मुल्ला नसीरुद्दीन एक प्यारा चरित्र है। अभिधा तथा लक्षणा से आगे बढ़ कर व्यंजना की शैली में उसकी कहानियाँ एक मुस्कान के साथ शिक्षा देती हैं। और मुल्ला नसीरुद्दीन जैसे चरित्र अनायास नहीं गढ़े जाते। समाज की परिस्थितियाँ एवं घटनायें ही ऐसे चरित्रों को जन्म देती हैं। तो आज मुल्ला नसीरुद्दीन की एक कहानी बताता हूँ।
मुल्ला नसीरुद्दीन एक दिन अपने गधे पर बैठा नगर-भ्रमण पर था कि उसे एक हलवाई का आपण दिखा। हलवाई गरम – गरम जलेबियाँ और कचौरियाँ निकाल रहा था। मुल्ला को भूख भी लगी थी, तो उसने हलवाई से कचौरियाँ और जलेबियाँ ले कर खाया और अपने गधे को भी खिलाया। भुगतान करने के लिये चाँदी का रुपया उसने हलवाई को पकड़ाया।
बोहनी का समय था और हलवाई के पास खुले पैसे नहीं थे। मुल्ला और हलवाई दोनों असमंजस में पड़ गये। तो निश्चित यह हुआ कि मुल्ला पुन: कभी आ कर अपने शेष पैसे ले जाय।
हलवाई से मुल्ला का पहले से परिचय नहीं था तो मुल्ला के समक्ष भविष्य हेतु स्मरण रखने का संकट था कि जब बकाया लेने आयेंगे तो जानेंगे कैसे कि कहाँ कौन? मुल्ला ने स्मृति हेतु आस-पास का कोई भू-चिह्न, कोई लैंड-मार्क खोजने का प्रयास किया तो उसे सामने एक भूरी भैंस बैठी दिखी जिसका एक सींग टूटा हुआ था। मुल्ला संतुष्ट हो कर अपने गधे पर बैठा और चला गया।
मुल्ला की एक विशेष बात यह भी थी कि वह अपने गधे पर कभी सीधा नहीं बैठता था। एक बार किसी ने पूछा भी कि मुल्ला! तुम गधे पर सीधा क्यों नहीं बैठते? तो मुल्ला ने उत्तर दिया,“क्योंकि इसका कोई लाभ ही नहीं है। यह जो मेरा गधा है, वह बहुत ही गधा है। यह मेरे निर्देशों के अनुसार चलता ही नहीं है! मैं पूरब जाना चाहता हूँ तो यह निश्चित नहीं कि यह पूरब की ओर जायेगा। तो जब इसे अपने मन से ही चलना है, तो क्या सीधा और क्या उलटा? इसी लिये मैं पीछे को मुंह करके बैठता हूँ कि जा तू जिधर जाना है!”
अनन्तर गधे की इच्छा से चलते मुल्ला ने हलवाई से अपने शेष धन को पाने हेतु बहुत प्रयास किया किन्तु उसे हलवाई का आपण मिले ही नहीं ! क्यों? क्योंकि वह भैंस, वह भूरी भैंस जिसका एक सींग टूटा था, कहीं अन्यत्र चली गई।
कई दिन बीत गये। एक दिन संयोग से वह भूरी भैंस सड़क के किनारे दिख ही गयी। मुल्ला शीघ्रता से गधे से कूदा और भैंस के सामने वाले आपण में घुस गया। लेकिन वहाँ न तो हलवाई, न हलवाई का आपण ! वह तो एक नाई का आपण था। किन्तु मुल्ला ने नाई का गला पकड़ लिया,“रे बेईमान ! साढ़े नौ आने के लिये तूने अपना धंधा ही बदल डाला? लेकिन मुल्ला के पैसे पचाना इतना सरल नहीं है। निकाल मेरे पैसे!” पैसे तो क्या मिलने थे, मुल्ला की जो पिटाई अभ्यर्थना नाई और उसके ग्राहकों ने मिल कर की, उसके पश्चात मुल्ला का भूरी भैंस के ऊपर से विश्वास ही उठ गया !
भारतीय ज्योतिष जिस काल की गणना करता है उसका अधिष्ठाता ‘महाकाल’ को मानता है। भारतीय दर्शन काल अर्थात् समय को महाकाल के अधीन मानता है। यह महाकाल समय के साथ ‘शिव’ पर आरोपित अवश्य हो गया है, किन्तु वास्तविकता में महाकाल की संकल्पना का निहितार्थ कुछ और ही है। इसी प्रकार भारतीय कथा-साहित्य में उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य बड़े लोकप्रिय रहे हैं। विक्रमादित्य से सम्बंधित हजारों कहानियाँ देश की विविध भाषाओं में प्रचलित हैं। उनके नवरत्नों की कथा भी सर्वविदित है, परंतु आश्चर्य की बात है कि ऐसे लोक प्रसिद्ध राजा के विषय में कथा-कहानियों के अतिरिक्त अन्य कोई साक्ष्य जिससे इनके सम्बंध में कुछ अधिक अभिज्ञान हो सके, उपलब्ध नहीं है। विदेशी इतिहासकार उन्हें केवल कल्पित राजा मानते हैं। पुनश्च, काल के अधिष्ठाता उस महाकाल का एकमात्र सुप्रसिद्ध मंदिर विक्रमादित्य की नगरी उज्जयिनी में है, देश के अन्य किसी भाग में महाकाल का कोई मंदिर नहीं है। अत: निश्चय ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यह ‘महाकाल’ कौन देवता हैं जिनका देश भर में केवल एक मंदिर है? सामान्यतया ‘महाकाल’ शिव का पर्याय मान लिया गया है और उज्जैन के ‘महाकाल’ के मंदिर को शिव का मंदिर माना जाता है, परंतु शिव के अन्य मंदिर ‘महाकाल’ के मंदिर क्यों नहीं कहलाते? वास्तव में ऐतिहासिकता के अतिरिक्त भी विक्रमादित्य, उज्जयिनी, नवरत्न और महाकाल; इन चारों शब्दों के निहितार्थ कुछ और हैं तथा ये प्राचीन भारतीय ज्योतिष के कुछ रहस्यमय संकेत हैं। इस प्रतीकों भरी उलझी कहानी के निहितार्थ शोध का प्रयास भी हम अवश्य करेंगे, किन्तु अभी नहीं।
भारतवर्ष की भौगोलिक स्थिति ८° उत्तर से ३६°४८’ उत्तरी अक्षांश के मध्य है और पृथ्वी के पाँच महत्वपूर्ण अक्षांश रेखाओं में से एक, कर्क रेखा इस भारतभूमि के लगभग मध्य से, उज्जयिनी से हो कर जाती है। कर्क रेखा भूमध्य रेखा के सापेक्ष उत्तरी गोलार्ध में २३ अंश २६ कला २२ विकला (२३°२६’२२”) पर खींची गई एक कल्पित रेखा है। इसी प्रकार भूमध्य रेखा के सापेक्ष इतने ही अंशों अर्थात् २३ अंश २६ कला २२ विकला (२३°२६’२२”) पर खींची गई एक कल्पित रेखा दक्षिणी गोलार्ध में भी है जिसे मकर रेखा कहते हैं। इस प्रकार कर्क रेखा से मकर रेखा की पृथ्वी के केंद्र से कोणीय दूरी ४६°५२’४४” है।
ज्योतिष का आधार है सूर्य, तथा उसकी परिक्रमा करती हुई पृथ्वी तथा अन्य ग्रह। इनके साथ ही सूर्य की परिक्रमा करती पृथ्वी के कक्षापथ के दोनों ओर ९ – ९ अंश चौड़ाई की एक पट्टी जिसमें भारतीय ज्योतिष के आधार-स्तम्भ के रूप में है हमारा नक्षत्र-मण्डल। यदि पृथ्वी, सूरज के केन्द्र और पृथ्वी की परिक्रमा के तल को चतुर्दिक ब्रह्माण्ड में पसार दें, तो यह ब्रह्माण्ड में एक प्रकार की पेटी सी बना लेगा। यह पेटी वही नक्षत्र-मण्डल है जिसमें अश्विनी से रेवती पर्यंत अठाईस नक्षत्र(१) हैं जिनमें अभिजित नक्षत्र को कुछ परिस्थितियों में नक्षत्र-मण्डल से बाहर माना जाता है तो कुछ परिस्थितियों में नक्षत्र-मण्डल में सम्मिलित भी, किन्तु सामान्यतः अभिजित को नक्षत्र-मण्डल से बाहर ही माना जाता है।
अतः अभिजित को छोड़ दें तो ज्योतिष शास्त्र की करधनी – इस नक्षत्र-मण्डल की पेटिका में रत्नों की भांति जड़े सताईस नक्षत्र हैं और सूर्य की परिक्रमा कर रही हमारी पृथ्वी इस पेटिका के इन नक्षत्रों के सापेक्ष भी यात्रा करती है।
इस अनन्त ब्रह्माण्ड में किसी विशेष समय में पृथ्वी तथा हमारे सौर-मण्डल के अन्य ग्रहों की स्थिति क्या है, यह जानने के लिये कुछ सापेक्ष बिन्दुओं की आवश्यकता थी जो स्थिर तथा अपरिवर्तनीय हों, वैसे ही, जैसे त्रिविमीय निर्देशांक ज्यामिति में मूल-बिन्दु तथा अक्षों की आवश्यकता पड़ती है। इन बिन्दुओं का निर्धारण करने के प्रयास में सर्व-प्रथम जो बिन्दु चुना गया उसे वसंत-सम्पात(२) नाम दिया गया।
आकाश मध्य मे एक कल्पित रेखा पथ है जिसे आकाशीय विषुव वृत्त या नाड़ी वृत्त (CELESTIAL EQUATOR) कहते हैंं(३)। सूर्य इस नाड़ी वृत्त पर नहीं घूमता है। वह सदैव क्रांति वृत्त (ECLIPTIC) पर घूमता दिखता है। यह दोनों वृत्त नाड़ी वृत्त तथा क्रांति वृत्त परस्पर २३°२६’२२” का कोण बनाते हैं तथा चूंकि दोनों वृत्त सूर्य के परितः हैं, अतः ये दोनों वृत्त एक दूसरे को दो स्थानो पर काटते हैं। इन दोनों वृत्तों के परस्पर प्रतिच्छेद बिन्दुओं को ही सम्पात बिन्दु या अयन बिन्दु कहते हैं। इनमें एक प्रतिच्छेद बिन्दु शरद सम्पात तथा दूसरा वसंत सम्पात कहलाता है।
इसी क्रांति वृत्त के उत्तर तथा दक्षिण में एक ९ – ९ अंश का कल्पित पट्टा है जिसे भचक्र कहते हैं तथा इसी भचक्र में अश्विनी से रेवती तक सभी नक्षत्र स्थित हैं। पृथ्वी अपने परिक्रमण अवधि में इस भचक्र से उसी प्रकार जाती है जैसे यात्रा करते हुये अपने वाहन में बैठे हम मार्ग के उभयतः स्थित समीपवर्ती वृक्षों, खम्भों, मंदिरों, भवनों अथवा इसी प्रकार के अन्य स्थिर वस्तुओं अथवा स्थलों को पार करते हुये बढ़ते हैं।
