राजा उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव की कथा तो सभी जानते हैं, और यह भी कि पृथ्वी के घूर्णन अक्ष के उत्तरी ध्रुव की सीध में जो भी तारा हो उसे ध्रुव तारा कहलाने का अधिकार प्राप्त होता है। ध्रुव तारा हमारे कथा-कहानियों का ही नहीं, खगोल एवं ज्योतिष का भी एक विशिष्ट घटक है। प्राचीन समय से इस तारे की दिशा रात्रि-काले उत्तर दिशा प्रबोधिनी रही है और इस तारे के अभिज्ञान का सदा से एक ही साधन रहा है – आकाश में सप्तर्षिमण्डल के दो प्रथम तारों को मिलाने वाली रेखा की सीध में पड़ने वाला एकल सा तारा ध्रुव तारा होगा।
ध्रुव तारा एक पदवाची सञ्ज्ञा है। जिस तारे को ध्रुव तारा कहा जाता है उसका वास्तविक नाम कुछ और होता है। प्राच्य ध्रुव तारे का नाम अभिजित् था। शास्त्रों में अभिजित का पतन एक रोचक किन्तु प्रतीकात्मक कथा है। महाभारत, वन पर्व, अध्याय २३० में कथानक है कि प्रारम्भ में अभिजित सहित राशियों की संख्या अठाईस थी। अभिजित के प्रतिद्वंद्वी कृत्तिका ने उत्तरायण सूर्य ‘वन’ से अपना तेज बढ़ाने की प्रार्थना की जिसे सूर्य ने स्वीकार कर लिया। सूर्य का तेज सहन न कर सकने के कारण तीव्र आतप से व्यग्र अभिजित नीचे सरक गया और नक्षत्र मण्डल तथा ध्रुव पद दोनों से च्युत हुआ।
रेवती पतन की भी ऐसी ही एक कहानी है (क्या कहानी बस कहानी बन कर रह जाने को है आलेख द्रष्टव्य, मघा द्वारा प्रकाशित)। और मेरा निवेदन है कि ये तथा ऐसी ही अन्यान्य कहानियाँ किसी विशिष्ट घटना का रूपक बना कर प्रचलित की गईं। अभिजित का पतन भी एक ऐसा ही रूपक है। महाभारत का यह आख्यान यह बताता है कि कभी अभिजित नक्षत्र ध्रुव तारे की पद सञ्ज्ञा से अभिषिक्त था किन्तु कालान्तर में किसी अन्य तारे ने उसका स्थान ले लिया।
आज से लगभग तेरह से चौदह हजार वर्ष पूर्व वीणा तारामण्डल का अभिजित् तारा ध्रुव पद पर था किन्तु आज वर्तमान काल में लघु सप्तर्षि तारामण्डल का क्रतु (अल्फा) नामक तारा ध्रुव पद पर है। इससे पूर्व इसी मण्डल के पुलह (बीटा) तारे को यह पद प्राप्त था तथा ११७०८ वर्ष पश्चात अभिजित पुनः ध्रुव पद प्राप्त कर लेगा अर्थात पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव की सीध में आ जायेगा।
सर्वप्रथम सप्तर्षियों की बात करते हैं, धरा पर हमारे पुराख्यानों में उल्लिखित सप्तर्षियों के नाम से पहचाने जाने वाले आकाश के सप्तर्षियों की! यदि आप ग्रीष्म ऋतु में उत्तरी आकाश की ओर देखें तो आपको पतंग की आकृति में सात तारे दिखाई देंगे जिनमें चार तारे पतंग तथा तीन अन्य तारे उसकी निचली पूँछ जैसे प्रतीत होते हैं। यही सप्तर्षि तारामण्डल है। पाश्चात्य ज्योतिष इसे अर्सा मेजर Ursa Major तारामण्डल कहता है। आरंभिक वैदिक काल में इसे ऋक्षा कहा जाता था। यह शब्द वास्तव में ऋक्षाः रहा हो सकता है जिसका अर्थ ‘अनेक भालू’, भालू का वहुवचन होगा। ऋग्वेद प्रथम मण्डल के चौबीसवें सूक्त में एक ऋचा है – अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा। नक्तं ददृशे कुहचिद्दिवेयुः। अर्थ है – ये भालू जो रात्रि में दिखाई देते हैं, वे दिन में कहाँ चले जाते हैं? और शतपथ ब्राहमण में कहा गया है – सप्तर्षीनु ह स्म वै पुरर्क्षा इत्याचक्षते – अतः स्पष्ट है कि प्राचीन काल में सप्तर्षियों को ही ऋक्षा कहा जाता था। यही ऋक्षा या ऋक्षाः कालांतर में सप्तर्षियों के नाम पर नामकरण होने के पश्चात संस्कृत में ऋषयः, लैटिन में ursus और यूनानी में ἄρκτος (árktos) तथा आगे की भाषाओं में अर्सा हो गया। जिन ऊपरी उत्तरी क्षेत्रों में यह तारामण्डल सामान्यत: सिर के ठीक ऊपर दिखता है, उन्हें Arctic नाम दिया गया।
इन सात तारों के नाम क्रमशः क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वसिष्ठ तथा मरीचि हैं। वसिष्ठ के निकट स्थित एक अपेक्षाकृत हीन कान्ति की लघु तारिका अरुंधती के नाम से जानी जाती है। इनमें से क्रतु तथा पुलह को मिलाती हुई एक कल्पित रेखा खींची जाय तो वह उत्तर दिशा में एक कान्तिमान तारे की सीध से हो कर निकलती है। पूरी तरह सीध में नहीं, थोड़े अंतर से, लगभग उनत्तीस अंश के अन्तर से, तब भी इसे सीध में माना जाता है। उस कल्पित रेखा के सीध में पड़ने वाले इस तारे को ही ध्रुव तारा कहा जाता है। एक विशेष तथ्य यह भी है कि आज की तिथि में यह ध्रुव तारा पूर्णतः पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव की ठीक सीध में नहीं है वरन् एक अंश के अंतर पर है।
