विष्णु दशावतार तथा बुद्ध – 1 2 3से से आगे Shiva Linga Skanda
शैव पुराणों में जटिलता है। एक दिशा शिव को विष्णु से श्रेष्ठ दर्शाने की है तो दूसरी समन्वय की भी है। श्री राधा की प्रतिष्ठा हो जाने तक के काल तक इनकी परास है। साथ ही शिव के अपने अवतार आदि भी हैं। प्राचीन माने जाने वाले मत्स्य पुराण को मिला कर ही कुछ निष्कर्ष कहा जा सकता है, जिसे आगे की कड़ी में सम्मिलित किया गया है। अस्तु।
शिव पुराण :
शिव पुराण का आरम्भ भगवद्गीता की शैली में होता है:
व्यास उवाच
धर्मक्षेत्रे महाक्षेत्रे गंगाकालिन्दिसंगमे । प्रयागे परमे पुण्ये ब्रह्मलोकस्य वर्त्मनि ॥
मुनयः शंसितात्मनस्सत्यव्रतपरायणाः । महौजसो महाभागा महासत्रं वितेनिरे ॥
तत्र सत्रं समाकर्ण्य व्यासशिष्यो महामुनिः । आजगाम मुनीन्द्रष्टुं सूतः पौराणिकोत्तमः॥
शिव केन्द्रित इस पुराण में विष्णु दशावतार से सम्बन्धित या कहें कि उस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण भाग ये हैं:
(1) विद्येश्वरसंहिता – कलियुग की चिंता
सती खण्ड :
अध्याय 24 एवं 25 – श्रीराम वनवास, सती संदेह, विष्णु का गोपेश अभिषेक, सती त्याग
26 – नंदी द्वारा ब्राह्मण कुल को शाप
38 – विष्णु की पराजय, दधीच का शाप
कुमार खण्ड
अध्याय 13-18 शिवा का मैल से गणेश को बनाना। सिर का कटना आदि।
गणेश की दो पत्नियाँ – विश्वरूप की सिद्धि एवं बुद्धि तथा दो पुत्र क्षेम लाभ
युद्ध खण्ड
5 – विष्णु द्वारा दैत्यों का मोहन
6-8 – त्रिपुर दाह
41 – विष्णु द्वारा शङ्खचूड़ की पत्नी तुलसी का शील हरण
42 – हिरण्याक्ष का वाराह द्वारा वध
43 – हिरण्यकशिपु का नृसिंह द्वारा वध
51-56 श्रीकृष्ण बाणासुर
(2) शतरुद्र संहिता
शिव अवतारों का वर्णन
29 – कृष्ण दर्शन अवतार
42 – ज्योतिर्ल्लिंगावतार
(3) कोटिरुद्र संहिता
12 ज्योतिर्लिङ्गों का विस्तार से वर्णन
34 वें अध्याय में शिव आराधना से विष्णु को चक्र की प्राप्ति
35-36 – विष्णु द्वारा शिवसहस्रनामस्तोत्र
(4) उमा संहिता
प्रथम 3 अध्याय – श्रीकृष्ण द्वारा शिव आराधना
28-45 – उमा का कालिका अवतार
(5) वायवीय संहिता पूर्व
7-12 ब्रह्मा के मुख से रुद्र की उत्पत्ति
25 काली का गौरी होना तथा
26 दुष्कर्मी व्याघ्र गौरी के साथ
(6) वायवीय संहिता उत्तर
1-2 श्रीकृष्ण को पुत्र प्राप्ति
दशावतार के इस उल्लेख में नृसिंह नहीं हैं। कारण शर/लभ रूप धारी शिव गण वीरभद्र द्वारा नृसिंह का वध है। इस सम्बन्ध में लिङ्ग पुराण देखा जा सकता है। शैव वैष्णव प्रतिद्वन्द्विता को देखते हुये यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि कभी बहुलता से अङ्कित आराधित नृसिंह के अब अत्यल्प उपासक ही बचे हैं।
देवा ऊचुः ॥
हृषीकेश महाबाहो भगवन् मधुसूदन । नमस्ते देवदेवेश सर्वदैत्यविनाशक॥
मत्स्यरूपाय ते विष्णो वेदान्नीतवते नमः । सत्यव्रतेन सद्राज्ञा प्रलयाब्धिविहारिणे॥
कुर्वाणानां सुराणां च मथनायोद्यमं भृशम् । बिभ्रते मंदरगिरिं कूर्मरूपाय ते नमः॥
