History of Indian Science (मूल आङ्ग्ल लेख), आचार्य सुभाष काक, ३१ जुलाई, २००२ (अनुवाद: डॉ भूमिका ठाकोर)
इस इतिहास की कालानुक्रमिक समय रेखा पुरातात्विक अभिलेखों से प्राप्त होती है जिसका अनुरेखण प्राय: ९००० वर्तमान-पूर्व की एक अविभक्त परम्परा द्वारा प्रस्तुत किया जा चुका है। हमारे पास इससे पूर्व के लगभग ४२,००० व.पू. पुराने साक्ष्य अश्म-चित्रकारी के रूप में उपलब्ध हैं। आरम्भिक लिखित स्रोत ऋग्वेद है जो अत्यन्त प्राचीन सामग्री का संकलन है। ऋग्वेद में तथा अन्य वैदिक पुस्तकों में खगोलीय सन्दर्भ उपलब्ध हैं, जो वर्तमान से पाँचवी एवं छठी सहस्राब्दियों एवं उनसे भी पूर्व की घटनाओं का प्रत्याह्वान करते हैं। आधुनिक शोध कि ऋग्वेद काल की प्रमुख नदी सरस्वती १९०० ईसा पूर्व भूतल की विवर्तनिक उथल-पुथल के कारण सूख गयी थी, इंगित करती है कि ऋग्वेद का कालक्रम इससे पूर्व का था। परम्परागत इतिहास के अनुसार ऋग्वेद आज से ५१०० वर्ष से भी पहले से उपलब्ध था।
भारतीय लेखन का प्रारम्भ आज से पाँचवी सहस्राब्दी पूर्व से हुआ माना जाता है। कालान्तर की ऐतिहासिक लिपि ब्राह्मी इसी लेखन से विकसित हुयी। शून्य के संकेताक्षर का आविष्कार आज से २०५० से १९५० वर्ष पूर्व की परास में माना जाता है।
वैदिक विज्ञान
संक्षेप में, वैदिक ग्रन्थ त्रिधापरक एवं प्रत्यावर्ती (recursive) वैश्विक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। इन ग्रन्थों में ब्रह्माण्ड की अवधारणा पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं द्यु के रूप में प्रस्तुत की गई है जो मनुष्य के भौतिक शरीर, प्राण (श्वास) तथा मन में प्रतिबिम्बित होते हैं।
वैदिक वैश्विक दृष्टिकोण के अनुसार आकाश, पृथ्वी एवं मन की प्रक्रियायें परस्पर सम्पृक्त मानी जाती हैं। वैदिक ऋषियों को ज्ञात था कि ब्रह्माण्ड की समस्त व्याख्याएं हमें एक तार्किक विरोधाभास की ओर अग्रेषित करती हैं। समस्त विरोधाभासों से परे जाने वाली श्रेणी को ‘ब्रह्म’ कहा गया। इस दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्वपूर्ण चेतना की प्रकृति को समझना था, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं था कि विज्ञान की अन्य शाखाओं की उपेक्षा की जाय। वैदिक कर्मकाण्ड इसी वैश्विक दृष्टिकोण का प्रतीकात्मक पुनर्कथन था।
ज्ञान को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया था — निम्न अथवा द्वैत और उच्च अथवा एकीकृत अद्वैत। प्रकट रूप से परस्पर विरोधी माने जाने वाले भौतिक संसार तथा आध्यात्मिक संसार एक ही अतीन्द्रिय वास्तविकता के दो पक्ष हैं।
साथ ही अन्योन्याश्रय का मत भारतीय दार्शनिक परम्पराओं के मूल में था, जिससे कि सम्पूरक उपागमों को परस्पर जोड़ा जा सके। यथा – न्याय (तर्क) एवं वैशेषिक (भौतिक) दर्शन, साँख्य (ब्रह्माण्ड विज्ञान) एवं योग (मनोविज्ञान) दर्शन, तथा मीमांसा (भाषा) एवं वेदान्त (यथार्थवाद)। यद्यपि इन दार्शनिक शाखाओं को उत्तरवैदिक काल में स्वरूप प्रदान किया गया किन्तु इन विचारधाराओं की आधार वैदिक रचनाएँ हैं।
