्मपरः श्रीमान्संग्रहानुग्रहे रतः
पार्श्व (वक्षपिञ्जर एवं नितम्बों के मध्य का भाग), उदर, वक्षस्थल, नासिका, कंधे एवं ललाट उन्नत हैं। रोम, मूँछ, श्मश्रु एवं केश कोमल हैं; अङुलियों के पोर, नख एवं त्वचा पेलव हैं एवं दृष्टि तथा बुद्धि सूक्ष्म हैं। राम धर्म, अर्थ एवं काम का अनुष्ठान क्रमश: पूर्वाह्न. मध्याह्न एवं अपराह्न में करते हैं। राम सत्यधर्मरत हैं, श्री सम्पन्न हैं, न्यायसङ्गत धन संग्रह एवं प्रजा पर अनुग्रह करने वाले हैं।
देशकालविभागज्ञः सर्वलोकप्रियंवदः
भ्राता च तस्य द्वैमात्रः सौमित्रिरपराजितः
अनुरागेण रूपेण गुणैश्चैव तथाविधः
देश एवं काल अनुसार कार्य के ज्ञाता हैं एवं सभी लोगों से प्रिय वचन बोलने वाले हैं। उनके अपराजेय सौतेले भ्राता सुमित्रानंदन अनुराग, रूप एवं गुणों में उनके समान हैं।
दोनों भाइयों के देह लक्षण बताने के पश्चात हनुमान ने देवी सीता को ढूँढ़ते हुये धरती पर विचरते भ्राता द्वय की सुग्रीव से भेंट की बात बतायी। धरती के लिये वसुन्धरा शब्द प्रयोग हुआ है जो कि साङ्केतिक है, मानों जिनकी समस्त सम्पदा नष्ट हो गयी हो ऐसे वे जन समस्त सम्पदाओं को धारण करने वाली धरती पर विचर रहे थे कि सुग्रीव मिल गये एवं आगे का मार्ग प्रशस्त हुआ।
ऋश्यमूक पर्वत पर घटित अपनी पहली भेंट का प्रकरण भी कपि ने सुनाया कि कैसे निज भाई से प्रताड़ित एवं निष्कासित सुग्रीव ने राम एवं लक्ष्मण को देख अभिजान हेतु उन्हें उनके पास भेजा था – तयोः समीपं मामेव प्रेषयामास सत्वरः। ऐसा बता कर हनुमान ने स्वयं को सुग्रीव के परम विश्वस्त होने का सङ्केत भी दे दिया।
तौ परिज्ञाततत्त्वार्थौ मया प्रीतिसमन्वितौ
पृष्ठमारोप्य तं देशं प्रापितौ पुरुषर्षभौ
मैंने वार्तालाप कर उन दोनों का तात्पर्य जान लिया। मेरा अभिप्राय जान उन दोनों बड़े प्रसन्न हुये। उन दोनों नरश्रेष्ठों को पीठ पर बैठा कर मैं शिखर पर सुग्रीव के पास ले गया। परस्पर वार्तालाप से सुग्रीव एवं दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रीति हो गई – तयोरन्योन्यसंभाषाद्भृशं प्रीतिरजायत। राम एवं सुग्रीव ने अपने पुराने घटित परस्पर कह सुनाये तथा एक दूसरे को सान्त्वना दिये – परस्परकृताश्वासौ कथया पूर्ववृत्तया, तं ततः सान्त्वयामास सुग्रीवं लक्ष्मणाग्रजः। सुग्रीव ने भाई वाली द्वारा ही अपनी स्त्री का हरण एवं स्वयं का निष्कासन बताया एवं लक्ष्मण जी ने आप के हरण का दु:खद वृत्तांत। सुन कर सुग्रीव बहुत दु:खित हुये मानों सूर्य को ग्रहण लग गया हो – तदासीन्निष्प्रभोऽत्यर्थं ग्रहग्रस्त इवांशुमान्।
ततस्त्वद्गात्रशोभीनि रक्षसा ह्रियमाणया
यान्याभरणजालानि पातितानि महीतले
तानि सर्वाणि रामाय आनीय हरियूथपाः
संहृष्टा दर्शयामासुर्गतिं तु न विदुस्तव