हमारे प्राचीन मूर्धन्य मनीषियों ने प्रेक्षण द्वारा यह देखा कि अपने परिक्रमण अवधि में जब पृथ्वी वसंत सम्पात वाले बिन्दु पर होती है तब सूर्य के केंद्र से पृथ्वी के केंद्र को मिलाने वाली रेखा को यदि भचक्र पट्टी तक बढ़ाते जायें तो वह रेखा भचक्र-पट्टिका के जिस बिन्दु पर मिलती है वह बिन्दु कृत्तिका नामक नक्षत्र-मण्डल का आदि बिन्दु है। अतः इस बिन्दु को प्रारम्भिक बिन्दु मानते हुये सम्पूर्ण भचक्र अथवा नक्षत्रों वाली उस पट्टी को सताईस नक्षत्रों के आधार पर सताईस समान कोणीय भागों में बाँट दिया। चूंकि एक बिन्दु के परितः कुल ३६० अंश का वृत्तीय क्षेत्र निर्मित होता है अतः ३६० अंश को सताईस भागों में बांटने पर प्रत्येक भाग १३ अंश २० कला (१३° २०’) का हुआ अतः यही भचक्र में प्रत्येक नक्षत्र का कोणीय मान हुआ और कृत्तिका नक्षत्र को नक्षत्र मण्डल का प्रथम नक्षत्र कहे जाने का गौरव प्राप्त हुआ।(४) राशियों को आगे देखेंगे, अभी कृत्तिका की स्थिति अंतरिक्ष में देख लेते हैं दो राशियों मेष एवं वृष राशियों के बीच है।
अधिक सूक्ष्मता को ध्यान में रखते हुये नक्षत्रों को पुनः चार भागों में विभाजित किया गया जिन्हें चरण कहा गया। इस प्रकार एक नक्षत्र के चार चरणों में से प्रत्येक ३ अंश २० कला (१३° २०’) का हुआ। कृत्तिका के पश्चात भचक्र में वृत्तीय क्रम से आने वाले अन्य नक्षत्रों के नाम क्रमशः रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, माघ, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, रेवती, अश्विनी तथा भरणी हैं।
विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं में इस कृत्तिका नामक नक्षत्र-मण्डल का विशेष महत्व रहा है। वैदिक साहित्य में कृत्तिका नक्षत्र के सात तारों का उल्लेख है। तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार कृत्तिकाएँ सात बहनें हैं जिनके नाम अम्बा, दुला, नितत्नी, अभ्रयन्ती, मेघयन्ती, वर्षयन्ती और चुपुणिका है। पाणिनि ने इन्हें सम्मिलित रूप से बहुला कहा। पौराणिक काल में कृत्तिका नक्षत्र के इन सात तारों को ऋषि-पत्नियों के नाम दिये गये जो क्रमशः सम्भूति, अनुसूया, क्षमा, प्रीति, सन्नति, अरुंधती और लज्जा थे। हतर इन तारों की संख्या छह रह गयी और इन का सम्बन्ध शिव के पुत्र कार्तिकेय की छह धाय माताओं से जोड़ दिया गया। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि ‘कृत्तिकायें पूर्व से नहीं हटतीं।‘(५)
जिसका तात्पर्य यही है कि उस समय वसंत सम्पात के दिन पूर्व में यह नक्षत्र दिखाई देता था।
आगे और समय बीतने के साथ यह देखा गया कि वसंत सम्पात के दिन सूर्य से पृथ्वी को मिलाने वाली रेखा कृत्तिका के आदि बिन्दु पर नहीं मिलती। कारण की खोज करने पर यह ज्ञात हुआ कि पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा अवधि का जो वर्षमान है, पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा उससे कुछ पहले ही पूरी करती जा रही है। इस प्रकार वसंत सम्पात बिंदु उस निश्चित तिथि को पीछे छूटता जाता है। कई वर्षों में यह थोड़ा सा अंतर संकलित होते होते इतना अधिक हो गया है कि अब वसंत सम्पात के दिन सूर्य से पृथ्वी को मिलाने वाली रेखा कृत्तिका के आदि बिन्दु पर न मिल कर रेवती के निकट आ चुका था। तब कुछ काल तक रेवती को आदि बिन्दु माना गया और कुछ लोगों ने इससे १८०० पर चित्रा को आदि बिंदु माना जिसे क्रमशः रेवती पक्ष और चित्रा पक्ष नाम दिया गया किन्तु पुनः कुछ काल पश्चात यह रेखा अश्विनी के आदि बिन्दु पर मिलने लगी। इस प्रकार वसंत सम्पात के दिन से वर्ष का आरम्भ माने जाने पर पृथ्वी की स्थिति २६ अंश ४० कला आगे हो गयी। इस विचलन को अयनांश नाम दिया गया तथा सिद्धान्त को परिशोधित करके अश्विनी के आदि बिन्दु को प्रारंभिक बिन्दु मान लिया गया।
किन्तु यह समस्या का समाधान नहीं था क्योंकि पृथ्वी की वार्षिक परिक्रमण की अवधि के आधार पर यह समस्या पुनः आने वाली थी यह निश्चित था अतः एक और सन्दर्भ बिन्दु की आवश्यकता थी। इस समस्या का समाधान राशियों में खोजा गया।
नक्षत्र-मण्डल के कुछ तारे मिल कर एक विशेष आकृति बनाते हैं। उन आकृतियों की कल्पना कर के मनीषियों ने उन विशेष तारा-समूहों को उनकी आकृति के अनुसार नाम दिया तथा भचक्र को एक नये रूप में भी विभाजित किया। यह विभाजन बारह कोणीय भागों में किया गया जिसका प्रत्येक भाग तीस अंश का था। इन भागों में पड़ने वाले उन विशेष तारा समूहों की आकृतियों के नाम के आधार पर इन भागों को भी वही नाम प्रदान कर दिया गया जो मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ तथा मीन कहे गये।
उदाहरण स्वरुप वृष राशि तथा उससे सम्बंधित नक्षत्र चित्र में प्रदर्शित हैं जिसमें कृत्तिका के तीन चरण, रोहिणी के चारो चरण तथा मृगशिरा के दो चरण समाहित हैं।
इस विभाजन में एक विशेष बात यह थी कि मेष राशि के भाग का आदि बिन्दु अश्विनी नक्षत्र का भी आदि बिन्दु था। साथ ही इस बिन्दु से प्रत्येक १२० अंश पर एक ऐसी स्थिति प्राप्त होती थी कि उस बिन्दु से एक नक्षत्र तथा एक राशि का प्रारम्भ होता था अर्थात् मघा नक्षत्र के आदि बिन्दु पर ही सिंह राशि का तथा मूल नक्षत्र के आदि बिन्दु से ही धनु राशि का प्रारम्भ होता था। अतः वसंत सम्पात के दिन की इस स्थिति को अंतिम रूप से भचक्र का आदि बिन्दु तथा वर्षारम्भ का आदि बिन्दु मान लिया गया जब वसंत सम्पात के दिन सूर्य से पृथ्वी को मिलाने वाली रेखा अश्विनी नक्षत्र के आदि बिन्दु के साथ ही मेष राशि के आदि बिन्दु पर मिलती थी। सूर्य से सम्पात बिंदु को मिलाने वाली रेखा तथा सूर्य से पृथ्वी को मिलाने वाली रेखा का एक वर्ष में होने वाला कोणीय अंतर अर्थात इनका पीछे हटना ही अयन का अंश अर्थात अयनांश (PRECESSION OF EQUINOX) कहलाता है। सम्पात का एक चक्र २५६९० वर्ष औसत(१) में पूर्ण होता है, अतः औसत अयन बिन्दुओ को एक अंश चलने मे ७१.३६ वर्ष (स्थूल रूप से ७२ वर्ष) लगते हैं। गणितीय रूप से ज्ञात किया गया तो औसत रूप से इसकी मध्यम गति ५० विकला १५ प्रतिविकला (५०” १५”‘) प्राप्त हुआ। इसे ही अयन-चलन, विषुव-क्रांति अथवा वलयपात कहा जाता है। (कला को मिनट तथा विकला को सेकेण्ड मान लेने में कोई त्रुटि नहीं है क्यों कि १ अंश = ६० कला तथा १ कला = ६० विकला जो अब डिग्री, मिनट और सेकेण्ड कहे जाते हैं।)
भारत सरकार ने सन १९५२ में (स्व० मेघनाथ साहा, अध्यक्ष और स्व० एन सी लाहिरी, सचिव) पंचांग सुधार समिति CALENDAR REFORM COMMITTEE का गठन किया, जिसकी आख्या १९५५ मे आई। इसके संशोधन के अनुसार चित्रा पक्षीय अयनांश को मान्य किया गया। इस अनुसार ईसवी सन २८५ या शक २०७ मे अयनांश शून्य था अर्थात सायन और निरयण भचक्र का प्रारम्भ मेष के प्रथम बिन्दु तथा वसंत सम्पात vernal equinox के साथ-साथ था। यह समय २२ मार्च २८५, दिन रविवार भारतीय प्रामाणिक समय २१ घण्टे २७ मिनट था। पचांग सुधार समिति के सुझाव अनुसार भारत सरकार के अधीन खगोलीय एफेमेरीज ने 5″.8 कम कर चित्रा पक्षीय अयनांश को ग्रहण किया। इसी अनुशंसा के अनुसार २१-०३-१९५६ से अयनांश २३ अंश १५ कला प्रचलन मे है। इसी मे सन १९८५ में अल्प ०.६५८” का सुधार पुनः किया गया। इस प्रकार ०१ जनवरी २०१० को अयनांश २४ अंश ०० कला ०५ विकला है और इसकी वार्षिक गति ५० विकला है। इस गणना की दुरूह तथा जटिल पद्धतियाँ ज्योतिष के ग्रंथों में दी हुई हैं तथा विभिन्न प्राचीन ज्योतिषियों ने इसकी अपनी-अपनी विधि दी है। विभिन्न मतों के अनुसार शक १८६५ के वर्षारम्भ पर अयनांश निम्न थे :
ग्रहलाघव मत – २३ अंश, ४१ कला, ०० विकला (वार्षिक गति ६० विकला)।
केतकर मत – २१ अंश, ०२ कला, ५७ विकला (वार्षिक गति ५० विकला, १३ प्रतिविकला)।
मकरन्दीय मत- २१ अंश, ३९ कला, ३६ विकला (वार्षिक गति ५४ विकला)।
सिद्धांत सम्राट – २० अंश, ४० कला, १७ विकला (वार्षिक गति ५१ विकला)।
