21 जून 2020 को वलयाकार सूर्यग्रहण है। यह सूर्यग्रहण किन किन देशों में दिखाई देगा इस एनीमेशन से देखते हैं
भारत के कुछ प्रमुख नगरों में ग्रहण का समय निम्न प्रकार है:
शहर | स्पर्श | मध्य | मोक्ष |
दिल्ली | 10:20 | 12:01 | 13:48 |
मुंबई | 10:01 | 11:38 | 13:28 |
चेन्नई | 10:22 | 11:59 | 13:41 |
कोलकाता | 10:46 | 12:35 | 14:17 |
सबसे पहले भौगौलिक घटना सूर्यग्रहण को सरल भाषा में समझ लेते हैं।
हम पृथ्वी पर रहते हैं और पृथ्वी, सूर्य की एक परिक्रमा लगभग 365 दिन (365 दिन, 05 घंटे, 48 मिनट और 45.51 सेकण्ड) में पूरी करती है । चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है और लगभग 27 दिन (27 दिन, 07 घंटे, 43 मिनट और 11.47 सेकण्ड) में एक परिक्रमा पूरी करता है। साथ ही पृथ्वी अपनी धुरी पर भी घूमती है और लगभग 24 घंटे (23 घण्टे, 56 मिनट और 4.09 सेकण्ड) में एक घूर्णन पूरी करती है।
सूर्य प्रकाश का प्रत्यक्ष स्रोत है। अपनी धुरी पर घूमते समय पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सम्मुख होता है, वह प्रकाशित होता है। ऐसे समय चन्द्र पृथ्वी की परिक्रमा करते करते जब पृथ्वी और सूर्य के मध्य आ जाता है तो चन्द्र की छाया पृथ्वी पर पड़ती है और सूर्य का पूर्ण प्रकाश पृथ्वी पर नहीं आ पाता। सूर्य, चन्द्र की छाया से ढका हुआ प्रतीत होता है। इसको ही सूर्य ग्रहण कहते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि यह घटना प्रत्येक अमावस्या को क्यों नहीं होती? इसका उत्तर है, चन्द्र के कक्षा-पथ का पृथ्वी के क्रांतिवृत्त से 5.2 अंश का झुकाव जिसके कारण अधिकांशतः चन्द्र, पृथ्वी और सूर्य के सीध में नहीं आ पाते।
निम्न चित्र से समझें
सूर्यग्रहण तीन प्रकार के होते हैं –
१. खग्रास अथवा सर्वग्रास सूर्यग्रहण,
२. खण्ड सूर्यग्रहण
३. वलयाकार अथवा कंकणाकार सूर्यग्रहण
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यदि पृथ्वी से देखने पर सम्पूर्ण सूर्य, चन्द्र की छाया से छिप जाता है तो सर्वग्रास (खग्रास) और यदि सूर्य का कुछ भाग ही छाया से ढक पाता है तो खण्ड सूर्यग्रहण कहलाता है। यदि चन्द्र की सम्पूर्ण छाया सूर्य के मध्य में आये और किनारों पर वलय के समान प्रकाश दिखाई दे तो वलयाकार सूर्यग्रहण होता है।
क्या वास्तव में राहु, सूर्य का ग्रास करता है?
समुद्र मंथन के समय अमृतपान कर राहु के अमरता प्राप्त करने और सूर्य-चन्द्र से शत्रुता होने की पौराणिक कथा सर्वविदित है। इस कथा के अनुसार राहु/केतु द्वारा सूर्य/चन्द्र को ग्रास करने के कारण सूर्य/चंद्र ग्रहण होता है।
स्कन्दपुराण प्रभासखण्ड में माँ पार्वती महादेव से पूछती हैं:
यद्येवं भगवान्सूर्यः सर्वतेजस्विनां वरः । स कथं ग्रस्यते देव सैंहिकेयेन राहुणा ॥
सर्वतेजस्वी सूर्यदेव को राहु कैसे ग्रस लेता है?
महादेव जी कहते हैं:
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि सर्व पापप्रणाशनम् । कारणं ग्रहणस्यापि भ्रांतेर्विच्छेदकारकम् ॥
राहुरादित्यबिंबस्याधस्तात्तिष्ठति भामिनि । अमृतार्थी विमानस्थो यावत्संस्रवतेऽमृतम् ॥
बिंबेनांतरितो देवि आदित्यग्रहणं हि तत् । न कश्चिद्ग्रसितुं शक्त आदित्यो दहति ध्रुवम् ॥
हे देवी! मैं ग्रहण का कारण बतलाता हूँ, सुनो। विशेष समय आने पर सूर्यदेव अपनी किरणों से अमृत की धारा बहाते हैं। उस समय अमृत की इच्छा रखने वाला राहु अपने विमान पर बैठकर सूर्यबिम्ब के नीचे आ जाता है। उसके बिम्ब से सूर्य का बिम्ब छिप जाता है। इसी को सूर्यग्रहण कहते हैं। वास्तव में कोई भी सूर्यदेव को ग्रास नहीं कर सकता। वे निश्चय ही ग्रसने वाले को जलाकर भस्म कर देंगे।
सूर्य वास्तव में नारायण हैं। भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व का कथन, आपो नारा इति प्रोक्ता ऋषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः, अयनं तस्य ता आपस्तेन नारायणः स्मृतः, इसकी पुष्टि करता है। साम्बपुराण कहता है – त्रिमूर्तिस्तु दिवाकरः अर्थात भगवान सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के सम्मिलित स्वरूप त्रिगुणात्मक हैं। इनको ग्रहण लगाने की सामर्थ्य किसी में नहीं।