अब इस ध्रुव तारे तथा इसके समीप के कुछ अन्य तारों से बन रही आकृति पर ध्यान दें तो हमें एक और छोटा सा तारक-समूह दिखता है जिसकी आकृति भी सप्तर्षि तारामण्डल की आकृति से मिलती है, सप्तर्षि से छोटी किन्तु दिखने में उससे उलटी। अब दोनों आकृतियों को एक साथ देखें तो प्रतीत होता है जैसे दो कलछियाँ एक दूसरे के सम्मुख उलटी धरी हों या दो दिशा से दो पतंगें एक साथ आकाश में पेंच लड़ा रही हों। ध्रुव तारा इस दूसरी छोटी वाली पतंग के पूँछ के सिरे वाला तारा है।
इस प्रकार सप्तर्षि की जो आकृति है उस आकृति के दो तारामण्डल परस्पर निकट ही दृष्टिगोचर होते हैं तथा दोनों का नाम सप्तर्षि-मण्डल ही है। बड़े वाले का वृहत्सप्तर्षि मण्डल या सप्तर्षि मण्डल और छोटे वाले का लघुसप्तर्षि मण्डल। चूंकि आज-कल किसी भी तारा-मण्डल के तारों का नाम अल्फा, बीटा, गामा आदि रखने का प्रचलन है तथा इन नामकरण का आधार उस तारा-विशेष की कान्ति होती है अतः दोनों तारा मण्डलों के तारों के नाम भी एक ही हैं, केवल कान्तिमान के आधार पर उनके क्रम भिन्न हैं। लघु सप्तर्षि मण्डल के तारों के नाम शीर्ष से पुच्छ की ओर क्रमशः पुलह, पुलस्त्य, वसिष्ठ, मरीचि, अंगिरा, अत्रि तथा क्रतु हैं। वृहत् सप्तर्षि के पुलह और क्रतु से हो कर चली रेखा के छोर पर लघु सप्तर्षि का यह अंतिम तारा क्रतु ही हमारा आज का ध्रुव तारा है। लघु सप्तर्षि इस अपने ही अंतिम तारे, हमारे आज के ध्रुव तारे के परितः घूमता रहता है और यह उत्तर भारत के स्थानों से स्पष्ट लक्षित भी होता है। ध्रुव तारे की परिक्रमा लघु सप्तर्षि ही नहीं, वृहत्सप्तर्षि भी करते हैं। भारत से तो नहीं किन्तु कनाडा से उसका भी ध्रुव तारे के चतुर्दिक परिक्रमण देखा जा सकता है। सप्तर्षि यह परिक्रमा एक दिन में पूरी कर लेता है।
वास्तव में लघु सप्तर्षि या वृहत्सप्तर्षि ध्रुव तारे की नहीं, पृथ्वी के अक्ष रेखा की परिक्रमा करते हैं और यही कारण है कि एक दिन में यह ध्रुव तारा भी एक छोटा सा वृत्त बनाता सा प्रतीत होता है, क्योंकि वह अक्ष रेखा के केंद्र पर नहीं, उससे थोड़ा हट कर है। और यह तो हम जानते ही हैं कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुये डगमगाती भी है अतः उसकी अक्ष रेखा का उत्तरी सिरा भी एक वृतीय परिक्रमा में रत है तथा वह अपनी एक परिक्रमा लगभग २५७७२ वर्षों में पूरी कर लेता है। इस कारण आकाश में इस अक्ष रेखा की स्थिति ही निरंतर परिवर्तनशील है और इसी कारण कोई भी तारा सदा इस रेखा की सीध में नहीं रह सकता।
ध्रुव तारा मात्र पृथ्वी की अक्ष रेखा की परिक्रमा ही नहीं करता। वह उस अक्ष रेखा के सापेक्ष रैखिक गति में भी संचरण करता है, या कहें कि पृथ्वी की अक्ष रेखा अपने विशिष्ट पथ पर चलते हुए ध्रुव तारे के निकट आती जा रही है अतः क्रमशः ध्रुवीय अक्ष रेखा तथा आज का ध्रुव तारा – लघु सप्तर्षि का क्रतु, परस्पर निकट आते जा रहे है।
आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व जब इस तारे को ध्रुव पद प्राप्त हुआ तब वह आज की तुलना में और भी अधिक दूर था। आज से लगभग दो हजार छह सौ वर्षों पूर्व तो कोई ऐसा तारा ही नहीं था जो पृथ्वी के अक्ष के निकट हो कर ध्रुव पद का अधिकारी माना जा सके। तीन हजार वर्ष पूर्व लघु सप्तर्षि का पुलह तारा पृथ्वी के अक्ष की सीध में था अतः उसे ध्रुव माना जाता था। लगभग ४७०० वर्ष पूर्व शिशुमार मण्डल का एक तारा अल्फा-ड्रेको जिसका भारतीय नाम ‘अभय’ तथा यूनानी नाम ‘थुबान’ है जो सर्प के अरबी नाम ثعبان से है। अरब जन शिशुमार नक्षत्रमण्डल को वृहदाकार सर्प के रूप में देखते थे (वैसे थुबान शब्द की ध्रुवन् से साम्यता अभिलेखनीय है)। आज से लगभग १२८०० वर्ष पूर्व वीणामण्डल का अभिजित तारा पृथ्वी की अक्ष रेखा के सीध में होने के कारण ध्रुव पद-सञ्ज्ञा का अधिकारी था, लगभग १५५०० वर्षों बाद पुनः अभिजित् नामक तारा ही इस अक्ष रेखा की सीध में होगा अतः अभिजित् को पुनः ध्रुव पद प्राप्त हो जायेगा, तथा अभय या थुबान को भी आज से २३६०० वर्ष पश्चात् ध्रुव पद पुनः प्राप्त होगा।
जैसा कि बता चुके हैं, उत्तरी ध्रुव बिन्दु लगभग २५७७२ वर्षों में तारों की पृष्ठभूमि में अपना एक चक्रण पूर्ण करता है अतः इतने वर्षों के अंतराल पर प्रत्येक तारा जो कभी ध्रुव पद पर रह चुका है, पुनः ध्रुव तारे के रूप में अभिषिक्त होगा। आज से २६०० वर्ष पूर्व का वह कालखण्ड, जब कोई भी तारा ध्रुव पद का अधिकारी नहीं था, भारत के सिद्धार्थ गौतम तथा वर्द्धमान महावीर से सम्बंधित है। मुझे आश्चर्य है कि कथा-कहानियों के इस देश में किसी कहानी गढ़ने वाले को अब तक यह क्यों नहीं सूझा कि वह अपनी किसी कहानी में लिखे,“गौतम या महावीर के तेज से भयभीत ध्रुव तारा आकाश से लुप्त हो गया। उसने ब्रह्मा की घोर तपस्या की तब ब्रह्मा ने उसे यह वरदान दिया कि आज से छब्बीस हजार वर्ष पश्चात तुम पुनः ध्रुव पद प्राप्त करोगे।”