हरण के समय आप ने जो वस्त्र आभरण भूमि पर फेंके थे, सुग्रीव ने वे सब ला कर हर्षित हो (कि कड़ी जुड़ गयी) राम को दिखाये, किन्तु आप का अपहरण कर जहाँ ले जाया गया, उन्हें पता न था।
तानि रामाय दत्तानि मयैवोपहृतानि च
स्वनवन्त्यवकीर्णन्ति तस्मिन्विहतचेतसि
तान्यङ्के दर्शनीयानि कृत्वा बहुविधं ततः
तेन देवप्रकाशेन देवेन परिदेवितम्
अपहरण के समय आप के द्वारा फेंके गये वे सभी वस्त्राभरण मैंने ही पाये थे एवं सुग्रीव को दिया था। उन्हें अपने अङ्क में ले देख कर देवताओं के समान प्रभायुक्त देव श्रीराम ने बहुविध विलाप किया।
पश्यतस्तस्या रुदतस्ताम्यतश्च पुनः पुनः
प्रादीपयन्दाशरथेस्तानि शोकहुताशनम्
शयितं च चिरं तेन दुःखार्तेन महात्मना
मयापि विविधैर्वाक्यैः कृच्छ्रादुत्थापितः पुनः
तानि दृष्ट्वा महार्हाणि दर्शयित्वा मुहुर्मुहुः
राघवः सहसौमित्रिः सुग्रीवे स न्यवेदयत्
देव के परिदेवना का वर्णन करते हुये मारुति ने कहा कि उन वस्तुओं को देख राम ने बारम्बार रूदन किया। उन्हें देख उनकी शोकाग्नि भड़क उठी। दुखार्त हो महात्मा श्रीराम भूमि पर लम्बे समय तक पड़े रहे। तब मैंने ही विविध (सांत्वना भरी) बातें कह उन्हें बड़ी कठिनाई से पुन: उठाया। लक्ष्मण सहित राघव ने उन बहुमूल्य आभूषणों को बारम्बार देख सुग्रीव को दे दिया।
स तवादर्शनादार्ये राघवः परितप्यते
महता ज्वलता नित्यमग्निनेवाग्निपर्वतः
आर्ये ! आप का दर्शन न होने के कारण राघव राम परितप्त हैं। वे महात्मा (आप की विरह) अग्नि में उसी भाँति नित्य जल रहे हैं जिस भाँति ज्वालामुखी पर्वत अपनी ही आग से जलता रहता है।
त्वत्कृते तमनिद्रा च शोकश्चिन्ता च राघवम्
तापयन्ति महात्मानमग्न्यगारमिवाग्नयः
आप (से वियोग) के कारण महात्मा राघव को अनिद्रा, शोक एवं चिन्ता उसी प्रकार तपाते रहते हैं जिस प्रकार आहवनीय आदि तीन अग्नियाँ अग्निशाला को तपाती रहती हैं।
ऐसी उपमा दे मारुति ने स्वयं के वैदिक जीवन पद्धति से गहरे परिचय का सङ्केत दे दिया ताकि देवी सीता उन्हें साधारण वानर मात्र न समझें।
रघुवीर के शोक वर्णन में मारुति गिरा प्रवाहित होती चली गयी।
तवादर्शनशोकेन राघवः प्रविचाल्यते
महता भूमिकम्पेन महानिव शिलोच्चयः
आप के दर्शन न होने के शोक के कारण राम उसी प्रकार विचलित हो जाते हैं जिस पर किसी बड़े भूकम्प के कारण विशाल पर्वत भी हिल उठता है।
कानानानि सुरम्याणि नदीप्रस्रवणानि च
चरन्न रतिमाप्नोति त्वमपश्यन्नृपात्मजे
हे राजपुत्री ! राम कानन, सुरम्य नदी एवं प्रपात तटों पर विचरण करते हैं किन्तु आप को न देख पाने के कारण उन्हें वहाँ सुख नहीं मिलता।
हे जनकनंदिनी ! मित्र एवं बंधुओं सहित रावण को मार कर नरशार्दूल राघव शीघ्र ही आप को प्राप्त करेंगे। सुग्रीव एवं राम में संधि हुई थी कि राम वालि का वध करेंगे एवं सुग्रीव आप का अन्वेषण करेंगे।