साँख्य एवं योग दर्शन पाँच घटकों मन, अहंकार, चित्त, बुद्धि एवं आत्मा की समष्टि को अंत:करण मानते हैं। मन निम्न बुद्धि है, जो इन्द्रिय अनुभवों का संग्रह करता है। अहंकार ‘मैं’ का बोध है जो कुछ अवधारणाओं को आत्मनिष्ठ एवं व्यक्तिगत अनुभवों से सम्बद्ध करता है। हमारे इन्द्रिय अनुभव अहंकार के माध्यम से ‘मैं’ की भावना से सम्बंधित होते हैं। इन्द्रिय अनुभवों का विकास एवं परिणामी निर्णय बुद्धि के माध्यम से अस्तित्व में आते हैं। चित्त मन की स्मरण निधि है। यह स्मरण निधि उस आधार का निर्माण करती है जिस पर शेष मन कार्य करता है किन्तु चित्त मात्र निष्क्रिय यन्त्र नहीं है। नए अनुभवों का व्यवस्थापन सहज वृत्तियों एवं मौलिक एषणाओं (urges) को आकृष्ट करता है जो विभिन्न भावनात्मक अवस्थाओं को जन्म देती हैं। चित्त चेतना के अन्तरतम को आच्छादित करता है, जिसे आत्मा, स्व या ब्रह्म कहा गया है।
भौतिक विज्ञान एवं रसायन विज्ञान
वैशेषिक दर्शन में द्रव्य की नौ श्रेणियाँ मानी गई हैं जिनमे से कुछ परमाणविक हैं, कुछ अपरमाणविक हैं तथा अन्य सर्वव्यापी हैं। द्रव्य को अपरमाणविकता तीन अवयवों – आकाश, अन्तरिक्ष तथा काल द्वारा प्रदान की जाती है, जो कि ऐकिक तथा अविनाशी हैं। अन्य चार श्रेणियाँ पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु अविभाज्य एवं अविनाशी परमाणुओं द्वारा निर्मित हैं। आठवीं श्रेणी आत्मा है जो सर्वव्यापक तथा शाश्वत है। अंतत: नवीं श्रेणी मन है, जो शाश्वत है किन्तु अत्यन्त सूक्ष्म परमाणविक आयामों से युक्त है।
परमाणु परस्पर संयुक्त हो कर विभिन्न प्रकार के अणुओं का निर्माण करते हैं, जो ऊष्मा के प्रभाव में विखण्डित हो जाते हैं। तन्मात्राओं के प्रभाव से अणुओं में विभिन्न गुणधर्म उत्पन्न होते हैं।
ऊष्मा तथा प्रकाश तीव्र गति वाले अत्यन्त सूक्ष्म कणों से युक्त माने गए हैं। कण होने के कारण इनका वेग परिमित है।
गुरुत्वाकर्षण बल का प्रतिपादन एक वायु मान कर किया गया था। इसी प्रकार अन्य बलों को भी एक ही प्रकार के अथवा विभिन्न परमाणुओं के संयोजन से निर्मित माना गया।
औषधि निर्माण की आवश्यकताओं से प्रेरित होकर रसायन शास्त्रियों ने निस्तापन एवं आसवन द्वारा विभिन्न क्षारों, अम्लों तथा धात्विक लवणों का निर्माण किया था।
धातुकर्म विज्ञानियों ने अयस्कों से धातु निष्कासित करने की प्रभावी तकनीक विकसित की थी।
ज्यामिति एवं गणित
भारतीय ज्यामिति का प्रारम्भ वैदिक काल के पूर्व में वेदियों से सम्बन्धित समस्याओं को हल करने हेतु हुआ था।
जैसे – एक समस्या में वृत्ताकार वेदी (पृथ्वी) को वर्गाकार वेदों(स्वर्ग) के क्षेत्रफल के बराबर बनाया जाना था। बौधायन एवं अन्य गणितज्ञों द्वारा लिखित पुस्तकों में पायथागोरस प्रमेय के दो पक्षों का वर्णन किया गया है।
ज्यामितीय समस्याएं प्राय: उनके समतुल्य बीजगणितीय प्रतिरूपों के साथ प्रस्तुत की जाती हैं। ग्रहों से सम्बन्धित गणनाओं की समस्याओं के समाधान ने भी बीजगणितीय संक्रियाओं के विकास का मार्ग प्रशस्त किया।
द्वि-आधारी संख्याएँ
द्वि-आधारी संख्याएँ पिङ्गल के छन्दशास्त्र के समय से ज्ञात हैं। पिङ्गल का जन्म लगभग २५०० वर्ष पूर्व हुआ था। इन्होने द्वि-आधारी संख्याओं के माध्यम से वैदिक छन्दों का वर्गीकरण किया था।
