आज की अमावस्या वर्ष का अन्तिम दिन है। कल चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जब चन्द्र कला वर्धमान होगी, नया संवत्सर होगा, प्रकृति स्वरूपा जगज्जननी महामाया का नवरात्र पर्व आरम्भ होगा। आप सब को नववर्ष 2075 विक्रमी हेतु अशेष शुभकामनायें।
आप ने ध्यान दिया होगा कि दो शब्द प्रचलित हैं – वर्ष एवं संवत्सर। प्राचीन वर्ष का सम्बंध वर्षा से है, जब भूमा पुन: सिञ्जित हो नव शस्य हेतु उद्योगी हो जाती। भारत जैसे मानसून निर्भर देश के लिये वर्ष संज्ञा का प्रयोग होना अनायास नहीं है – भारतवर्ष। पुरा ईश्वर भी वृष है, वृषाकपि है। संवत्सर शब्द मनुष्य की बढ़ती गणितीय चेतना का द्योतक है, आगे देखेंगे।
संवत्सर का सम्बंध ऋतु चक्र से है – घूम फिर भ्रमण कर बार बार एक बिंदु पर सूर्य का आ जाना। बारम्बरता में प्रकृति नये रूप धरती परिवर्तित होती वही की वही रहती है। मानव बहुत पहले से इस चक्र का प्रेक्षण करता रहा। आहार, आश्रय एवं आभरण, सभ्य हो चले मानव की ये प्राथमिक आवश्यकतायें ऋतु चक्र से ही पूरी होती थीं, उन पर आधारित थीं।
भाष्यकार चाहे जो कहें, ऋतु चक्र में सूर्य एवं उसके ताप आयोजनों की समझ ऋग्वेद (10.140) में दो अरणियों को घिसने से उत्पन्न वृषा अग्नि द्वारा अन्न का भक्षण कर बढ़ने, भक्षित अन्न के संवत्सर में पुन: बढ़ जाने एवं तीन प्रकार के अन्न की बात में स्पष्ट उल्लिखित है जो खेतिहर भारत की तीन ऋतुओं जाड़ा, गरमी एवं बरसात एवं उनसे सम्बंधित अन्न अभिज्ञान की प्राचीनता को रेखाङ्कित करती है।
अभि द्विजन्मा त्रिवृदन्नमृज्यते संवत्सरे वावृधे जग्धमी पुनः ।
अन्यस्यासा जिह्वया जेन्यो वृषा न्यन्येन वनिनो मृष्ट वारणः ॥
तीन मोटा मोटी ऋतुओं के जब आगे विभाजन किये गये तो छ: ऋतुयें हुईं – शरद, हेमन्त, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा।
वसिष्ठ ऋषि दृष्ट एक बहुत ही प्रतीकात्मक सुंदर सूक्त (7.103) में मण्डूका: देवता मेढकों के माध्यम से वर्षा के प्रभाव का आलङ्कारिक वर्णन है। मण्डूक के मूल में मण्ड् है जिससे मण्डन बना है, मण्डित करना, सुशोभित करना। जिस प्रकार ब्राह्मण समाज को सुशोभित करता है, उसी प्रकार मण्डूक सरोवर को।
सं॒व॒त्स॒रं श॑शया॒ना ब्रा॑ह्म॒णा व्र॑तचा॒रिण॑: । वाचं॑ प॒र्जन्य॑जिन्वितां॒ प्र म॒ण्डूका॑ अवादिषुः ॥
दि॒व्या आपो॑ अ॒भि यदे॑न॒माय॒न्दृतिं॒ न शुष्कं॑ सर॒सी शया॑नम् । गवा॒मह॒ न मा॒युर्व॒त्सिनी॑नां म॒ण्डूका॑नां व॒ग्नुरत्रा॒ समे॑ति ॥
