सनातन बोध पिछले भाग से आगे
पिछले लेखांश में हमने ‘जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्ति: ॥‘ की चर्चा की। प्रो. जोनाथन हैद्ट की पुस्तकों मे इससे ही सदृश तर्कसङ्गत भ्रान्ति (rationalist illusion) का वर्णन मिलता है। मस्तिष्क के दो प्रणालियों के सिद्धांत को मानने वाले मनोवैज्ञानिक इस बात को स्थापित करते हैं कि नैतिक निर्णय (moral Judgement) बहुधा मस्तिष्क के स्वत: एवं त्वरित प्रणाली से लिए जाते हैं। तर्कसङ्गत भ्रान्ति अर्थात ऐसे निर्णय ले लेने के पश्चात तर्क का कार्य बहुधा केवल उस निर्णय को तर्कसङ्गत बनाने के लिए होता है। इस सिद्धांत को भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिकों ने भिन्न-भिन्न रूपों में समझाया है। इसका प्रभाव यह होता है कि वे बातें जो स्वयं को तर्कसङ्गत लगती हैं, बहुधा केवल एक भ्रान्ति होती है अर्थात जब सोचने की यांत्रिकी ही अतार्किक हो तो निष्कर्ष का तार्किक लगना उसका अतार्किक होना सिद्ध करता है।
जिन दो प्रणालियों की चर्चा हमने पिछले लेखांशों में की थी, जोनाथन हैद्ट उसी को तथागत के उपदेशों में से उदाहरण चुनते हुए समझाते हैं – वन्य हाथी (प्रणाली १) एवं महावत (प्रणाली २)। उनकी पूरी पुस्तक Happiness Hypothesis आधुनिक मनोविज्ञान के इस सिद्धांत को समझाने के लिये प्रणाली एक एवं दो के स्थान पर वन्य हाथी तथा महावत के उदाहरण का ही प्रयोग करती है। वन्य हाथी अर्थात स्वतः, सहज ज्ञान पर आधारित और महावत अर्थात सोच समझ कर अपने हानि लाभ की सोच दूर तक देखने वाला भाग। वन्य हाथी अपनी चाल चलता रहता है- मार्ग में आने वाली स्थितियों पर अपने अनुभव से त्वरित निर्णय लेते हुए। मार्ग में आने वाली बाधाएं उसे दिखती हैं। उसे त्वरित निर्णय लेने होते हैं। महावत वन्य हाथी को दिशा देता तो है पर आवश्यक नहीं कि वन्य हाथी के पास उतना समय हो या वह हर बात माने ही। साथ में महावत को हर बात का न अनुभव होता है, न अनुमान या आशङ्का। मस्तिष्क के ये दोनों भाग आवश्यक हैं। एक अग्रणी हो एवं दूसरा अनुसरणकर्ता, ऐसा नहीं है। वे एक दूसरे के मन्त्री या पूरक कहे जा सकते हैं या कुछ इस प्रकार – महावत मन्त्री या सेवक; गज शेष सब कुछ (भावनायें, प्रतिक्रिया, सहज ज्ञान इत्यादि)। जब दोनों साथ कार्य करते हैं तो मानवी विलक्षणतायें भाषित होती है पर बहुधा ऐसा होता नहीं है एवं उसका सबसे बड़ा कारण है – आत्म नियंत्रण का अभाव। संक्षेप में कहें तो विलक्षणता मस्तिष्क के महावत को नियंत्रक होने हेतु प्रशिक्षित करने में है – उत्तेजित करने वाले कारकों को पहचानना एवं जो अनिच्छित हों, अवांछित हों, उनसे बचना।
मस्तिष्क की इस जटिल प्रणाली को तथागत के बिम्ब से समझाने के पश्चात उसी पुस्तक में आत्म नियंत्रण की बात की चर्चा आती है – वन्य हाथी तथा महावत को एक साथ सुनियोजित पद्धति से जीवन पथ पर ले चलने की बात। सुख की अवधारणा पर लिखी इस आधुनिक पुस्तक की इन बातों के पश्चात अब महात्मा विदुर के इन वचनों का अवलोकन कीजिये –
रथः शरीरं पुरुषस्य दृष्टमात्मा नियन्तेन्द्रियाण्याहुरश्वान्।
तैरप्रमत्तः कुशली सदश्वैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः॥
एतान्यनिगृहीतानि व्यापादयितुमप्यलम्।
अविधेया इवादान्ता हयाः पथि कुसारथिम् ॥
अनर्थंमर्थंतः पश्यत्रर्थं चैवाप्यनर्थतः।
इन्द्रियैरजितैर्बालः सुदुःखं मन्यते सुखम् ॥
यहाँ महात्मा विदुर मानव जीवन में शरीर को रथ, बुद्धि को सारथी और इन्द्रियों को घोड़े कहते हुए इनसे बुद्धि के प्रयोग से वश में रखने को कहते हुए कहते हैं कि श्रेष्ठ रथी ही इस संसार में सुखपूर्वक यात्रा करता है। जैसे अनियंत्रित एवं अप्रशिक्षित घोड़े मूर्ख सारथी को मार्ग में ही गिराकर मार डालते हैं वैसे ही यदि इंद्रियों को वश में न किया जाए तो ये मनुष्य की शत्रु सिद्ध होती हैं। अज्ञानी मिथ्या सुख को ही श्रेष्ठ समझ आनंदित होते हैं एवं अर्थ का अनर्थ तथा अनर्थ का अर्थ करते हुए विनाश के मार्ग पर चल पड़ते हैं।
