यदि निष्पक्ष भाव से प्रश्न करें तो एक स्वाभाविक प्रश्न मन में उठता है कि संकीर्ण मानसिकता तथा कुण्ठित विचारधारा के व्यक्ति अपने घृणित मत को भी सत्य सिद्ध करने के लिए कैसे किसी भी स्तर तक पतित हो जाते हैं। भला यह किसी प्रकार की दुराग्रही प्रवृत्ति है जो व्यक्ति को घृणा से अंधा बना देती है। वर्तमान परिदृश्य में तो यह सहज ही नित देखने को मिल जाता है। यथा संसार के सबसे क्रूर संगठन द्वारा भी किसी का वध कर दिए जाने पर उसे अनदेखा कर देना या उसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बचाव भी करना। अपने विरोधी मत के व्यक्ति या संस्था द्वारा अत्यंत सराहनीय कार्य किए जाने पर भी उससे घृणा करना।
किस प्रकार विचारधारा से प्रभावित व्यक्ति संकीर्ण ही नहीं मूर्खता के स्तर तक के घृणित कार्य करने लगता है। इसी प्रकार अपने मत के व्यक्ति द्वारा किए गए घृणित जघन्य कार्य का भी बचाव करना। या उसे इस प्रकार देखना जैसे वैसा कुकर्म करना विवशता थी। स्वयं की विचारधारा के जघन्य कार्य को देख पाने पर भी उसे विवशता के रूप में देखना तथा विरोधी विचारधारा के व्यक्ति के सत्कर्मों को भी उसका भाग्य या उसकी चाल के रूप में देखना। अर्थात् दूसरों के गुण को भी दोष रूप में देखना तथा स्वयं के दोष को भी गुण रूप में। आधुनिक सञ्चार माध्यमों तथा बुद्धिजीवी वर्ग में यह दोष तो नित प्रतिदिन देखने को मिलता है।
वैसे तो एक स्तर तक ये एक स्वाभाविक मानवी प्रवृति भी है। कर्ण पर्व महाभारत में इसका विवरण कुछ इस प्रकार से है —
परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा। आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्मति।
अर्थात् दूसरों के दोष बताने में तो सभी सदा ही निपुण होते हैं। व्यक्ति स्वयं के दोष नहीं जानता, और जानता हुआ भी मोहित होकर उन दोषों की अनदेखी करता है।
परन्तु इस प्रवृत्ति के लिए यह भी कहा गया है — असूयैकपदं मृत्यु:। गुणों में भी दोष देखना या मानना सर्वथा मृत्यु के समान है।
यही नहीं आत्मोत्कर्षं न मार्गेत परेषां परिनिंदया। का निर्देश भी है अर्थात् मात्र दूसरों की निंदा कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास करने का भी निषेध। ये सारे सन्दर्भ एक महाभारत मात्र से हैं। सनातन ग्रन्थ तो इस अर्थ के भाव से भरे ही पड़े हैं।
सामाजिक विज्ञान में इसकी व्याख्या एक स्तर तक सामाजिक समरूपता सिद्धान्त (Social identity theory) करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को एक प्रकार का आभासी बोध होता है कि वो कौन है और किस वर्ग का सदस्य है। सामान्यतया यह वर्ग परिवार, समाज, धर्म, राजनीतिक विचारधारा, देश इत्यादि होते हैं । यह बोध होने से व्यक्ति उसी वर्ग की भाँति व्यवहार भी करने लगता है। स्वाभाविक है यह उपयोगी भी है। जिससे व्यक्ति को एक पहचान मिलती है तथा आत्म-सम्मान भी। परन्तु बहुधा इससे एक दोष भी उत्पन्न हो जाता है जिसमें व्यक्ति को अपने समूह या विचारधारा के दोष भी श्रेष्ठ प्रतीत होने लगते हैं। तथा अन्य व्यक्तियों की श्रेष्ठता भी दोषपूर्ण एवं तुच्छ। कई व्यक्तियों में यह आभासी प्रक्रिया एक विकृति का रूप धारण कर लेती है जो सदा अन्य व्यक्ति को नीचा दिखाने के लिए मिथ्या तथ्यान्वेषण तक में संलिप्त हो जाते हैं।