हमारे अनुसार सूर्यग्रहण वास्तव में पृथ्वी का ग्रहण है।
कैसे? आइये समझते हैं।
हमारे सौर मण्डल में प्रकाश का मात्र एक स्रोत है, सूर्य। शेष सभी ग्रह इस सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित हैं। सूर्य किरणों के अवरोध से जहाँ छाया पड़ती है, उसका ग्रहण होता है। जैसे चंद्रग्रहण में पृथ्वी अवरोध उत्पन्न करती है और पृथ्वी की छाया चंद्र पर पड़ती है। अंधकार चंद्र पर होता है। उसी प्रकार सूर्यग्रहण में चंद्र अवरोध उत्पन्न करता है और चन्द्र की छाया पृथ्वी पर पड़ती है। अंधकार पृथ्वी पर होता है। जहाँ अंधकार, उसका ग्रहण। सूर्य पर अंधकार असम्भव है।
सूर्यग्रहण में कब क्या करें
शास्त्रों में आया है
ग्रहस्पर्शकाले स्नानं मध्ये होमः सुरार्चणं। श्राद्धम् च मुच्यमाने दानं मुक्ते स्नानमिति क्रमः॥
स्पर्शे स्नानं भवेद्धोमो ग्रस्तयोर्मुच्यमानयोः। दानं स्यान्मुक्तये स्नानं ग्रहे चन्द्रार्कयोर्विधिः॥
ग्रहण में स्पर्श के समय स्नान, मध्य (सूर्य/चंद्र के पूर्ण ग्रसित होने पर) में होम तथा देवपूजन, और मोक्ष की तरफ बढ़ने में श्राद्ध तथा दान, और मुक्त होने पर पुनः स्नान करें यह क्रम है।
सूर्यग्रहण व चंद्रग्रहण के समय स्नान, दान, जप एवं शिव पूजन तथा श्राद्ध अवश्य करना चाहिये। जो व्यक्ति जान-बूझकर श्राद्ध कार्य नहीं करता, वह पाप का भागी होता है।
सूर्य व चंद्र ग्रहण में देव पूजा के अतिरिक्त सूर्य व चंद्र की विशेष पूजा करने का विधान है। सूर्यग्रहण के समय तांबे के पात्र में दही, घी और शहद भरकर पुनः उसमें सोने का बना सूर्य बिंब डाल कर एक हजार लाल पुष्पों से सूर्य का पूजन करना चाहिए।
शिवपुराण विद्येश्वरसंहिता, अध्याय 15 के अनुसार –
ततश्च सूर्यग्रहणे पूर्णकालोत्तमे विदुः । जगद्रूपस्य सूर्यस्य विषयोगाच्च रोगदम् ॥
अतस्तद्विषशान्त्यर्थं स्नानदानजपां चरेत् । विषशान्त्यर्थकालत्वात्स कालः पुण्यदः स्मृतः ॥
सूर्यग्रहण का समय सबसे उत्तम है । उसमें किये गये पुण्यकर्म का फल चन्द्रग्रहण से भी अधिक और पूर्णमात्रा में होता है – इस बात को विज्ञ पुरुष जानते हैं । जगतरूपी सूर्य का राहुरूपी विष से संयोग होता है, इसलिये सूर्यग्रहण का समय रोग प्रदान करनेवाला है । अतः उस विष की शान्ति के लिये उस समय स्नान, दान और जप करना चाहिये । वह काल विष की शान्ति के लिये उपयोगी होने के कारण पुण्यप्रद माना गया है ॥
कुछ लोग कहते हैं सूतक लगने के अनन्तर जप, होम क्यों करें? तो इसका उत्तर ज्योतिष निबंध में मिलता है कि दान, जप, होम के लिए ग्रहण में सूतक नहीं बाधक होता – न सूतकादि. दोषोऽस्ति ग्रहे होमजपादिषु ।
स्नान
ग्रहणकाल प्रारम्भ (स्पर्श) और अंत (मोक्ष) में स्नान नित्य कर्म है। देवता, पितर, गन्धर्व तथा सम्पूर्ण प्राणियों को तृप्त करने के लिए स्नान अवश्य करें क्योंकि पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड में ब्रह्मा जी का कथन है –
तिस्रःकोट्योऽर्धकोटी च यानि लोमानि मानुषे। स्रवंति सर्वतीर्थानि तस्मान्न परिपीडयेत्॥
देवाः पिबंति शिरसि श्मश्रुतः पितरस्तथा । चक्षुषोरपि गंधर्वा अधस्तात्सर्वजंतवः॥
देवाः पितृगणाः सर्वे गंधर्वा जंतवस्तथा । स्नानमात्रेण तुष्यंति स्नानात्पापं न विद्यते॥
मनुष्य के शरीर में जो साढ़े तीन करोड़ रोम हैं, वे सम्पूर्ण तीर्थों के प्रतीक हैं। उनका स्पर्श करके जो जल गिरता है, मानों सम्पूर्ण तीर्थों का ही जल गिरता है। देवता स्नान करने वाले व्यक्ति के सिर से गिरने वाले जल को पीते हैं, पितर मूँछ-दाढ़ी के जल से तृप्त होते हैं, गन्धर्व नेत्रों का जल और सम्पूर्ण प्राणी अधोभाग का जल ग्रहण करते हैं। इस प्रकार देवता, पितर, गन्धर्व तथा सम्पूर्ण प्राणी स्नान मात्रा से संतुष्ट होते हैं। स्नान से शरीर में पाप नहीं रह जाता।
ज्योतिर्निबन्ध में आया है
मुक्तौ यस्तु न कुर्वीत स्नानं ग्रहणसूतके । स सूती भवेत्तावद्यावत्स्यादपरो ग्रहः ॥