तो सत्य यह है कि इस संसृति में कुछ भी नित्य नहीं, कुछ भी अटल नहीं, कोई ध्रुव नहीं। सूक्ष्म से ले कर विराट तक सभी भ्रमण में हैं, सभी भ्रमित हैं। प्रत्येक की परिक्रमा का कहीं कोई एक केंद्र है और प्रत्येक के उस केंद्र की परिक्रमा का भी कहीं एक अन्य केंद्र है।
कोई भी तारा ध्रुव तारा बने, प्रश्न यह उठता है कि भारतीय ज्योतिष में ध्रुव तारे का क्या महत्व है? क्या इसकी महत्ता मात्र इस हेतु है कि यह पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के लगभग सीध में रहने वाला एक तारा है? क्या यह मात्र दिशा-बोधक ग्रह है? ध्रुव तारे के साथ सदा – सदा संयुक्त कर दिये गये सप्तर्षियों की क्या मात्र इतनी उपयोगिता है कि वे अपनी स्थिति से ध्रुव तारे को पहचाने जाने में सहायता करें? सत्य है कि इतना अल्प महत्वपूर्ण तो नहीं ही है। आज भले इसका महत्व अल्प प्रतीत होता हो, जिस काल में सप्तर्षियों सहित ध्रुव को यह गरिमामय महत्ता प्राप्त हुई उस समय इतनी उपयोगिता भी बहुत महत्वपूर्ण थी। किन्तु वास्तविकता यह है कि सप्तर्षियों सहित ध्रुव की उपयोगिता मात्र इतनी ही नहीं है। आकाश के उन तारों तथा धरा के उन व्यक्तियों, दोनों का महत्व निश्चित ही मानवता हेतु इससे कहीं बहुत-बहुत अधिक रहा होगा तभी हमारे पूर्वजों ने उन व्यक्तियों तथा उन तारकों को इतना महत्व दिया कि उन व्यक्तियों के नाम गगन-मण्डल के तारकों पर लिख दिये गये।
आप यदि सेक्सटेंट नामक यंत्र का उपयोग जानते हों, जो प्रेक्षक हेतु किसी भी विशिष्ट स्थिति में रहते हुए वहाँ से किन्ही दो बिन्दुओं के बीच का कोण पूरी शुद्धता से माप सकने में सक्षम तथा उपयोगी है, तो उसकी सहायता से नेत्र के लगभग समान्तर किसी बिंदु (क्षितिज रेखा) तथा ध्रुव तारे के बीच का कोण माप कर देखें! निश्चित ही रात्रि के समय यह एक कठिन कार्य है। या यदि त्रिकोणमिति का सामान्य सा ही अभ्यास हो तो दो ज्ञात लम्बाई की शलाकाएँ जिनमें एक की लम्बाई दूसरे से लगभग आधी या तीन चौथाई हो, ले कर किसी रात्रि में उन्हें किसी स्थिर आधार पर उर्ध्वाधर रखते हुए उनके ऊपरी सिरों को इस प्रकार समंजित करने का प्रयास करें कि उन दोनों के ऊपरी सिरे से हो कर जाती दृष्टि-रेखा ध्रुव तारे को बेधती हुई जाये। अब दोनों शलाकाओं की लम्बाई के अंतर को दोनों शलाकाओं के बीच की दूरी से भाग देकर जो अंक प्राप्त होता है उसे स्पज्याङ्क मान लें और इस अंक की व्युस्पज्या से उसका कोणात्मक मान ज्ञात करें। दोनों विधियों से प्राप्त इस कोण का जो मान होगा वह उस स्थान का अक्षांश होगा। स्थूल विधि से प्राप्त इस मान तथा उस स्थान के वास्तविक अक्षांश में कुछ अंतर संभव है, जो स्थूल विधि तथा प्रक्रिया में संभावित त्रुटि के कारण होगी, किन्तु लगभग मान प्राप्त हो जायेगा। गोरखपुर नगर हेतु यह मान २६ अंश ३० कला के निकट का आता है। पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में किसी भी स्थान से यदि परिशुद्धता से यह कोण मापा जाय तो वह उस स्थल के अक्षांश तुल्य ही होगा जो उत्तरी ध्रुव से मापने पर नब्बे अंश तुल्य होगा। ध्रुव तारे का यह भी एक महत्वपूर्ण उपयोग है।
अब थोड़ा सप्तर्षियों की उपयोगिता पर विचार करें। पुलह तथा क्रतु को मिलाने वाली जो कल्पित रेखा उत्तर दिशा में वर्तमान ध्रुव तारे से जा मिलती है उसी रेखा को यदि दक्षिण की ओर बढ़ायें तो वह अंगरेजी के एम अक्षर से मिलती – जुलती एक आकृति के तारामण्डल शर्मिष्ठा जिसमें पञ्च तारे हैं, का भेदन करती हुई सिंह राशि के बीच से तथा मघा नक्षत्र के निकट से हो कर जाती है। इस स्थिति को लेकर आज-कल के कुछ खगोलज्ञों में यह धारणा है कि सप्तर्षियों की सार्वकालिक स्थिति मघा नक्षत्र में है। किन्तु हमारे आर्ष मनीषियों का मानना है कि सप्तर्षि भी भचक्र में ग्रहों की भांति ही वामावर्ती दिशा में गतिशील हैं तथा वे भचक्र पथ पर प्रत्येक राशि में १०० वर्षों तक रहते हुए अपनी परिक्रमा २७०० वर्षों में पूरी करते हैं। सप्तर्षियों के नक्षत्र-भ्रमण की इस परिकल्पना का उपहास करते हुए डेक्कन कालेज पूना के गणित के प्राध्यापक श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी ने कभी कहा था कि सप्तर्षि गर्गाचार्य के युग में भी मघा नक्षत्र में थे और आज भी वे मघा नक्षत्र में ही हैं।
