बेड़ियों में बद्ध वीर सावरकर ने हँसते हुए अंग्रेजी में उससे कहा, “नियति ने मुझे और तुम्हें पुन: मिलाया है जॉन। तुम्हें नासिक के भगूर गाँव की उस साँझ की स्मृति होगी, जब तुम ने गाँव के खेलते हुए बच्चों के हाथ से एक असि छीनी थी और कहा था यदि यह पूर्वजों की पराक्रमी असि तुम्हारी है तो कुछ पराक्रम कर दिखाओ! तो कहो मेरा पराक्रम कैसा लगा है तुम्हें?
एक शिला पर बैठे वृद्ध को घेरकर कुछ बच्चे बैठे थे। एक ने कहा, “एक कथा सुनाओ अघोरी, अच्छी कथा, जो हमें आनंद दे।”
अघोरी ने उत्तर दिया, “सुनो, एक सत्य कथा सुनो। सत्य है तो इसमें पीड़ा भी है, परन्तु सत्य व ज्ञान की पीड़ा का भी एक आनंद है।”
दृश्य—१
२२ जुलाई १९१०, मुंबई के पत्तन पर सामान्य दिनों के कोलाहल के विपरीत नीरवता व्याप्त थी। सामान्य जन को ज्ञात ही नहीं हो पा रहा था कि ऐसी शांति क्यों छाई है? सात सागर पार अमेरिका के न्यूयॉर्क टाइम्स में समाचार छपा था कि एक व्यक्ति जिसने दो देश की सेनाओं को स्तब्ध कर दिया, जिसको लेकर हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में तीक्ष्ण वाद-विवाद हुआ, अंग्रेजों का वह सबसे बड़ा शत्रु आज जलपोत एस. एस. साष्टि से भारत पहुंचने वाला है।
जैसे ही वह जलपोत पत्तन पहुँचा, सैनिकों के बूटों की ध्वनि से पत्तन की परिधि में लगे शाक सागवान की लकड़ी के पटरे चरमराने लगे। दो सौ खड्ग खिंच गये जिनकी पंक्ति के बीच बेड़ियों में बँधा एक युवक धीरे-धीरे आगे बढ़ा। उसने सिर झुकाकर अपनी इस धरती को सांकेतिक प्रणाम किया, तदुपरान्त ऊपर आकाश की दिशा में देखते स्मितमुख हो गया — हे मातृभूमि, मैं आ गया हूँ ! उसे एक रुद्ध गाड़ी तक पहुँचाया गया तथा गाड़ी चल पड़ी। मुंबई शहर के मध्य पुलिस की एक छावनी के पास वह गाड़ी रुकी और एक सुसज्जित अंग्रेज अधिकारी बाहर आया। उसने इस बंदी से कहा, “मार्ग के उस पार देखो सावरकर, उस ऊँचे भवन को; वह एक अधिवक्ता का घर है। ऐसा घर तुम्हारा भी हो सकता था। तुम बैरिस्टर बनने इंग्लैंड गए थे और देखो क्या करके लौटे हो?”
सावरकर ने उसकी ऊँची उठी भुजा को देखा, उसकी भुजा की शुभ्र त्वचा पर काले रंग के एक बिच्छू का गोदना गुदा हुआ था। यह देख कर सावरकर चौंक पड़े और अचानक उनकी स्मृति में बचपन उतर आया। अपने गाँव का वह दृश्य आँखों में उतर पड़ा जब साथ खेलते हुए उनके बड़े भाई के हाथ से पुरखों की असि को घोड़े पर सवार एक अंग्रेज अधिकारी ने खेल-खेल में छीन लिया और कहा कि यदि यह असि तुम्हारी है तो इससे कुछ करतब करके दिखाओ!