राम ने वालि का वध कर सुग्रीव को समस्त ऋक्ष एवं वानर संघ का राजा बना दिया – सर्वर्क्षहरिसंघानां सुग्रीवमकरोत्पतिम्।
रामसुग्रीवयोरैक्यं देव्येवं समजायत
हनूमन्तं च मां विद्धि तयोर्दूतमिहागतम्
हे देवी ! सुग्रीव एवं राम में इस प्रकार मित्रता हुई। आप मुझे हनुमान नाम से जानें, मैं यहाँ उनका दूत बन कर आया हूँ।
टिप्पणियाँ
[1][सं०√भाम्+णिनि,+ङीष्] – भामिनी शब्द की यह व्युत्पत्ति है जिसका तात्पर्य भासमान अर्थात अपने रूप मे प्रकाश सा बिखेरने वाली रूपवती स्त्री है। परन्तु इस शब्द का एक अर्थ अधीरा भी होता है। सीता राम से पुनर्मिलन को अधीर थीं, इस कारण यह अर्थ यहाँ अधिक उपयुक्त है। रामायण में प्रयुक्त विविध सम्बोधन बहुधा प्रचलित अर्थ अनुवाद के स्थान पर प्रसङ्ग सम्मत अर्थ लिये हुये हैं।
[2] राम गृहस्थ थे तो उन्हें ब्रह्मचारी क्यों कहा गया? यहाँ हनुमान राम को यौन कर्म में स्मृति अनुशासन मानने वाला सङ्केत करते हुये देवी सीता को अपने ज्ञान का परिचय देते हैं। ऋतुकाल अर्थात रजोदर्शन से सोलह दिनों की अवधि में पहले चार दिन एवं पर्व के चार दिन अमावस्या, अष्टमी, चतुर्दशी एवं पूर्णिमा छोड़ कर केवल अपनी विवाहिता पत्नी से रात में संतानोपत्ति के उद्देश्य से युगनद्ध होने वाला गृहस्थ ब्रह्मचारी कहलाता है।
षोडशर्तुनिशाः स्त्रीणां तस्मिन्युग्मासु संविशेत्।
ब्रह्मचार्येव पर्वाण्याद्याश्चतस्रस्तु वर्जयेत् ॥ – याज्ञवल्क्य
प्राणा वा एते स्कन्दन्ति ये दिवा रत्या संयुज्यन्ते।
ब्रह्मचर्यमेव तद्यद्रात्रौ रत्या संयुज्यन्ते॥ – प्रश्न उपनिषद[3]शोधित संस्करण, गीता प्रेस पाठ आदि में यह रूप मिलता है जो कि प्राचीन होते हुये भी स्पष्टत: त्रुटि ही है :
यजुर्वेदविनीतश्च वेदविद्भिः सुपूजितः। धनुर्वेदे च वेदे च वेदाङ्गेषु च निष्ठितः॥
इसमें ‘ऋजु’ को ‘यजु’ समझ कर लिख दिया गया है एवं सङ्गति बैठाने हेतु ‘वैदेहि’ को ‘वेदे च’ कर दिया गया है। राम समस्त वेदों के ज्ञाता थे तो यजुर्वेद को विशेष रूप से वर्णित करने की आवश्यकता ही नहीं। इक्ष्वाकुओं के अथर्वण परम्परा से गहरे सम्बन्ध होने के प्रमाण हैं। यदि विशेष दक्षता ही दर्शानी थी तो छन्द शब्द का प्रयोग कर उनकी विशेष प्रवीणता दर्शायी जा सकती थी किन्तु ऐसा है नहीं। दक्षिणी संस्करण में ‘ऋजु’ को ‘यजु’ कर देने से दूसरी पङ्क्ति में राम की सकल वेद निष्णातता दर्शाने के लिये ‘वैदेहि’ को ‘वेदे च’ करना पड़ा है। शोधित संस्करण, गीता प्रेस आदि संस्करण दक्षिणी पाठ पर आधारित हैं। उत्तर पश्चिमी संस्करण पाठ को यहाँ उपयुक्त माना गया है जिसमें ‘ऋजु’ एवं ‘वैदेहि’ शब्दों का प्रयोग हुआ है जो कि सातत्य की दृष्टि से भी उपयुक्त है।[4] स्त्री एवं पुरुष, दोनों के देह लक्षणों का अध्ययन एवं तदनुसार वर्गीकरण इत्यादि सामुद्रिक शास्त्र के अंतर्गत आते हैं। अग्नि पुराण में इसे समुद्र द्वारा गर्ग को उपदेशित बताया गया है। यह प्रकरण प्रमाण है कि आख्यानों एवं पुराणों का प्रयोग विविध विद्याओं के शिक्षण हेतु भी होता था।