एक विद्वान् गणित प्राध्यापक के कथन के विरोध का साहस मुझ जैसा अल्प-मति व्यक्ति नहीं कर सकता किन्तु यदि ऐसा है, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि पृथ्वी मघा नक्षत्र के सापेक्ष स्थिर है क्योंकि उसकी अक्ष रेखा सदा मघा नक्षत्र के निकट ही रहती है। और तब पृथ्वी की सूर्य के परिक्रमा के कारण सूर्य की नक्षत्र स्थिति के परिवर्तन का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि किसी समय विशेष पर सूर्य की नक्षत्रगत स्थिति उसी नक्षत्र में मानी जाती है, पृथ्वी से देखने पर वह जिस नक्षत्र की सीध में दिखाई दे। इस प्रकार पृथ्वी से देखने पर पृथ्वी तथा सूर्य के बिम्ब-गोलक की प्रतिच्छेदी रेखा सूर्य के पीछे जिस नक्षत्र की सीध में भचक्र का वेध करती है, सूर्य की स्थिति उसी नक्षत्र में मानी जाती है। मघा के सापेक्ष पृथ्वी को स्थिर मानने पर सूर्य की स्थिति सदा मघा से १८० अंश पर शतभिषा नक्षत्र में होगी। और तब यह भी मानना होगा कि भचक्र भी पृथ्वी के साथ उसी की गति से सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। इस प्रकार ज्योतिष तथा खगोल की समस्त मान्यतायें तथा सिद्धांत एक सिरे से मिथ्या सिद्ध हो जायेंगे।
किन्तु पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा तो करती ही करती है! और इस प्रकार वह खमण्डल में सभी राशियों के समक्ष से हो कर ही अपनी वार्षिक यात्रा करती है। तो पृथ्वी की अक्ष रेखा भी उसी के साथ भ्रमण में हैं और उस अक्ष रेखा के सापेक्ष स्थिर ध्रुव, और उसकी परिक्रमा करते सप्तर्षि भी पृथ्वी के साथ बँधे घूम रहे हैं।
वास्तव में क्रूर सत्य के आग्रही, कल्पना को, कथाओं को, परिकल्पनाओं को, इतनी हेय दृष्टि से देखते हैं कि यदि कल्पना-परिकल्पनाओं तथा कथा-कहानियों के जीवन होता तो वे लज्जा से आत्महत्या कर लेतीं! काल की गणना में पृथ्वी की गति एक मानक उपस्कर अवश्य है क्योंकि इस गणना का उद्देश्य हम पृथ्वी-वासियों से सम्बद्ध है किन्तु हमारे सौर-मण्डल में काल की गणना का आधार मात्र और मात्र सूर्य है। अपने मण्डल में वह प्रत्येक गति का केंद्र है। हर प्रेक्षण का आधार मात्र पृथ्वी नहीं हो सकती! सूर्य पर खड़े हो कर देखो! सप्तर्षि भचक्र का भ्रमण करते दिखेंगे! और यहीं हमारे वे पुरखे हमसे अधिक नवोन्मेषी थे। अभिधा में तो नहीं, किन्तु लक्षणा का सहारा लें, तो वे सूर्य पर भी खड़े हो सकते थे।
इस प्रकरण को विमर्श का विषय न बनाते हुए, मैं आर्ष मनीषियों की उस सङ्कल्पना की ओर लौटता हूँ जो सप्तर्षियों के भचक्र-भ्रमण के सिद्धांत में विश्वास करते थे। यह असोढव्य अवश्य था कि वे सप्तर्षियों की एक नक्षत्र में सौ वर्ष की अवस्थिति मानते थे, तब भी उनकी यह परिकल्पना सृष्टि की प्रथम काल गणना का आधार है जिसे सप्तर्षि-संवत् कहा जाता है। अनेक वैज्ञानिक सिद्धांत कालक्रम में त्रुटिपूर्ण सिद्ध हुये, उन्हें विस्थापित करने वाले नये सिद्धांत आये किन्तु इससे उन पुराने सिद्धांतों का महत्व कम नहीं हो जाता! उन त्रुटिपूर्ण सिद्धांतों के आधार पर ही कभी वैज्ञानिक व्याख्यायें की और समझी जाती थीं। सप्तर्षि यदि ध्रुव तारे के सापेक्ष और ध्रुव तारा यदि पृथ्वी के अक्ष के सापेक्ष स्थिर या स्थिर-तुल्य है, तो इस हेत्वाभासी परिकल्पना में कोई त्रुटि नहीं कि ध्रुव तारा तथा सप्तर्षि भी राशि-चक्र का भ्रमण करते हैं। कुछ सिद्धांत अपने निरसन से पूर्व तक प्रेक्षण से अधिक परिकल्पनाओं पर ही आधृत होते हैं।
किसी भी स्थान की ऊंचाई समुद्र-तल के सापेक्ष मापी जाती है। समुद्र का तल सदा स्थिर है? है भी तो क्या सदा ही स्थिर रहेगा भी? क्या समुद्र में बाढ़ नहीं आती? यदि नहीं, तो जल-प्रलय की परिकल्पना तो असंगत है! और समुद्र-तल का मान शून्य ही क्यों? क्योंकि सामान्य परिस्थितियों में यह स्थापना हमारे अनेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती है। सारा भू-सर्वेक्षण ही इसी परिकल्पना पर टिका है। वास्तव में यह सापेक्ष मापन का सिद्धांत है। और समय तो अनादि तथा अनन्त है। उसका मापन तो प्रत्यक्षतः सापेक्ष मापन है।
समय मापन की प्रत्येक प्रणाली मात्र परिकल्पनाओं पर ही आधारित है क्योंकि समय का आदि न ज्ञात है, न मानव उसे कभी ज्ञात कर सकता है। तो अनेक मिथ्या पद्धतियों में वह एक पद्धति ही क्यों त्याज्य है जो सर्व-प्रथम उपयोग में लायी गयी? मात्र इस कारण, कि समर्थों को अपना नाम नई पद्धतियों के माध्यम से प्रसिद्ध करना था? नहीं। इसका कारण यह है कि नवीन तथ्यों के अभिज्ञान के कारण प्रचलित पद्धतियों में संशोधन आवश्यक था और यदि अल्प संशोधनों से वांछित लाभ नहीं प्रतीत हुआ तो पुरातन को त्याग कर नवीन पद्धतियों का प्रचालन आवश्यक हो गया, और विशेषकर इस कारण भी, इस अनादि-अनन्त-गणनातीत की गणना कोई कब से करे? कब तक करे? एक समय ऐसा अवश्य आता है कि समस्त मोह तथा अनुराग त्याग कर पिछले विश्राम-स्थल से आगे बढ़ना ही होता है। अन्यथा कोई भी दिन रात्रि के बारह बजे से प्रारम्भ हो, दिन के बारह बजे से प्रारम्भ हो, या सूर्योदय से, या सूर्यास्त से, क्या अंतर पड़ता है? समय का तो सारा गणित ही मानने और मनवाने पर निर्भर है।