नमस्ते भगवन्नाथ क्रतवे सूकरात्मने। वसुंधरां जनाधारां मूद्धतो बिभ्रते नमः॥
वामनाय नमस्तुभ्यमुप्रेन्द्राख्याय विष्णवे । विप्ररूपेण दैत्येन्द्रं बलिं छलयते विभो॥
नमः परशुरामाय क्षत्रनिःक्षत्रकारिणे । मातुर्हितकृते तुभ्यं कुपितायासतां द्रुहे॥
रामाय लोकरामाय मर्यादापुरुषाय ते । रावणांतकरायाशु सीतायाः पतये नमः॥
नमस्ते ज्ञानगूढाय कृष्णाय परमात्मन । राधाविहारशीलाय नानालीलाकराय च॥
नमस्ते गूढदेहाय वेदनिंदाकराय च । योगाचार्याय जैनाय बौद्धरूपाय मापते॥
नमस्ते कल्किरूपाय म्लेच्छानामंतकारिणे । अनन्तशक्तिरूपाय सद्धर्मस्थापनाय च॥
नमस्ते कपिलरूपाय देवहूत्यै महात्मने । वदते सांख्ययोगं च सांख्याचार्याय वै प्रभो॥
नमः परमहंसाय ज्ञानं संवदते परम् । विधात्रे ज्ञानरूपाय येनात्मा संप्रसीदति॥
वेदव्यासाय वेदानां विभागं कुर्वते नमः । हिताय सर्वलोकानां पुराणरचनाय च॥
एवं मत्स्यादितनुभिर्भक्तकार्योद्यताय ते । सर्गस्थितिध्वंसकर्त्रे नमस्ते ब्रह्मणे प्रभो॥
[2.5.16.3-16] —
कुल संख्या 10 से अधिक हो गयी है किंतु नृसिंह के न होने के कारण कल्कि तक संख्या 9 ही है। वेदनिन्दा, योग, जैन तथा बौद्ध मतों के स्वीकार का श्लोक बहुत महत्त्वपूर्ण है जिस पर लेखमाला के अन्त में चर्चा करेंगे।
कुमार स्कन्द के तारक के साथ युद्ध के समय उसके द्वारा की गयी विष्णु की भर्त्सना में अवतारों पर प्रगल्भता मुखरित हुई है:
कुमारो मेऽग्रतश्चाद्य भवद्भिश्च कथं कृतः। यूयं गतत्रपा देवा विशेषाच्छक्रमेश्वरौ॥
पुरैताभ्यां कृतं कर्म विरुद्धं वेदमार्गतः । तच्छृणुध्वं मया प्रोक्तं वर्णयामि विशेषतः॥
तत्र विष्णुश्छली दोषी ह्यविवेकी विशेषतः । बलिर्येन पुरा बद्धश्छलमाश्रित्य पापतः॥ [3]
तेनैव यत्नतः पूर्वमसुरौ मधुकैटभौ [4] । शिरौहीनौ कृतौ धौर्त्याद्वेदमार्गो विवर्जितः ॥
मोहिनीरूपतोऽनेन पंक्तिभेदः कृतो हि वै । [5] देवासुरसुधापाने वेदमार्गो विगर्हितः ॥
रामो भूत्वा हता नारी वाली विध्वंसितो हि सः ।[6] पुनर्वैश्रवणो विप्रौ हतो नीतिर्हता श्रुतेः ॥
पापं विना स्वकीया स्त्री त्यक्ता पापरतेन यत् । तत्रापि श्रुतिमार्गश्च ध्वंसितस्स्वार्थहेतवे ॥
स्वजनन्याश्शिरश्छिन्नमवतारे रसाख्यके। [7] गुरुपुत्रापमानश्च कृतोऽनेन दुरात्मना॥
कृष्णो भूत्वान्यनार्यश्च दूषिताः कुलधर्मतः। [8] श्रुतिमार्गं परित्यज्य स्वविवाहाः कृतास्तथा ॥
पुनश्च वेदमार्गो हि निंदितो नवमे भवे। [9] स्थापितं नास्तिकमतं वेदमार्गविरोधकृत्॥
एवं येन कृतं पापं वेदमार्गं विसृज्य वै । स कथं विजयेद्युद्धे भवेद्धर्मवतांवरः ॥
[2.4.9.16-26]
सात्वत एवं पाञ्चरात्र उपासना पद्धतियों में वासुदेव की महत्ता प्रतिपादन के साथ साथ जो विस्तृत प्रतीक पद्धति है, उसका वर्णन भी इस पुराण में उपलब्ध है। चतुर्व्यूह केन्द्रित यह स्पष्टत: श्रीराधा उपासना के स्थापित होने से पहले के समय का है [7.2,30.55-61] :
समभ्यर्च्योत्तरे पार्श्वे ततो वैकुंठमर्चयेत् । वासुदेवं पुरस्कृत्वा प्रथमावरणे यजेत् ॥