द्वि-आधारी संख्याओं का ज्ञान गणित की गहन समझ होने का संकेत करता है।
खगोल शास्त्र
अब तक उपेक्षित रहे साहित्य का उपयोग करते हुए आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व के खगोल विज्ञान पर निकट समय में शोध किया गया है। याज्ञवल्क्य (३८०० वर्ष पूर्व ?) को सूर्य एवं चन्द्रमा की गतियों में सामञ्जस्य स्थापित करने वाले ९५ वर्षीय काल-चक्र का ज्ञान था। उन्हें यह भी ज्ञात था कि सूर्य का परिपथ असममित है।
वैदिक कर्मकाण्डों में खगोलीय संख्याओं ने केन्द्रीय भूमिका निभाई। वैदिक कर्मकाण्डों का एक खण्ड सौर एवं चान्द्र वर्षों की अवधि से सम्बन्धित ज्यामितीय योजनाओं के निर्धारण हेतु समर्पित था। वैदिक संहिताओं का संयोजन भी एक खगोलीय कूट के अनुसार किया गया था। उदाहरणार्थ सभी वेदों में मन्त्रों की संख्या २०, ३५८ है, जो कि वैदिक कर्मकाण्ड की अंतरिक्ष एवं द्यु संख्याओं २६१ एवं ७८ का गुणनफल है।
वर्तमान से चौथी सहस्राब्दी पूर्व में लगध द्वारा रचित वेदांग ज्योतिष ग्रन्थ में पूर्व के पञ्चाङ्ग खगोल विज्ञान से आगे जा कर सूर्य एवं चन्द्रमा की माध्य गतियों के एक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया। इस ग्रन्थ में लगध ने खगोलीय पिण्डों की गति की गणना हेतु गणित का अनुप्रयोग आरम्भ किया। ग्रहीय गतियों को स्पष्ट करने हेतु एक अधिचक्रीय सिद्धान्त का प्रयोग किया गया था। कालान्तर के सिद्धान्त ग्रहों की गतियों को सूर्य के सापेक्ष विचारित करते हैं, जो पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ माना गया है।
ब्रह्माण्ड विज्ञान
साङ्ख्य भौतिकी एवं तत्व मीमांसा में सत्व, रजस एवं तमस नामक त्रिघटकों का सिद्धान्त बहुत महत्वपूर्ण है। अविकसित अवस्था में भी सभी प्रकार के भौतिक पदार्थों में ये घटक सन्तुलन की अवस्था में रहते हैं। जैसे-जैसे भौतिक जगत का विकास होता जाता है इनमें से एक या अधिक घटक विभिन्न पदार्थों एवं प्राणियों में प्रभावी हो जाते हैं और प्रत्येक को एक विशिष्ट गुण प्रदान करते हैं।
प्रत्यावर्ती वैदिक विश्व-दर्शन के अनुसार सृष्टि स्वयं निर्माण एवं विध्वंस की आवृत्तियों की समष्टि है। यह दृष्टिकोण खगोल तंत्र का एक घटक बन गया। अन्ततोगत्वा अनेक अरब वर्षों के समय-चक्रों की कल्पना की गई। विकासक्रम की भारतीय अवधारणा के अनुसार जैव रूपों का विकास अत्यन्त जटिल प्रणाली के रूप में इस चक्र का अन्त होने तक होता रहता है। सांख्य दर्शन की श्रेणियाँ व्यक्तिगत स्तर पर भी सञ्चालित होती रहती हैं। जीवन सम्पूर्ण निर्माण चक्र का दर्पण है तथा बुद्धि जीवन चक्र को प्रतिबिम्बित करती है।
ब्रह्माण्ड से सम्बन्धित अनुमान एक ऐसे विश्व की अवधारणा की ओर ले गये जो निर्माण एवं विध्वंस के ८.६४ करोड़ वर्षीय आवर्ती चक्रों में विद्यमान है।
व्याकरण