निष्कर्षतः, वार्षिक काल मापन हेतु सम्पूर्ण विश्व में स्वीकृत जो प्रथम परिपाटी थी वह सप्तर्षि सम्वत की थी तथा इस परिपाटी की मूल संकल्पनायें थीं कि (१) सप्तर्षि भी अन्य ग्रहों के समान ही भचक्र में सभी नक्षत्रों का भोग करते हुये उसकी परिक्रमा करते हैं। (२) सप्तर्षि एक नक्षत्र में सौ वर्षों तक रहते हैं। (३) सृष्टि के प्रारम्भ में सप्तर्षियों की स्थिति कृत्तिका नक्षत्र में आदि बिन्दु पर थी। (४) सभी नक्षत्रों का एक चक्र पूर्ण कर लेने के उपरांत, २७०० वर्ष के पश्चात, सम्वत पुनः शून्य से प्रारम्भ होता था। (५) तीन सप्तर्षि चक्रों का एक ध्रुव वर्ष होता है। यह ध्रुव वर्ष ८१०० वर्षों की वही अवधि है जिस अवधि के पश्चात् कोई तारा ध्रुव पद से च्युत होता है तथा उसके स्थान पर कोई नया तारा ध्रुव पद प्राप्त करता है।
वराहमिहिर कृत बृहत्संहिता अध्याय १३ सप्तर्षिचाराध्याय के अधोलिखित प्रारम्भिक श्लोक उस मत तथा मान्यता की पुष्टि करते हैं :
सैकावलीव राजति ससितोत्पलमालिनी सहासेव ।
नाथवतीव च दिग्यैः कौवेरी सप्तभिर्मुनिभिः ॥ १३.०१ ॥
ध्रुवनायकोपदेशान् नरिनर्त्ती इवौत्तरा भ्रमद्भिश्च ।
यैश्चारं अहं तेषां कथयिष्ये वृद्धगर्गमतात् ॥ १३.०२॥
आसन्मघासु मुनयः शासति पृथ्वीं युधिष्ठिरे नृपतौ ।
षड्द्विकपञ्चद्वियुतः शककालस्तस्य राज्ञश्च ॥ १३.०३॥
एकैकस्मिन्नृक्षे शतं शतं ते चरन्ति वर्षाणाम् ।
प्रागुदयतोप्यविवराद् र्जून्नयति तत्र संयुक्ताः ।
प्रागुत्तरतश्च एते सदा उदयन्ते ससाध्वीकाः ॥ १३.०४॥
श्लोक संख्या १३.०३ का पूर्वार्द्ध बताता है कि जब सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे तब पृथ्वी पर युधिष्ठिर राजा थे (आसन् मघासु मुनयः), तथा श्लोक संख्या १३.०४ का पूर्वार्द्ध बताता है कि एक नक्षत्र में सप्तर्षि सौ वर्ष तक रहते हैं (एकैक अस्मिन् ऋक्षे शतं शतं ते चरन्ति वर्षाणाम्)।
विष्णु पुराण (चतुर्थांश) अध्याय २४ के इन श्लोकों से भी यह तथ्य पुष्ट होता है कि सप्तर्षियों के परिभ्रमण के आधार पर सप्तर्षि सम्वत की गणना प्रचलित थी :
यावत् परीक्षितो जन्म यावन्नन्दाभिषेचनम् ।
एतद्वर्षसहस्त्रन्तु ज्ञेयं पञ्चदशोत्तरम् ॥ ४-२४-३२ ॥
सप्तर्षीणाञ्च यौ पूर्वौ दृश्येतै उदितौ दिवि ।
तयोस्तु मध्यनक्षत्रं दृश्यते यत् समं निशि ।
तेन सप्तर्षयो युक्तास्तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम् ॥ ४-२४-३३ ॥
ते तु पारीक्षिते काले मघास्वासन् द्विजोत्तम!
तदा प्रवृत्तश्व कलिर्द्वादशाब्दशातात्मकः ॥ ४-२४-३४ ॥
यदैव भगवद्विष्णोरंशो यातो दिव द्विज!
वसुदेवकुलोद्भूतस्तदैव कलिरागतः ॥ ४-२४-३५ ॥
यावत् स पादपद्माभ्यां स्पर्शेमां वसुन्धराम् ।
तावत् पृथ्वीपरिष्वङ्ग समर्थो नाभवत् कलिः ॥ ४-२४-३६ ॥
गते सनातनस्यांशे विष्णोस्तत्र भुवो दिवम् ।
तत्याज सानुजो राज्यं धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ४-२४-३७ ॥
विपरीतानि दृष्ट्वा च निमित्तानि स पाण्डवः ।
याते कृष्णे चकाराथ सोऽभषेकं परीश्रिने ॥ ४-२४-३८ ॥
प्रयास्यन्ति यदा ते च पूर्व्वाषाढ़ां महर्षयः ।
तदा नन्दात् प्रभृत्येष कलिर्वृद्धिम् गमिष्यति ॥ ४-२४-३९ ॥
अर्थात परीक्षित का जन्म तथा (कालान्तर में) नन्द का अभिषेक (भी) सप्तर्षि सम्वत १०१५ में हुआ (श्लोक ३२)। परीक्षित के समय सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे (श्लोक ३४)। जब तक कृष्ण के चरण इस पृथ्वी को स्पर्श करते रहे तब तक कलि प्रभावी नहीं हुआ (श्लोक ३६)। जब सप्तर्षि मघा से चल कर पूर्वाषाढ़ा में जा चुके होंगे तब नन्द का राज्य होगा तथा कलियुग की वृद्धि होगी (श्लोक ३९)।
सप्तर्षि सम्वत एक-मात्र सम्वत था जो सम्पूर्ण विश्व में महाभारत काल तक प्रचलित रहा किन्तु अर्जुन के पुत्र परीक्षित को राज्य-भार सौंप कर स्वर्गारोहण हेतु जा रहे पाण्डवों ने एक नया सम्वत चलाया। श्लोक ३६ का अर्थ ही यही है कि कृष्ण के जीवित रहते कलि सम्वत का चलन प्रारम्भ न हो सका। कृष्ण कृष्ण थे, एक युगपुरुष! उनके लौकिक अस्तित्व में रहते कोई मान्यता, किसी अन्य के नाम से स्थापित हो सके यह सम्भव ही नहीं था और भारत युद्ध के पश्चात सकल राष्ट्र की मानसिकता भी उतनी उत्साह-पूर्ण नहीं रही होगी। मन के अवसाद नवाचारों के प्रति कोई उत्सुकता नहीं जगने देते होंगे।