अनिरुद्धं दक्षिणतः प्रद्युम्नं पश्चिमे ततः । सौम्ये संकर्षणं पश्चाद्व्यत्यस्तौ वा यजेदिमौ ॥
प्रथमावरणं प्रोक्तं द्वितीयावरणं शुभम् । मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोथ वामनः ॥
रामश्चान्यतमः कृष्णो भवानश्वमुखोपि च । तृतीयावरणे चक्रुः पूर्वभागे समर्चयेत् ॥
नारायणाख्यां याम्येस्त्रं क्वचिदव्याहतं यजेत् । पश्चिमे पाञ्चजन्यं च शार्ङ्गंधनुरथोत्तरे ॥
एवं त्र्यावरणैः साक्षाद्विश्वाख्यां परमं हरिम् । महाविष्णुं सदाविष्णुं मूर्तीकृत्य समर्चयेत् ॥
इत्थं विष्णोश्चतुर्व्यूहक्रमान्मूर्तिचतुष्टयम् ॥
भृगु के शाप के कारण विष्णु द्वारा अवतार लेने का स्पष्ट उल्लेख [7.2,31.130-135]:
असुरांतकरश्चक्री शक्रस्यापि तथानुजः । प्रादुर्भूतश्च दशधा भृगुशापच्छलादिह ॥
भूभारनिग्रहार्थाय स्वेच्छयावातरक्षितौ । अप्रमेयबलो मायी मायया मोहयञ्जगत् ॥
मूर्तिं कृत्वा महाविष्णुं सदाशिष्णुमथापि वा । वैष्णवैः पूजितो नित्यं मूर्तित्रयमयासने ॥
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः । शिवस्याज्ञां पुरस्कृत्य स मे दिशतु मंगलम् ॥
वासुदेवो ऽनिरुद्धश्च प्रद्युम्नश्च ततः परः । संकर्षणस्समाख्याताश्चतस्रो मूर्तयो हरेः ॥
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नारसिंहो ऽथ वामनः। रामत्रयं तथा कृष्णो विष्णुस्तुरगवक्त्रकः॥
लिङ्ग पुराण :
इस पुराण में बृहद वर्णन में वाराह एवं नृसिंह अवतार हैं (1.94-96)। पूर्वार्द्ध के इन अध्यायों में मत्स्य, कूर्म, वराह एवं वामन अवतारों के भी उल्लेख हैं (1.96.17-23):
श्रीवीरभद्र उवाच –
जगत्सुखाय भगवन्नवतीर्णोऽसि माधव । स्थित्यर्थेन च युक्तोऽसि परेण परमेष्ठिना ।
जन्तुचक्रं भगवता रक्षितं मत्स्यरूपिणा ॥
पुच्छेनैव समाबध्य भ्रमन्नेकार्णवे पुरा । बिभर्षि कूर्मरूपेण वाराहेणोद्धृता मही ॥
अनेन हरिरूपेण हिरण्यकशिपुर्हतः । वामनेन बलिर्बद्धस्त्वया विक्रमता पुनः ॥
त्वमेव सर्वभूतानां प्रभावः प्रभुरव्ययः । यदा यदा हि लोकस्य दुःखं किंचित्प्रजायते ॥
तदा तदावतीर्णस्त्वं करिष्यसि निरामयम् । नाधिकस्त्वत्समोऽप्यस्ति हरे शिवपरायण ॥
त्वया धर्माश्च वेदाश्च शुभे मार्गे प्रतिष्ठिताः । यदर्थमवतारोऽयं निहतः सोऽपि केशव ॥
उत्तरार्द्ध में पूजा हेतु देवता गायत्री स्थापन विधि में दशावतारों का उल्लेख है (2,48.31-32) :
सर्वावर्तेषु रूपाणि जगतां च हिताय वै । मत्स्यः कूर्मोऽथ वाराहो नारसिंहोऽथ वामनः ॥
रामो रामश्च कृष्णश्च बौद्धः कल्की तथैव च । तथान्यानि न देवस्य हरेः सापोद्भवानि च ॥
इस पुराण में हिरण्यकशिपु वध के पश्चात नृसिंह को जगत एवं सम्पूर्ण चराचर के विनाश को उद्यत देख देवताओं के अनुरोध पर शिव, वीरभद्र एवं अर्धपक्षी शरभेश्वर का रूप धारण करते हैं – स मृगार्धशरीरेण पक्षाभ्यां चञ्चुना (1.96)।
अतितीक्ष्णमहादंष्ट्रो वज्रतुल्यनखायुधः ॥
आगतोऽसि यतस्तत्र गच्छ त्वं मा हितं वद । इदानीं संहरिष्यामि जगदेतच्चराचरम् ॥