यदी॑मेनाँ उश॒तो अ॒भ्यव॑र्षीत्तृ॒ष्याव॑तः प्रा॒वृष्याग॑तायाम् । अ॒ख्ख॒ली॒कृत्या॑ पि॒तरं॒ न पु॒त्रो अ॒न्यो अ॒न्यमुप॒ वद॑न्तमेति ॥
अ॒न्यो अ॒न्यमनु॑ गृभ्णात्येनोर॒पां प्र॑स॒र्गे यदम॑न्दिषाताम् । म॒ण्डूको॒ यद॒भिवृ॑ष्ट॒: कनि॑ष्क॒न्पृश्नि॑: सम्पृ॒ङ्क्ते हरि॑तेन॒ वाच॑म् ॥
यदे॑षाम॒न्यो अ॒न्यस्य॒ वाचं॑ शा॒क्तस्ये॑व॒ वद॑ति॒ शिक्ष॑माणः । सर्वं॒ तदे॑षां स॒मृधे॑व॒ पर्व॒ यत्सु॒वाचो॒ वद॑थ॒नाध्य॒प्सु ॥
गोमा॑यु॒रेको॑ अ॒जमा॑यु॒रेक॒: पृश्नि॒रेको॒ हरि॑त॒ एक॑ एषाम् । स॒मा॒नं नाम॒ बिभ्र॑तो॒ विरू॑पाः पुरु॒त्रा वाचं॑ पिपिशु॒र्वद॑न्तः ॥
ब्रा॒ह्म॒णासो॑ अतिरा॒त्रे न सोमे॒ सरो॒ न पू॒र्णम॒भितो॒ वद॑न्तः । सं॒व॒त्स॒रस्य॒ तदह॒: परि॑ ष्ठ॒ यन्म॑ण्डूकाः प्रावृ॒षीणं॑ ब॒भूव॑ ॥
ब्रा॒ह्म॒णास॑: सो॒मिनो॒ वाच॑मक्रत॒ ब्रह्म॑ कृ॒ण्वन्त॑: परिवत्स॒रीण॑म् । अ॒ध्व॒र्यवो॑ घ॒र्मिण॑: सिष्विदा॒ना आ॒विर्भ॑वन्ति॒ गुह्या॒ न के चि॑त् ॥
दे॒वहि॑तिं जुगुपुर्द्वाद॒शस्य॑ ऋ॒तुं नरो॒ न प्र मि॑नन्त्ये॒ते । सं॒व॒त्स॒रे प्रा॒वृष्याग॑तायां त॒प्ता घ॒र्मा अ॑श्नुवते विस॒र्गम् ॥
गोमा॑युरदाद॒जमा॑युरदा॒त्पृश्नि॑रदा॒द्धरि॑तो नो॒ वसू॑नि । गवां॑ म॒ण्डूका॒ दद॑तः श॒तानि॑ सहस्रसा॒वे प्र ति॑रन्त॒ आयु॑: ॥
पहली वर्षा के पश्चात भरे हुये सरोवरों में निकल आये मेंक माँक करते मेढकों का प्राकृतिक वर्णन तो है ही, साथ में कई सङ्केत भी हैं। सूक्त का आरम्भ ही संवत्सर शब्द से है। पूरे संवत्सर भर साधना में गोपन रहने वाले व्रतचारी ब्राह्मणों जैसे मण्डूक पर्जन्य के स्वागत में बोलने लगे हैं। विविध रंगों के मेढकों के विविध स्वर हैं, कोई गाय सा बोलता है, कोई अजा के समान, कोई ऐसे जैसे पिता पुत्र को अख्खल कहते दुलरा रहा हो, कोई ऐसे जैसे गुरु गम्भीर स्वर में शिष्य को उपदेशित कर रहा हो।
‘अ॒ध्व॒र्यवो॑ घ॒र्मिण॑: सिष्विदा॒ना आ॒विर्भ॑वन्ति॒ गुह्या॒ न के चि॑त्’ में उमस भरे स्थान में स्वेद से भीगे अध्वर्युओं द्वारा व्रत का सङ्केत है जिससे संवत्सर बीत कर वर्षा के आने पर मुक्ति मिलती है – सं॒व॒त्स॒रे प्रा॒वृष्याग॑तायां त॒प्ता घ॒र्मा अ॑श्नुवते विस॒र्गम्।
‘सं॒व॒त्स॒रस्य॒ तदह॒: परि॑ ष्ठ॒ यन्म॑ण्डूकाः‘ में चक्रीय गति का सङ्केत है तो ‘ब्रह्म॑ कृ॒ण्वन्त॑: परिवत्स॒रीण॑म्‘ में वत्सर के एक प्रकार परिवत्सर का जो कि संवत्सर के गणित से जुड़ा है।
यदि आप शर्वरी रात को निहारें तो प्रतीत होता है कि एक विशाल सरोवर उलटा पड़ा हो जिसमें अनेक चमकते पिण्ड दृष्टिमान हैं। तालाब में बहुरङ्गी मेढकों को देखें तो महाकाव्यों की समुद्र एवं अंतरिक्ष को एक रूपक में बाँधने का मर्म समझ में आता है।