जो पुरुष ग्रहण का मोक्ष होने पर स्नान नहीं करता है, वह जब तक दूसरा ग्रहण नहीं आता तब तक सूतकी (अस्पृश्य) होता है। ग्रहण में होने वाले औषधीय स्नान का वर्णन आगे किया गया है।
ग्रहणकाल के लिए स्नान मंत्र
गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि। मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति॥
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति । नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ll
अतिक्रूर महाकाय कल्पान्त दहनोपम् ।भैरवाय नमस्तुभ्यं अनुज्ञाम् दातुम् अर्हसि ॥
21 जून 2020 सूर्यग्रहण विशेष योग:
- रविवार (चूड़ामणि योग)
- ग्रीष्म अयनान्त – अधिकतम उत्तरी झुकाव के पश्चात सूर्य आभासी दक्षिणी अभिगमन आरम्भ करते हैं, सबसे बड़ा दिन। सायण पद्धति अनुसार कर्क सङ्क्रान्ति।
- मृगशिरा/आर्द्रा नक्षत्र
- कुतुपकाल
चूड़ामणि योग
धर्मसिन्धु के अनुसार –
रविवारे सूर्यग्रहश्चंद्रवारे चंद्रग्रहश्चूडामणिसंज्ञस्तत्र दानादिकमनंतफलं॥
रविवार को सूर्यग्रहण और सोमवार को चंद्रग्रहण हो तो चूड़ामणि योग है। उसमें दान आदि का अनन्त फल होता है।
पद्मपुराण सृष्टि खंड में चूड़ामणि योग का अनंतफल बताया गया है – सूर्यग्रहः सूर्यवारे सोमे सोमग्रहस्तथा, चूडामणिरिति ख्यातस्तत्रानंतफलं स्मृतम् ।
सूर्यपुराण में भी चूड़ामणि योग में करोड़गुना फल मिलने का कथन प्राप्त होता है –
सूर्यग्रहः सूर्यवारे यदा स्यात्पाण्डुनन्दन, चूडामणिरिति ख्यातं सोमे सोमग्रहस्तथा ।
अन्यवारे यदा भानोरिन्दोर्वा ग्रहणं भवेत् , तत्फलं कोटिगुणितं ज्ञेयं चूडामणौ ग्रहे ।
तीर्थ
सूर्यग्रहण में तीर्थ की प्राप्ति दुर्लभ है, विशेषतः कुरुक्षेत्र – सूर्यग्रहे कुरुक्षेत्रे नर्मदायां शशिग्रहे। यहाँ सूर्यग्रहण के समय बड़ा भारी मेला लगता है। श्रीमद्भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के अनुसार द्वापरयुग में श्रीकृष्ण और पाण्डवों ने कुरुक्षेत्र में स्नान, दान आदि किया था।
स्कन्दपुराण के अनुसार सूर्यग्रहण के दिन नदियों के संगम की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है :
दिनक्षये गजच्छायां ग्रहणे भास्करस्य च, ये व्रजन्ति महात्मानः सङ्गमे सुरदुर्लभे ।
ज्योतिर्निबन्ध ने ग्रहण पर गङ्गा की प्राप्ति का करोड़ गुना पुण्य बताया है :
गङ्गादि तीर्थसम्प्राप्तौ प्रोक्तं कोटिगुणं भवेत्। गङ्गायां पुण्यतीर्थे च ग्रहणे स्नानमुत्तमम् ॥
महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय ९२ वैष्णवधर्म पर्व के अनुसार :
दक्षिणावर्तशङ्खाद्वा कपिलाशृङ्गतोपि वा। प्राक्स्रोतसं नदीं गत्वा ममायतनसंनिधौ॥
सलिलेन तु यः स्नायात्सकृदेव रविग्रहे। तस्य यत्संचितं पापं तत्क्षणादेव नश्यति॥
जो मनुष्य सूर्यग्रहण के समय पूर्व-वाहिनी नदी के तट पर जाकर मेरे मन्दिर के निकट दक्षिणावर्त शंख के जल से अथवा कपिला गाय के सींग का स्पर्श कराये हुये जल से एक बार भी स्नान कर लेता है, उसके समस्त सञ्चित पाप तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं।
मत्स्यपुराण के अनुसार :
दशजन्मकृतं पापं गंगासागरसङ्गमे। जन्मान्तरसहस्त्रेषु यत्पापं समुपार्जितम्॥
तत्तन्नश्येत्सन्निहत्यां राहुग्रस्ते दिवाकरे।
गंगा और समुद्र के संगम में स्नान से दस जन्म का किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है, जबकि सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण के साथ गंगासागर में किए गए स्नान से हजारों जन्मों से समुपार्जित पाप नष्ट हो जाते हैं।
स्कन्दपुराण प्रभासखण्ड में सूर्यग्रहण पर कनखल तीर्थ में श्राद्ध का फल व माहात्म्य का विस्तार से वर्णन किया है।
पितरों के निमित्त तर्पण
सूर्यग्रहण, अमावस्या और सङ्क्रान्ति श्राद्ध के अति-उत्तम अवसरों में से होते हैं। इस दिन अपने पितरों के निमित्त तर्पण अवश्य करें। इस ग्रहण में परमग्रास के समय और उसके पश्चात कुतुपकाल है जो पितृकार्य के लिए सर्वोत्तम है। शास्त्रों ने सूर्यग्रहण के मोक्ष की ओर बढ़ने में श्राद्ध करना बताया है। हमको इस समय कुतुपकाल भी मिल रहा है। इस अद्भुत समय का सदुपयोग करें। चूँकि ग्रहणकाल में पके अन्न का त्याग बताया गया है, अतः सूखे अन्न से ही श्राद्ध करें। यदि कुछ भी सुलभ न हो तो तर्पण अवश्य करें। तर्पण से पितर तृप्त होते हैं। तर्पण के लिए गङ्गाजल, काले तिल, कुश, गाय का कच्चा दूध, जौ आदि की व्यवस्था पहले से ही कर लें।