संहर्तुर्न हि संहारः स्वतो वा परतोऽपि वा । शासितं मम सर्वत्र शास्ता कोऽपि न विद्यते ॥
इन दो रूपों द्वारा शमित नृसिंह शिवस्तुति करते हैं। अंतत: उनकी खाल उतार एवं सिर काट कर वीरभद्र वध कर देते हैं।
एवं विज्ञापयन्प्रीतः शङ्करं नरकेसरी । नन्वशक्तो भवान् विष्णो जीवितान्तं पराजितः ॥
तद्वक्त्रशेषमात्रान्तं कृत्वा सर्वस्य विग्रहम् । शुक्तिशित्यं तदा मङ्गं वीरभद्रः क्षणात्ततः ॥ (1, 96.97-98)
स्पष्टत: यह पुराण विष्णु के अवतारों को मान्यता देते हुये शिव की उनसे श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है। पूर्वार्द्ध में केवल वामन तक ही अवतारों का उल्लेख होना भी ध्यातव्य है।
स्कन्द पुराण :
एकाशीतिसहस्री संहिता के नाम से प्रसिद्ध स्कन्द पुराण खिल भाग हरिवंश हटा दिये गये महाभारत (समीक्षित पाठ) से भी बड़ा है। सात खण्डों में विभक्त इस पुराण की परास, विषय एवं काल दोनों में बहुत व्यापक है। यह शैव श्रेणी में आता है तथा पुराणों की सामान्य साम्प्रदायिक प्रवृत्ति के कारण महादेव शिव की त्रिदेवों में सर्वोच्च प्रतिष्ठा करता है। दूसरा खण्ड वैष्णव खण्ड है जिसमें राधा, सात्वत, पाञ्चरात्र मतों के भी उल्लेख एवं वर्णन हैं। इस पुराण में खण्ड खण्ड परिवर्द्धन के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं।
नेपाल से मिली 810 ई. की लिखी इसकी एक पूर्ण पाण्डलिपि (कुल 69 अध्याय) की सामग्री का वर्तमान स्कन्द पुराण से मेल कम ही है। इसमें विष्णु दशावतार नहीं हैं तथा श्लोक संख्या भी विशाल नहीं है। खण्ड विभाजन भी नहीं मिलते।
वर्तमान में प्रचलित स्वरूप में दो रोचक ऐतिहासिक तथ्य हैं:
ततस्त्रिषु सहस्रेषु षट्शतैरधिकेषु च। मागधे हेमसदनादंजन्यां प्रभविष्यति॥
विष्णोरंशो धर्मपाता बुधः साक्षात्स्वयं प्रभुः । तस्य कर्माणि भूरिणि भविष्यंति महात्मनः॥
ज्योतिर्बिदुमुखानुग्रान्स हनिष्यति कोटिशः । चतुःषष्टिं स वर्षाणि भुक्त्वा द्वीपानि सप्त च॥
भक्तेभ्यः स्वयशो मुक्त्वा दिवं पश्चाद्गमिष्यति । सर्वेषां चावताराणआं गुणैः समधिको यतः॥
ततो वक्ष्यंति तं भक्त्या सर्वपापहरं बुधम् । चतुर्षु च सहस्रेषु शतेष्वपि चतुर्षु च॥
साधिकेषु महान्राजा प्रमितिः प्रभविष्यति । गोत्रेषु वै चंद्रमसो बहुसेनापतिर्बली॥
म्लेच्छान्स कोटिशो हत्वा पाषंडानि च सर्वशः । वैदिकं केवलं शुद्धं सद्धर्मं वर्तयिष्यति॥
गंगायमुनयोर्मध्ये निष्ठां यास्यति पार्थिवः । ततः प्रजाश्च कालेन केनापि भृशपीडिताः॥
[माहेश्वरखण्डे कौमारिकाखण्डे, 40.255-262]
विष्णु के अंश के रूप में मगध के जिस राजा बुध का उल्लेख कलि के 3600 वर्ष पश्चात का बताया गया है, उसकी गुप्त वंश के बुध से सङ्गति बैठती है। उसी प्रकार कलि के 4400 वर्षों पश्चात जिस महान राजा प्रमिति का उल्लेख है, उसकी सङ्गति चंदेल राजा परमर्दिदेव से है। काल उल्लेख लगभग ही है तथा इनसे पीछे बताये गये चाणक्य का समय ठीक नहीं है। स्पष्ट होता है कि जिस समय यह खण्ड लिखा गया, उस समय गुप्त काल से लेकर मध्यकाल तक की स्मृति ठीक ठाक थी किंतु उससे पीछे की स्मृति धुँधली हो चुकी थी।
