A Note on Caste जाति पर एक बात, सुभाष काक के मूल आङ्ग्ल लेख का अनुवाद – अर्पिता शर्मा,
संंशोधन – गिरिजेश राव,
भंडारकर ऑरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट का वृत्तान्त, वॉल्यूम 77, 1996, पीपी 235-140
भारतीय समाज के किसी भी पहलू को इतनी दरिद्रता से नहीं समझा गया है, जितना कि सामाजिक ढाँचे को। ग्लोरिया गुडविन ठीक ही कहती हैं1,”जाति एवं राजत्व सम्बन्धी मानव-शास्त्रीय एवं भारत-विद्या आधारित विमर्श में, धार्मिक संस्कार एवं रीतियों में ग्रामीण खेतिहर की एवं भारतीय वाङ्मय में राजा की प्रमुख स्थिति को लगभग उपेक्षित कर दिया गया है। ऐसा उस दृष्टिकोण के समर्थन में किया गया जो जाति एवं धार्मिक रीतियों संस्कारादि को पूर्णत: पद अनुक्रम या श्रेष्ठता पर आधारित बताता है।” उनके सहारनपुर के पहान्सु (उत्तर प्रदेश)में किए गए स्वयं के अनुसंधान ने वहाँ के प्रभावशाली गूजर समाज एवं अन्य समाजों के आपसी संबंधों में दान की महत्ता उद्घाटित की। उनके अध्ययन ने होकार्ट2 के उस मत का समर्थन किया, जिसके अनुसार ग्राम स्तर पर खेतिहर राजा के समान होता है तथा वहाँ जातियों का एक क्रम पाया जाता है जिसमें “पुजारी, धोबी और ढोलची, सभी के साथ समान रूप से व्यवहार किया जाता है, क्योंकि सभी पुजारी हैं।” किन्तु एक बिन्दु पर होकार्ट एवं राहेजा ठीक नहीं हैं, जो कि सम्बन्धों को किसी रीति के अङ्ग की भाँति देखता है जहाँ दान के साथ जुड़ा अमङ्गल भाव सामाजिक अनुक्रम की संरचना में आधारभूत भूमिका का निर्वहन करता है। मुझे ऐसा लगता है कि सम्बन्धों को रीति के संदर्भ में देखना एक जटिल परंपरा को व्याख्यायित करने के लिये प्रयुक्त छ्द्म मात्र है, यद्यपि यह छ्द्म भारतीय ग्रंथों में भी प्रयुक्त हुआ है। हीस्टरमैन3 और राहेजा के अनुसार यदि वैदिक साहित्य में वर्णित कोई रीति पारस्परिक सम्बन्ध का मुख्य आधार थी तो भारतीय मुस्लिमों में पाये जाने वाली समान रीतियों की व्याख्या नहीं की जा सकेगी। और फिर कोई किस प्रकार से लेने और देने की एक समतुल्य परंपरा को समझा पायेगा जोकि कश्मीरी हिंदुओं जैसे जातिभेद रहित समाज में पाई जाती है?
जाति व्यवस्था का जैसा वर्णन भारतीय पाठ्यपुस्तकों में किया गया है, वह उन्नीसवीं सदी के नृविज्ञानियों एवं सामजिक विज्ञानियों का निर्माण है, जो उस समय भारतीय समाज की विस्मयकारी जटिलता का अध्ययन कर रहे थे। इन सामाजिक विज्ञानियों के भेदियों ने पुराने पड़ चुके धर्मशास्त्रों के सिद्धान्तों का उपयोग विभिन्न समुदायों को चार वर्णों में बैठाने के लिये किया। यद्यपि यह वर्गीकरण असत था, तथापि इसे भारत-विद्या के विद्वानों द्वारा कई पीढ़ियों से प्रयोग किया जाता रहा है और अंतहीन दुहराओं के साथ लोकप्रिय पुस्तकों में प्रकाशित हो इसने एक निश्चित वैधता एवं प्रामाणिकता प्राप्त कर ली है। वास्तविकता को आभासी कपटरूप में प्रस्तुत करने का यह एक ऐसा उदाहरण है, जिसमें इस वर्गीकरण की टिकाऊ सचाई में बहुत से भारतीय विश्वास करने लगे हैं!