पद्मपुराण के अनुसार सूर्यग्रहण में तर्पण का अत्यधिक महत्व है :
ग्रहणे चंद्रसूर्यस्य पुण्यतीर्थे गयादिषु, तर्पयित्वा पितॄन्याति माधवस्य निकेतनम्।
तस्मात्पुण्याहकं प्राप्य तर्पयेत्पितृसंचयम्॥
तर्पण के लिए काले तिल का होना परम आवश्यक है :
अमृतात्स्वादुतामेति संस्पर्शाच्च तिलस्य च॥
तस्माच्च तर्पयेन्नित्यं पितॄंस्तिलजलैर्बुधः। दशभिश्च तिलैस्तावत्पितॄणां प्रीतिरुत्तमा ॥
तिल के संपर्क से जल अमृत से भी अधिक स्वादिष्ट हो जाता है। जो प्रतिदिन स्नान करके तिलमिश्रित जल से पितरों का तर्पण करता है, वह अपने दोनों कुलों का (पितृकुल और मातृकुल) उद्धार करके ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है।
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।
अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है।
पुराणों में ग्रहण के समय श्राद्ध की भी भारी महिमा कही गयी है :
कूर्मपुराण, उत्तरभाग –
नैमित्तिकं तु कर्तव्यं ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः । बान्धवानां च मरणे नारकी स्यादतोऽन्यथा ॥
काम्यानि चैव श्राद्धानि शस्यन्ते ग्रहणादिषु । अयने विषुवे चैव व्यतीपातेऽप्यनन्तकम् ॥
श्रीविष्णुपुराण तृतीयांश, अध्याय १४ –
श्राद्धार्हमागतं द्रव्यं विशिष्टमथवा द्रिजम् । श्राद्ध कुर्वीत विज्ञाय व्यतीपातेऽयने तथा ॥
विषुवे चापि सम्प्राप्ते ग्रहणो शशि–सूर्ययोः । समस्तेष्वेव बूपाल !राशिष्वर्के च गच्छति ॥
ब्रह्मपुराणम, अध्याय २२० –
निः श्वस्य प्रतिगच्छन्ति शापं दत्त्वा सुदुः सहम्। अष्टकासु च कर्तव्यं श्राद्धं मन्वन्तरासु वै॥
अन्वष्टकासु क्रमशो मातृपूर्वं तदिष्यते। ग्रहणे च व्यतीपाते रविचन्द्रसमागमे॥
वराहपुराण, अध्याय १३ –
विषुवे चैव संप्राप्ते ग्रहणे शशिसूर्ययोः । समस्तेष्वेव विप्रेन्द्र राशिष्वर्केऽतिगच्छति ॥
नक्षत्रग्रहपीडासु दुष्टस्वप्नावलोकने । इच्छाश्राद्धानि कुर्वीत नवसस्यागमे तथा ॥
वायुपुराणम, उत्तरार्ध, अध्याय ४३ –
मकरे वर्त्तमाने च ग्रहणे चन्द्रसूर्य्ययोः । दुर्ल्लभं त्रिषु लोकेषु गयाश्राद्धं सुदुर्ल्लभम् ॥
गरुडपुराणम, आचारकाण्ड, अध्याय ८३ –
मकरे वर्त्तमाने च ग्रहणे चन्द्रसूर्य्ययोः ॥ दुर्लभं त्रिषु लोकेषु गयायां पिण्डपातनम् ॥
मकर सङ्क्रान्ति, चन्द्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण के अवसर पर गयातीर्थ में जाकर पिण्डदान करना तीनों लोकों में दुर्लभ है। इस दिन सायन दक्षिणायन भी है। उत्तरायण व दक्षिणायन के समय जो मनुष्य एकाग्रचित से पितरों को तिलमिश्रित जल भी दान कर देता है तो वह मानों सहस्र वर्षों के लिये श्राद्ध कर देता है।
जप और स्तोत्र
- गुरु प्रदत्त मंत्र और स्तोत्र
- अपने इष्टदेव के मंत्र और स्तोत्र
- विष्णुसहस्त्रनाम
- आदित्यहृदय स्तोत्र
- गायत्री जप (जिनका उपनयन संस्कार हुआ है, केवल वही करें।)
- राम रक्षा स्तोत्र
- सूर्याष्टकं
- युधिष्ठिरविरचितं सूर्यस्तोत्रम्
- सिद्धसरस्वतीस्तोत्रम्
- कालभैरव अष्टकं
श्रीहरि नारायण का अभिषेक
क्षीराद्यैः स्नापयेद्यस्तु रविसंक्रमणे हरिम् । स वसेद्विष्णुसदने त्रिसप्तपुरुषैः सह ॥
शुक्लपक्षे चतुर्द्दश्यामष्टम्यां पूर्णिमादिने ॥
एकादश्यां भानुवारे द्वादश्यां पञ्चमीतिथौ । सोमसूर्योपरागे च मन्वादिषुयुगादिषु ॥
अर्द्धोदये च सूर्यस्य पुष्यार्के रोहिणीबुधे । तथैव शनिरोहिण्यां भौमाश्विन्यां तथैव च ॥
शन्यां भृगुमृगे चैवभृगुरेवतिसङ्गमे । तथा बुधानुराधायां श्रवणार्के तथैव च ॥
तथा च सोमश्रवणे हस्तयुक्ते बृहस्पतौ । बुधाष्टम्यां बुधाषाढे पुण्ये दिने तथा ॥
स्त्रापयेत्पयसा विष्णुं शान्तिमान् वाग्यतः शुचिः । घृतेन मधुना वापि दध्ना वा तत्फलं श्रृणु ॥
सर्वयज्ञफलं प्राप्ये सर्वपापविवर्जितः । वसेदिष्णुपुरे सार्ध्दं त्रिसप्तपुरुषैर्नृप ॥