एकार्णव, महार्णव में शेषशायी विष्णु द्वारा ब्रह्मा की उत्पत्ति एवं सृष्टि के पुनरारम्भ की कथाओं में कालगणना भी वहीं से आरम्भ होती है। कहते हैं कि पहला मत्स्य अवतार नवसंवत्सर के दिन ही हुआ था। ऋग्वेद की इस ऋचा (10.190.2) में समुद्र अर्णव उदधि से संवत्सर की उत्पत्ति एवं विश्व को वश में रखने वाले के द्वारा अहोरात्र आदि काल मापन इकाइयों की सृष्टि के उल्लेख से कालमान के प्रति मानवीय चेतना की प्राचीनता रेखाङ्कित होती है:
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत । अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ॥
आकाश में सूर्य होता तो कुछ अन्य नहीं दिखता, रात में सूर्य नहीं होता तो शेष सारे दिखते। विकासमान मनुष्य ने सूर्य गति को स्थिर प्रतीत होते नक्षत्रों की पृष्ठभूमि में प्रेक्षित करना आरम्भ कर दिया। मामतेय दीर्घतमा द्वारा दृष्ट अस्य वामस्य सूक्त में संवत्सर के दिनमान एवं सूर्य गतियों प्रेक्षण के विविध गणितीय आयामों के स्थापित हो चुकने के प्रमाण हैं।
चंद्रमा की कलाओं का चक्र सूर्योदय से सूर्योदय तक के दिनों में 29 से 30 दिनों के बीच का था तो वर्षा रानी 365 दिनों पर आती। यह भी देखा गया कि सूर्य उत्तर दक्षिण में अयन करता रहता है तथा वर्ष में दो दिन ऐसे होते हैं जब ठीक दो अतियों के मध्य में आ जाता है। ये माध्य बिंदु विषुव कहलाये तथा वर्ष का आरम्भ सुखदायी वसंत वाले विषुव से किया जाने लगा। मेघ न होने से भी इस अवधि में नाक्षत्रिक प्रेक्षण सरल थे। जब 365 के निकटस्थ 360 को चन्द्रमा के 29.5 से विभाजित किया तो पूर्ण संख्या आयी 12। 12 महीनों के पद्धति की नींव पड़ी तथा गणित आगे बढ़ गया।
सूक्ष्म गणनाओं एवं प्रेक्षण के साथ यह जान लिया गया कि रात का एक प्रदीप्त पिण्ड गुरु धीमे चलता है एवं दूसरा एक शनि तो अत्यधिक शनै: शनै: चलता प्रतीत होता है! शनै: चर, शनैश्चर, शनीचर। इनसे बड़ी सुविधा हो गयी – एक तो वे नक्षत्रों की भाँति स्थिर नहीं थे, दूसरे चलते थे तो बृहत परास में अर्थात इनके द्वारा अपेक्षतया तीव्रगामी सूर्य की गति पर दृष्टि रखी जा सकती थी।
दो प्रणालियाँ अस्तित्व में आईं। पहली – तीव्रतर चंद्रमा की गति के साथ सूर्य गति का संयोजन जिसने हर तीसरे वर्ष अधिकमास एवं पाँच प्रकार के संवत्सरों वाले युग (स्रोत: वेदाङ्ग ज्योतिष, विविध ब्राह्मण) को जन्म दिया। समायोजन की आवश्यकता इस कारण पड़ी कि चंद्रमा के 12 माह में 12×29.5 = 354 दिन ही हो पाते हैं जब कि सौर वर्ष में 365.25 दिन होते हैं