श्रीमद्भागवत महापुराण (वैष्णव) द्वादश स्कंध के द्वितीय अध्याय में भी मात्र कुछ शब्दों के अंतर से, समान श्लोक प्राप्त होते हैं –
आरभ्य भवतो जन्म यावत् नन्दाभिषेचनम् ।
एतद् वर्षसहस्रं तु शतं पञ्चदशोत्तरम्॥२६॥
सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वौ दृश्येते उदितौ दिवि।
तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यत्समं निशि॥२७॥
तेनैव ऋषयो युक्ताः तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम्।
ते त्वदीये द्विजाः काले अधुना चाश्रिता मघाः॥२८॥
विष्णोर्भगवतो भानुः कृष्णाख्योऽसौ दिवं गतः।
तदाविशत् कलिर्लोकं पापे यद् रमते जनः ॥२९॥
यावत् स पादपद्माभ्यां स्पृशनास्ते रमापतिः।
तावत् कलिर्वै पृथिवीं पराक्रान्तुं न चाशकत्॥३०॥
यदा देवर्षयः सप्त मघासु विचरन्ति हि।
तदा प्रवृत्तस्तु कलिः द्वादशाब्द शतात्मकः॥३१॥
यदा मघाभ्यो यास्यन्ति पूर्वाषाढां महर्षयः।
तदा नन्दात् प्रभृत्येष कलिर्वृद्धिं गमिष्यति॥३२॥
कलि सम्वत के सन्दर्भ में एक अन्य उद्धरण है :
कलेर्गतै सायकनेत्र वर्षै: सप्तर्षिवर्या: त्रिदिवं प्रयाता:। सह्रविंशशतैर्भाव्या: आन्ध्राणां तेऽन्वया पुन: ॥
पुराणोक्त इस उद्धरण की इतनी शल्य-क्रिया हो चुकी है कि इसे छूने में भी भय लगता है। जाने किधर से झर जाय? इस श्लोक के संख्या बोधक शब्द इस प्रकार हैं – सायकनेत्र = सायक नेत्र = पञ्च सायक (कामदेव के बाण) अर्थात पाँच तथा नेत्र अर्थात दो, अंकानाम वामतो गतिः अर्थात २५। सप्तविंश शतैः = सत्ताईस सौ। श्लोक का अर्थ हुआ – जब कलि सम्वत के पचीस वर्ष व्यतीत होने पर सप्तर्षि ‘त्रिदिवं प्रयाता’ अर्थात (मघा नक्षत्र से) पूर्वाफाल्गुनी को प्रस्थान किये, उसके सताईस सौ वर्ष पश्चात आन्ध्र-शासक (महामेघवाहन वंश) सत्ता में आये। यह श्लोक सीधे-सीधे मात्र आन्ध्र-शासकों की सत्ता-प्राप्ति की तिथि कलि सम्वत २७२५ में घोषित करता है, न कि सप्तर्षि सम्वत का प्रारम्भ बताता है। किन्तु विद्वज्जन इस श्लोक का अर्थ यह करते हैं कि कलि सम्वत २५ से सप्तर्षि सम्वत का प्रारम्भ हुआ। इसे भारती का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।
श्रीलंका से प्राप्त महावंश के अनुसार अशोक का राज्याभिषेक “साष्टा रसंशतद्वयमेव (स अष्टा रसंशतद्वयम् = आठ सहित, रस (६) द्वय (२) शत)” अर्थात सम्वत ६२०८ में हुआ।
अब चूँकि आज का प्राय: सर्वमान्य सम्वत ग्रेगरी (जूलियन का संशोधित) CE, common era (साधारण सम्वत, सा.सं.) है तथा बिना उसके परिप्रेक्ष्य में किसी भी तिथि या वर्ष का उल्लेख अरण्यरोदन के अतिरिक्त कुछ नहीं अतः विवश हमें उसकी शरण लेनी ही होगी! अशोक का राज्याभिषेक २७० वर्ष BCE before common era ( साधारण सम्वत पूर्व) मान्य है अतः अशोक के राज्याभिषेक सम्वत को आधार रूप ग्रहण करें तो
सप्तर्षि सम्वत ६२०८ = (-) २७० साधारण सम्वत (ऋण चिह्न BCE हेतु)
अतः सप्तर्षि सम्वत ६२०८ + २७० या ६४७८ = शून्य सा.सं. CE
अतः सप्तर्षि सम्वत ६४७८ को शून्य साधारण सम्वत माने जाने में कोई भ्रम नहीं है। इस प्रकार आज साधारण सम्वत के २०१९ वें वर्ष के अंत में सप्तर्षि सम्वत ६४७८ + २०१९ = ८४९७ मान्य होना चाहिये।
ये गणनायें मात्र प्रसङ्गवश हैं तथा इस आलेख का विषय ऐतिहासिक घटनाओं का काल-निर्धारण नहीं है। मेरा निवेदन मात्र इतना है कि भारत ही नहीं, विश्व का सर्वप्रथम सम्वत सप्तर्षि-सम्वत था जो ध्रुव तथा सप्तर्षियों के योगदान तथा महत्व का कीर्तिलेख है।
इकाई समान होते हुए भी बड़ी राशियों के माप हेतु बड़ी मापनी तथा छोटी राशियों के माप हेतु छोटी मापनी की आवश्यकता होती है। सप्तर्षि-सम्वत का एकमात्र दोष यह था कि उसका विस्तृत परास चक्रीय था अर्थात प्रत्येक २७०० वर्ष पश्चात शून्य से आरम्भ एवं छोटी अवधि हेतु संगत तथा उपयोगी नहीं था। मानवता के क्रमिक विकास से घटनाओं की हलचल बढ़ गई थी। एक छोटे परास का सम्वत आवश्यक था और कलि सम्वत ने उस आवश्यकता की पूर्ति की। होना तो यह चाहिये था कि यथा-अवसर तथा यथा-आवश्यकता दोनों सम्वत उपयोग में लाये जाते किन्तु जैसा अलंकारिक कथन व्यक्त करते हैं, नन्द वंश के समय से कलि सम्वत का ही प्रयोग अधिक होने लगा और सप्तर्षि-सम्वत प्रयोग-बाह्य हो गया।
मानव के समक्ष काल का रहस्य ही सर्वाधिक दुरूह तथा दुर्बोध है। पृथ्वी की दैनिक तथा वार्षिक गति, उसका अक्ष-परिभ्रमण, पृथ्वी के उपग्रह चंद्रमा की गति, हमारे सौरमण्डल के अन्यान्य ग्रहों की गतियाँ, काल्पनिक बिन्दुओं राहु तथा केतु की गति, अयन का चलन, सम्पातों की गति, गति, गति तथा मात्र गति। साथ ही, कोई भी दो गतियाँ समान नहीं। सबकी अपनी गति, सबके अपने केंद्र, सबके अपने आवर्त तथा सबके भिन्न आवर्तन, समवेत रूप में यह सब एक साथ महाकाल का ताण्डव तथा भुवनमोहिनी का लास्य बन कर उपस्थित है।