वैदिक साहित्य का विश्लेषण जाति के अनुक्रम प्रतिरूप का समर्थन नहीं करता4। इस नोट में मैं कश्मीरी पण्डितों का विशेष उदाहरण प्रस्तुत करूँगा। सामान्यतः माना जाता है कि सभी कश्मीरी हिन्दू एक ही जाति से सम्बन्ध रखते हैं। क्या यह इस कारण है कि अन्य जातियों के इस्लाम में मतान्तरण के परिणामस्वरूप वे एक ही जाति या वर्ण में बचे रहे? क्या यह हिन्दू धर्म का एक ऐसे रूप का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें जाति बंधन नहीं है? इसका यथेष्ट प्रमाण उपलब्ध है कि यह सिद्धांत असत है कि कश्मीर में ब्राह्मणों के अतिरिक्त सभी इस्लाम में मतान्तरित हो गये। कश्मीरी हिन्दुओं में आज भी राजानक जैसी संज्ञायें विद्यमान हैं जो पौरोहित्य से इतर कार्यों की द्योतक हैं।
सबसे पहले मुझे पण्डित उपाधि पर बात करने दीजिए, जो कि कश्मीरी पंडितों के लिए काम में लिया जाता है। हेन्नी सेंडर5 के अनुसार इस पदवी हेतु दिल्ली के मुगल दरबार के एक कश्मीरी दरबारी जय राम भान ने मुगल बादशाह मुहम्मद शाह (1719-1749) से प्रार्थना की थी, जिसे स्वीकृति मिल गयी। स्पष्टरूप से इस काल के पहले कश्मीरी हिन्दू एवं मुस्लिम, दोनों को मुगल दरबार में ख्वाजा कहकर पुकारा जाता था।
कश्मीरी हिन्दू स्वयं को बट्ट पुकारते हैं, जो संस्कृत के भर्तृ से लिया गया है। इसका अर्थ होता है, पण्डित। इस प्रकार की संज्ञा इस समुदाय की सफलता और उत्कृष्टता वाली कल्पना का प्रतिबिंब हो सकती है तथा इसका कोई समाजशास्त्रीय उपलक्ष्य हो, आवश्यक नहीं। टी एन मदान उद्धरित6 करते हैं कि एक कश्मीरी के आत्मरूपत्व की अवधारणा ‘भट्टिल’ का मौलिक आधार शिव के साथ समरूपता का विचार है – शिवोहम्। चैतन्य मूल शिव सभी प्राणियों में सार्वभौमिक रूप से उपस्थित है।
कश्मीरी हिन्दुओं के दो उपसमूह बुहर और पुरिब हैं, जिनको कभी-कभी भिन्न मान लिया जाता था। बुहर (पंसारी के लिए कश्मीरी शब्द) एवं पुरिब (पूर्व से आया हुआ)। इसकी बहुत सम्भावना है कि ये उप-वर्गीकरण जो कि कभी सर्वत्र व्याप्त थे, पर आज लुप्त हैं, एक के लिये व्यापार के व्यवसाय को दर्शाते थे, तथा दूसरे के लिये उस वंशावली को जिसका सम्बंध पूर्वी भारत से आव्रजन से था।
कश्मीरी हिन्दुओं के कुछ अन्य नाम भी हैं, जो उनकी भारतबाह्य वंशावली की ओर संकेत करते हैं। उदाहरणस्वरूप तुर्की, काशगरी और लद्दाखी इत्यादि नाम। कभी-कभी इसके लिए बताया जाता है कि ये उपनाम उन स्थानों पर इनके परिवारों के अस्थाई निवास की ओर संकेत करते हैं और सम्भवत: कतिपय परिस्थितियों में यही कारण रहा हो, किन्तु कश्मीरी हिन्दुओं के मध्य तुर्की शारीरिक गठन को देखते हुए यह स्थापित होता है कि सर्वदा यही बात नहीं थी। स्पष्टत:, हिन्दू समुदाय गतिशील रहा होगा, तथा इसने उन सभी लोगों को अपने में समाहित कर लिया होगा, जो इच्छुक थे। विभिन्न परिस्थितियों का यह संयोग ऐसा है कि विविध मूलों के ये सभी हिन्दू स्वयं को ब्राह्मण श्रेणी का पाते हैं।