पाणिनिकृत व्याकरण (~२५०० वर्ष पूर्व) में ४००० नियम हैं, जो उस समय की संस्कृत भाषा को पूर्णतया स्पष्ट करते हैं। उनका व्याकरण को सार्वकालिक महानतम बौद्धिक उपलब्धियों में से एक माना जाता है। भाषा की विविधताएँ अनेक प्रकार से प्रकृति की जटिलता को प्रतिबिम्बित करती हैं। इसलिए किसी भाषा के निरूपण में सफलता प्राप्त करना भौतिक विज्ञान के किसी पूर्ण सिद्धान्त की लब्धि के समान भव्य है। उल्लेखनीय है कि पाणिनि ने सम्पूर्ण व्याकरण को एक निश्चित संख्या के सूत्रों के रूप में निर्दिष्ट किया था। विद्वानों ने दर्शाया है कि पाणिनि रचित व्याकरण एक व्यापक व्याकरणिक एवं संगणन प्रणाली प्रस्तुत करता है। इस दृष्टिकोण से उनका व्याकरण आधुनिक संगणकों (computer) के तार्किक योजनातन्त्र की पूर्ववृत्ति है।
चिकित्सा शास्त्र
भारतीय चिकित्सा प्रणाली में आयुर्वेद स्वास्थ्य के प्रति एक समग्र दृष्टिकोण के रूप में विकसित हुआ है। वैदिक त्रिगुण सिद्धान्त इसकी उत्पत्ति के मूल में है। स्वास्थ्य का अनुरक्षण त्रिदोषों अर्थात वात(वायु), पित्त(अग्नि) एवं कफ(जल) में सन्तुलन बनाकर किया जाता है। चरक एवं सुश्रुत दो प्रमुख प्राचीन भारतीय चिकित्सा शास्त्री हैं। भारतीय शल्य चिकित्सा अत्यन्त उन्नत थी।
शल्य चिकित्सा द्वारा प्रसव (caesarian section) भी ज्ञात था। अस्थियों को जोड़ने में उच्च कोटि की विशेषज्ञता थी तथा प्लास्टिक सर्जरी का भी ज्ञान था।
मध्यकाल
खगोलविद्या से सम्बन्धित ग्रन्थ जिन्हें ‘सिद्धान्त’ कहा जाता था, आज से तीसरी सहस्राब्दी पूर्व में अस्तित्व में आये। एक मत के अनुसार उस काल में १८ प्रारम्भिक ‘सिद्धान्त’ थे जिनमें से कुछ ही अस्तित्व में हैं। भारत के दीर्घ मध्यकाल में उदित हुए कुछ प्रसिद्ध खगोलशास्त्री-गणितज्ञ निम्न हैं :
आर्यभट
आर्यभट (जन्म ~ ५३३ विक्रमी) ने अपने ग्रन्थ ‘आर्यभटीयम्’ में गणितीय, ग्रहों से सम्बन्धित तथा ब्रह्माण्डीय सिद्धान्तों की रुपरेखा प्रस्तुत की थी। आर्यभट द्वारा प्रयुक्त परिमितों का प्रारम्भ बिंदु १८ फरवरी ३१०२ ईसा पूर्व, शुक्रवार है।
आर्यभट के अनुसार पृथ्वी अपने अक्ष पर परिभ्रमण करती है, यह विचार उन्हीं का नवोन्मेष प्रतीत होता है। आर्यभट को गति की सापेक्षता का ज्ञान था, यह उनकी पुस्तक के निम्नलिखित अंश से स्पष्ट होता है :
जिस प्रकार नाव में सवार व्यक्ति को किनारे के वृक्ष विपरीत दिशा जाते दिखाई देते हैं, उसी प्रकार भूमध्य रेखा पर स्थित प्रेक्षक को स्थिर तारे पश्चिम की ओर गति करते हुए प्रतीत होते हैं।
ब्रह्मगुप्त
ब्रह्मगुप्त का जन्म ६५५ विक्रमी में राजस्थान में हुआ था। ब्रह्मगुप्त ने अपनी सर्वोत्कृष्ट रचना ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त’ ६८५ विक्रमी में लिखी थी।
आर्यभट की प्रतिद्वंद्वी ब्रह्मगुप्त विद्या परम्परा का पश्चिमी एवं उत्तर भारत में बहुत प्रभाव था। विक्रम की नवीं शताब्दी की प्रथम चतुर्थी में बग़दाद में ब्रह्मगुप्त की रचनाओं का अरबी भाषा में अनुवाद किया गया तथा यह अनुवाद सिन्दहिन्द नाम से अरब देशों में प्रसिद्ध हुआ। इसने इस्लामिक खगोल विज्ञान को प्रभावित किया।
ब्रह्मगुप्त का प्रमुख योगदान द्वितीय कोटि के अवकलन समीकरणों का समाधान था, जो संख्या सिद्धान्त में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
भास्कर