गणित का भी अपना एक लालित्य होता है तथा लालित्य का भी अपना एक गणित होता है। लालित्य के गणित में होने वाली त्रुटि रसभंग का कारण बनती है तथा गणित के लालित्य का ह्रास सिद्धांतों में छिद्र उत्पन्न करता है। और काल के गणित को कितना भी समरूप तथा समानुपाती करने का प्रयास किया जाय, इतने भिन्न सञ्ज्ञाओं की इतनी भिन्न प्रकार की गतियाँ एक समय के पश्चात अपना सामञ्जस्य खो ही देती हैं। तब गणित के लालित्य की पुनर्स्थापना हेतु सिद्धांतों के संशोधन या परिवर्तन की आवश्यकता पड़ती है। इसी क्रम में ऋक ज्योतिष से लेकर यजु तथा अथर्व तक, सूर्य तथा चन्द्र प्रज्ञप्ति से ले कर ज्योतिषकरण्डक, पितामह सिद्धांत, वसिष्ठ सिद्धांत, रोमक तथा पौलिश सिद्धांत, पराशर तथा आर्यभट से ले कर वराहमिहिर तक की स्थापनायें, समय-समय पर सिद्धांतों के बीज-संस्कार तथा पुरातन को त्याग कर नवीन मान्यताओं की स्वीकृति आदि के क्रम चलते रहे। कलि सम्वत के पश्चात भी अन्य नवीन सम्वत प्रचलन में आये जिनमें बार्हस्पत्य सम्वत, विक्रम सम्वत तथा शक सम्वत मुख्य हैं।
बार्हस्पत्य सम्वत का आधार बृहस्पति ग्रह द्वारा सूर्य की परिक्रमा है। बृहस्पति सूर्य की परिक्रमा ११.८६१७७६ वर्ष में करता है तथा मध्यम गति से एक राशि में ३६१ दिन १ घंटा १० मिनट ४१.९६ सेकेण्ड रहता है। स्थूल रूप से इसे ३६१ दिन मान लिया जाता है। बृहस्पति की यही एक राशि में रहने की अवधि एक बृहस्पति वर्ष या बार्ह्पत्स्य सम्वत कहलाती है। बृहस्पति के सूर्य की परिक्रमा की पाँच आवृतियों की अवधि अर्थात साठ बार्हस्पत्य वर्ष को एक बार्हस्पत्य युग कहते है जिनके प्रभव, विभव, शुक्ल, प्रमोद आदि नाम हैं। इस युग चक्र का प्रारम्भ कुम्भ राशि में बृहस्पति के प्रवेश से माना जाता है।
चूंकि एक सौर वर्ष का मान लगभग ३६५.२५ दिन होता है, तथा एक बार्हस्पत्य वर्ष या संवत्सर ३६१ दिन का, अतः स्पष्ट है कि बार्हस्पत्य वर्ष सौर वर्ष से ४.२५ दिवस छोटा है। संवत्सर का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मान्य है अतः प्रभव आदि संवत्सर भी उसी दिन से प्रारम्भ माने जाते हैं जो अशुद्ध परिपाटी है। अस्तु।
भारतीय पञ्चाङ्गपद्धति ग्रहों, नक्षत्रों, तारों, राशियों तथा अन्य आवश्यक गणितीय बिन्दुओं की उन सापेक्ष गतियों की आंकिक लेखा है जिसकी आधार-भूमि पर हमारे व्रत, पर्व, शुभाशुभ मुहूर्त तथा फलित ज्योतिष का समस्त वितान टिका है। समस्त विश्व में भारतीय पञ्चाङ्ग पद्धति सर्वाधिक परिशुद्ध वैज्ञानिक पद्धति है किन्तु अपनी सर्वश्रेष्ठ पद्धति के होते हुये भी आज भारतीय पञ्चाङ्ग अशुद्धियों का आखेट हो चुका है क्योंकि जिन सिद्धांतों तथा सूत्रों के आधार पर इनका निर्माण हो रहा है वे न्यूनतम पाँच सौ वर्ष पुरानी हैं। इस अवधि में समय के साथ ख-मण्डल के गतिमान बिन्दुओं का वह समायोजन जो आज से पाँच सौ पूर्व स्थापित किया गया था, अब भंग हो चुका है। जिन सूत्रों के आधार पर गणित द्वारा चल-पिण्डों एवं बिन्दुओं की गतियों एवं स्थितियों की गणना की जा रही है उनसे प्राप्त परिणाम वास्तविकता से भिन्न प्राप्त हो रहे हैं। गणित का लालित्य खो चुका है और उस लालित्य की पुनर्स्थापना हेतु दृश्य गणित के आधार पर उन प्राचीन सिद्धांतों का पुनर्मूल्याङ्कन, उनका संशोधन, उनमें कुछ बीज-संस्कार या उनका परिवर्तन-परिवर्धन आवश्यक हो गया है।
हमारे पञ्चांगों की मूल समस्या वह बिन्दु है जिसे गणना हेतु चल-पिण्डों एवं बिन्दुओं का प्रारम्भ-बिन्दु माना जाता है। इस बिन्दु हेतु बसन्त-सम्पात बिन्दु निश्चित ही प्रथम तथा सार्थक चुनाव है, किन्तु वह स्वयं गतिमान है तथा गतिमान बिन्दु को प्रारम्भ बिन्दु मानना सैद्धांतिक रूप से अनुचित है, तब भी पाश्चात्य खगोलविद उसे सायन-पद्धति के नाम से स्वीकार कर रहे हैं। भारतीय पद्धति भचक्र में स्थित नक्षत्रों तथा राशियों के एक विशिष्ट संधि-स्थल, अश्विनी नक्षत्र तथा मेष राशि के आदि बिन्दु, को इस चलायमान बसंत-सम्पात बिंदु के सापेक्ष कलित कर उस संधि-स्थल को गणना हेतु आधार माना जाता है। यह पद्धति निरयण-पद्धति कही जाती है जो अधिक वैज्ञानिक है किन्तु इस पद्धति की शुद्धता सम्पात-बिन्दु के चालन-गति तथा अश्विनी नक्षत्र के आदि बिन्दु से उसके अंतर की परिशुद्धता पर निर्भर करती है जिसे अयनांश कहते हैं। प्राचीन सिद्धांतों तथा पद्धतियों द्वारा गणना से प्राप्त इस अयनांश का मान वर्तमान प्रेक्षित मान से भिन्न आता है और परिणामस्वरुप गणनाओं के परिणाम प्रत्यक्ष परिणाम से भिन्न प्राप्त होते हैं। साथ ही अयनांश की गणना पद्धतियाँ तथा सिद्धांत भी अनेक हैं तथा प्रत्येक द्वारा प्राप्त अयनांश का मान भिन्न है।