चन्देल परमर्दिदेव के पश्चात सीधे कल्कि अवतार का उल्लेख है:
ततस्तस्य वधार्थाय विष्णुः साक्षाज्जगत्पतिः। शंभले विष्णुयशसो भूत्वा पुत्रो नृपोत्तम॥
द्विजोत्तमैः परिवृतः शाल्वं तं संहरिष्यति। कोटिशोऽर्बुदशः पापान्निहत्य च निखर्वशः॥
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस पुराण ने ईसा की तेरहवीं–चौदहवीं शताब्दी में अपना वर्तमान रूप ले लिया था। श्री राधा रानी की पूर्ण प्रतिष्ठा का पाया जाना भी इसकी पुष्टि करता है।
दक्ष द्वारा विष्णु के लिये प्रयुक्त ‘वेदवादरता यूयं सर्वे विष्णुपुरोगमाः’ की भगवद्गीता के ‘वेदवादरता’ से तुलना करने पर वैष्णव मार्ग की कालयात्रा चिन्हाई में आ जाती है। ‘वेदबाह्य दुराचारास्त्याज्यास्ते ह्यत्र कर्मणि’ वाक्य उस सङ्क्रमण काल को इङ्गित करता है जब शैवागम एवं वेदमार्गी वैष्णव के सङ्घर्ष समन्वय की दिशा में बढ़ रहे थे। दक्ष का यज्ञ ध्वंस साङ्केतिक भी है। दक्ष द्वारा शिव के लिये प्रयुक्त शब्द अमंगलो, अशिव, अकुलीन, वेदबाह्य, भूतप्रेतपिशाचराट्, पापिन्, मंदबुद्धि, उद्धत, दुरात्मन् बहुत कुछ कह जाते हैं। यज्ञ ध्वंस के समय देवताओं सहित ऋषियों की शिवगणों द्वारा बहुत दुर्गति की जाती है। इस पुराण के वैष्णव खण्ड में यज्ञ के अध्वर रूप की प्रतिष्ठा की गयी है, पशुबलि का पूर्ण निषेध है।
निबद्धाः पशवोऽजाद्याः क्रोशन्तस्तत्र भूरिशः। सर्वे देवगणाश्चापि रसलुब्धास्तदासत ॥
देवैश्च ऋषिभिः साकं महेन्द्राऽस्मद्वचः शृणु। यथास्थितं धर्मतत्त्वं वदामो हि सनातनम् ॥
यूयं जगत्सर्गकाले ब्रह्मणा परमेष्ठिना। सत्त्वेन निर्मिताः स्थो वै चतुष्पाद्धर्मधारकाः ॥
अहिंसैव परो धर्मस्तत्र वेदेऽस्ति कीर्त्तितः। साक्षात्पशुवधो यज्ञे नहि वेदस्य संमतः ॥
चतुष्पादस्य धर्मस्य स्थापने ह्येव सर्वथा। तात्पर्यमस्ति वेदस्य न तु नाशेऽस्य हिंसया ॥
रजस्तमोदोषवशात्तथाप्यसुरपा नृपाः। मेध्येनाजेन यष्टव्यमित्यादौ मतिजाड्यतः॥
छागादिमर्थं बुबुधुर्व्रीह्यादिं तु न ते विदुः ॥
सात्त्विकानां तु युष्माकं वेदस्यार्थो यथा स्थित:। ग्रहीतव्योन्यथा नैव तादृशी च क्रियोचिता॥
समुद्र मन्थन प्रकरण में कूर्म अवतार वर्णित है:
तदा स भगवान्साक्षात्सर्वथा भक्तकार्यकृत् । स्तूयमानोमरैरद्रिमुद्दघ्रे कमठाकृतिः ॥
उत्थितं तमवेक्ष्याशु सर्वे फुल्लहृदाननाः । बभूवुश्च स्थिरः सोऽभूत्कूर्मपृष्ठेतिविस्तृते ॥
ततो ममन्थुस्तरसा यावद्बलमपांनिधिम् । श्रमफूत्कारवदना देवादयोऽदयम् ॥
भ्राम्यमाणात्ततस्त्वद्रेर्बहवोन्यपतन्दुमाः । ऊर्द्ध्वद्रुघर्षजो वह्निस्तत्स्थ सिंहादिमादहत् ॥
माहेश्वर खण्ड में एक स्थान पर कुछ अवतारों के उल्लेख हैं जिनका आरम्भ कमठ अर्थात कूर्म अवतार से है (8.89-92):
तथा कमठरूपेण धृतो वै मंदराचलः । वराहरूपमास्थाय हिरण्याक्षो हतस्त्वया॥