आधुनिक बोध वालों एवं कतिपय वैष्णव भक्तों को भी यह असहज करने वाला प्रकरण भी लग सकता है क्यों कि इसमें श्रीराम के गुह्य अङ्गों के भी लक्षण नैष्ठिक ब्रह्मचारी हनुमान परम सुन्दरी युवती स्त्री देवी सीता से बताते हैं।
राजकन्याओं को विविध कलाओं या विद्याओं में प्रवीण किया जाता था जिनमें कि सामुद्रिक एवं काम शास्त्र भी थे। 64 कलाओं की प्रवीणता केवल कल्पना मात्र नहीं है। सीता भी विविध विद्याओं में अवश्य प्रवीण रही होंगी। अंतरङ्ग सम्बन्ध के समय ऐसी स्त्री अपने पति के गुह्य अङ्गों के लक्षण अच्छी तरह से जान लेगी ही।
वैसे भी माता होने के कारण स्त्रियाँ अङ्ग लक्षण अभिजान में अधिक निपुण होती हैं एवं नैसर्गिक समझ भी रखती हैं। शिशु की देखभाल एवं देह मर्दन के समय वे पर्याप्त समझ पा लेती हैं। उदाहरण के लिये देखें तो यहाँ शिश्न का भी उल्लेख है। नर शिशु के तेल मर्दन के समय मातायें उनकी शिश्नाग्र त्वचा को शनै: शनै: तेल के प्रयोग से खोलती हैं। शिशु के शिश्न का उत्थित होना एवं सिकुड़ कर धँस सा जाना उनकी दीठ में रहता ही है।
सम्भव है कि दूत के रूप में हनुमान को श्रीराम ने अपने गुह्य अङ्ग लक्षण भी बता कर प्रेषित किया हो, क्यों कि हनुमान या कोई भी सामुद्रिक शास्त्र ज्ञाता प्रकट अङ्गों के लक्षण तो जान ही लेगा। मारुति का श्रीराम के गुह्य अङ्गों का अभिजान देवी सीता के मन में विश्वास दृढ़ करने में सहायक हुआ कि यह अवश्य ही उन्हीं का दूत है, कोई मायावी बहुरूपिया राक्षस नहीं। आगे हनुमान स्वयं कहते भी हैं – विश्वासार्थं तु वैदेहि भर्तुरुक्ता मया गुणा:। आदि कवि भी पुष्टि करते हैं – एवं विश्वासिता सीता हेतुभि: शोककर्शिता, उपपन्नैरभिज्ञानैर्दूतं तमवगच्छति।
(क्रमश:)
हे देवी ! यह देखो, रामनामाङ्कित मुद्रिका ।
रामनामाङ्कितं चेदं पश्य देव्यङ्गुलीयकम् ।
हनुमान को किसी को श्रीराम के गुह्यांग लक्षण बताने की आवश्यकता कहाँ थी! हनुमान तो राम सेवक थे , तो स्पष्ट है सेवा के मध्य ही वे सबकुछ स्वयं ही जान लेंगें। ऐसे समर्पित सेवक का स्वामी के नहाने-धोने से लेकर दैनिक योगाभ्यास ही युद्धाभ्यास भी तो घनिष्ठ ही होते हैं। और इन सब क्रियाओं में सहयोगी के अंग विन्यास आदि से अपरिचित रह जावा संभव ही नहीं।
जय श्री राम!
हरि अनंत हरि कथा अनंता!
जय श्री राम
बहुत ही अच्छे से समझाया आपने . धन्यवाद् !