इसे लोकप्रिय मनोविज्ञान में us vs them के नाम में भी जाना जाता है।
इसकी सटीक व्याख्या विकासवादी मनोविज्ञान से मिलती है। प्रागैतिहासिक काल में जब मानव छोटे समुदायों में रहता था तब उत्तरजीविता तथा प्रजनन के लिए यह आवश्यक था कि अन्य समुदायों से व्यक्ति अपने समुदाय की रक्षा करे। इस आभासी बोध से सामुदायिक एकता को बल मिलता जो उस युग में सुरक्षा, उत्तरजीविता तथा प्रजनन के लिए अत्यावशक थी। अन्योन्याश्रित सम्बन्ध किसी भी समुदाय की उत्तरजीविता के लिए प्रमुख थे। साथ ही अन्य समुदाय के व्यक्ति की सफलता को निम्न रूप में देखना भी। यथा युद्ध होने की अवस्था में, या इस प्रकार से भी कि आकर्षण स्वयं के समुदाय में अधिक हो जिससे प्रजनन भी अधिक हो। जीव विज्ञान के उत्तरजीविता के सिद्धान्त से यह गुण मानव प्रजाति के लिए अत्यावश्यक था।
गुण रूप में देखें तो महाभारत से ही एक अन्य प्रसंग है जिसमें युधिष्ठिर भीम से कहते हैं — अद्वयम् परस्परविरोधे तु वयं पंचश्चते शतम् । परैस्तु विग्रहे प्राप्ते वयं पंचाधिकं शतम् ॥
कालांतर में सामाजिक तथा वैश्विक परिवर्तन आ जाने, लघु समुदायों के नष्ट हो जाने तथा वैश्विक सञ्चार-सम्पर्क होने से यह गुण अनेकों व्यक्तियों में एक दोष के रूप में इस प्रकार परिवर्तित हो गया है कि परिवार और समुदाय के स्थान पर विचारधारा से भी व्यक्तियों का समूह निर्मित हो गया। कुटुम्ब, देश इत्यादि को प्रेम करने का गुण us vs them के एक नए रूप में अवतरित हो गया। जहां विचारधारा को पोषित करने वाला सभ्य समाज का व्यक्ति भी बर्बर समाज के व्यक्ति के गुणों से भी एकरूपता देख सकता है। आधुनिक मनोविज्ञान का यह सिद्धान्त यह भी स्पष्ट करता है कि प्रागैतिहासिक युग में संसाधनों की कमी थी तथा समुदायों में संसाधनों के लिए संघर्ष होता रहता था वैसी अवस्था में इस प्रवृत्ति का रूप भी विकट हो जाता है। मानव मस्तिष्क में प्रकृति ने यह गुण उत्तरजीविता के लिए निर्मित किया।
आधुनिक युग में भी जब किसी व्यक्ति को ऐसा प्रतीत होने लगता है कि उसके हाथों से संसाधन छिन रहे हैं, या उसकी वर्षों की सत्ता उसके हाथों से जा रही है तो वो अपनी विचारधारा से भिन्न व्यक्तियों के लिए विवेकहीन घृणा अत्यधिक करने लगता है। Us vs them के दोष में व्यक्ति का घृणित होने की व्याख्या का यह दोष भला क्या आधुनिक है? इस आभासी बोध में घिरी मानवता के लिए उपनिषदों में तो बारम्बार यह कहा ही गया है — यह मेरा है, बन्धन है मिथ्याभाव है और यह मेरा नहीं है, मोक्ष। यह मैं हूं और यह मेरा है का भाव अज्ञान का मूल स्वरूप है। इस अज्ञान से ही राग-द्वेषादि उत्पन्न होते हैं और जीव मोहग्रस्त होता है।
महोपनिषद् का जगत प्रसिद्ध उद्घोषण है —
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
या ईशावास्य उपनिषद का आधारभूत वाक्य कि सब-कुछ परमात्मा का है ऐसे में मेरा है ऐसा मानने की भ्रांति में जीव का रहना मिथ्या बोध है।
परन्तु इस सनातन ज्ञान का ऐसे व्यक्तियों को क्या लाभ!
क्योंकि संसार में ऐसे व्यक्तियों के लिए ही तो कहा गया है —
प्रसह्य मनिमुध्दरेंमकरवक्त्र्दंष्ट् आन्तरात।
समुद्रमापीसंतरेत प्रचाल्दूर्मिमाला अकुलम।
भुज्क़न्ग्मापीकोपितमशिरसीपुश्प्वादधारयेत।
न तुप्रतिनिविष्टि-मूर्खजन-चित्तमाराधयेत ॥