अत: प्रत्येक वर्ष 11 से 12 दिनों का अंतर होता जाता है। लगभग 2.5 वर्ष में यह 30 दिन के बराबर हो जाता है जिसे अधिक या मलमास लगा कर पूरा करते हैं। युग अर्थात ऐसे दो कालों का जोड़ अर्थात 2×2.5 = 5, पाँच प्रकार के संवत्सर – सम्वत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर, वत्सर। तैत्तिरीय ब्राह्मण में इनकी संख्या छ: भी बताई गयी है, छठा है इदुवत्सर। सीधे साधे वत्सर शब्द को विद्वान 30 -30 दिनों के बारह महीने का काल बताते हैं। चक्रीय क्रम में 5 प्रकार के ये वत्सर ‘बछड़े’ प्रयुक्त होते थे। अन्य संशोधनों को आज के 19 वर्षीय Metonic cycle से समझा जा सकता है।
दूसरी प्रणाली जोकि अपेक्षतया नवीनतम प्रतीत होती है, शनैश्चर शनि एवं गुरु की गतियों के सापेक्ष थी जिसके लिये स्पष्टत: अधिक जटिल अङ्कगणित की आवश्यकता पड़ेगी। दो गतिमान ग्रहों की स्थिति पर आधारित होने से इस पद्धति में भ्रम की स्थितियाँ अधिक बनती हैं। सरल कर के समझते हैं। गुरु का वर्ष होता है पृथ्वी का 11.86 वर्ष एवं शनि का 29.46 वर्ष। इन दोनों अवधियों के निकटतम पूर्ण अङ्क 12 एवं 30 ले कर लघुत्तम समापवर्त्य हुआ 60 अर्थात प्रत्येक 60 वर्ष पर ये दोनों लगभग समान स्थिति में रहेंगे अर्थात 60 नामों का एक चक्र हो तो पुन: साथ साथ सम होने तक के काल को अद्वितीय नामों से चिह्नित किया जा सकता है तथा एक चक्र पूर्ण होने पर उसे ही दुहराया जा सकता है।
(60 की संख्या के इस समाधान का कोई पुराना शास्त्रीय प्रमाण नहीं मिल पाया, सम्भव है कि यह परवर्ती प्रगति हो। जहाँ भी मिला है गुरु का ही नाम लिया गया है। यह भी सम्भव है कि फलित ज्योतिष में शनि को सामान्यत: ठीक न माने जाने के कारण ऐसा हो। उल्लेखनीय है कि 30 वर्षों का भी एक गुरु आधारित चक्र कभी प्रचलन में था। संदर्भ मिलने पर यहाँ अद्यतन कर दिया जायेगा।)
यह लगभग व्यवस्था जब जटिल चंद्र गतियों एवं सूर्य गति आधारित वर्ष व्यवस्था के साथ जोड़ी जाती है तो गणितीय समस्यायें उत्पन्न होती हैं जिनके समाधान हेतु ज्योतिषाचार्यों ने नियम विधियाँ बताई हुई हैं। केवल गुरु को देखें तो उसकी परिक्रमण अवधि में पृथ्वी के 12 वर्ष से जो कमी है, वह 0.138 वर्ष है।
इसे एक पूरा पृथ्वी वर्ष होने के लिये गुरु को कुल 1/0.138 अर्थात लगभग सवा सात चक्र पूरे करने होंगे। उन चक्रों में पृथ्वी के वर्ष होंगे – 7.246×11.862 = 85.9 वर्ष। इस कारण ही 60 संवत्सरों नामों को लगाते हुये हर 85 वें या 86 वें एक नाम छोड़ना पड़ेगा ताकि संगति बनी रहे। लगे पचासी!