कश्मीर का प्रमुख दार्शनिक एवं धार्मिक प्रवाह शैव है। शैवों के साहित्य के अनुसार जिसने भी कुल-(शैव कुल)-धर्म को स्वीकार कर लिया है, वह अपनी पुरानी जाति को मिटाते हुए कौल बन जाता है। इसके परिचय के सिद्धान्त (प्रतिभिज्ञ) के अनुसार किसी व्यक्ति को अपनी वास्तविक पहचान एकल, स्वायत्त चेतना माननी चाहिये। शैव प्रवर्तन सर्वदा सभी के लिए खुला रहा, महिलाओं के लिए भी। इस बात के प्रमाण हैं कि किस प्रकार से एक हजार वर्ष पुराने शैव दार्शनिक अभिनवगुप्त की कई शिष्यायें थीं। कालान्तर में कश्मीर में लल्लेश्वरी एवं रूपा भवानी जैसी महान महिला सन्त हुईं।
कश्मीरी हिन्दुत्व के सर्वसमावेशी होने का यह अर्थ नहीं है कि कश्मीर में कोई सामाजिक असमानता नहीं थी। इस प्रकार की सामाजिक असमानता तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक विचारों को झलकाती थी और यह किसी आधारभूत धार्मिक मीमांसा से नहीं उपजी थी।
तो क्या कश्मीरी हिन्दू धर्म अन्यत्र के हिन्दू धर्म से भिन्न है? उत्तर है, नहीं! इस बात के प्रमाण हैं कि वैदिक काल में जन्मना जाति की व्यवस्था नहीं थी। पुराण कहते हैं कि स्वर्णिम काल (सत्ययुग) में सभी ब्राह्मण थे। यह कि ये श्रेणियाँ मानसिक स्थितियों की द्योतक थीं, ब्रह्मपुराण (अध्याय 7) में व्याख्यायित है जहाँ दो जन वर्णित हैं जो कि पहले वैश्य थे एवं बाद में ब्राह्मण हो गये। ऋग्वेद का पुरुषसूक्त (10.90) ब्राह्मण, राजन्य (क्षत्रिय), वैश्य एवं शूद्र को आदि पुरुष के सिर, भुजाओं, जङ्घाओं एवं पैरों उद्भूत बताता है। इस वर्णन को वैदिक समय में एक जाति व्यवस्था के होने के इङ्गित के रूप में लिया गया है। किन्तु अन्यत्र यह बारम्बार वर्णित है कि प्रत्येक मानव पुरुष के रूप में है जो यह इङ्गित करता है कि प्रत्येक मानव समस्त वर्णों की छवियों से समाविष्ट है। स्वयं वैदिक देवता भी भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न भिन्न वर्णों में वर्गीकृत किये गये हैं। अत: किसी व्यक्ति हेतु वर्ण विशेष की संज्ञा एक निश्चित व्यक्तित्त्व प्रकार दर्शाने के लिये प्रयुक्त हुई हो सकती है। परवर्ती पुस्तकें वर्णन करती हैं कि कैसे जन्म के समय प्रत्येक व्यक्ति शूद्र है, जिसका अर्थ यह है कि यज्ञोपवीत (मेखला) संस्कार सभी के लिये अनुमन्य था। एक संस्कार में लड़कियों को भी मेखला बाँधी जाती थी।
शास्त्र घोषणा करते हैं कि किसी भी व्यक्ति की केवल प्रकृति ही उसके वर्ण का निर्धारण करती है, जन्म नहीं। महाभारत के प्रसिद्ध युधिष्ठिर-यक्ष संवाद में युधिष्ठिर से पूछा जाता है कि ‘जन्म, ज्ञान या आचरण’, इनमें से किसके आधार पर कोई व्यक्ति ब्राह्मण होता है? और युधिष्ठिर का उत्तर है कि केवल आचरण से ही कोई ब्राह्मण होता है, जन्म से नहीं। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि ब्राह्मण किसी मिथकीय शुभ्र नृजाति से उद्भूत नृजातीय श्रेणी नहीं है, कुछ कृष्णतम भारतीय (भी) ब्राह्मण हैं।