तत्रैव ज्ञानमासाद्य योगिनामपि दुर्लभम् । मोक्षमाप्रोति नृपते पुनरावृत्तिदुर्लभम् ॥
नारदपुराण, पूर्वार्ध, अध्याय १३ में कुछ विशेष योगों में श्रीहरिनारायण का अभिषेक बताया गया है। उन सभी योगों में से आगामी सूर्यग्रहण को तीन योग मिल रहे हैं – सूर्यग्रहण, सायन सङ्क्रान्ति, रविवार।
इन पवित्र दिनों में जो पुरुष शान्तचित्त, मौन और पवित्र होकर दूध, दही, घी और मधु से श्रीविष्णु को स्नान कराता है, वह सब पापों से छूटकर सम्पूर्ण यज्ञों का फल पाता और इक्कीस पीढ़ियों के साथ वैकुण्ठ धाम में निवास करता है। पुन:, वहीं ज्ञान प्राप्त करके वह पुनरावृत्तिरहित और योगियोंके लिये भी दुर्लभ हरि का सायुज्य प्राप्त कर लेता है।
पद्मपुराण में भगवान शिव अपने पुत्र कार्तिकेय से कहते हैं :
कार्तिकेय! संसार में विशेषतः कलियुग में वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो सदा पितरों के उद्धार के लिये श्रीहरि का सेवन करते हैं । पुत्र! बहुत से पिण्ड देने और गया में श्राद्ध आदि करने की क्या आवश्यकता है? वे मनुष्य तो हरिभजन के ही प्रभाव से पितरों का नरक से उद्धार कर देते हैं। यदि पितरों के उद्देश्य से दूध आदि के द्वारा भगवान विष्णु को स्नान कराया जाय तो वे पितर स्वर्ग में पहुँचकर कोटि कल्पों तक देवताओं के साथ निवास करते हैं।
हृदयवार
२१ जून को सूर्य का दक्षिणायन आरम्भ होता है। चूँकि सूर्य और चंद्र प्रत्यक्ष हैं, अतः इनका संक्रमण भी प्रत्यक्ष अर्थात सायन विधि अनुसार लेना ही उत्तम है। इस प्रकार इस दिन ही अयन संक्रांति मानी जाएगी। अयन संक्रांति में किये गए दानपुण्य का करोड़ गुना फल शास्त्रों ने बताया है।
उक्त दिन हम हृदयवार भी मानेंगे –
रविसङ्क्रमणे यः स्याद्रवेर्वारो गणाधिप । स ज्ञेयो हृदयो नाम आदित्यहदयप्रियः ॥
तत्र नक्तं समाश्रित्य देवं सम्पूज्य भक्तितः । गत्वा च सदने भानोरादित्याभिमुखस्थितः ॥
जपेदादित्यहदयं सङ्ख्ययाष्टशतं बुधः । अथ वास्तमनं यावद्भास्करं चिंतयेद्धृदि ॥
गृहमेत्य ततो विप्रान्भोजयेच्छक्तितः शिव । भुक्त्वा तु पायसं वीर ततो भूमौ स्वपेद्बुधः ॥
योऽत्र सम्पूयेद्भानुं भक्त्या श्रद्धासमन्वितः । स कामाँल्लभते सर्वान्भास्कराद्धृदयस्थितान् ॥
तेजसा यशसा तुल्यः प्रभयैषां महात्मनः । शक्रगोपाण्डजानां तु गोपतेर्गोवृषेक्षण ॥
संक्रांति के दिन यदि रविवार हो तो उसका नाम हृदयवार होता है । वह आदित्य के हृदय को अत्यंत प्रिय है । उस दिन नक्तव्रत करके मंदिर में सूर्यनारायण के अभिमुख एक सौ आठ बार आदित्यहृदयस्तोत्र का पाठ करना चाहिये अथवा सायंकाल तक भगवान् सूर्य का हृदय में ध्यान करना चाहिये । सूर्यास्त होने के पश्चात घर आकर यथाशक्ति ब्राह्मण को भोजन कराये तथा मौनपूर्वक स्वयं भी खीर का भोजन करके सूर्यदेव का स्मरण करते हुए भूमिपर ही शयन करे । इस प्रकार जो इस दिन व्रत रहकर श्रद्धा-भक्ति से सूर्यनारायण की पूजा करता है, उसके समस्त अभीष्ट सिद्ध हो जाते है और वह भगवान् सूर्य के समान ही तेज-कान्ति तथा यश को प्राप्त करता है ।
दीपदान
यदायदा नृपश्रेष्ठ पुण्यकालः प्रपद्यते । सङ्क्रातौ सूर्यग्रहणे चन्द्रपर्वणि वैधृतौ ॥
उत्तरे त्वयने प्राप्ते दक्षिणे विषुवे तथा । एकादश्यां शुक्लपक्षे चतुर्दश्यां दिनक्षये ॥
सप्तम्यामथ वाष्टम्यां स्नात्वा व्रतपरो नरः । नारी वा भूमिदेवेभ्यः प्रयच्छेत्प्रयतांगणे ॥
घृतकुम्भेन दीपेन प्रज्वलंतं प्रदीपकम् ।
संक्रांति, सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण, वैधृति, व्यतिपात योग, उत्तरायण, दक्षिणायन, विषुव, एकादशी, शुक्लपक्ष की चतुर्दशी, तिथिक्षय, सप्तमी तथा अष्टमी – इन पुण्यदिनों में स्नान कर, व्रतपरायण स्त्री अथवा पुरुष को अपने आँगन के मध्य घृत-कुम्भ और जलता हुआ दीपक भूमिदेव को दान देना चाहिए। इससे प्रदीप्त और ओजस्वी शरीर प्राप्त होता है।
ग्रहण में दान
ग्रहणकाल में दान करने का अत्यधिक महत्व है। सूर्यग्रहण को पर्वकाल माना है। किसी भी त्यौहार, पर्व, विशेष योग आदि में जब भी दान का महत्व बताया जाता है, उसकी तुलना सूर्यग्रहण से ही की जाती है, अर्थात सूर्यग्रहण में दान का माहात्म्य प्रत्येक शास्त्र में मिलता है।
