आज पितरों की बिदाई है, कल से माँ का आगमन हो रहा है। हिंदू ललनाओं के साथ बढ़ती जिहादी बलात्कार यौन दुष्कर्म की घटनाओं पर इस संधि बेला में मंथन आवश्यक है।
पहले political correctness। आज के अङ्क में इस पर एक अन्य लेख भी है, संयोग ही कह सकते हैं। इस शब्द को नयसत्य कहा जा सकता है – नय अर्थात नीति। सत् की परास correct से truth तक है, अधिक विचरने की आवश्यकता नहीं, इस शब्द को प्रचलित किया जाना चाहिये।
नयसत्य वह है जिसका उपयोग कर असुविधाजनक एवं आहत करने वाली सचाइयों से बचा जाता है। Politics में इसका प्रचलन बहुत है, इस कारण ही इस प्रकार के correctness को political कहा गया। इसका विस्तार उस शुतुर्मुर्गी प्रवृत्ति में होता है जिसमें आसन्न सङ्कट के समय उस बालू में सिर गाड़ लिया जाता है जो साँसों को रुद्ध करते हुये भी बड़ी सुहावन लगती है।
यौन दुष्कर्मों हेतु बलात्कार शब्द रूढ़ हो चुका है, कब हुआ, यह अपने आप में एक ऐसा विषय है जो भाषिक जिहाद का एक घृणित इतिहास छिपाये हुये है। संस्कृत में बलात्कार, बल पूर्वक किसी की इच्छा के विरुद्ध किया गया कोई भी आचरण है, केवल यौन दुष्कर्म नहीं। भाषिक जिहाद के चलते जहाँ हिंदी को दिन प्रतिदिन अरबी, तुर्की, फारसी आदि के शब्दों से प्रदूषित करने का अभियान चल रहा हो, वहाँ बलात्कार शब्द के अरबी आदि रूपों का नहीं आना एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सङ्केत है। जिहादी उन रूपों को न तो कभी लायेंगे, न ही शुतुर्मुर्गी हिंदू उन्हें अपनायेंगे।
शब्द अपने साथ वातावरण, संस्कृति, मत, आचरण आदि सभी लिये चलते हैं। काफिर स्त्रियों की लूट को जिहादियों ने कभी अपराध माना ही नहीं, तो भला यौन दुष्कर्म का अरबी प्रतिरूप यहाँ क्यों लाते जिसे गुनाह की श्रेणी में रखा गया है? एक पक्ष दोगली नीति के साथ लगा हुआ है तथा दूसरा पक्ष जो कि पीड़ित भी है, नयसत्य की जवनिका को कवच माने बैठा है। यह कालखण्ड इतिहास के उन अवसरों जैसा है जिन पर संस्कृतियों एवं सभ्यताओं के समूल विनाश हुये। केवल शस्त्रास्त्र ही नहीं, नवशास्त्र भी उतनी ही मारकता के साथ प्रयुक्त हुये। हिंदुओं ने इतिहास से न कभी पहले सीखा, न आज सीखना चाहता है।
नयसत्य की माँग है कि हम केवल जिहादियों को दोष दें, अपने को नहीं किंतु उससे सचाई तिरोहित नहीं हो जाती वरन जिनकी मेधा सुप्त नहीं है, उन्हें और स्पष्ट दिखती है। नयसत्य को तज यह प्रश्न पूछा जाना चाहिये कि क्या वास्तव में बढ़ते हुये जिहादी दुष्कर्मों में केवल उनका दोष है, इतर पक्ष का कुछ भी नहीं? उनका सब कुछ स्पष्ट है, इतिहास है, उनकी किताबें हैं, दैनिक आचरण हैं, दिन प्रतिदिन प्रकाशित होती घटनायें हैं। इन सबके होते हुये भी ललनायें उनके आरम्भिक जाल में फँस कैसे जाती हैं? आधुनिक शिक्षा व्यवस्था ने नयसत्य का ही प्रचार किया है। पीढ़ियों ने इसके चक्कर में सहज उपलब्ध अपनी नैसर्गिक सुरक्षा भावना को छोड़ ही दिया। कथित प्रेम में भी जो कि बहुधा अंत:स्रावी ग्रंथियों की सक्रियता से उभरा यौन आकर्षण मात्र होता है, मर्यादाओं का तिरस्कार कर ‘बिंदास बिछना’ किसने सिखाया? जिहादियों ने प्रत्यक्षत: नहीं ही सिखाया, न ही माताओं-पिताओं ने। देह का संयम किसने भुलाया और क्यों?