अयनांश साधन की विभिन्न विधियों का उल्लेख आलेख का विषय नहीं होने के नहीं कारण किया जा रहा है, तब भी ग्रहलाघव मत से अयनांश निकालने की विधि इस प्रकार है :
इष्ट शक संवत में से ४४४ घटाये, शेष मे ६० का भाग दे, लब्धि ‘अंश’ होंगे, शेष में १२ का गुणा कर गुणनफल में पुनः ६० का भाग दे तो लब्धि ‘कला’ होगी, शेष में ३० का गुणा कर गुणन फल मे पुनः ६० का भाग दे तो लब्धि ‘विकला’ होगी। इसकी गति ६० विकला वार्षिक है।
इन सभी विधियों से मिले अयनांश पूर्णतः शुद्ध नहीं होते तथा गणना प्रक्रिया भी जटिल तथा श्रमसाध्य है अतः अयनांश-गणना की एक सरल विधि देने का दुस्साहस कर रहा हूँ। भारत सरकार की पंचांग संशोधन समिति (कैलेंडर रिफ़ॉर्म कमेटी) ने १ जनवरी २०१० ग्रे. का अयनांश २४°००’०५” मानी है। जिस वर्ष का अयनांश ज्ञात करना हो उस वर्ष में से २०१० घटा कर शेष में ५०” का गुणा कर दे। लब्धि में १ जनवरी २०१० का अयनांश २४°००’०५” जोड़ दे तो उस वर्ष की १ जनवरी का अयनांश आ जायेगा। पीछे के वर्षों हेतु भी यही क्रिया करनी चाहिये क्योंकि पीछे के वर्षों से २०१० घटाने पर ऋण चिन्ह के कारण प्रक्रिया स्वयं शुद्ध होगी। उदहारण स्वरुप १ जनवरी २०१९ का अयनांश ज्ञात करना है तो –
२०१९-२०१० = ९ वर्ष, ९ X ५०” = ७’ ३०”
इसे २४°००’०५” में जोड़ें तो, २४°००’०५” + ०७’३०” = २४° ०७’३५”
यह १ जनवरी २०१९ का अयनांश हुआ।
वर्ष के बीच के दिनों में किसी दिन का अयनांश निकालना हो तो वर्ष के गत दिनों की संख्या में ३६५ का भाग देकर उसमें ५०” का गुणा करके उस वर्ष की १ जनवरी के अयनांश में जोड़ दें तो किसी भी दिन का अयनांश आ जायेगा। जैसे १४ जनवरी २०१९ का अयनांश ज्ञात करना है तो (१४/३६५) X ५०”१५’’’ = १”५५.८’’ तथा,
२४° ०७’३५” + १”५५.८” = २४° ०७’३६”५५.८”
एक उदाहरण के रूप में यदि वार्षिक अयन चलन को ५०” मानते हुये कृत्तिका के आदि बिन्दु से अश्विनी के आदि बिन्दु तक हुये अयन-चलन में जिसका उल्लेख किया गया है, लगा समय निकालें तो २६°४०’ में ५०” का भाग देना होगा जो १९२० वर्ष हुआ। अर्थात कृत्तिका के आदि बिंदु से अश्विनी के आदि बिन्दु तक अयन-चलन में १९२० वर्ष का समय लगा था। प्रतिसेकेण्ड को शास्त्रीय भाषा में प्रतिविकला कहा जाता है। एक और विशेष बात यह भी है कि सूर्य-सिद्धांत के अनुसार यह अयन चलन २७ अंश से अधिक नहीं हो सकता और शून्य अंश से + २७ अंश तक जा कर पुनः +२७ से शून्य अंश तक घटता है तथा –२७ अंश तक जाता है। पुन: शून्य अंश की ओर लौटने लगता है । इस प्रकार अयनांश ± २७ अंश के मध्य झूलता रहता है। सूर्य सिद्धांत के अनुसार सन ४९० मे अयनांश शून्य था तथा ग्रहलाघव के अनुसार शक ४४४ मे अयनांश शून्य था। अयनांश साधन ग्रहलाघव अनुसार सबसे सरल है। अयनांश के २७ अंश होने तक वे घनात्मक अयनांश कहलाते हैं और इससे अधिक होने पर उसमें से २७ घटा कर वे ऋणात्मक अयनांश कहलाते है। इस प्रकार पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों की स्थिति को अश्विनी नक्षत्र तथा मेष राशि के आदि बिन्दु के सापेक्ष व्यक्त करना तथा स्थिति की गणना के समय अयनांशों का भी ध्यान रखना भारतीय ज्योतिष की परिपाटी बनी जिसे निरयण सिद्धांत कहा जाता है।
किन्तु पाश्चात्य विद्वान् इस परिपाटी को नहीं मानते। क्यों? क्योंकि मुल्ला नसीरुद्दीन वाली कहानी की वह भूरी भैंस जिसके सींग टूटे थे वह हलवाई के आपण के सामने से उठ कर नाई के आपण के सामने बैठ गई तो अब वे अपना पैसा हलवाई के स्थान पर नाई से माँगने के पक्षधर हैं। उनका मानना है कि वसंत सम्पात के दिन सूर्य से पृथ्वी को मिलाने वाली रेखा भचक्र के जिस बिन्दु पर मिले वही मेष राशि का आदि बिंदु है। इसे ही वे सायन सिद्धांत कहते हैं तथा नक्षत्रों को तो वे किसी लेखे में ही नहीं लेते।
भाषा की जटिलता के कारण सायण मेष, निरयण मेष, चल मेष आदि अनेक असोढव्य तर्कों से ज्योतिषियों के मध्य निरयन और सायन का एक ऐसा विवाद है जिसका निराकरण कोई नहीं कर पाता क्योंकि सिद्धांतों के व्याख्या की भाषावली जटिल है। किन्तु सत्य यही है कि सायन पद्धति पूर्णतः अशुद्ध पद्धति है और मेष राशि तथा अश्विनी नक्षत्र के आदि बिन्दु अपने स्थान पर थे, हैं, और रहेंगे। और भारतीय ज्योतिष अपने आदि से ही नक्षत्र आधारित है भले ही राशियों को सहयोगी रूप में स्वीकार करने के पश्चात अब वे ही नक्षत्रों की तुलना में प्रमुख हो गयी हैं। चित्र में भचक्र का नक्षत्रों तथा राशियों के आधार पर अंशात्मक विभाजन दिखाया गया है। काली बिन्दुदार रेखायें नक्षत्र विभाजन तथा लाल सीधी रेखायें राशि विभाजन व्यक्त करती हैं। भचक्र पट्टिका जो दो संकेन्द्रीय वृत्तों के रूप में चित्रित है उसमें नक्षत्रों के चरणों को भी लाल, हरे, नीले तथा काले रंग की रेखाओं से प्रदर्शित कर दिया गया है जिससे एक राशि में किस नक्षत्र के कौन-कौन से चरण पड़ते हैं यह भी स्पष्ट है।
यह विभाजन तालिका के रूप में भी इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है –
क्रम सं० | नक्षत्र नाम | राशि-अंश-कला | से | राशि-अंश-कला | |
१. | अश्विनी (मेष प्रारम्भ) | ०-००-०० | से | ०-१३-२० | तक |
२. | भरणी | ०-१३-२० | से | ०-२६-४० | तक |
३. | कृत्तिका | ०-२६-४० | से | १-१०-०० | तक |
४. | रोहिणी | १-१०-०० | से | १-२३-२० | तक |
५. | मृगशिरा | १-२३-२० | से | २-०६-४० | तक |
६. | आर्द्रा | २-०६-४० | से | २-२०-०० | तक |
७. | पुनर्वसु | २-२०-०० | से | ३-०३-२० | तक |
८. | पुष्य | ३-०३-२० | से | ३-१६-४० | तक |
९. | आश्लेषा | ३-१६-४० | से | ४-००-०० | तक |
१०. | मघा (सिंह प्रारम्भ) | ४-००-०० | से | ४-१३-२० | तक |
११. | पूर्वा फाल्गुनी | ४-१३-२० | से | ४-२६-४० | तक |
१२. | उत्तरा फाल्गुनी | ४-२६-४० | से | ५-१०-०० | तक |
१३. | हस्त | ५-१०-०० | से | ५-२३-२० | तक |
१४. | चित्रा | ५-२३-२० | से | ६-०६-४० | तक |
१५. | स्वाति | ६-०६-४० | से | ६-२०-०० | तक |
१६. | विशाखा | ६-२०-०० | से | ७-०३-२० | तक |
१७. | अनुराधा | ७-०३-२० | से | ७-१६-४० | तक |
१८. | ज्येष्ठा | ७-१६-४० | से | ८-००-०० | तक |
१९. | मूल (धनु प्रारम्भ) | ८-००-०० | से | ८-१३-२० | तक |
२०. | पूर्वाषाढ़ा | ८-१३-२० | से | ८-२६-४० | तक |
२१. | उत्तराषाढ़ा | ८-२६-४० | से | ९-१०-०० | तक |
२२. | श्रवण | ९-१०-०० | से | ९-२३-२० | तक |
२३. | धनिष्ठा | ९-२३-२० | से | १०-०६-४० | तक |
२४. | शतभिषा | १०-०६-४० | से | १०-२०-०० | तक |
२५. | पूर्वा भाद्रपद | १०-२०-०० | से | ११-०३-२० | तक |
२६. | उत्तरा भाद्रपद | ११-०३-२० | से | ११-१६-४० | तक |
२७. | रेवती | ११-१६-४० | से | १२-००-०० | तक |
अब एक अयन चलन पृथ्वी पर भी देखा जाता है जिसके सन्दर्भ में बहुत वितंडा है और वह है पृथ्वी के सापेक्ष दीखते सूर्य की उत्तर-दक्षिण की गति। इस गति के आधार पर सूर्य का उत्तरायण तथा दक्षिणायन संबोधित किया जाता है। पुनः यह स्मरण दिलाना है कि सूर्य की गति का तात्पर्य हमारे दिखने से है अन्यथा गति पृथ्वी की ही होती है। इस अयन-चलन को समझने हेतु यह पुनः ध्यान में रखना होगा कि नाड़ी वृत्त तथा क्रांति-वृत्त का परस्पर कोण २३°२६’२२” है और इसी कारण पृथ्वी भी अपने अक्ष पर २३°२६’२२” झुकी प्रतीत होती है। ऊपर बताया जा चुका है तथा यह सभी जानते भी हैं कि पृथ्वी के भूमध्य रेखा के दोनों ओर दो विशिष्ट रेखायें कल्पित हैं जिनका नाम कर्क तथा मकर रेखा है तथा ये रेखाएं पृथ्वी के केंद्र पर भूमध्य रेखा से २३°२६’२२” का ही कोण बनाती हुई कल्पित की गई हैं। इस अयन-चलन में एक महत्वपूर्ण कारक यह है कि पृथ्वी का झुकाव किधर को है? यह सभी बताते हैं कि पृथ्वी का झुकाव कितना है। यह कोई नहीं बताता कि इस झुकाव की सूर्य के खगोलीय अक्ष अथवा किसी भी सार्वत्रिक सन्दर्भ रेखा के सापेक्ष इस झुकाव की दिशा क्या है?