अतीत—१
१७ वर्ष पूर्व। संध्या का समय होने वाला था। सूर्य की लालिमा घट रही थी और नासिक नगर से कुछ दूर एक छोटे से गाँव की सीमा पर लगे आम के उद्यान में कुछ बालक, कुछ किशोर खेल रहे थे। एक छोटा बच्चा जिसे सब तात्या कहते थे, अपने बड़े भाई गणेश के साथ इस समूह में मग्न था। गणेश को बाबा कहकर पुकारा जाता था। बाबा और तात्या की इस जोड़ी का इस खेल में प्रमुख स्थान था क्योंकि इस खेल का एक उपकरण पेशवाओं की दी गई एक असि थी। वह तलवार इनके पूर्वजों को मराठा सेना में रहते हुए अपने अद्भुत पराक्रम के कारण प्राप्त हुई थी। इन दो भाइयों के पुरखे शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज के प्रतिनिधि हुआ करते थे। उनके घर की छत पर ऐसे अनेक उपहार और अलंकरण वर्षों से पड़े हुए थे, उसी समूह में से असि उठा कर आज ये उस उद्यान में खेल रहे थे; और खेल भी क्या था— एक प्रकार का युद्धाभ्यास जिसमें एक धनुष लेकर उससे सम्मुख जो था उस पर तीर चलाया जा रहा था।
बालकों का यह रोचक खेल चल रहा था तभी अचानक उद्यान की दूसरी दिशा के तड़ाग के किनारे घोड़ों के टापों की ध्वनि सुनाई दी, उस ध्वनि से आकर्षित होकर तात्या उसकी दिशा में भागा, उसके पीछे-पीछे छोटे बच्चों की एक बड़ी टोली एवं इन सब के पीछे बड़ा भाई ‘बाबा’। तड़ाग के किनारे दौड़ते घोड़ों की टाप एक लयबद्ध संगीत उत्पन्न कर रही थी एवं उनसे उड़ती धूल गाँव तक सूचना पहुँचा रही थी कि गोरों का दल पहुँच चुका है। कोई श्वेत, कोई श्याम, कोई दोनों रंगों का संयोग, तो कोई पिङ्गल एवं बादामी— विविध रंगों के घोड़े आम के उद्यान में चक्कर काट रहे थे एवं उनके गर्वोन्नत सवारों को अब इन छोटे बच्चों में रुचि आने लगी थी।
तात्या ने बचपन में शिवाजी महाराज के घोड़े की कहानी सुनी थी, इस समूह में एक श्वेत अश्व को देखकर उसके मन में यह कल्पना आई कि हो न हो यह घोड़ा शिवाजी महाराज के घोड़े का वंशज है और वह बालक उसी कल्पना में मग्न था। तभी उस घोड़े का सवार आगे बढ़ा, बाबा के हाथ से वह असि ली और चलता बना। बाबा द्रुत गति से उसके पीछे दौड़ा और घोड़े के समक्ष हो अपनी असि माँगने लगा। गोरा अफसर कुत्सित हँसी हँसता हुआ बोला— नो नो। बाबा चिढ़कर बोला, “नो क्यों करते हो, यह हमारे पुरखों की असि है जो मराठा साम्राज्य की धरोहर है, तुम इसे यूँ नहीं ले सकते।”
बालक का गर्व एवं शौर्य देखकर वह अंग्रेज टूटी फूटी मराठी में पूछ पड़ा— नाम क्या है तुम्हारा?
बाबा ने उत्तर दिया, “तुम्हारा नाम क्या है, पहले तुम अपना नाम बताओ?”