प्राचीन आर्य समाज में विभिन्न वर्ण कार्य-आधारित विविध समूह थे, न कि जन्म आधारित संवृत अंतर्विवाही समूह। यह सुझाया गया है कि वर्तमान जाति व्यवस्था बहुत बाद में विकसित हुई, सम्भवत: 1000 ई. से पहले नहीं। सातवीं शताब्दी में चीनी शोधार्थी ह्वेन त्सांग इससे अनभिज्ञ था। अत: ऐतिहासिक घटनाओं के प्रत्यादेश में आधुनिक जाति व्यवस्था के उद्भव का श्रेय तुर्क आक्रमण के साथ भारतीय राजनीति में घटित अगले मौलिक परिवर्तन को दिया जा सकता है।
किसी भी भारतीय भाषा में Caste का पर्याय नहीं है। कदाचित जिन भारतीय शब्दों का अनुवाद Caste शब्द से किया जाता है, वे हैं – जाति, जिसका अर्थ बृहद कुल-समुदाय या वंशानुगत-समूह से है; वर्ण, जो कि कार्य आधारित वर्गीकरण है। जातियों के मध्य गत्यात्मकता बड़े स्तर पर ऐतिहासिक एवं राजनैतिक घटकों से प्रभावित रही है। आर्थिक प्रगति के कालों में जातियाँ अपेक्षाकृत खुली हुई रही हैं, जबकि सङ्कट के समय जातियाँ अपने अस्तित्व को बचाने के लिए स्वयं तक सीमित रहने की प्रवृत्ति रखती रही हैं। Caste शब्द की उत्पत्ति पुर्तगाली शब्द Casta से है, जो कि जाति व्यवस्था को वर्णित करने के लिये था किन्तु कालान्तर में इसका लक्ष्यार्थ अति विस्तृत हो गया।
लगभग 2300 वर्ष पूर्व भारत में यवन राजदूत मेगस्थनीज ने (तत्कालिक भारत में) सात वर्गों, दार्शनिक, किसान, गोपालक, शिल्पकार व व्यापारी, सैनिक, सरकारी कर्मचारी एवं सभासद, की उपस्थिति बताई। ये वर्ग प्रतीयमानत: जातियाँ थीं। वैन बुटिनन7 के अनुसार वे कोष या कर श्रेणियाँ थीं। मेगस्थनीज ने कहीं भी चार वर्णों की बात नहीं की है।
भारत के लम्बे इतिहास में विविध सामाजिक एवं धार्मिक धारायें रहीं। अपवादस्वरूप ही ऐसा हुआ है कि वास्तविकता रूढ़िवादी धर्मशास्त्रों के अनुरूप रही हो। धर्मशास्त्रों में दिए गए विचारों में बड़ी मात्रा में विरोधाभास है, अतः प्रामाणिक पाठों के भाग बन गये प्रक्षिप्त अंशों के पूर्व के, उनके ‘मूल’ स्वरूप को सातत्य की उपयुक्त कसौटी का प्रयोग करते हुए ढूँढ़ निकालना उपयुक्त होगा। अन्य शब्दों में कहें तो हमें किसी ग्रंथ के लोकप्रिय भाष्यकारों की पूर्ववर्ती सतह तक पहुँचना होगा।8
वैष्णव जन वर्णों का निर्धारण व्यक्ति के कर्म के आधार पर प्रभावशाली ढंग से करते हैं। इसे भगवद्गीता एवं भागवात पुराण में दुहराया गया है। ब्रह्म पुराण (अध्याय 223) कहता है,”मनुष्यों को उनकी प्रकृति के अनुसार विविध रूपों में वर्गीकृत किया गया है। आचरण ब्राह्मणत्व का कारक है, न कि जन्म, न संस्कार संबंधित अनुष्ठान, न विवृति, न वंशावली। ब्राह्मण समान आचरण सिद्ध होने से एक शूद्र भी ब्राह्मण हो जाता है।” इसी प्रकार शैव जन भी जाति व्यवस्था को अनुमन्य नहीं करते। रूढ़िवादी शास्त्रों के अनुगामी सर्वदा से अति अल्पसंख्यक ही रहे हैं।