महाभारत आश्वमेधिक पर्व में स्वयं भगवान् ने युधिष्ठिर से कहा है:
ग्रहोपरागे विषुवेऽयनान्ते पित्र्ये मघासु स्वसुते च जाते। गयेषु पिण्डेषु च पाण्डुपुत्र दत्तं भवेन्निष्कसहस्रतुल्यम्॥
ग्रहण के समय, विषुव योग में, अयन समाप्त होने पर, पितृकर्म (श्राद्ध आदि) में, मघा-नक्षत्र में, अपने यहाँ पुत्र का जन्म होने पर तथा गया में पिण्डदान करते समय जो दान दिया जाता है, वह एक हजार स्वर्ण मुद्रा के दान देने के समान होता है।
ग्रहणकाल में गौ, भूमि, स्वर्ण, धान्य आदि के दान का महाफल है। ग्रहण में तुलादान पुण्यप्राप्ति केसाथ ग्रहण दोष निवारण भी करता है।
विभिन्न शास्त्रों के अनुसार –
सर्वं भूमिसमं दानं सर्वे ब्रह्मसमा द्विजाः। सर्वं गङ्गासमं तोयं ग्रहणे चंद्रसूर्ययोः ॥
सर्वं भूमिसमं दानं सर्वे व्याससमाद्विजाः। सर्वं गङ्गासमं तोयं ग्रहणे नात्र संशयः॥
सर्वं गङ्गासमं तोयंसर्वे ब्रह्मसमा द्विजाः। सर्वं भूमिसमं दानं राहुग्रस्तेदिवाकरे ॥
ग्रहणकाल में समस्त दान भूमिदान तुल्य, सभी ब्राह्मण ब्रह्म के समान तथा सब जल गङ्गा जल के समान होता है।
स्कन्दपुराण तथा अग्निपुराण के अनुसार सूर्यग्रहण में समस्त दान स्वर्ण के समान है –
सर्वं गंगासमं तोयं सर्वे ब्रह्मसमा द्विजाः । सर्वं देयं स्वर्णसमं राहुग्रस्ते दिवाकरे ॥ (स्कंद, काशीखण्ड, ९.७३)
सर्वं हेमसमन्दानं सर्वे ब्रह्मसमा द्विजाः ।सर्वं गङ्गासमन्तोयं राहुग्रस्ते दिवाकरे ॥ (अग्नि पुराण, अध्याय १२१)
पद्मपुराण उत्तरखण्ड और गरुणपुराण धर्मकाण्ड के अनुसार
अग्नेरपत्यं प्रथमं सुवर्णं, भूर्वैष्णवी सूर्यसुताश्च गावः। लोकाश्त्रयस्तेन भवन्ति दत्ता, यः काञ्चनं गाश्च महीं च दद्यात् ॥
सुवर्ण अग्नि की प्रथम संतान है। भूमि भगवान विष्णु की पत्नी है तथा गौएं भगवान सूर्य की कन्याएं हैं, अत: जो कोई सुवर्ण, गौ और पृथ्वी का दान करता है, उसके द्वारा तीनों लोकों का दान सम्पन्न हो जाता है। महाभारत दान खण्ड में विभिन्न प्रकार के दान के भिन्न-भिन्न फल बताये गयेे हैं।
ग्रहण के त्याग
चिन्तामणि में ग्रहण के समय के त्याग बताये हैं :
छेद्यं न पत्रं तृणदारूपुष्पं कार्यं न केशांबरपीडनं च। दन्ता न शोध्या: पुरूषं न वाच्यं भोज्यं च वर्ज्यं मदनो न सेव्यः।
वाह्यं न वाजी द्विरदादि किंचिद्दोह्यं न गावो महिषीसमाजम्। यात्रां न कुर्याच्छयनं च तद्वत् ग्रहे निशाभर्तुरर्हर्पतेश्च॥
- पत्ते का छेदन
- तिनका तोड़ना
- काठ तोड़ना
- पुष्प तोड़ना
- केश काटना
- वस्त्र धोना/सिलना
- दाँत साफ करना
- कठोर बोलना
- भोजन करना
- मैथुन
- घोड़ा सवारी
- हाथी सवारी
- गाय का दूध निकालना
- भैंस का दूध निकालना
- यात्रा
- शयन
सूर्यग्रहण फल तथा शास्त्रोक्त उपाय
२१ जून २०२० का सूर्यग्रहण मिथुन राशि में है। ग्रहण मृगशिरा नक्षत्र में शुरू होकर आर्द्रा नक्षत्र में समाप्त होगा। परमग्रास मृगशिरा नक्षत्र में होगा।
राशि / नक्षत्र के आधार पर फल
यह ग्रहण राहुग्रस्त है। मिथुन राशि में राहु सूर्य-चंद्र को पीड़ित कर रहे हैं। भूमिपुत्र मंगल जलतत्व राशि मीन में बैठकर मिथुन राशि में स्थित ग्रहों को चतुर्थ दृष्टि से देख रहे हैं। सूर्य-चन्द्र-मंगल के अलावा सभी ग्रह वक्री हैं।
दैवज्ञों ने माना है जिस राशि में ग्रहण होता है उसके लिए तो निश्चित रूप से यह अनिष्टकारी होता है। उद्वेग, भय, उपद्रव, रोग, शोक, शत्रुता आदि होने की आशंका होती है। अतः मिथुन राशि के जातक थोड़ा संभल कर रहे। शान्ति करें/कराएं तथा दानादि करें।
अन्य ११ राशियों के लिए ग्रहण का प्रभाव क्या रहेगा इसमें विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। मुहूर्तचिन्तामणि के अनुसार विभिन्न राशियों के लिए २१ जून के सूर्यग्रहण का फल इस प्रकार रहेगा :
जन्मर्क्षे निधनं ग्रहे जनिभतो घात: क्षति: श्रीर्व्यथा, चिन्तासौख्यकलत्रदौस्थ्यमृतय: स्युर्माननाश: सुखम् ।