अंग्रेज ने असि को घुमाते हुए कहा, “जॉन पार्किन्स, और ऐसी तलवार किसी शक्तिशाली के हाथ में ही शोभा देती है।” उसकी भुजा पर बनी बिच्छू की आकृति का गोदना तात्या को आकर्षित कर रहा था। तभी बाबा ने एक कदम आगे बढ़कर कहा, “मैं हूँ गणेश दामोदर सावरकर, मुझे बाबा कहते हैं और यह तात्या है, मेरा छोटा भाई। इसका नाम है विनायक दामोदर सावरकर। मेरे पूर्वजों ने जो पराक्रम किया था उसके लिए यह असि उन्हें मिली थी।”
बच्चों के तेजस्वी स्वभाव से प्रभावित जॉन पार्किन्स ने तात्या की ओर असि उछाल दी और बोला, “तुम्हारे पूर्वजों ने पराक्रम किया था तो तुम भी इस असि से कुछ पराक्रम कर दिखाओ।” इतना बोलकर उसने घोड़े को एड़ लगाई और जिधर से आया था उसी ओर लौट पड़ा। उसके पीछे उसका पूरा घुड़सवार दल भी पहाड़ी मार्ग से तीव्रता से ओझल हो गया।
दृश्य—२
मुम्बई पत्तन पर उतरे अंग्रेजों के सबसे बड़े शत्रु सावरकर का १७ वर्षों पश्चात पुनः उस जॉन पार्किन्स से सामना हुआ था एवं उसकी भुजा पर बने बिच्छू से ही सावरकर ने उसका अभिजान कर लिया था। बेड़ियों में बद्ध सावरकर ने हँसते हुए अंग्रेजी में उससे कहा, “नियति ने मुझे और तुम्हें पुन: मिलाया है जॉन। तुम्हें नासिक के भगूर गाँव की उस साँझ की स्मृति होगी, जब तुम ने गाँव के खेलते हुए बच्चों के हाथ से एक असि छीनी थी और कहा था यदि यह पूर्वजों की पराक्रमी असि तुम्हारी है तो कुछ पराक्रम कर दिखाओ! तो कहो मेरा पराक्रम कैसा लगा है तुम्हें? कैसा लगा इंग्लैंड से लेकर फ्रांस तक का मेरा पराक्रम? तुम्हारी सरकार से पूछो की मुझ जैसे नि:शस्त्र व्यक्ति से सभी क्यों इतने भयभीत हैं?
तुम्हें गर्व है कि तुम्हारे राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता पर मैंने देखा है कि लन्दन में तुम्हारी स्त्रियाँ और बच्चे हमारे नाटकों के दृश्यों से भी भयभीत होकर किस प्रकार बिलखते हैं। भारत की ही संपत्ति और भारत के ही लोगों के माध्यम से तुम भारत पर शासन करते हो। सदियों की दासता से दलित कुचले इंग्लैंड को नियति ने जो अवसर प्रदान किया है उसे विश्व कल्याण में भी लगा सकते थे, ऐसा सहस्रो वर्षों तक भारत ने किया भी है पर तुम वस्तु के परे नहीं देख सकते अतः तुम्हें म्लेच्छ कहा जाता है; पशुवत।”
पार्किन्स स्तब्ध था और कहे गए शब्दों को अनुभव करना चाह रहा था, वर्षों पूर्व भगूर गाँव की घटना की स्मृति को भी जी रहा था। अधिक कुछ कहे सुने जाने का अवसर भी नहीं था। एक रुद्ध मोटरगाड़ी में बिठाकर सावरकर नासिक पुलिस को सौंप दिए गए एवं उन्हें यरवदा कारागार में भेज दिया गया। यहाँ उन पर नासिक के कलेक्टर की हत्या में सहयोगी होने का मुकदमा चलना था।