भूमध्य रेखा या विषुवत रेखा तो पृथ्वी को ठीक बीच से दो गोलार्धों में बांटती है किन्तु कर्क रेखा तथा मकर रेखा को भूमध्य रेखा के सापेक्ष २३°२६’२२” के अंतर पर कल्पित करने का क्या कारण है? अन्यथा जब एक राशि ३० अंश की होती है तो कर्क के आदि बिन्दु से मकर के आदि बिन्दु के मध्य का कोणीय मान १८० अंश का हुआ किन्तु पृथ्वी पर तो यह अंतर मात्र ४६°५२’४४” है। इसका कारण है वही क्रान्तिवृत्त तथा नाड़ी वृत्त की, या पृथ्वी के खगोलीय अक्ष की, २३°२६’२२” की नति। अब इस अयन परिवर्तन के सम्बन्ध में कुछ और विशिष्टियाँ जान लेते हैं। हम जानते हैं कि पृथ्वी के सूर्य के परितः परिक्रमा का पथ दीर्घवृत्तीय है जिसमें सूर्य उस दीर्घवृत्तीय कक्षा के एक नाभि पर स्थित है। यह कक्षा ब्रह्माण्ड में एक नति पर है। और केप्लर के नियम के अनुसार ग्रह को सूर्य से जोड़ने वाली रेखा समान समयान्तराल में समान क्षेत्रफल तय करती है। स्पष्ट है कि जब पृथ्वी सूर्य से दूर होगी, उस समय उसकी कोणीय गति मंद तथा जब वह सूर्य के निकट होगी तब उसकी कोणीय गति तीव्र होगी।
पृथ्वी अपने परिक्रमण की अवधि में दो ऐसी स्थितियों पर पहुँचती है जब एक समय उसके खगोलीय अक्ष पर उत्तरी ध्रुव का झुकाव सूर्य की ओर होता है और इसके ठीक विपरीत दिशा में दूसरी स्थिति होती है जब खगोलीय अक्ष पर उत्तरी ध्रुव का झुकाव सूर्य के विपरीत दिशा में होता है। दो स्थितियाँ ऐसी भी होती हैं जब यह झुकाव न तो सूर्य की ओर होता है, न ही सूर्य के विपरीत अर्थात सूर्य के खगोलीय अक्ष के समान्तर यदि कोई उर्ध्वाधर तल कल्पित किया जाय तो पृथ्वी का अक्ष उस तल के समान्तर होता है। यह स्थिति २१ मार्च तथा २३ सितम्बर को होती है और इन दोनों दिनों को सूर्य की रश्मियाँ पृथ्वी के विषुवत रेखा या भूमध्य रेखा पर लम्बवत पड़ती हैं। इस स्थिति को विषुव या इक्विनॉक्स कहा जाता है। इन दोनों तिथियों पर दिन और रात की अवधि लगभग बराबर होती है। इस समय सूर्य सीधे भूमध्य रेखा की सीध में होता है।
किन्तु जिस समय पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव सूर्य के अक्ष की ओर अथवा विपरीत दिशा में झुका रहता है तब सूर्य की रश्मियाँ पृथ्वी के भूमध्य रेखा पर २३°२६’२२” का कोण बनाते हुये आपतित होती हैं। जब उत्तरी ध्रुव पूरी तरह सूर्य की ओर झुका होता है तब सूर्य की रश्मियाँ उत्तरी गोलार्ध में २३°२६’२२” पर लम्बवत होती हैं और पृथ्वी की जिस कल्पित अक्षांश रेखा पर सूर्य रश्मियाँ लम्बवत पड़ती हैं उसे ही कर्क रेखा कहा जाता है इसी प्रकार जिस समय उत्तरी ध्रुव पूरी तरह सूर्य से विपरीत दिशा में झुका होता है तब सूर्य की रश्मियाँ दक्षिणी गोलार्ध में २३°२६’२२” पर लम्बवत आपतित होती हैं और पृथ्वी की जिस कल्पित अक्षांश रेखा पर सूर्य रश्मियाँ लम्बवत पड़ती हैं उसे ही मकर रेखा कहा जाता है। यह दोनों स्थितियाँ क्रमशः २१ जून तथा २१/२२ दिसंबर को प्राप्त होती हैं और यह खगोलीय दक्षिणायन तथा उत्तरायण है।
किन्तु ज्योतिषीय उत्तरायण या दक्षिणायन राशियों तथा विशेष कर नक्षत्रों के आधार पर ही मान्य है क्योंकि ज्योतिष के अनुसार शुभ-अशुभ काल-खण्ड का निर्धारण तथा पर्व आदि में नक्षत्रों का एक महत्वपूर्ण स्थान है। अतः ज्योतिषीय उत्तरायण की स्थिति तब, जब पृथ्वी से सूर्य को मिलाने वाली रेखा भचक्र को मकर राशि के आदि बिंदु, उत्तराषाढ़ नक्षत्र के प्रथम चरण तथा द्वितीय चरण की संधि पर काटती हो और दक्षिणायन तब, जब पृथ्वी से सूर्य को मिलाने वाली रेखा भचक्र को कर्क राशि के आदि बिंदु, पुनर्वसु नक्षत्र के तृतीय चरण तथा चतुर्थ चरण की संधि पर काटती हो। यह दोनों स्थितियाँ भचक्र में वसंत सम्पात तथा शरद सम्पात से ९० अंश पर नहीं होती हैं।
जब पृथ्वी अपने दीर्घवृत्तीय कक्षा के दीर्घ अक्ष पर होती है तब भी दो विशेष स्थितियाँ घटित होती हैं जो क्रमशः उपसौर और अपसौर कही जाती हैं। उपसौर (Perihelion) तथा अपसौर (Aphelion), किसी ग्रह, क्षुद्रग्रह या धूमकेतु की अपनी कक्षा पर सूर्य से क्रमशः न्यूनतम और अधिकतम दूरी है। चूंकि पृथ्वी की कक्षा दीर्घवृत्तीय है और सूर्य इसके नाभि पर है जो दीर्घ अक्ष के मध्य में न होकर एक किनारे की ओर हटा हुआ है, अतः उपसौर की स्थिति में पृथ्वी सूर्य के अधिकतम निकट तथा अपसौर की स्थिति में अधिकतम दूर होती है। उपसौर की स्थिति ३ जनवरी तथा अपसौर की स्थिति ३ जुलाई को प्राप्त होती है। अस्तु।
सिद्धान्त रूप से तो ज्योतिषीय कर्क संक्रांति अर्थात पृथ्वी से देखने पर सूर्य की कर्क राशि के आदि बिन्दु पर स्थिति उसी तिथि को आनी चाहिए जब पृथ्वी का खगोलीय अक्ष सूर्य की ओर पूरी तरह झुका हो और कर्क रेखा पर सूर्य की किरणें लम्बवत आपतित हों, किन्तु अनंत ब्रह्माण्ड में सूर्य के अक्ष के सापेक्ष पृथ्वी के झुकाव की दिशा के कारण यह स्थिति २१ जून को ही प्राप्त हो जाती है अर्थात २१ जून को ही कर्क रेखा पर सूर्य रश्मियाँ लम्बवत हो जाती हैं। इसी प्रकार सिद्धान्त रूप से तो ज्योतिषीय मकर संक्रांति अर्थात पृथ्वी से देखने पर सूर्य की मकर राशि के आदि बिन्दु पर स्थिति उसी तिथि को आनी चाहिए जब पृथ्वी का खगोलीय अक्ष पूरी तरह सूर्य के विपरीत दिशा में झुका हो और मकर रेखा पर सूर्य की किरणें लम्बवत आपतित हो रही हों हों, किन्तु यह स्थिति २१/२२ दिसंबर को ही प्राप्त हो जाती है और मकर रेखा पर सूर्य रश्मियाँ लम्बवत हो जाती हैं। ज्योतिषीय दृष्टि से क्रांति वृत्त पर या नक्षत्र मण्डल की पट्टिका अर्थात भचक्र पर मेष का आदि बिन्दु पूर्व, कर्क का आदि बिन्दु उत्तर, तुला का आदि बिन्दु पश्चिम और मकर का आदि बिन्दु दक्षिण है।
अब यदि पृथ्वी पर स्थित भूमध्य रेखा, इसके उत्तरी गोलार्ध में स्थित कर्क रेखा तथा दक्षिणी गोलार्ध स्थित मकर रेखा को एक गोलाकार पिण्ड के ऊपर कल्पित न मान कर यह मान लें कि उस गोले की इस पट्टी को काट कर फैला दिया गया है तो स्थिति कुछ इस प्रकार की दिखेगी :
इस चित्र में लाल रंग की वक्र रेखा विभिन्न तिथियों को पृथ्वी पर सूर्य की लम्बवत स्थिति प्रदर्शित करती है। चित्र से स्पष्ट है कि २३ सितम्बर तथा २१ मार्च को यह स्थिति आती है जब सूर्य की किरणें पृथ्वी पर लम्बवत होती हैं। इस चित्र से यह भी स्पष्ट है कि दक्षिणी गोलार्ध में पृथ्वी के केंद्र पर ० अंश अक्षांश से २३°२६’२२” का कोण बनाने वाली मकर रेखा पर सूर्य-रश्मियों के लम्बवत हो जाने के पश्चात पृथ्वी अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाती है और तब उसके अक्ष पर उत्तरी ध्रुव पुनः सूर्य के अक्षीय समतल के निकट आने लगता है अतः सूर्य की किरणें मकर रेखा से ऊपर अर्थात उत्तर को लम्बवत पड़ने लगती हैं अतः सूर्य उत्तर अयन की ओर गति करता प्रतीत होता है। यही सूर्य का उत्तरायण होना है। इसी प्रकार कर्क रेखा पर लम्बवत किरणे पड़ने के पश्चात पृथ्वी के अक्ष का झुकाव पुनः सूर्य के अक्ष से दूर होने लगता है और पश्चात सूर्य की किरणें पुनः दक्षिणी गोलार्ध की ओर लम्बवत पड़ने की ओर अग्रसर हो जाती हैं. यही सूर्य का दक्षिणायन होना है।