संवत्सर के उत्तर एवं दक्षिण भारतीय 60 नाम समान हैं एवं उनके क्रम भी। अन्तर केवल आरम्भ बिंदु को ले कर है जिसके कारण एक ही वर्ष के संवत्सर नाम भिन्न भिन्न होते हैं। इस बार उत्तर भारतीय नाम विरोधीकृत है तो दक्षिण भारतीय नाम विलम्बी। दोनों के बीच कुल 12 नामों का अंतर है। दक्षिण भारत पर केरल की कोलम संवत्सर पद्धति का प्रभाव है। 12 की संख्या से सम्भव है कि गुरु के एक चक्र से कोई सम्बंध हो। काल गणना को लेकर भेदाभेद एवं उन्हें सुलझाने के प्रयास सर्वदा रहे हैं। समय की माँग है कि एक बार पुन: भारतीय ज्योतिष इस दिशा में पहल करे।
महीनों के नामों की तीन पद्धतियाँ मिलती हैं:
(1) चंद्रगति आधारित – पूर्णिमा के दिन चंद्र जिस नक्षत्र पर होते हैं उसके आधार पर उस महीने का नाम होता है। चैत्र पूर्णिमा को चित्रा पर होंगे। इसी प्रकार विशाखा से वैशाख, ज्येष्ठा से जेठ इत्यादि।
(2) सौर ऋतु चक्र प्रभाव आधारित – इसमें 12 नाम हैं – मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभस्, नभस्य, इष, ऊर्ज, सहस्, सहस्य, तपस्, तपस्य। आरम्भ से जोड़े बनाते चलें तो क्रमश: वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत एवं शिशिर से सम्बंध पता चल जाता है। ध्यातव्य कि वसंत के महीनों में नवरस का सञ्चार होता है, प्रकृति पुष्पिता हो सहज ही नवसृजन योग्य होती है। ऐसी ऋतु के महीनों के नाम दिये गये – मधु (मीठा) एवं माधव। चंद्रमास से संगति में जो 13 वाँ अधिकमास होता है, उसके नाम इस पद्धति में अहसस्पति तथा मलिम्लुच मिलते हैं।
(3) तैत्तिरीय ब्राह्मण में सौर मासों के 12 अन्य नाम भी हैं – अरुण, अरुणरज, पुण्डरीक, विश्वजित, अभिजित, आर्द्र, पिन्वमान, उन्नवान, रसवान, इरावान, सर्वौषध, सम्भर एवं तेरहवाँ महस्वान।
काल गणना की पद्धति सूक्ष्मतर होती चली गयी। विविध पक्षों के तीस नाम भी मिलते हैं, यहीं तक नहीं प्रत्येक पक्ष की हर रात एवं हर दिन के भी भिन्न नाम रखे गये हैं। किसी कालखण्ड की अद्वितीयता सुनिश्चित करने के ये प्रयोग अद्वितीय हैं!
विद्वत समाज की इस जागरूकता का प्रभाव जन सामान्य पर भी पड़ा। जाने कितनी कहावतों एवं कथाओं में चिह्न आज भी मिल जाते हैं। 12 की संख्या को ही देखिये, जब कि गुरु अपना एक चक्र पूरा कर पुन: उसी नक्षत्र पर लौट आते हैं। महीने भी 12 होते हैं। लोक में मिलेगा – 12 वर्ष की तपस्या, व्रत, 12 वर्ष के लिये गृहत्याग, जोगी का फेरा आदि आदि। पौ बारह का स्रोत क्या हो सकता है?
एक रोचक पक्ष यह भी कि 12×9 = 108 कर के दिव्य पुरुषों की आयु की उतने ही वर्ष की मान्यता भी मिलती है जितनी कि यह पवित्र संख्या, जितने की सुमिरनी में दाने। अस्तु।
…
कुछ ही दिन पहले सैद्धान्तिक भौतिकी के महान समकालीन विद्वान स्टीफेन हॉकिंग का निधन हुआ है। विकलांगता एवं अत्यंत बाधक शारीरिक सीमाओं के होते हुये भी उन्होंने जो ऊँचाइयाँ प्राप्त कीं, वे अतुलनीय हैं। उन्हें नोबल पुरस्कार नहीं मिला। क्यों नहीं मिला? क्योंकि गहन अंतर्दृष्टि आधारित उनके सिद्धांतों के वस्तुगत प्रमाण का किसी अन्य वैज्ञानिक या अकादमिक द्वारा सत्यापन अभी तक नहीं किया जा सका है। अंतर्दृष्टि समय की सीमाओं के पार भी पहुँचती है तथा पुरस्कार उसके लिये कोई महत्व नहीं रखते।
दुर्धर्ष समर्पण के धनी हॉकिंग से हिंदी क्षेत्र के जन कम से कम यह प्रेरणा तो ले ही सकते हैं कि अपनी सीमाओं तक नवोन्मेष एवं उद्योग में कोई ढीलापन नहीं करेंगे। नवसंवत्सर के पावन अवसर पर सभी इतना ही निश्चित कर लें तो अपने ही देश में अनेक इतर भाषा भाषी क्षेत्रों से पिछड़े इस क्षेत्र में शांत क्रांति हो जाये। सीमायें, असफलतायें, विवशतायें, अनुपलब्धियाँ तो हॉकिंग जैसे के साथ भी रहीं, उन पर क्यों केंद्रित होना?