इंग्लैंड और फ्रांस के सूत्रों के सहयोग से मैडम भीकाजी कामा ने भारत में उनके पक्ष में लड़ने के लिए एक बैरिस्टर श्री जोसेफ बैप्टिस्टा को नियुक्त किया जिन्होंने वीर सावरकर से १३ सितंबर को कारागार में ही भेंट की। इंग्लैंड में अभी भी इनके दल के अनेक सदस्य थे जो सक्रिय रूप से इनको सहायता पहुँचाने के प्रयास कर रहे थे। पिछले डेढ़ महीने में श्री बैप्टिस्टा ने लन्दन में सावरकर के अधिवक्ता रहे श्री वेगन से सम्पर्क स्थापित करके आवश्यक प्रलेख मँगाने की व्यवस्था कर ली थी। प्रारंभिक नियोजन के पश्चात ही वे यरवदा कारागार पहुँच कर सावरकर से मिले।
वीर सावरकर के अभियोग के निशमन हेतु एक ऐसी न्यायपीठ गठित की गई थी जिसमें पुनर्विचार याचिका का कोई प्रावधान नहीं था। उन दिनों भारत में किसी भी न्यायालय में स्थानीय स्तर के सम्मानित सज्जनों की एक ज्यूरी बैठा करती थी परंतु इस अभियोग में किसी भी ज्यूरी को सम्मिलित नहीं किया गया। अंग्रेज सरकार कोई ऐसा साधन नहीं छोड़ना चाहती थी जिसका लाभ उठाकर आगे सावरकर को बचाया जा सके।
अतीत—२
अतीत के एक विशाल महल का अधिकांश पुराना भग्न हो चुका था। दामोदर राव सावरकर अपने बड़े भाई के साथ एक संयुक्त परिवार में रहते थे जो उसी विशाल महल का एक बचा हुआ तीन तला अंश था। इसी दामोदर सावरकर का मँझला पुत्र तात्या एक दिन खेलता हुआ अपने घर की छत पर पहुंच गया और वहाँ उसने एक विशाल पालकी देखी। सुंदर क्षदन युक्त मूठ की बनी हुई पालकी इसके पूर्वजों की एक और चिह्न थी। भिन्न भिन्न प्रकार के तेग, असि, धनुष, भाले एवं बरछे भी रखे थे।
तात्या के काका उसे कहानियाँ सुनाया करते थे, “अपने पूर्वज जब प्रतिनिधि हुआ करते थे तो पेशवा के उस राज में १४ बाड़ों का हमारा विशाल भवन हुआ करता था। जब मराठों का पराभव हुआ तो पेशवाई समाप्त हो गई और दूसरे बाजीराव पेशवा ने स्वयं को अंग्रेजों के सामने नतमस्तक कर दिया। शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज का सूरज ढल गया, पेशवाई गई जिसके साथ हमारा प्रतिनिधित्व भी जाता रहा एवं वैभव भी।”
काका की कहानियाँ सुनकर तात्या विस्मित था। वह समझ नहीं पाया कि शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी किसी के आगे नतमस्तक क्यों हो गए? मराठा साम्राज्य के तेग मुर्चा कैसे खाने लगे? ये अंग्रेज कौन हैं एवं कहाँ से आ गए? ये हमारे यहाँ भगूर में आकर कैसे राज करने लगे?
काका कहानियाँ सुना रहे थे— अंग्रेजों ने भारतीयों के लिए अस्त्र-शस्त्र रखना प्रतिबंधित कर दिया है क्योंकि उन्हें लोगों से विद्रोह का भय है। पेशवा ने अंग्रेजों से अपमानजनक समझौता किया है पर मराठा राज्य की प्रजा ने नहीं। प्रजा पेशवा की संपत्ति नहीं, उनकी सेवक नहीं। पेशवा तो केवल संरक्षक थे, यदि वे योग्य नहीं तो प्रजा तो अवश्य अपने सम्मान की रक्षा करेगी।
गाँव गाँव में लोगों ने अस्त्र उठा लिए परंतु अंग्रेजों ने गाँव के लोगों को ही भेदी बनाकर अपनी सेना में भर्ती करना प्रारम्भ किया। निजी स्वार्थ राष्ट्रहित पर भारी पड़ने लगा।
छोटे तात्या को क्या पता था कि भविष्य में उसके साथ भी ऐसा होने वाला है?
(क्रमशः)