यद्यपि यह संभव है कि जातियाँ कर्मकाण्ड के समय देवताओं के मध्यस्थ के रूप में पुरोहित के प्रति दिखावटी विनय प्रदर्शित करें, किंतु प्रत्येक समुदाय स्वयं को सर्वोच्च मानता है। अधिकांश जातियाँ नहीं जानतीं कि चातुर्वर्ण वर्गीकरण के सिद्धान्त में उनकी स्थिति क्या है क्योंकि इस प्रकार का वर्गीकरण निरर्थक है। यद्यपि समुदायों के वर्तमान स्वत्व-अभिज्ञान सामान्यत: 19वीं सदी के उस समय के समीकरणों एवं प्रवृत्तियों के प्रासचीय क्षणचित्र (स्नैपशॉट)हैं जब कि ब्रिटिश शासन द्वारा Caste classification किया गया था, परिवर्तित होते आर्थिक एवं राजनैतिक समीकरण वर्ग समीकरणों पर प्रभाव छोड़ रहे हैं।
किन्तु समुदायों के बीच के समीकरणों में अनुक्रम स्पष्ट नहीं है। यदि ब्राह्मणों को सर्वोच्च समुदाय के रूप में स्वीकार किया जाता है तो अन्य जातियों को अपनी बेटियों को ब्राह्मणों को ब्याहने पर कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये। किन्तु वास्तविकता में वे ऐसा नहीं करते। राजपूत ब्राह्मणों को पारलौकिक मानते हैं या भिक्षुक मात्र; वैश्य ब्राह्मणों को अव्यावहारिक मानते हैं; और ऐसा अन्यों के साथ भी है। पारम्परिक संस्कृत नाटकों में मूर्ख को सदैव ब्राह्मण दर्शाया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रत्येक समुदाय ने जीवन के प्रति एक भिन्न दृष्टिकोण की आन्तरिकता विकसित कर ली है, किन्तु उन दृष्टिकोणों को किसी अनुक्रम में नहीं रखा जा सकता। स्वाभाविक रूप से किसी भी समुदाय में इतर समुदाय के प्रति विकसित आन्तरिक छवि अति सरलीकृत रूप लिये है जो कि वास्तविकता के यथार्थ अनुरूप कदापि नहीं है।
फ्रांसिसी समाजशास्त्री लुईस डुमोंट का मत है कि जातियाँ भिन्न भिन्न किन्तु व्यावसायिक विशेषज्ञता वाली परस्पर निर्भर वंशानुगत समूह हैं। उनकी अभिधारणा है कि शुचिता-अशुचिता का सिद्धांत समूहों को एक दूसरे से पृथक बनाये रखता है। इस प्रकार की व्यवस्था में प्रत्येक जाति स्वयं से नीची जातियों को पारस्परिक वैवाहिक सम्बंध के विशेषाधिकार एवं अन्य दूषक पारिभाषित सम्पर्कों से वञ्चित करते हुये अपनी सीमायें बन्द कर देती है। तथ्य डुमोंट के सिद्धांत को असत्य सिद्ध करते हैं: भारतीय मुसलमानों एवं इसाइयों में भी जातियाँ हैं। अट्ठाहरवीं सदी का जर्मन समाज राजपुत्रों, कुलीनों, नागरिकों, किसानों एवं भूदासों में बँटा हुआ था, जिनमें अनुलोम के सिवाय आपस में विवाह सम्भव नहीं था। कोरिया एवं जापान में भी अस्पृश्यता की परपंरा थी। ऐसा प्रतीत होता है कि अहिंसा के बौद्ध सिद्धान्त ने उन लोगों को बहिष्कृत कर दिया, जो आखेट, पशुवध एवं इस प्रकार के व्यवसायों में थे।
किसी के भी मन में यह बात आ सकती है कि भारतीय समुदाय अंतर्वाही क्यों हो गए। ऐसा तर्क दिया जाता है कि यूरोपीय एवं पश्चिमी परंपराएं अपने स्वभाव से ही अनन्य होने के कारण एकसमान आस्था एवं आचारों का रूप लेती गईं। इसके विपरीत भारतीय धर्मों का समावेशी स्वभाव प्रत्येक समूह को एक विशाल व्यवस्था में स्थान देता चलता है।