हमारे पञ्चांगों की दूसरी समस्या वर्षमान है। पञ्चांगों का स्वीकृत वर्षमान ३६५ दिन ६ घंटे १२ मिनट ३६ सेकेण्ड है। यह मान न तो नाक्षत्र वर्षमान के तुल्य है और न ही सायन वर्षमान के। औसत नाक्षत्र वर्ष का मान ३६५ दिन ६ घंटा ९ मिनट तथा ९.६ सेकेण्ड (लगभग) और औसत सायन वर्ष का मान ३६५.२४२२ दिन अर्थात ३६५ दिन ५ घंटे ४८ मिनट ४५ सेकेण्ड (लगभग) का होता है। मान्य वर्षमान का यह अंतर दीर्घ अवधि में अनेक असोढव्य त्रुटियों का कारण है जिसके कारण भी गणना द्वारा प्राप्त परिणाम प्रत्यक्ष अवलोकन से प्राप्त परिणामों से भिन्न प्राप्त होते हैं।
समस्यायें और भी हैं तथा इन सबका समाधान एक है – ‘पञ्चाङ्ग-संशोधन’! चाहे इसके लिये सूर्य-सिद्धान्त के सूत्रों में बीज-संस्कार करना पड़े या ग्रहलाघवीय के अयनांश को स्वीकृति देनी हो या कोई नवीन पद्धति विकसित करनी पड़े या नवीन वर्षमान चुनना हो या जो भी आवश्यक हो वह अपना कर पञ्चाङ्ग-संशोधन करना एकमात्र हल है।
काल का अपना चक्रव्यूह है। द्वारों के पीछे द्वार हैं, द्वारों के मध्य द्वार हैं, और प्रत्येक द्वार तोड़ने के अपने विधान हैं। प्रथम, तो कोई अनधिकारी उस व्यूह में प्रविष्ट ही नहीं हो सकता, और यदि किसी सञ्चित पुण्य तथा अर्जित पराक्रम के बल पर कोई प्रविष्ट हो ही गया तो फिर उसे कोई विराम नहीं। न तो चिन्तना को स्थगित कर सकता है, न उदग्र भुजाओं को विश्राम दे सकता है क्योंकि काल-चक्रव्यूह का प्रत्येक योद्धा महारथी है। एक चूक प्रयासों को अभिमन्यु बना कर रख देगी।
विष्णु शब्द की उत्पत्ति विष् धातु से है जिसका तात्पर्य है व्याप्ति। विष की भांति सर्व-व्यापक होना जिसकी प्रवृत्ति तथा प्रकृति है वह विष्णु है। विष्णु सूर्य ही है – सर्व-व्यापक तथा समय के रहस्यों का केंद्र! निश्चित ही उत्तानपाद पुत्र ध्रुव ने कठिन श्रम से समय के मापन की सर्वमान्य विधि विकसित की होगी जिसे उनका तप कहा गया तथा उन्हें इस कार्य हेतु सप्तर्षियों की प्रेरणा तथा सहयोग दोनों प्राप्त रहे होंगे। ध्रुव के तप तथा सप्तर्षियों द्वारा उन्हें विष्णु के परम-पद प्राप्ति का उपदेश निश्चित ही एक कथा-रूपक है। इस कार्य का इसके अतिरिक्त अन्य क्या प्रतिदान हो सकता था कि जिन तारों तथा तारामण्डल का सहयोग ले कर सप्तर्षि-सम्वत की अवधारणा का जन्म हुआ उनका नाम ध्रुव तथा सप्तर्षियों के नाम पर ही रख दिया जाय? कृतज्ञ भारतीय मनीषा ने यही किया और ध्रुव तथा सप्तर्षियों का नाम सुदूर अंतरिक्ष में टाँक दिया। ध्रुव नाम नहीं, पद हुआ – परम पद! कोई तारा इस पद को प्राप्त करे, ध्रुव ही कहा जायेगा, सप्तर्षि उस ध्रुव को (की) दिशा दिखायेंगे।
मनुष्य स्वभावतः स्वप्नदर्शी है। किन्तु कुछ स्वप्न इतने वृहदाकार होते हैं कि वे विस्फारित लोचनों में नहीं समा पाते। ऐसे में प्रगाढ़ कल्पनाओं वाला कोई स्वप्नदर्शी मुदित-चक्षु हो, अपने लिये अंतर्मन के अवकाशों में एक पृथक आकाश ढूँढ़ता है जिस पर वह अपने स्वप्नों की प्रतिकृति उकेर सके। उस प्रतिकृति में उसे अपना एक ध्रुव तारा अंकित करना होता है, अपने सप्तर्षि स्थापित करने होते हैं। ‘पञ्चाङ्ग-संशोधन तथा एक नवीन सम्वत की आवश्यकता’ ऐसे ही किसी स्वप्नदर्शी का एक वृहदाकार स्वप्न है। इस स्वप्न में अनेक प्रश्न अन्तर्निहित हैं तथा उन प्रश्नों के सम्भावित उत्तरों के साथ अनेकानेक विसंगतियाँ संश्लिष्ट हैं। उन विसंगतियों का निराकरण करते हुये प्राचीन मान्यताओं तथा सिद्धांतों के साथ नवीनतम शोधों का सामंजस्य स्थापित करके उन प्रश्नों के निर्भ्रान्त उत्तर पाने हेतु किसी नव-ध्रुव का अटल तप चाहिए तथा साथ ही चाहिये नव-सप्तर्षियों की मेधा से संपन्न उनका सहयोग एवं प्रेरणा।
किन्तु उन समस्त प्रश्नों में सर्वाधिक जटिल प्रश्न तो यही है कि वह ध्रुव कौन है? वे सप्तर्षि कहाँ हैं? कस्ध्रुवं? कुतः सप्तर्षयः?
पूरा msc का एस्ट्रोफिजिक्स आंखों के सम्मुख घूम गया गुरुवर! अपने शास्त्रों में भरे नक्षत्र विज्ञान को देख मस्तिष्क विचित्र सा झंकृत है!
पांवलागी गुरुवर!
आप हर बार ऐसा कुछ लिखते है कि आभार के शब्द ही नहीं होते है।
आप ने मुझे हर बार इतिहास के नये पन्नो से अवगत कराया है।
प्रणाम दादा
अद्भुत शोध
गहन और शोधपरक , साधु!
अद्भुत। गहन विषय पर टिप्पणी में असमर्थ हूँ।🙏
बहुत सुंदर ।