प्रश्न यह उठता है कि जब सूर्य कर्क या मकर रेखा पर लम्बवत होता है तब सूर्य से पृथ्वी को मिलाने वाली रेखा भचक्र के कर्क या मकर राशि के आदि बिन्दु पर क्यों नहीं मिलती? और जब सूर्य भूमध्य रेखा पर लम्बवत होता है तब सूर्य से पृथ्वी को मिलाने वाली रेखा भचक्र के मेष या तुला राशि के आदि बिन्दु पर क्यों नहीं मिलती? इसके कई कारण हैं। इसका एक कारण तो यह है कि सूर्य की लम्बवत रश्मियों का यह उत्तरायण और दक्षिणायन के रूप में दोलन मात्र ४६°५२’४४” अंश चौड़ी एक पट्टिका में होना है जिसका कारण पृथ्वी की धुरी की नति है। और दूसरा कारण है पृथ्वी की धुरी का भी एक शंक्वाकार पथ पर घूर्णन। इसका एक परिणाम तो यह होता है कि आकाशीय ध्रुव, अर्थात् आकाश का वह बिंदु जो पृथ्वी के अक्ष की सीध में है, तारों के बीच चलता रहता है। वह लगभग २५६९०(६) वर्षों में अपना एक चक्कर लगाता है। जब कभी उत्तर आकाशीय ध्रुव किसी चमकीले तारे के पास आ जाता है तो वह तारा पृथ्वी के उत्तर गोलार्ध में ध्रुवतारा कहलाने लगता हे। इस समय उत्तर आकाशीय ध्रुव प्रथम लघु सप्तर्षि के पास है अत: इस तारे को हम ध्रुवतारा कहते हैं। अभी आकाशीय ध्रुव ध्रुवतारे के पास जा रहा है, अतः अभी सैकड़ों वर्षों तक पूर्वोक्त तारा ध्रुवतारा कहला सकेगा। लगभग ५००० वर्ष पहले प्रथम कालिय नाम का तारा ध्रुवतारा कहलाने योग्य था। आज से १५००० वर्ष पहले अभिजित नामक तारा ध्रुवतारा था। इस तारे की सीध से आकाशीय ध्रुव का हटना ही पौराणिक कथाओं में अभिजित का पतन कहा गया है।(७)
इसके साथ ही इस घूर्णन का प्रभाव यह भी होता है कि पृथ्वी के अक्ष की नति भी सूक्ष्म रूप से परिवर्तित होती रहती है। साथ ही सूर्य के परितः पृथ्वी की परिक्रमा का दीर्घवृत्ताकार मार्ग भी सूर्य की परिक्रमा करता है। किन्तु सबसे अधिक इस अंतराल हेतु उत्तरदायी है अनंत ब्रह्माण्ड में सूर्य के अक्ष के सापेक्ष पृथ्वी के झुकाव की दिशा।
वसंतविषुव से चलकर और एक चक्कर लगाकर जितने काल में सूर्य पुन: वहीं लौटता है उस अवधि को एक सायन वर्ष कहते हैं। भचक्र स्थित किसी तारे के सापेक्ष स्थिति से चलकर सूर्य के वहीं लौटने की अवधि को नाक्षत्र वर्ष कहते हैं। यदि विषुव चलता न होता तो सायन और नाक्षत्र वर्ष समान अवधि के होते। अयन के कारण दोनों वर्षों में कुछ मिनटों का अंतर पड़ता है। आधुनिक मापन के अनुसार औसत नाक्षत्र वर्ष का मान ३६५ दिन, ६ घंटा, ९ मिनट, ९.६ सेकंड के लगभग और औसत सायन वर्ष का मान ३६५ दिन, ५ घंटा, ४८ मिनट, ४६.०५४ सेकंड के लगभग है। अतः नाक्षत्रिक वर्षमान हमारे माने गये वर्षमान से बड़ा है। यह सर्वमान्य मान्यता है कि सूर्य और पृथ्वी के परिक्रमण में सूर्य तथा पृथ्वी के बीच का कोणीय विस्थापन के मान में प्रतिदिन १ अंश की वृद्धि होती है किन्तु पृथ्वी का दैनिक परिभ्रमण भी पूरे चौबीस घंटे का नहीं है। स्थिर नक्षत्रों एवं सितारों के सापेक्ष पृथ्वी अपनी धुरी पर २३ घण्टे ५६ मिनट और ४.०९८९०९२ सेकेंड में एक घूर्णन पूर्ण कर लेती है अतः वास्तविक खगोलीय दिनमान हमारे माने गये दिनमान से छोटा है। यही कारण है कि भारतीय ज्योतिष में एक तिथि अर्थात एक दिन का मान सूर्योदय से सूर्योदय तक लिया जाता है तथा इसी के साथ एक और खगोलीय प्रक्रिया को भी तिथियों के समंजन में सहयोगी माना गया है। वह सहयोगी खगोलीय प्रक्रिया है चंद्रमा की पृथ्वी की परिक्रमा।
सूर्य को संदर्भ बिन्दु मानें तो चन्द्रमा की पृथ्वी की परिक्रमा में लगी अवधि लगभग २९.५३ दिन (२९ दिन, १२ घंटे, ४४ मिनट और २.८ सेकेण्ड) होती है। स्थूल रूप से यह अवधि साढ़े उनतीस दिन मान ली जाती है। अतः किसी भी माह की पूर्णिमा अथवा पूर्ण चन्द्र (सूर्य से विपरीत दिशा में चन्द्रमा की स्थिति) से अगली पूर्णिमा के मध्य लगभग साढ़े उनतीस दिन होते हैं। किसी माह की अमावस्या से (सूर्य की सीध में चन्द्रमा की स्थिति) से अगले माह की अमावस्या के मध्य भी यही अवधि होगी। इस समय को एक चन्द्रमास या कलामास कहते हैं।
कला मास से सूर्य व चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी पर बनाये गये कोण का पता लगता है। भचक्र के ३६० अंशों को इस अवधि से विभाजित करें तो प्रतिदिन का कोणीय विस्थापन १२ अंश ११ कला २७ विकला ३४ प्रतिविकला है।
नक्षत्रों को संदर्भ बिन्दु मानें तो समय के दृष्टिकोण से चन्द्रमा लगभग साढ़े सताईस दिन (२७ दिन, ७ घंटे, ४३ मिनट और ११.६ सेकेण्ड) में पुनः अपनी पूर्व स्थिति में होता है। यह अवधि एक नाक्षत्र मास कहलाती है। स्थूल रूप से इसे २७.३२ दिन मान लिया जाता है। भचक्र के ३६० अंशों को इस अवधि से विभाजित करें तो प्रतिदिन का कोणीय विस्थापन १३ अंश १० कला ३७ विकला तथा ४६ प्रतिविकला हुआ। किन्तु इस अवधि में पृथ्वी भी अपने परिक्रमा पथ पर एक अंश आगे बढ़ चुकी होती है अतः परिणामी कोण-मान लगभग १२ अंश १० कला ३७ विकला तथा ४६ प्रतिविकला रह जाता है।
यही बारह अंश कुछ कला का कोण-मान भारतीय ज्योतिष में एक तिथि का गणित-प्रणीत अवधि-मान है जो अपरिवर्तनीय है। किन्तु सरलता की दृष्टि से इसे १२ अंश मान लिया जाता है। अर्थात् चन्द्रमा की शुक्ल पक्ष में सूर्य से कोणीय दूरी प्रतिपदा को १२°, द्वितीया को २४°, तृतीया को ३६°, चतुर्थी को ४८°, पञ्चमी को ६०°, षष्ठी को ७२°, सप्तमी को ८४°, अष्टमी को ९६°, नवमी को १०८°, दशमी को १२०°, एकादशी को १३२°, द्वादशी को १४४°, त्रयोदशी को १५६°, चतुर्दशी को १६८° तथा पूर्णिमा को पूर्णतः १८०° होती है।
इसी प्रकार कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा की सूर्य से कोणीय दूरी प्रतिपदा को १९२°, द्वितीया को २०४°, तृतीया को २१६°, चतुर्थी को २२८°, पञ्चमी को २४०°, षष्ठी को २५२°, सप्तमी को २६४°, अष्टमी को २७६°, नवमी को २८८°, दशमी को ३००°, एकादशी को ३१२°, द्वादशी को ३२४°, त्रयोदशी को ३३६°, चतुर्दशी को ३४८° व अमावस्या को ३६०° या कहें कि पुनः शून्य अंश होती है। यह अंशीय मान पूर्ण-वृत्तीय कोण मापन प्रणाली के अनुसार है। पूर्ण वृत्तीय अंशमान की यह मापें ऋजुरेखीय अंशमान की मापों में शुक्ल पक्ष की तिथियों के सापेक्ष कृष्ण पक्ष में अविकल प्रतिलोम स्थिति में होती हैं।
जैसा कि स्पष्ट ही है, ये अंशमान सूक्ष्मता के स्तर पर शुद्ध नहीं हैं क्योंकि दैनिक कोण १२ अंश का न होकर उससे कुछ कला अधिक है। इस स्थूल अंश मान का इतना उपयोग अवश्य है कि यदि चन्द्रमा की ‘तिथि’ या ‘सूर्य व चंद्रमा के मध्य की कोणीय दूरी’, दोनों में से कोई एक ज्ञात हो तो दूसरे का अनुमान लगाया जा सकता है और तब तुलनात्मक रूप से सूर्य की भी नक्षत्र-सापेक्ष स्थिति का अनुमान लग सकता है। किन्तु यह अनुमान शुद्ध भी होगा यह आवश्यक नहीं है क्योंकि एक सूर्योदय से अगले सूर्योदय के मध्य की अवधि अर्थात एक अहोरात्र जिसकी अवधि ६० घटी है, में कभी तो चंद्रमा तथा सूर्य का यह अंतर १२ अंश से अधिक तथा कभी बारह अंश से न्यून भी होता है जिसका कारण अपने परिक्रमा पथ पर चंद्रमा का सदैव समान कोणीय गति से न चलना है। अतः कभी कभी ऐसा भी होता है कि सूर्य तथा चंद्रमा के बीच का कोणीय अंतर १२ के गुणक अंश तुल्य होने की अवधि में ही दो बार सूर्योदय हो गया अतः उस तिथिविशेष की अवधि अर्थात सूर्य तथा चन्द्र के मध्य का कोण १२ अंश के गुणक तुल्य होने में दो क्रमिक सूर्योदयों के अंतराल से अधिक समय लगा। इसे ही तिथि-वृद्धि कहते हैं क्योंकि अगला सूर्योदय भी उसी तिथि में हुआ। इसी प्रकार कभी कभी ऐसा भी होता है कि सूर्य तथा चंद्रमा के बीच का कोणीय अंतर १२ के गुणक अंश तुल्य होने की अवधि में एक भी बार सूर्योदय न हो सका अतः उस तिथिविशेष की अवधि अर्थात सूर्य तथा चन्द्र के मध्य का