चेतना का पक्ष देखें तो एक बहुत बड़ा वर्ग हॉकिंग की जन्मतिथि गैलिलियो से तथा मृत्य तिथि आइंस्टीन से मिलने को ले कर बहुत उत्साहित है।
पता है क्यों?
क्योंकि भविष्य एवं संयोगों के प्रति उत्सुकता हम सबमें स्वाभाविक है।
पता है क्यों?
क्योंकि घटनाओं को जाने अनजाने निश्चित विश्लेषण एवं निष्कर्ष के ढाँचे में बिठाने की प्रवृत्ति हममें सहज ही है।
पता है क्यों?
क्योंकि हम अनन्त ब्रह्माण्ड के गणितीय चक्र से भीतर गहराई तक जुड़े हैं। चैत्र के पश्चात वैशाख आना ही है, वर्षा के पश्चात शरद आना ही है, गैलिलियो के पश्चात वैसे ही किसी को आना ही है, कोई आइंस्टीन था तो उसका रूप अब भी होना ही चाहिये! नहीं? समस्या यह भी है कि हम अपने यहाँ आर्यभट भी होना ही चाहिये, कौटल्य आना ही चाहिये; नहीं सोचते। उनके यहाँ संयोग मनाने की दिशा भी भिन्न है।
…
अपनी स्वाभाविकता को जानते हुये चैतन्य रहें। संयोग बहुत हो सकते हैं, गढ़े भी जा सकते हैं किन्तु मानवीय उद्योग का स्थान नहीं ले सकते। करना होगा, करने से ही होता है, परिणाम लुटाये गये बतासे नहीं होते जो गप्प से मुँह में रख सप्प से निगल जायें!
बतासे से ध्यान आया, कहीं मीठे बतासे का सम्बंध संवत्सर वाले वत्सर से तो नहीं? गोल गोल चक्कर, मीठा मधु मास, गोल गोल मीठा बतासा। सोचियेगा। पण्डित जी कहेंगे, अरे नहीं बतास पड़ता है न, वातसह, उससे है, ओले के आकार का गोल गोल। उनकी न सुन अपने भीतर के बच्चे को उछलने दीजिये, कभी कभी ऐसे भी बतासा हाथ लग जाता है।
एक बात तो रह ही गयी, गुरु या बृहस्पति को जीव भी कहते हैं –
बृहस्पति सुराचार्यो गीष्पतिर्धिषणो गुरु:।
जीव आङ्गिरसो वाचस्पतिश्चित्रशिखण्डिज:॥
(अमरकोश, 1.3.223, 224)
जीव एवं जोवियन कितने मिलते जुलते हैं! Jovian cycle ढूँढ़िये तो!
Sir. I have recently come across a article.written by Sri Girijesh Talking mentioning shani transit through different nakshatra. I could not trace the same.
I tried a lot.
Will you please send me.that article o. Shani transit to my email
vinayvgk@gmail.Com.
Regards
Vinay kalgutkar
आप किस लेख बात कर रहे यह तो स्पष्ट नहीं क्योंकि ज्योतिष पर एकाधिक लेख है। आप सर्च डब्बे में ‘शनि’ लिखकर ढूँढ सकते हैं।
एक लेख तो यह भी है, क्या पता आप यही ढूँढ रहे हों।
https://maghaa.com/hindu-new-year-नवसंवत्सर/