एम एन श्रीनिवास ने इस ओर संकेत किया है कि संस्कृतकरण की प्रक्रिया जाति व्यवस्था के भीतर गति के लिये उत्तरदायी है। संस्कृतकरण का अर्थ किसी उच्च वर्ण की प्रबल जाति का अनुकरण करने से है। यहाँ इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिये कि विखण्डन की गत्यात्मकता भी विद्यमान थी। जैसा कि मनुस्मृति (10.42) में कहा गया है – युगों युगों से इस पृथ्वी पर मानवयोनि में समुदाय ऊँचे नीचे होते रहे हैं। साथ ही, एक जीवनकाल में भी जातिपरिवर्तन होते थे।
भारत का सामाजिक ढाँचा किसी एकमात्र विचारधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करता, यही कारण है कि कोई भी एक सिद्धान्त इतना समृद्ध सिद्ध नहीं हो सका है कि वह इस व्यवस्था को ठीक से समझने में सहायक हो सके। यह व्यवस्था कई सहजीवी विचारधाराओं को दर्शाती है। ये विचारधारायें राजनीतिक एवं आर्थिक शक्तियों द्ववारा सन्तुलित होती हैं। ब्राह्मण, योद्धा, व्यापारी एवं सामान्यजन की विचारधाराओं में सबको ज्ञान लब्धि की प्रभाविता में समतुल्य घोषित किया गया जोकि ज्ञानयोग, कर्मयोग, राजयोग एवं भक्ति योग के मार्गों में प्रतिबिंबित हुआ। यहाँ तक कि सरस्वती पूजा, दशहरा, दिवाली एवं होली जैसे पर्व भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों की उत्सवी अभिव्यक्ति हैं।
वर्तमान समय में जाति से जो अर्थ समझा जाता रहा है, वेद वैसे विचार का अनुमोदन नहीं करते। नई तकनीक, विज्ञान एवं राजनैतिक संगठन भारत की सामाजिक संस्थाओं को परिवर्तित कर रहे हैं। कई अर्थों में वर्तमान भारत की जातियाँ पश्चिमी नृजातीय समूहों की वास्तविकता से विशिष्ट नहीं हैं।
मैं फिर से उसी प्रश्न पर आता हूं जो इस नोट के आरम्भ में मैंने पूछा था। हिन्दुओं में वर्गीकृत जाति व्यवस्था है ही नहीं, यद्यपि जैसा कि संसार के कई समाजोंं में होता है, यहाँ कई ऐसे समुदाय हैं, जो दूसरों से अधिक शक्तिशाली हैं। ग्रामीण भारत में वे समुदाय शक्तिशाली हैं, जिनके पास भूमि है; आधुनिक भारतीय नगर व्यवस्था में समुदायों को मुख्यत: नृजातीय समूहों के रूप में देखा जाना होगा।
Notes :
1. G.G. Raheja, The Poison in the Gift. Chicago University Press, Chicago, 1988.
2. A.M. Hocart, Caste: A Comparative Study. Methuen, London, 1950;
A.M. Hocart, Kings and Councillors. Chicago University Press, Chicago, 1970.
3. J.C. Heesterman, The Inner Con ict of Tradition. Chicago University Press, Chicago, 1985.
4. S. Kak, \Understanding caste in India,” Mankind Quarterly, vol 34, pp.
117-123, 1993; S. Kak, India at Century’s End. VOI, New Delhi, 1994.
5. H. Sender, The Kashmiri Pandits. OUP, New Delhi, 1988.
6. T.N. Madan, Family and Kinship. OUP, New Delhi, 1965, 1989.
7. J.A.B. van Buitenen, Studies in Indian Literature and Philosophy. Motilal Banarsidass, Delhi, 1988.
8. For one such effort see Surendra Kumāra, Viśuddha Manu Smṛti. Arsh Sahitya Prachar Trust, Delhi, 1990.