कोण १२ अंश के गुणक तुल्य होने में दो क्रमिक सूर्योदयों के अंतराल से अल्प समय लगा। इसे ही तिथि-क्षय कहते हैं क्योंकि उस तिथि में अर्थात १२ अंश के खंड को पूरा करने की अवधि में सूर्योदय हुआ ही नहीं। उदाहरण के लिये १९ दिसंबर २०१८ को गोरखपुर में जिसका अक्षांश २६ अंश ४४ मिनट २७ सेकेण्ड उत्तर तथा देशांतर ८३ अंश २२ मिनट ४१ अंश है, सूर्योदय प्रातः ६ बज कर ४५ मिनट १६ सेकेण्ड पर हुआ उस समय शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि थी जो प्रातः ७ बज कर ३५ मिनट तक रही अर्थात सूर्य तथा चंद्रमा के मध्य का कोणीय मान प्रातः ७ बज कर ३५ मिनट पर १३२ अंश हो गया। किन्तु अगले बारह अंश, अगले दिन के सूर्योदय से पूर्व ही, ६ बज कर २५ मिनट पर ही पूर्ण हो गये जबकि २० दिसंबर को सूर्योदय ६ बज कर ४५ मिनट ४८ सेकेण्ड पर हुआ अतः द्वादशी हेतु निर्धारित अंशमान १३२ से १४४ अंश दो सूर्योदयों के मध्य की अवधि में ही प्रारम्भ हो कर पूर्ण हो गया अतः द्वादशी तिथि का क्षय हो गया क्योंकि अगले अंश १४४ अंश से १५६ अंश का मान त्रयोदशी हेतु नियत है जिस अंश-मान में २० दिसंबर का सूर्योदय हुआ अतः २० दिसम्बर २०१८ को चतुर्दशी तिथि थी।
यथास्थान यह स्पष्ट होगा कि नक्षत्रों का मान भी पूर्णतः १३ अंश २० कला नहीं है। अतः चंद्रमा के प्रत्येक नक्षत्र के भोग की अवधि भी समान नहीं है। चन्द्रमा को नक्षत्रों का स्वामी, नक्षत्र-पति आदि कहने का यही मूल कारण है क्योंकि चंद्रमा का सहयोग लिये बिना हम सूर्य या अन्य ग्रहों की नक्षत्र-सापेक्ष स्थिति ज्ञात ही नहीं कर सकते। चूंकि भारतीय मनीषियों ने आकाशीय पिण्डों आदि का नामकरण अपने ऐतिहासिक पुरुषों के नाम पर किया है जैसे दक्ष की सताईस पुत्रियों, जिनका विवाह अत्रि-पुत्र चन्द्र ‘चंद्रात्रेय’ से हुआ था, का नक्षत्रों तथा पृथ्वी के उपग्रह का चन्द्र के रूप में नामकरण एक विशेष अर्थ रखता है जिनके प्रतीकों का लालित्य एक भिन्न प्रकार का रसबोध उपलब्ध कराता है।
ध्यातव्य है कि सूर्य को केंद्र मान कर परिक्रमा कर रहे पिंडों की कक्षाएं भी सूर्य की परिक्रमा करती हैं, तथा जिन राशियों को निश्चित ३० अंश का कोणीय मान प्रदान किया गया उनका केंद्र वह बिन्दु नहीं है जहाँ खड़े हो कर हम निरीक्षण कर रहे हैं. हम पृथ्वी के सतह पर स्थित हैं और भचक्र का केंद्र पृथ्वी का केंद्र है जो सूर्य के सापेक्ष गतिशील है। यही कारण है कि भारतीय ज्योतिष में राशियों को ह्रस्व, सम, तथा दीर्घ की कोटियों में भी वर्गीकृत किया गया है क्योंकि प्रत्येक राशि का पृथ्वी तल के सापेक्ष अंतरित कोण ३० अंश का नहीं होता। इस विशेष तथ्य का अभिज्ञान तब होता है जब हम शून्य अक्षांश क्षितिज पर राशियों के उदयकाल की गणना करते हैं जिसे ज्योतिष में लङ्कोदय कहा जाता है। जिस अवधि तक मेष राशि पूर्व दिशा में क्षितिज के सम्मुख उदित रहती है उसे मेषोदय, जिस अवधि तक वृष राशि पूर्वी क्षितिज के सम्मुख उदित रहती है उसे वृषोदय आदि कहते हैं और यह अवधि मेष, कन्या, तुला और मीन राशि के लिये ४ घटी ३९ पल ० विपल, वृष, सिंह, कुम्भ और वृश्चिक के लिये ४ घटी, ५९ पल, १० विपल, तथा मिथुन, कर्क मकर एवं धनु के लिये ५ घटी २१ पल, ५० विपल है। इस प्रकार स्पष्ट है कि राशियाँ भले ३० अंश की हैं, हमें वे भिन्न – भिन्न उदित काल तक क्षितिज के सम्मुख दिखती हैं और यही दृग्ज्योतिष है अर्थात जो दिखता है उसे मानना। एक अहोरात्र ६० घटी की होती है और भचक्र ३६० अंश का तो अनुपातिक रूप से राशियों के दृश्य उदयमान इस प्रकार हुए :
जिनके कारण राशियों की ह्रस्व, सम तथा दीर्घ संज्ञा हुई। और ये दृश्य उदयमान शून्य अक्षांश रेखा पर हैं। भिन्न भिन्न अक्षांशों पर इनका मान निकालने हेतु रेखान्तर, वेलांतर, पलभा, चरपल आदि साधन क्रियायें करनी होती हैं किन्तु दृश्य गणित के इन विधियों की तो अवहेलना की जाती है और भारतीय ज्योतिष को अशुद्ध कहा जाता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि मेष राशि के २७ अंश ५४ कला के मध्य ही अश्विनी के आदि बिन्दु से लेकर कृत्तिका के प्रथम चरण के अंत तक का भाग है तो निश्चित ही नक्षत्रों का अंशमान भी १३ अंश २० कला से कुछ न्यून होना चाहिये।
केप्लर के नियम के अनुसार पृथ्वी की कोणीय गति परिवर्तित होती रहती है क्योंकि पृथ्वी की अपनी कक्षा में गति इस प्रकार की है कि सूर्य से पृथ्वी को मिलाने वाली रेखा समान अवधि में सामान क्षेत्रफल तय करती है, न कि समान अंश। अब यदि पृथ्वी एक नियत कोणीय गति से चलती तो निश्चित अवधि में निश्चित दूरी तय करके निश्चित तिथि पर निश्चित बिंदु पर पहुँचती, किन्तु कोणीय गति में परिवर्तन के कारण वह सर्पिल गति से चलती है और इस गति हेतु जो समय की इकाई है वह दिनों में है जिसका मान निश्चित नहीं है। एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के मध्य का अंतराल ही वास्तविक अहोरात्र है जिसे हमने अपनी सुविधा हेतु २४ घंटे का मान लिया है जबकि यह अवधि भी घटती-बढ़ती रहती है जैसे गोरखपुर में १९ दिसंबर २०१८ तथा २० दिसंबर २०१८ के सूर्योदय के मध्य की अवधि चौबीस घंटे से ३२ सेकेण्ड अधिक है। इसी के साथ देशांतर मान में भिन्नता से एक ही तिथि को भिन्न स्थानों पर सूर्योदय भिन्न समय पर होता है। जैसे १९ दिसंबर २०१८ को उज्जैन में सूर्योदय प्रातः ६ बज कर ३७ मिनट ३५ सेकेण्ड पर हुआ जो गोरखपुर के सूर्योदय से ७ मिनट ३१ सेकेण्ड पहले ही हो गया। ध्यातव्य है कि उज्जैन का देशांतर लगभग ७५ अंश ५० मिनट पूर्व है। उज्जैन का देशांश गोरखपुर के देशांश से ७ अंश ३२ मिनट ४१ सेकेण्ड पूरब में है। दृग्गणित की दुन्दुभी बजाते पाश्चात्य ज्योतिषी इन सूक्ष्मताओं को अपनी गणनाओं में सम्मिलित करना स्वीकार कर सकेंगे? वास्तव में विशुद्ध दृक्तुल्य गणित पर आधारित ज्योतिष, भारतीय आर्ष ज्योतिष ही है तथा सूक्ष्म दृश्य गणित ही प्राचीन दृश्य गणित है।
इस प्रकार पाश्चात्य ज्योतिष में राशियों के प्रारंभिक स्थान उनके वास्तविक प्रारंभिक स्थान से उतने ही अंश आगे बढ़े हुये माने जा रहे हैं जितना अयनांश का मान है। ऊपर १४ जनवरी २०१९ का सूर्योदय का अयनांश गणित द्वारा साधित किया गया है जिसका मान २४° ७’ ३६’’ ५५.८’’’ है। एक उदाहरण के रूप में यदि हम उज्जैन में ठीक सूर्योदय के समय जन्म लेने वाले जातक का जन्मांग निर्मित करें तो उस समय पाश्चात्य ज्योतिष से सूर्य-स्पष्ट मकर राशि में २३°३४’१६’’ प्राप्त होता है जबकि भारतीय ज्योतिष से सूर्य-स्पष्ट धनु राशि में २९°२६’३९’’४.२’’’ प्राप्त होता है। यह अंतर अविकल रूप से उतना ही है जितना उस दिन सूर्योदय के समय अयनांश है। अब उस समय विशेष पर सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्रों तथा राशियों की स्थिति में जब कोई परिवर्तना नहीं है तो सूर्य की स्थिति में दो पद्धतियों से गणना करने पर इतना अंतर क्यों? क्योंकि पाश्चात्य मान्यता में मेष राशि का प्रारम्भ वसंत विषुव के सीध में ही रहता है, और वसंत विषुव की स्थिति को ही वे मूल बिन्दु मानते हैं। अब बसंत विषुव तो प्रति पल गतिमान है, तो पाश्चात्य मान्यता के अनुसार मेष राशि का आदि बिन्दु भी प्रतिपल गतिमान है। इस मान्यता के अनुरूप राशियाँ भी गतिमान हैं तथा प्रत्येक राशि अपनी पूर्व स्थिति २४° ७’ ३६’’ ५५.८’’’ आगे बढ़ चुकी है अतः भारतीय ज्योतिष के अनुसार राशियों के आदि बिन्दु की तुलना में पाश्चात्य ज्योतिष की प्रत्येक राशि में २४° ७’ ३६’’ ५५.८’’’ का अंतर है जो नितान्त असंगत एवं त्रुटिपूर्ण है।