हिरण्यकशिपुर्दैत्यो हतो नृहरिरूपिणा । त्वया चैव बलिर्बद्धो दैत्यो वामनरूपिणा॥
भृगूणामन्वये भूत्वा कृतवीर्यात्मजो हतः । इतोप्यस्मान्महाविष्णो तथैव परिपालय॥
रावमस्य भयादस्मात्त्रातुं भूयोर्हसि त्वरम् ।
…
अहं हि मानुषो भूत्वा ह्यज्ञानेन समावृतः । संभविष्याम्ययोध्यायं गृहे दशरथस्य च॥
ब्रह्मविद्यासहायोस्मि भवतां कार्यसिद्धये॥ 8.95 ॥
वैष्णव खण्ड (2.9.18) में ही अवतार वर्णन इस प्रकार है। आरम्भ मत्स्य से न हो कर वाराह से है:
असाध्ये यत्र कार्ये च मोहमेष्यसि तत्त्वहम् । प्रादुर्भूय करिष्यमि स्मृतमात्रस्त्वया विधे ॥
सृज्यमाने त्वया विश्वे नष्टां पृथ्वीं महार्णवे । आनयिष्यामि स्वं स्थानं वाराहं रूपमास्थितः ॥
हिरण्याक्षं निहत्यैव दैतेयं बलगर्वितम् ॥
दिनान्ते तव मत्स्योहं भूत्वा क्षोणीं तरीमिव । सहौषधिं धारयिष्ये मन्वादींश्च निशावधि ॥
सुधायै मथ्नतामब्धिं काश्यपानां निराश्रयम् । मन्थानं कूर्मरूपोहं धास्ये पृष्ठे च मन्दरम् ॥
नारसिंहं वपुः कृत्वा हिरण्यकशिपुं विधे । सुरकार्ये हनिष्यामि यज्ञघ्नं दितिनन्दनम् ॥
विरोचनस्य बलवान्बलिः पुत्रो महासुरः । भविष्यति स शक्रं च स्वाराज्याच्च्यावयिष्यति ॥
त्रैलोक्येऽपहृते तेन विमुखे च शचीपतौ । अदित्यां द्वादशः पुत्रः संभविष्यामि कश्यपात् ॥
ततो राज्यं प्रदास्यामि देवेन्द्राय दिवः पुनः । देवताः स्थापयिष्यामि स्वेषु स्थानेष्वहं विधे ॥
बलिं चैव करिष्यामि पातालतलवासिनम् ॥23॥
कर्दमाद्देवहूत्यां च भूत्वाऽथ कपिलाभिधः । प्रवर्तयिष्ये कालेन नष्टं सांख्यं विरागयुक् ॥
दत्तो भूत्याऽनसूययामत्रेरान्विक्षिकीं ततः । प्रह्लादायोपदेक्ष्यामि विद्यां च यदवे विधे ॥
मेरुदेव्यां सुतो नाभेर्भूत्वाहमृषभो भुवि । धर्मं पारमहंस्याख्यं वर्तयिष्ये सनातनम् ॥
त्रेतायुगे भविष्यामि रामो भृगुकुलोद्वहः । क्षत्रं चोत्सादयिष्यामि भग्नसेतुकदध्वगम् ॥
सन्धौ तु समनुप्राप्ते त्रेताया द्वापरस्य च । कौशल्यायां भविष्यामि रामो दशरथादहम् ॥ 2.9.18.28 ॥
…
तस्य मे तु चरित्राणि वाल्मीक्याद्या महर्षयः । तदा गास्यन्ति बहुधा यच्छ्रुतेः स्यादघक्षयः ॥ 31 ॥
द्वापरस्य कलेश्चैव सन्धौ पर्यवसानिके । भूभारासुरनाशार्थं पातुं धर्मं च धार्मिकान् ॥
वसुदेवाद्भविष्यामि देवक्यां मथुरापुरे ॥
कृष्णोहं वासुदेवाख्यस्तथा संकर्षणो बलः । प्रद्युम्नश्चाऽनिरुद्धश्च भविष्यन्ति यदोः कुले ॥
गोपस्य वृषभानोस्तु सुता राधा भविष्यति । वृन्दावने तया साकं विहरिष्यामि पद्मज ॥
लक्ष्मीश्च भीष्मकसुता रुक्मिण्याख्या भविष्यति । उद्वहिष्यामि राजन्यान्युद्धे निर्जित्य तामहम् ॥
धर्मद्रुहोऽसुरान्हत्वा तदाविष्टांश्च भूपतीन् । धर्मं संस्थापयन्नेव करिष्ये निर्भरां भुवम् ॥ 36 ॥
…
कृष्णस्य मम वीर्याणि कृष्णद्वैपायनादयः । गास्यन्ति बहुधा ब्रह्मन्सद्यः पापहराणि हि ॥ 39 ॥
कृष्णद्वैपायनो भूत्वा पराशरमुनेः सुतः । शाखाविभागं वेदस्य करिष्यामि तरोरिव ॥