भास्कर (जन्म ११७१ विक्रमी) कर्णाटक क्षेत्र से सम्बन्ध रखते थे तथा एक विलक्षण गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थे। उनके गणितीय सिद्धान्तों में अवकलन का सिद्धान्त प्रमुख है। इन्होंने चार भागों में ‘सिद्धान्त शिरोमणि’ पुस्तक लिखी – (१) अंकगणित पर ‘लीलावती’, (२) बीजगणित पर ‘बीजगणित’, (३) ‘गणित अध्याय’, (४) खगोलिकी पर ‘गोल अध्याय’। उनके ग्रहों की गति से सम्बन्धित अधिचक्र प्रतिवृत्तीय सिद्धान्त पूर्ववर्ती सिद्धान्तों से उच्च श्रेणी के थे।
माधव
भास्कर के उत्तरवर्ती काल में केरल में गणित एवं खगोल विज्ञान की एक समृद्ध परम्परा दृष्टिगोचर होती है जो आर्यभट द्वारा प्रतिपादित शाखा के उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित हुयी।
इनमें से माधव (१३९७-१४८२ वि.) ने प्रत्येक ३६ मिनट में चन्द्रमा की स्थिति निर्धारित करने की प्रक्रिया विकसित की। उन्होंने ग्रहों की गति का आकलन करने की पद्धति भी उपलब्ध कराई। त्रिकोणमितीय फलनों हेतु अनन्त श्रेणी का विस्तार देने का श्रेय माधव को दिया जाता है। माधव ने पाई (π, किसी भी वृत्त की परिधि एवं व्यास के अनुपात का स्थिराङ्क) का दशमलव के ग्यारह स्थानों तक परिशुद्ध मान ज्ञात किया था।
नीलकण्ठ सोमयाजि
नीलकण्ठ (१५०१-१६०२ वि.) एक प्रसिद्ध विद्वान थे जिन्होंने खगोल विज्ञान पर अनेक पुस्तकें लिखीं। इन्होंने ग्रहों के केंद्र के सटीक सूत्रों की खोज की। इनका यह प्रतिरूप सौरमण्डल का प्रामाणिक सूर्य-केन्द्रित प्रतिरूप माना जाना चाहिये। इन्होंने माधव द्वारा प्रतिपादित घात शृंखलाओं के परिणामों को संशोधित किया था।
केरल के गणितज्ञों द्वारा प्रतिपादित पद्धतियाँ आज के यूरोपीय गणितज्ञों से अधिक उन्नत हैं।
अन्य उल्लेखनीय योगदानों में एक बङ्गाल एवं बिहार के नव्य न्याय सम्प्रदाय का है। यह सम्प्रदाय रघुनाथ (१५३२-१६०७ वि.) के समय शिखर पर था तथा इस सम्प्रदाय ने भाषा के वाक्यार्थ विश्लेषण की सटीक विधि का विकास किया। इनका निरूपण गणितीय तर्कशास्त्र के समतुल्य है।
आधुनिक काल
पिछली दो शताब्दियों में अंग्रेज़ों के आगमन के साथ आधुनिक काल में प्रवेश करते हुए भारत विज्ञान के पुनर्जागरण एवं भूतकाल की उपलब्धियों की उचित सराहना का साक्षी रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी के महत्वपूर्ण वैज्ञानिक जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है, वे हैं – विद्युत् चुम्बकत्व एवं वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में जगदीश बोस (१९१५-१९९४ वि.), गणित में श्रीनिवास रामानुजन (१९४४-१९७७ वि.), भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में चन्द्रशेखर वेंकट रमण (१९४५-२०२७ वि.), खगोल विज्ञान के क्षेत्र में मेघनाद साहा (१९५०-२०२१ वि.)।
भारतीय विज्ञान के इनसे प्रत्यग्र योगदान समकालीन वैश्विक विज्ञान की गाथा के अङ्ग हैं।
आपके प्रयासों की जितनी सराहना की जाए उतनी काम है। भारत के हर नवयुवक को अपने भारतीय विज्ञान के बारे में औपचारिक शिक्षा देनी शुरू करनी चाहिए।
अति उत्तम, मुझमे यह सब पढकर अपने गौरवशाली अतीत के लिये धन्यता का भाव जागृत हुआ है..
अति उत्तम प्रयास