इसी प्रकार उस समय उदित लग्न के मान में भी लगभग इतना ही बल्कि एक विकला अधिक का ही अंतर आयेगा। और यह एक विकला का अधिक अंतर इस कारण है कि भारतीय ज्योतिष के अनुसार विभिन्न राशियों का उदयमान नियत अवधि का नहीं है अर्थात जब उज्जैन से वेध द्वारा परीक्षण किया जायेगा तो प्रत्येक राशि पूरे दो घंटे के अंतराल पर उदित होती नहीं दिखेगी। इसका कारण भी ऊपर बताया जा चुका है। अतः राशि के उदित रहने की अवधि को ३० भागों में विभाजित कर के उस क्षण-विशेष पर जितनी अवधि व्यतीत हो चुकी उस आधार पर जितने भाग गत होते हैं वही लग्न माना जायेगा किन्तु पाश्चात्य ज्योतिष इस प्रत्यक्ष दिखती हुई सीधी सी बात को भी स्वीकार नहीं करता कि राशियों के उदयमान समान नहीं हैं।
तो निश्चित समय में तय की गई कोणीय दूरी का मान अनियमित, समय की इकाई त्रुटिपूर्ण, पृथ्वी के अक्ष की नति अल्प ही सही किन्तु परिवर्तनीय और इस नति के सापेक्ष पृथ्वी पर कल्पित अक्षांश रेखायें सदा हेतु अपरिवर्तनीय, नक्षत्रों तथा राशियों के पृथ्वी तल पर अंतरित चाप-प्रक्षेप असमान, ऐसी दशा में पृथ्वी यदि अपनी नति सापेक्ष स्थितियाँ, तथा राशि/नक्षत्र सापेक्ष स्थितियाँ हमारे द्वारा निर्धारित समय की इकाई की तुलना में अपनी समय-सिद्ध गति से चलते हुये अपने ही निर्धारित समय से प्राप्त करे तो आश्चर्य कैसा? काल के प्रभाव में प्रत्यक्ष वेध द्वारा दृग्गणित ऐक्य युक्त सिद्धांतों में भी समय-भेद तथा काल-गति से अल्प मात्रा में अंतर आ ही जाता है जिसे यथासमय ज्योतिष के तत्वज्ञ विद्वान समंजित करते रहे हैं। अनधिकृत व्यक्तियों के हाथों में ज्योतिष का ध्वज आ जाने से जो हानि हो रही है वह इस आलेख का विषय नहीं है।
अब न तो हम पृथ्वी पर कल्पित कर्क रेखा तथा मकर रेखा की स्थिति परिवर्तित कर सकते हैं जो विभिन्न समय पर पृथ्वी के तात्कालिक अक्ष की नति तुल्य अंशों पर होनी चाहिये, न ही हम अपना प्रचलित दिनमान २४ घंटे और प्रचलित वर्षमान ३६५/३६६ दिन परिवर्तित कर सकते हैं जो पृथ्वी के दैनिक घूर्णन तथा वार्षिक परिभ्रमण के तुल्य हो, आर्ष ज्योतिष की संकल्पनाओं को हम इस हेतु मानने से बचते हैं कि उन से सम्बंधित गणितीय क्रियायें जटिल तथा श्रम-साध्य हैं, तो इस दशा में हमारी विवशता है कि महाकाल के अधीन घटित होते इस कालचक्र को अपने बनाये मानदंडों का उपहास करते देखते रहें। अतः सैद्धांतिक रूप से घटनाओं की जो तिथि आनी चाहिये वह हमारी त्रुटिपूर्ण तथा स्वघोषित संकल्पनाओं, सहज-सरल स्वमान्य गणितीय विधियों, घटनाओं के कारक परिस्थितियों की गणना में उपेक्षा तथा आर्ष सिद्धांतों की अवहेलना के कारण वह घटना उस तिथि को घटित होती नहीं दिखती तो यह भारतीय ज्योतिष की हीनता नहीं बल्कि ज्योतिषी की अयोग्यता है जिसने भारतीय ज्योतिष को एक उपहास का विषय बना कर रख दिया है।
नाक्षत्रिक आधार पर वास्तविक मकर संक्रांति (या किसी भी राशि में सूर्य की संक्रांति) विभिन्न शताब्दियो में ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार विभिन्न दिनांकों पर होते रहे हैं और होते रहेंगे क्योंकि वह महाकाल द्वारा नियत है। १६-१७ वीं सदी मे मकर संक्रांति की घटना ०९/१० जनवरी को, १७-१८ वीं सदी मे ११/१२ जनवरी को, १८-१९ वीं सदी में १३/१४ जनवरी को, १९-२० वीं सदी मे १४/१५ जनवरी को होती रही है और २१-२२ वीं सदी मे यह घटना १५/१६ जनवरी को होगी। किन्तु हमारी कल्पित कर्क तथा मकर रेखा पर सूर्य हमारी परिकल्पित ग्रेगोरियन तिथि-पंजिका के अनुसार २१ जून तथा २३ दिसंबर को लम्बवत होता रहा और होता रहेगा क्योंकि स्थूल गणनाओं में पहले से ही बड़ी त्रुटियों की अवहेलना की गई होती है अतः लब्धियाँ त्रुटिपूर्ण होते हुए भी त्रुटिपूर्ण दिखती नहीं हैं, किन्तु सूक्ष्म गणनाओं में सूक्ष्म त्रुटियाँ भी बहुत विकराल दिखती हैं। सायन पद्धति राशियों के स्थूल मान ३० अंश, दिनों के स्थूल मान २४ घंटे, भचक्र का प्रारम्भ वसन्त सम्पात, तिथि का प्रारम्भ रात्रि के बारह बजे, आदि त्रुटिपूर्ण मान्यताओं पर ही रची गई है तो जो नियम ही अपनी सुविधा के अनुरूप गढ़े गये हैं उनके परिणाम तो मनोनुकूल आयेंगे ही, बल्कि यह कहा जाय तो अधिक उचित होगा कि सिद्धांत ही परिणामों के अनुकूल गढ़े गये हैं।
अतः शब्द से उत्पन्न विभ्रम के निराकरण हेतु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि :
- पृथ्वी का अयन-चलन पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूर्णन के समय उसके ‘नत अक्ष का खगोलीय गोले में घूर्णन है जिसका प्रभाव यह है कि पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव भिन्न-भिन्न समय में ब्रह्माण्ड के भिन्न-भिन्न तारों के सीध में होता जायेगा। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के ऊपर जो भी तारा होता है उसे ही ध्रुव तारा कहते हैं। इस अयन गति के कारण पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव अलग-अलग समय पर भिन्न तारों की ओर अपना मुख करता है। वर्तमान युग का ध्रुव तारा धीरे-धीरे पृथ्वी का ध्रुव तारा नहीं रहेगा। आज से लगभग ९८० वर्ष पश्चात सन् ३००० में वृषपर्वा तारामण्डल का गामा सॅफ़ॅई (γ Cephei) तारा पृथ्वी का नया ध्रुव तारा बनेगा और सन् ५२०० तक वही पृथ्वी हेतु ध्रुव तारा रहेगा। सन् १०००० में हंस नाम का तारा पृथ्वी का ध्रुव तारा बन चुका होगा। सन् १४००० में अभिजित तारा पुनः हमारा ध्रुव तारा बनेगा जो १४००० वर्ष पूर्व भी हमारा ध्रुव तारा रह चुका है। हमारा वर्तमान ध्रुव तारा “अल्फ़ा उर्साए माइनोरिस” (α Ursae Minoris या α UMi) जो ध्रुवमत्स्य तारामण्डल का सर्वाधिक प्रकाशमान तारा है, भी सन् २७८०० ग्रे. में पुनः एक बार हमारा ध्रुव तारा बनेगा। यह प्रक्रिया लगभग प्रत्येक २५७७१ वर्षों पश्चात दुहराई जाती रहेगी। यह २५६९० वर्ष की अवधि (स्थूल रूप से २६००० वर्ष) अयनांश-काल कही जाती है। यह अयनांश से भिन्न है।
- पृथ्वी से विषुव सम्पात को मिलाने वाली रेखा भचक्र को या राशि-पट्टिका को जिस स्थान पर काटती है और पृथ्वी से अश्विनी नक्षत्र और मेष राशि के आदि बिन्दु को मिलाने वाली रेखा के बीच बनने वाला कोण अयनांश जिसका मान वसंत विषुव की गति के कारण बढ़ता जा रहा है और यही अंतर सायन तथा निरयण पद्धतियों में अंतर का कारण है क्यों कि पाश्चात्य ज्योतिष मेष राशि का आरम्भ अश्विनी नक्षत्र के आदि बिन्दु की सीध से नहीं बल्कि वसंत विषुव की सीध से मानता है जो निस्संदेह एक भ्रामक तथा अशुद्ध मान्यता है। यदि हम सूर्य-सिद्धांत को मानें तो यह अयनांशशून्य से ± २७ अंश के मध्य झूलता रहता है। अर्थात जब यह मान २७ अंश तुल्य हो जायेगा तब वसंत विषुव पीछे खिसकने के स्थान पर पुनः आगे की और अग्रसर होने लगेगा। १४ जनवरी २०१९ का अयनांश २४° ०७’३६”५५.८”’ तो अयनांश को +२७ अंश तुल्य होने में अभी २°५२’२३”४.२”’ का कोणीय विचलन और प्राप्त करना है। वार्षिक अयनांश गति ५०’’ है तो इस अयनांश को +२७ अंश होने में ११९३४.३१ वर्ष या कहें कि ११९३५ वर्ष लगेंगे। पुनः पश्चवर्ती होने पर +२७ अंश से अश्विनी नक्षत्र के आदि बिन्दु पर आने में इसे ११६६४० वर्ष और लगेंगे। अतः आज से लगभग १२८५७५ वर्ष पश्चात वसंत विषुव पुनः अश्विनी नक्षत्र की सीध में होगा।