लाभोपाय इति क्रमात्तदशुभध्वस्त्यै जप: स्वर्णगो – दानं, शान्तिरथो ग्रहं त्वशुभदं नो वीक्ष्यमाहु: परे ॥
दैवज्ञ मनोहर के आधार पर :
घातं हानिमथ श्रियं जननिभाद्ध्वंसं च चिंतां क्रमात्। सौख्यं दारवियोजनं च कुरूते व्याधिं च मानक्षयम्।
सिद्धिं लाभमपायमर्कशशिनोः षण्मासमध्ये ग्रहः॥
राशि | मुहूर्तचिन्तामणि के अनुसार | दैवज्ञ मनोहर के अनुसार | लल्लाचार्य के अनुसार | गर्गाचार्य के अनुसार |
मिथुन | शरीर पीड़ा | घात | दूषित फल | दूषित फल |
वृष | धन नाश | हानि | मध्यम फल | मध्यम फल |
मेष | धन लाभ | धनागमन | शुभ | शुभ |
मीन | शरीर पीड़ा | ध्वंस | मध्यम फल | दूषित फल |
कुम्भ | पुत्रादि चिंता | पुत्र चिंता | मध्यम फल | मध्यम फल |
मकर | सुख | सुख | शुभ | शुभ |
धनु | पत्नी को मृत्युतुल्य कष्ट | स्त्री वियोग | दूषित फल | मध्यम फल |
वृश्चिक | मृत्युतुल्य कष्ट | रोग | दूषित फल | दूषित फल |
तुला | सम्मान विनाश | सम्मान नाश | मध्यम फल | मध्यम फल |
कन्या | सुख | सिद्धि | शुभ | शुभ |
सिंह | लाभ | लाभ | शुभ | शुभ |
कर्क | द्रव्यनाश, मृत्युतुल्य कष्ट | अलगाव | दूषित फल | दूषित फल |
नक्षत्र के आधार पर फल
यस्य वै जन्मनक्षत्रे ग्रस्येते शशिभास्करौ। तस्य व्याधिभयं घोरं जन्मराशौ धनक्षयः॥
यस्यैव जन्मनक्षत्रे ग्रस्येते शशिभास्करौ । तज्जातानां भवेत्पीडा ये नरा शांतिवर्जिताः॥
मृगशिरा नक्षत्र के जातक के लिए – कष्टकारक, रोग का भय, धनक्षय ।
अशुभ ग्रहण के लिए उपाय
यदि आपकी राशि के लिए ग्रहण अशुभ है निम्न उपाय करें :
(१) मुहूर्तचिन्तामणि के अनुसार उपाय: गायत्री जप, स्वर्ण दान, गौ दान, शान्ति कर्म
(२) औषधीय स्नान के द्वारा उपाय – ऋषि भृगु के अनुसार
दुर्वांकुरोशीरसमाशिलाजित्सिद्धार्थसर्वौषधिदारुलोध्रे:
स्नानं विदध्यादग्रहणे रवीन्दो: पीडाहरं राशिगते शुभे चेत्
अनिष्ट ग्रहण पर दूर्वा, खास, शिलाजीत सिद्धार्थ, सर्वौषधि, दारु, लोध्र से स्नान करने पर राशि जन्म अरिष्ट फल नष्ट होता है।
(३) दान के द्वारा उपाय
सोने का सर्प, तिल से भरा ताम्रपात्र, वस्त्र, दक्षिणा सहित ब्राह्मण को दान करें।
मिथुन राशि वाले
सौवर्णं राजतं वापि बिम्बं कृत्वा स्वशक्तित्त: । उपरागोद्धवक्लेशच्छिदे विप्राय कल्पयेत ॥
सोने का या चांदी का बिम्ब समान सर्प बनाकर ब्राह्मण को दान करें। दान का मंत्र –
तमोमय महाभीम सोमसूर्यविमर्दन I हेमनागप्रादनेन मम शान्तिप्रदो भव II
हे अन्धकारमय, बढ़ी आकृति वाले, सूर्य चंद्र के मर्दनकर्त्ता! इस सुवर्ण के सर्प दान से मेरे लिये शान्ति प्रदान करने वाले बनो।
स्कंदपुराण के अनुसार दान के द्वारा ग्रहण का अशुभ फल दूर करना –
गोदानं भूमिदानं च स्वर्णदानं विशेषतः। ग्रहणे क्लेशनाशाय दैवज्ञाय निवेदयेत्॥
गाय, भूमि, विशेषतः स्वर्ण , ग्रहण के दुष्ट फल दूर करने के लिए ज्योतिषी ब्राह्मण को देना चाहिए।
स्मृतिनिर्णय के अनुसार सूर्यग्रहण में सूर्य का जप व दान करना चाहिए – सूर्यग्रहे रवेर्जाप्यं दानं कुर्याद्यथाविधि ।
जिस जातक की राशि पर ग्रहण लगता है, उसके लिए मंत्र और औषध स्नान का वर्णन मत्स्यपुराण, अध्याय ६७ में मिलता है। इस अध्याय में प्रस्तुत निम्न स्तुति का पाठ ग्रहणजनित दोष दूर करता है। इस स्तुति में इन्द्रदेव, अग्निदेव, यमराज, वरुणदेव, वायुदेव, कुबेर, भगवान् शंकर, विष्णु की स्तुति की गयी है –
योऽसौ वज्रधरो देव आदित्यानां प्रभुर्मतः। सहस्रनयनश्चेन्द्रो ग्रहपीडां व्यपोहतु॥
मुखं यः सर्वदेवानां सप्तार्विरमितद्युतिः। सूर्योपरागसम्भूतां अग्निः पीडां व्यपोहतु॥
यः कर्मसाक्षी भूतानां धर्मो महिषवाहनः। यमश्सूर्योपरागोत्थां मम पीडां व्यपोहतु॥
नागपाशधरो देवः साक्षान्मकरवाहनः। स जलाधिपतिश्चन्द्रग्रह पीडां व्यपोहतु॥
प्राणरूपेण यो लोकान् पाति कृष्ण मृगप्रियः। वायुश्सूर्योपरागोत्थां पीडामत्र व्यपोहतु॥
योऽसौ निधिपतिर्देवः खङ्गशूलगदाधरः। सूर्योपरागकलुषं धनदो मे व्यपोहतु॥
योऽसौ विन्दुधरो देवः पिनाकी वृषवाहनः। सूर्योपरागजां पीडा विनाशयतु शङ्करः॥
त्रैलोक्ये यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च। ब्रह्मविष्ण्वर्कयुक्तानि तानि पापं दहन्तु वै॥