जोनाथन हैद्ट बौद्ध दर्शन के अनुवादों से ली गयी तथागत की बात का सही प्रयोग तो करते हैं पर सुख की अवधारणा पर लिखी उनकी पुस्तक पढ़ते हुए सारथि और घोड़ों की बात कहीं अधिक सटीक प्रतीत होती है। जहाँ वह वन्य हाथी तथा महावत के उदाहरण को सटीक दर्शाते हुए मस्तिष्क की जटिलता को समझाने के लिये सरल करने में सक्षम बताते हैं वहाँ विदुर के वचन अधिक सटीक प्रतीत होते हैं।
तर्कसङ्गत भ्रान्ति अर्थात जंगली हाथी के त्वरित पग बढ़ा देने के पश्चात महावत निर्णय को उचित दर्शाने या करने के लिए तर्क गढ़े। साम्प्रदायिक नैतिक मूढ़ता इसका एक सटीक उदाहरण है यथा अब्राहमी मतावलम्बियों का मतान्तरण (Conversion) हेतु प्रचार, अत्याचार इत्यादि का भी तर्कसंगत होने की बात करना। अब्राहमी पंथों के मूल में है – आदेश, निरंकुशता (authority) एवं अन्धकार युग की बातों को भी बिना प्रश्न किये मानने का आदेश। उन नियमों को न मानने पर सजा का भय और प्रावधान। इसके विपरीत पूर्व में उदित समस्त पंथों एवं प्राचीन धर्म में इन बातों का पूर्णतया अभाव ही है। पूर्व के पंथों में जहाँ व्यक्तिगत उत्थान, सत्य अन्वेषण एवं निस्वार्थता पर सदा ही ध्यान रहा वहीं अब्राहमी मतों के मूल में सदा से साम्प्रदायिक नियम एवं निरंकुशता रहे – अब्राहमी धर्म अर्थात पंथ-प्रचार, साम्प्रदायिक स्वार्थ, प्रतिशोध, ईर्ष्या तथा भय के पर्याय। यहाँ तर्कसङ्गत भ्रान्ति इस प्रकार है कि उन मतों के अनुयायियों को अपनी पुस्तक्पं की अनर्गल बातें भी तर्कसङ्गत लगती हैं परन्तु वही बात यदि कोई ऐसा व्यक्ति पढ़े जो इन मतों की ‘नैतिकता’ में अपने आप को बँधा हुआ नहीं पाता तो उसे इन मतों की अर्थहीन बातें तथा दुष्प्रचार की सचाई दिखाई देती है। आये दिन धार्मिक आतंक की घटनाएं सुनने में विवेकहीन लगती हैं परन्तु ‘धार्मिक नैतिकता’ में बँधे तर्कसङ्गत भ्रान्ति से घिरे मूढ़ व्यक्ति इसके बचाव के लिए भी जो बातें कहते हैं, उन्हें तर्कसङ्गत (reason, logic जैसे शब्द) कहते हैं! तथा संभवतः वे बातें उन्हें स्वयं तार्किक प्रतीत भी होती है। इसे समझने के लिए जोनाथन हैद्ट की ‘The Righteous Mind’ में लिखी ये पंक्तियाँ सम्यक हैं :
‘Morality binds and blinds. It binds us into ideological teams that fight each other as though the fate of the world depended on our side winning each battle.’
इसी बात को रोबर्ट राईट अपनी पुस्तक Moral Animal में कुछ इस प्रकार समझाते हैं :
‘The human brain is, in large part, a machine for winning arguments, a machine for convincing others that its owner is in the right – and thus a machine for convincing its owner of the same thing. The brain is like a good lawyer: given any set of interests to defend, it sets about convincing the world of their moral and logical worth, regardless of whether they in fact have any of either.’
तर्क में पराजित हो जाने के पश्चात भी ऐसे लोगों की सोच में कुछ परिवर्तन नहीं होता क्योंकि जब हम किसी के तर्क का खंडन करते हैं तो भी वे हमारी बात से सहमत नहीं होते क्योंकि उनकी सोच उस तर्क के कारण नहीं बनी होती जिसका हम खंडन करते हैं बल्कि उनके तर्क तो उनकी सोच के बनने के पश्चात उस सोच के निरूपण एवं उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए बने होते हैं!
तर्कसङ्गत भ्रान्ति की इस बात पर पुनः भर्तृहरि के मूर्खों की अनभिज्ञता पर लिखी गयी बातें ध्यान आती हैं – तर्कसङ्गत होने की भ्रान्ति – उन्हें समझाना असम्भव!
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः। ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ॥
लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयत् पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः ।
कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादयेत् न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥
(क्रमश:)
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