वैदिकं विधिमाश्रित्य त्रिलोकीपरिपीडकान् । छलेन मोहयिष्यामि भूत्वा बुद्धोऽसुरानहम् ॥
मया कृष्णेन निहताः सार्जुनेन रणेषु ये । प्रवर्तयिष्यन्त्यसुरास्ते त्वधर्मं यदा क्षितौ ॥
धर्मदेवात्तदा भक्तादहं नारायणो मुनिः । जनिष्ये कोशले देशे भूमौ हि सामगो द्विजः ॥
मुनिशापान्नृतां प्राप्तानृषींस्तात तथोद्धवम् । ततोऽवितासुरेभ्योऽहं सद्धर्मं स्थापयन्नज ॥
जनान्म्लेच्छमयान्भूमौ कलेरन्ते महैनसः । कल्की भूत्वा हनिष्यामि विचरन्दिव्यवाजिना ॥
यदा यदा च वेदोक्तो धर्मो नाशिष्यतेऽसुरैः । प्रादुर्भावो भविष्यो मे तद्रक्षायै तदा तदा ॥
तस्माच्चिन्तां विहायैव प्रजाः सृज यथा पुरा । एतान्दत्त्वा वरांस्तस्मा अहमन्तर्हितोऽभवम् ॥ 47॥
दस के स्थान पर कुल 14 अवतार बताये गये हैं, कपिल, दत्तात्रेय, ऋषभ एवं व्यास जोकि वर्तमान दशावतार में नहीं मिलते अतिरिक्त रूप से ले लिये गये हैं।
वेदाचारी असुरों द्वारा त्रिलोकी को पीड़ित करने पर बुद्ध अवतार का छल द्वारा उन्हें मोहग्रस्त करना दर्शाया गया है। इस प्रकार उन्हें वैदिक कर्मकाण्डों से दूर कर उनके नाश का मार्ग प्रशस्त करने वाले या उनका नाश करने वाले बुद्ध पुराणों द्वारा मध्यमार्ग अपनाये जाने के सङ्केतक हैं। राधा की प्रतिष्ठा भी उल्लेखनीय है। आगे, 2.9.27 में, राधा अपना पूर्ण साम्प्रदायिक रूप प्राप्त कर चुकी हैं। कृष्ण के साथ वह केंद्र में हैं। संकर्षण पीछे दायें प्रद्युम्न, बायें अनिरुद्ध एवं समक्ष 2×8=16 अवतारों की स्थापना वर्णित है। भिक्षुक बुद्ध का वामन के साथ युग्म है, हयग्रीव वराह के साथ, धन्वन्तरि नृसिंह के साथ एवं हंस दत्तात्रेय एक साथ हैं:
अन्तराले च पुष्पाणि चित्राणि पुरपद्मयोः । कृत्वा मध्येऽथ श्रीकृष्णं तद्वामे राधिकां न्यसेत्॥
राधाकृष्णस्यास्य ततः पृष्ठे संकर्षणं न्यसेत् । चतुर्बाहुं धृतच्छत्रं गौराङ्गं नीलवाससम्॥
दक्षे न्यसेद्भगवतः प्रद्युम्नं पीतवाससम् । चतुर्भुजं घनश्यामं धृत्वा चामरमास्थितम्॥
वामेऽनिरुद्धं च हरेर्न्यसेदरुणवाससम् । इन्द्रनीलमणिश्यामं संस्थितं धृतचामरम्॥
त्रयोप्येते तु कर्तव्या नानालंकारशोभिताः । अनर्घ्यरत्नमुकुटास्तारुण्येन मनोहराः॥
ततोऽवतारांस्तु हरेः केसरेष्वष्टसु क्रमात् । एकैकस्मिन्न्यसेद् द्वौद्वावष्टस्वेवं हि षोडश॥
स्थापयेद्वामनं बुद्धं पूर्वस्मिन्केसरेऽग्रतः । घनश्यामावुभौ ह्येतौ करुणौ ब्रह्मचारिणौ॥
सितांशुकौ करे दक्षे बिभ्रतौ फुल्लपङ्कजम् । अभयं वामहस्ते च शान्तौ यज्ञोपवीतिनौ॥
कल्किनं पर्शुरामं चवह्निकोणेऽथ विन्यसेत् । खङ्गपाणिस्तत्र कल्की पर्शुपाणिस्तथाऽपरः॥
उभौ गौरौ च ताम्राक्षौ जटिलौ सितवाससौ । यज्ञोपवीतिनौ कार्यौ त्यक्तक्रोधमहारयौ॥
हयग्रीववराहौ च स्थापयेद्याम्यकेसरे। हयग्रीवो हयास्यः स्यान्नरांगश्च चतुर्भुजः॥
शङ्खादिभृत्स्वर्णवर्णो धृतदिव्यसिताम्बरः । वराहस्तु वराहास्यो नरांगः स्याच्चतुर्भुजः॥
शङ्खचक्रगदाब्जानि दधत्पीताम्बरं तथा । मधुपिंगलवर्णश्च कर्त्तव्यो द्विभुजोऽथ वा॥