भविष्यपुराण, उत्तरपर्व, अध्याय १२५ में भी ग्रहण स्नान विधि वर्णित है।
योगी और ग्रहण पर्वकाल
सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण विशेष पर्व हैं। इनमें किये हुए पुण्यकर्म कोटि कोटि गुना फल देते हैं परंतु योगी पुरुष के किये तो प्रत्येक दिन ही ग्रहण समान है।
आयामो देहमध्यस्थः सोमग्रहणमिष्यते । देहातितत्त्वमायामं आदित्यग्रहणं विदुः ॥ (अग्निपुराण)
देह के भीतर जो प्राणवायु का आयाम है, उसे ‘चंद्रग्रहण’ कहते हैं। वही जब देह से ऊपर तक बढ़ जाता है, तब उसे ‘सूर्यग्रहण’ मानते हैं।
अग्निपुराण में विस्तृत विवरण इस प्रकार है :
सङ्क्रान्तिर्विषुवञ्चैव अहोरात्रायनानि च । अधिमास ऋणञ्चैव ऊनरात्र धनन्तथा ॥
ऊनरात्रं भवेद्धिक्का अधिमासो विजृम्भिका । ऋणञ्चात्र भवेत्कासो निश्वासो धनमुच्यते ॥
उत्तरं दक्षिणं ज्ञेयं वामं दक्षिणसञ्ज्ञितं । मध्ये तु विषुवं प्रोक्तं पुटद्वयविनिःस्मृतं ॥
सङ्क्रान्तिः पुनरस्यैव स्वस्थानात्स्थानयोगतः । सुसुम्णा मध्यमे ह्यङ्गे इडा वामे प्रतिष्ठिता ॥
पिङ्गला दक्षिणे विप्र ऊर्ध्वं प्राणो ह्यहः स्मृतं । अपानो रात्रिरेवं स्यादेको वायुर्दशात्मकः ॥
आयामो देहमध्यस्थः सोमग्रहणमिष्यते । देहातितत्त्वमायामं आदित्यग्रहणं विदुः ॥
सङ्क्रान्ति, विषुव, दिन, रात, अयन, अधिमास, ऋण, ऊनरात्र एवं धन; ये सूर्य की गति से होनेवाली दस दशाएँ शरीर में भी होती हैं । इस शरीर में हिक्का (हिचकी) ऊनरात्र, विजृम्भिका (जँभाई) अधिमास, कास (खाँसी) ऋण और नि:श्वास धन कहा जाता है। शरीरगत वामनाड़ी उत्तरायण और दक्षिणनाड़ी दक्षिणायन है । दोनों के मध्य नासिका के दोनों छिद्रों से निर्गत होनेवाली श्वासवायु विषुव कहलाती हैं। इस विषुववायु का ही अपने स्थान से चलकर दूसरे स्थान से युक्त होना सङ्क्रान्ति है। शरीर के मध्यभाग में सुषुम्ना स्थित है, वामभाग में इड़ा और दक्षिणभाग में पिंगला है। ऊर्ध्वगतिवाला प्राण दिन माना गया है। एक प्राणवायु ही दस वायु के रूप में विभाजित है। देह के भीतर जो प्राणवायु का आयाम है, उसे चंद्रग्रहण कहते हैं। वही जब देहसे ऊपर तक बढ़ जाता है, तब उसे सूर्यग्रहण मानते हैं।
प्राणायाम करें स्वस्थ रहें। प्रत्येक दिन ही चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण समान पुण्य अर्जित करें
प्रणाम ! ज्ञानवर्धक है !
Bahu sundar avam saral bhasha me vistrit jaankari.
Dhanyawad.
Very good article with detailed explaination , both logical and convincing
प्रणाम। ज्ञानवर्धक लेख। एक प्रश्न है। क्या चंद्रग्रहण काल में अर्थात् रात्रि में श्राद्ध अथवा तर्पण किया जा सकता है?
आशीष जी,
रात्रिकाल में श्राद्ध, स्नान, दान उचित नहीं परन्तु चन्द्रग्रहण में रात्रिकाल में भी यह उचित है।
🌸 अत्यंत लाभकारी, अत्यंत उपयोगी व अति सुंदर विस्तृत जानकारी।
प्रशंसा के लिए शब्द नहीं हैं ।
आपको पूर्ण श्रद्दा से विनम्र साधुवाद, धन्यवाद एवं कोटि आभार 🌸
धन्यवाद अविनाश जी
एक बात की आवश्यकता लगी, जो नहीं मिली, यदि उसका उल्लेख होता तो सोने पर सुहागा हो जाता | राहु-केतु पढ़ कर लगा स्यात मिल जायेगा|
क्या राहु-केतु पृथ्वी और चन्द्रमा की कक्षा के कटान बिंदु हैं ? यदि हाँ तो सामान्यजन को स्पष्ट हो जाएगा कि जिसे कथा रूप में पढ़ा है वह वास्तव में है और उन्हीं के कारण ग्रहण घटना होती है और उनकी वक्री-मार्गी गतियां भी हैं |
प्रणाम !
नमस्कार अलङ्कार जी,
आपका कथन उचित है। राहु/केतु पृथ्वी और चंद्र की कक्षा के कटान बिन्दु ही हैं। श्री अरुण उपाध्याय जी का यह लेख देखें। इसमें ग्रहण और राहु का चित्र देखें।
https://maghaa.com/indian-astrological-calendar-panchang/
वाह ! बहुत सुन्दर आलेख !!
आनन्द आ गया और आगे के लिए सहेज भी लिया | एक ही स्थान पर सब कुछ !!
धन्यवाद !
-अलङ्कार
नमस्कार अलङ्कार शर्मा जी,
आप गणित एवं ज्योतिष सम्बन्धी अब तक के सम्पूर्ण लेख पढने के लिए निम्न आर्काइव पर जा सकते हैं।
https://maghaa.com/category/गणित/
https://maghaa.com/tag/astrology/