अतिवाम का शैक्षिक प्रदूषण पहली कक्षा से ही आरम्भ हो जाता है जो कि हार्मोन परिवर्तन के साथ बढ़ती आयु व कक्षाओं के साथ और मारक होता जाता है। हिंदू लड़की बोल्ड, बिंदास होते होते कब अपने समस्त कवच नष्ट कर एक ‘आसान चारा’ या ‘माल-ए-ग़नीमत’ हो जाती है, उसे पता ही नहीं चलता। उसे अपने यहाँ का सब कुछ बहुत ही घृणित लगता है तथा बुरका, हिजाब आदि हेतु वह ‘चयन की स्वतंत्रता’ का बैनर ले उनसे आगे व पहले ही रणक्षेत्र में उतर जाती है। उसे यह दिखता ही नहीं कि अपने जिस समाज को वह दकियानूसी, बैकवर्ड, विकृत आदि विशेषणों से मण्डित करती चलती है, वह समाज समय के साथ सार्थक एवं वांछित समायोजन में सबसे आगे रहा है और है भी।
यह बात और है कि पहले वह अपने मूल से भी जुड़ा हुआ था, अब तो कथित प्रगति के अंधड़ में उड़ने हेतु उसने अपने पाँवों तले आधार को भी छोड़ दिया है। हिंदू ललना को यह भी नहीं समझ में आता कि जिस समाज को गालियाँ देती वह कथित प्रगतिशील बनती है, उसे ऐसा होने की सुविधायें, संसाधन, प्रोत्साहन एवं प्रेरणायें भी इसी समाज ने दी है। कथित क्रांतिकारिता के चक्कर में सरल सी नैसर्गिक समझ को उड़ा पड़ा देने में आज हिंदू ललनायें सबसे आगे हैं।
यह सब पढ़ते हुये उनके मन में केवल तुलनात्मक प्रतिक्रियायें ही उठेंगी – सारी बंदिशें लड़कियों पर ही क्यों? री! कहाँ हैं बंदिशें? वे तो तुम्हारी सुरक्षा हेतु सावधानियाँ मात्र हैं। लड़कों से अपेक्षायें क्यों नहीं? अरी! जिन आतंकियों की बात हो रही है, वे लड़के नहीं, जिहादी लड़ाके हैं, इस काम हेतु प्रशिक्षित हैं, मस्तिष्क प्रक्षालित हैं। वे सीटी मार कर या कुछ भद्दा कर आगे बढ़ जाने वाले छिछोरे मात्र नहीं हैं, लक्ष्य को समर्पित वृत्तिभोगी योद्धा हैं। तुम्हें यह अंतर क्यों समझ में नहीं आता? क्या हो गया है तुम्हारे मस्तिष्क को? लड़कों के भी लुटने, देहमण्डी में बिकने तथा प्रजनन यंत्र बन कर जिहादी जनने की सम्भावनायें होतीं तो उन्हें भी इन सावधानियों हेतु कहा जाता, हाँ, रोका टोका भी जाता।
स्वस्थ व सभ्य समाज उनकी देखभाल हेतु, उनकी सुविधा हेतु विशेष नियम, विधि विधान आदि बनाता है जो विशेष हैं किंतु साथ ही वह अपेक्षा भी रखता है कि वे जन अपनी रक्षा हेतु स्वयं भी सावधान व सतर्क रहें। तंत्र ऐसे प्रत्येक के साथ प्रहरी नहीं लगा सकता। अपराधी सदैव रहे हैं। यह तर्क कि हम तो ऐसे ही रहेंगे, अपराधियों को रोको, उन्हें सुधारो; बहुत ही उथला व निम्नस्तरीय तर्क है। अनुशासन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में है, आवश्यक है, सृष्टि उसी से चलती है।
बिंदासपने में, फटी जींस में, ट्रेण्ड में भी एक प्रकार का अस्थायी अनुशासन ही चलता है। नयसत्य के चक्कर में कोई यह नहीं कहता कि My body, my life, my choice के नारे में अत्यंत निम्नस्तरीय, आत्ममुग्ध, आत्मकेंद्रित, कृतघ्न व परम स्वार्थी सोच पगी हुई है जो कि सबसे पहले नारे लगाने वाली को आत्मघाती बनाती है, ‘वस्तु commodity’ बनाती है तथा आगे घर, परिवार, समाज, संस्कृति व देश सब का नाश करने में सक्षम है किंतु यह बात अब कही जानी चाहिये । प्रस्तुति को बिना भौंड़ा किये, सहज समझ को भी तिलाञ्जलि दे चुकी हिंदू ललनाओं को समझ में आये; उस प्रकार यह बात कही व समझायी जानी चाहिये।
यहाँ अपेक्षा उनसे नहीं, हिंदू समाज से है, माताओं से है, पिताओं से है, बंधुओं से है। वे तो रोगिणी हैं जिनकी प्रेमिल चिकित्सा आवश्यक है क्योंकि वे रोग की वाहक भी हैं। छुतहे रोग की भाँति आत्मघात का रोग बढ़ रहा है, सञ्चारप्रधान इस युग में बहुत त्वरित गति से बढ़ रहा है। हिंदू स्त्रियों को स्वयं भी आगे आना चाहिये। यह सदैव ध्यान रहे कि बिटिया के घात लगाये जिहादियों की आखेट हो जाने में धन व संसाधन निवेश की हानि तो होती ही है, स्वयं उसकी भी होती है तथा इन हानियों से कहीं बहुत ऊपर यह हानि सम्भावना भी होती है कि सकल हिंदू समाज हेतु जो एक सक्षम व शक्तिस्वरूपा अस्तित्त्व हो सकती थी, वह प्रजनन करती एक ऐसी घातक जिहादी मशीन हो जाय जिसकी आत्मा व देह दोनों कुचल कर उसे ‘अपने हाल पर जीने’ पर विवश कर दिया गया हो।
प्रकृति माँ है किंतु बड़ी निर्मम है, नयसत्य नहीं जानती, दुर्बलों व भोलों का नाश कर देती है। उसके यहाँ मानवीय नियम, विधि-विधान, तर्क-वितर्क, विधि-विधान नहीं चलते। जाने कितनी सभ्यताओं को क्रूर पाशव जिहादी निगल गये, जाने कितनी करोड़ ललनायें बोली लगा कर नग्न बेंच दी गईं तथा जाने कितनी यौनदासियाँ दारुण यौन दुष्कर्मों के पश्चात खण्ड खण्ड काट दी गईं – इस ज्वलंत यथार्थ को बिंदास बेटी को समझाया जाना चाहिये। यदि इतना भी नहीं कर सके तो नवरात्र पर नारी शक्ति की बातें निरर्थक रव मात्र हैं, दिखावा हैं, बालू में सिर दिये जयकारा प्रयास मात्र हैं। चेत जायें, अभी भी बहुत बिगाड़ नहीं हुआ है! इस महिषासुर का नाश दुर्गाओं को ही करना होगा।