मत्स्यकूर्म्मौ नैर्ऋते च स्थापयेत्केसरे ततः । कटेरधस्तदाकारावूर्द्ध्वं तौ तु नराकृती॥
वामे शंखं गदां दक्षे पाणौ च दधतावुभौ । श्यामसुन्दरदेहौ च कर्त्तव्यौ धृतभूषणौ॥
धन्वन्तरिं नृसिंहं च पश्चिमे केसरे न्यसेत् । धन्वन्तरिः शुक्लवासा गौरांगोऽमृतकुम्भधृत्॥
सिंहवक्त्रो नृसिंहस्तु नृदेहः केसरान्वितः। नीलोत्पलाभो द्विभुजो गदाचक्रधरो भवेत॥
वायौ न्यसेदुभौ हंसदत्तात्रेयौ जटाधरौ । योगिवेषौ सितौ दण्डकमण्डलुकरौ तथा॥
उत्तरे केसरे व्यासं न्यसेद्गणपतिं ततः । तत्र व्यासो विशालाक्षः कृष्णवर्णः सिताम्बरः॥
द्विभुजो धृतवेदश्च सुपिशंगजटाधरः । सितयज्ञोपवीतश्च कर्त्तव्यः सपवित्रकः॥
गजास्य एकदन्तश्च रक्तो गणपतिर्भवेत्। रक्ताम्बरधरश्चैव नागयज्ञोपवीतवान्॥
तुन्दिलश्च चतुर्बाहुः पाशाङ्कुशवरान्दधत् । करेणैकेन च दधद्रम्यां पुस्तकलेखिनीम्॥
न्यसेत्केसर ईशाने कपिलं पूजकस्ततः । सनत्कुमारं च मुनिं नैष्ठिकब्रह्मचारिणम्॥2.9.27.41॥
एक ब्राह्मण को भूमिदान के पश्चात पापनाशन के तट पर भद्रमति द्वारा स्तुति (2.1.20) में दशावतार आते हैं जिनमें मत्स्य, नृसिंह एवं बुद्ध नहीं हैं:
नमो नमः कारणवामनाय नारायणायामितविक्रमाय॥
श्रीशार्ङ्गचक्रासिगदाधराय नमोऽस्तु तस्मै पुरुषोत्तमाय॥77॥
नमः पयोराशिनिवासकाय नमोऽस्तु लक्ष्मीपतयेऽव्ययाय ॥
नमोऽस्तु सूर्याद्यमितप्रभाय नमोनमः पुण्यगतागताय॥
नमोनमोऽर्केन्दुविलोचनाय नमोऽस्तु ते यज्ञफलप्रदाय॥
नमोस्तु यज्ञांगविराजिताय नमोऽस्तु ते सज्जनवल्लभाय॥
[ऊपर के श्लोक में पुरुष सूक्त का प्रभाव]
नमोनमः कारणकारणाय नमोऽस्तु शब्दादिविवर्जिताय॥
नमोऽस्तु तेऽभीष्टसुखप्रदाय नमोनमो भक्तमनोरमाय॥
नमोनमस्तेऽद्भुतकारणाय नमोऽस्तु ते मन्दरधारकाय॥
नमोऽस्तु ते यज्ञवराहनाम्ने नमो हिरण्याक्षविदारकाय॥
नमोऽस्तु ते वामनरूपभाजे नमोऽस्तु ते क्षत्रकुलान्तकाय॥
नमोऽस्तु ते रावणमर्दनाय नमोऽस्तु ते नन्दसुताग्रजाय॥82॥
नमस्ते कमलाकान्त नमस्ते सुखदायिने॥
अवंति रेवा खण्ड में अवतार इस प्रकार वर्णित हैं:
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः । रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दश ॥151.4॥
बुद्ध को मधुहन्ता बताया गया है, जो सम्भवत: बौद्ध मार अर्थात कामदेव का सङ्केतक है:
तथा बुद्धत्वमपरं नवमं प्राप्स्यतेऽच्युतः । शान्तिमान्देवदेवेशो मधुहन्ता मधुप्रियः॥
तेन बुद्धस्वरूपेण देवेन परमेष्ठिना । भविष्यति जगत्सर्वं मोहितं सचराचरम् ॥ 151.22॥
ब्रह्म खण्ड (3.2.32) में रमणी स्वरूपा भूदेवी द्वारा श्रीराम की स्तुति में ‘नरपतिरिति लोकैः स्मर्यते वैष्णवांशः.’ प्रयुक्त हुआ है।
अवन्ति खण्ड (42, 12-14) में दशावतार का आरम्भ अनन्त से है, मत्स्य अवतार नहीं है:
नमोऽनंताय बृहते कूर्माय वै नमोनमः। नृसिंहरूपायोग्राय नमो वाराहरूपिणे॥
राघवाय च रामाय ब्रह्मणेऽनंतशक्तये । वासुदेवाय शांताय यदूनां पतये नमः॥
नमो बुद्धाय शुद्धाय कल्कये म्लेच्छनाशिने ।
Shiva Linga Skanda (अगले अङ्क में मत्स्य पुराण)