- पृथ्वी की भूमध्य रेखा के सापेक्ष विभिन्न अक्षांशों पर सूर्य की किरणों का लम्बवत होना तथा एक निश्चित अवधि में भूमध्य रेखा से कर्क रेखा तक आना, पुनः लौट कर भूमध्य रेखा को पार करते हुए मकर रेखा तक जाना और पुनः भूमध्य रेखा की ओर लौटना पृथ्वी के सापेक्ष सूर्य की गति (जो मात्र एक कथन है क्यों कि वस्तुत: गति पृथ्वी की है, सूर्य की नहीं) या सूर्य का अयन कहते हैं जो सूर्य की परिक्रमा करती पृथ्वी के अक्ष का सूर्य के अक्ष के पूर्णतः अभिमुख तथा पूर्णतः पराङ्गमुख होने की विशेष स्थिति के कारण है और इस का पृथ्वी के अक्ष के घूर्णन तथा उससे सम्बंधित अयनांश काल अथवा पृथ्वी तथा अश्विनी के आदि बिन्दु के सापेक्ष वसंत विषुव की कोणीय गति तथा उसके कोणीय अंतर जिसे अयनांश कहते हैं दोनों से ही कोई सम्बन्ध नहीं है।
- पृथ्वी के मकर रेखा पर सूर्य की किरणों का लम्बवत होना दक्षिण अयनांत, सूर्य के किरणों की क्रमशः मकर रेखा से उत्तर के अक्षांशों पर लम्बवत पड़ने की प्रवृत्ति सूर्य का उत्तरायण होना, इस क्रम में सूर्य की किरणों का पुनः भूमध्य रेखा पर लम्बवत होते हुए क्रमशः कर्क रेखा की ओर बढ़ कर कर्क रेखा पर लम्बवत होना उत्तर अयनांत और इसका पुनः भूमध्य की ओर लौटने की प्रवृत्ति सूर्य का दक्षिणायन होना कहा जाता है। कर्क रेखा पर सूर्य की किरणों का लम्बवत आपतित होने का अर्थ यह नहीं है कि सूर्य कर्क राशि में प्रविष्ट हो गया और मकर रेखा पर सूर्य की किरणों का लम्बवत आपतित होने का भी अर्थ यह नहीं है कि सूर्य मकर राशि में प्रविष्ट हो गया। सूर्य का किसी भी राशि में प्रविष्ट होना सूर्य की उस राशि में संक्रांति कही जाती है अतः पृथ्वी की नति के सापेक्ष सूर्य का मकर रेखा पर पहुँचना और वहाँ से उत्तरायण होना (या दक्षिण अयनांत) और मकर संक्रांति दोनों दो घटनायें हैं तथा ज्योतिषीय रूप से सूर्य का उत्तरायण तभी मान्य है जब सूर्य मकर राशि में प्रविष्ट हो। इसी प्रकार सूर्य की किरणों का भूमध्य रेखा पर लम्बवत होना भी मेष-संक्रांति या तुला संक्रांति नहीं है और सूर्य की किरणों का कर्क रेखा पर लम्बवत होना (या उत्तर-अयनांत) भी कर्क संक्रांति नहीं है। आज इन घटनाओं में २३ दिनों का अंतर है जो एक शताब्दी में दो दिन के तुल्य बढ़ रहा है अतः संभव है कि लगभग ९०० वर्ष पश्चात दक्षिण अयनांत के दिन कर्क-संक्रांति हो! क्योंकि सूर्य का पृथ्वी के सापेक्ष अयन सूर्य का राशियों के सापेक्ष अयन या राशियों की संक्रांति से भिन्न है।
वास्तव में भचक्र में ग्रहों की अनिश्चितता न निरयन और सायन पद्धतियों में भिन्नता के कारण है, न ही भारतीय ज्योतिष की किसी त्रुटि के कारण, बल्कि यह समस्त वैज्ञानिक उपलब्धियों के पश्चात भी मानव की उस अनादि-अनन्त काल को नापने में असमर्थता है जो महाकाल की अधीनता में अभिनय करता है। आर्ष भारतीय ज्योतिष इस खेल में काल को उसी के बनाये नियमों के अधीन, उसे कड़ी चुनौती देता रहा है किन्तु अपात्र व्यक्तियों के हाथों में पड़ कर आज भारतीय ज्योतिष का ओज तथा तेज तिरोहित हो चुका है और पाश्चात्य ज्योतिष हमारी पारिभाषिक शब्दावलियों हेतु अपनी नई परिभाषायें गढ़ कर, अपने सुविधा के नियम बना कर, भारतीय ज्योतिष को हीन सिद्ध करने में अपनी श्रेष्ठता मान कर हर्षित है। त्रिस्कन्ध ज्योतिष के तीनो अंगों गणित, जातक (होरा) और संहिता का ज्ञान हुए बिना भी कुछ ‘पाश्चात्य’, कुछ ‘अरबी’ तथा कुछ-कुछ ‘भारतीय ज्योतिष’ का घालमेल, को आधार बना कर फलित ज्योतिष को उपार्जन का माध्यम बनाने वाले भारतीय ज्योतिषियों ने इस विद्या को और भी अधिक हानि पहुँचाई है।
प्रकृति अपना बीज स्वयं बचा कर रखती है। आज भी भारत में ऐसे विद्वान् हैं जो इन समस्याओं का निराकरण कर सकने में समर्थ हैं। किन्तु उनको इसका अवसर ही नहीं प्राप्त हो सकता क्योंकि आर्ष ज्योतिष का अध्ययन-मनन-क्रियान्वयन समयसाध्य तथा श्रमसाध्य है। उतना श्रम करने के पश्चात ज्योतिषी को प्राप्त होने वाली दक्षिणा एक समय हेतु ‘अन्यैर्नृपालै: शाकाय वा स्याल्लवणाय वा स्यात्’ ही होती है। ज्योतिष हेतु राज्याश्रय है नहीं, है भी तो वहाँ भी पाश्चात्य ऐनक के चढ़ाये बिना गति ही नहीं क्योंकि समस्त ज्ञान-विज्ञान तो पश्चिम में है! अतः मुल्ला को गधे पर उलटा बैठना ही श्रेय है। किन्तु यह किसी को ध्यान नहीं है कि ‘आर्ष ज्योतिष’ ही ज्योतिष का मूल है और ‘नष्टे मूले, न शाखा न पत्रं !’ ऐसे में भारतीय ज्योतिष के वास्तविक ज्ञाता अल्प मात्रा में ही सही जो कुछ भी कर रहे या कर पा रहे हैं उसके लियें हमें उनका कृतज्ञ होना चाहिये।
अब एक उलझी हुई कहानी के प्रतीकों को भी समझने का प्रयास कर लें? है तो तुक्का ही, पर लक्ष्य पर लग गया तो तीर से कम नहीं!
उज्जयिनी! अतीत में अवंतिका, उज्जयिनी, विशाला, प्रतिकल्पा, कुमुदवती, स्वर्णशृंगा, अमरावती आदि अनेक नामों से अभिहित नगरी, भारतीयता का गौरव, कालिदास की भूमि, विक्रमादित्य की राजधानी, उज्जयिनी! जहाँ गुरु सांदीपनी के आश्रम में विद्याप्राप्त करने हेतु कृष्ण तथा बलराम आये थे वह उज्जयिनी! शिप्रा के चटुल तरंगों से शीतल हुये पवन से दुलरायी जाती एक विश्वप्रसिद्ध नगरी! षोडश महाजनपदों में से एक! कृष्ण की एक पत्नी मित्रवृन्दा यहीं की राजकुमारी थी। उसके दो भाई विन्द एवं अनुविन्द महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए थे। उज्जयिनी में बुद्ध का समकालीन एक अत्यंत प्रतापी राजा हुआ जिसका नाम चण्ड प्रद्योत था और जिससे भारत के अन्य शासक भय खाते थे। उसकी दुहिता वासवदत्ता एवं वत्सनरेश उदयन की इतिहास प्रसिद्ध प्रणय गाथा जिसे आधार बना कर “प्रतिज्ञा यौगंधरायण” तथा “स्वप्न वासवदत्ता” जैसे कथानक रचे गये। पुण्य सलिला शिप्रा के दाहिने तट पर बसे इस नगर को भारत की मोक्षदायक सप्तपुरियों में एक माना गया है।
भारतीय ज्योतिष में उज्जयिनी का सूर्योदय काल ही देश भर के पंचांगों के लिए प्रामाणिक माना जाता रहा है। भारतीय ज्योतिषियों के अनुसार दक्षिण में लंका, भारत के मध्य में उज्जैन और उत्तर में रोहतक नगरों के मध्य से जाने वाली देशांतर रेखाओं पर होने वाले सूर्योदय का सूर्योदय काल ही प्रामाणिक सूर्योदय काल है। इसमें भी लंका के सूर्योदय तथा राशियों के उदय-अस्त को विशेष ही स्थान प्राप्त है जिसका उल्लेख ऊपर लङ्कोदय के रूप में किया गया है। इसका कारण क्या है? इसका कारण है इन स्थानों की विशिष्ट स्थिति। वर्तमान उज्जैन नगर विंध्यपर्वतमाला के समीप और पवित्र तथा ऐतिहासिक क्षिप्रा नदी के किनारे २३°५०’ उत्तर अक्षांश और ७५°५०’ पूर्वी देशांश पर स्थित है।
ज्योतिष की दृष्टि से उज्जयिनी का सूर्योदय काल ही देशभर के लिए प्रामाणिक सूर्योदय काल रहा है और आधुनिक भाषा में उसे भारत का ‘मानक समय’ या ‘स्टैंडर्ड टाइम’ कहा जा सकता है। दो सहस्राब्दियों पूर्व के ज्योतिषियों ने इसी को ‘महाकाल’ कहा। हमारे देश में विविध महान शास्त्रीय तथ्यों को देवरूप में स्वीकार करने की परंपरा रही है। इसी परंपरा के अंतर्गत ‘मानक समय’ को ‘महाकाल’ के रूप में अभिकल्पित किया गया और उसके मंदिर की स्थापना उज्जयिनी में की गई। यह भी एक ज्वलंत प्रश्न है कि उज्जयिनी को ही क्यों चुना गया, जब कि वह एक देशांतर रेखा देश के इतने लंबे-चौड़े भाग से निकलती है? उज्जैन को ही इतना महत्व क्यों? उत्तर यह है कि उज्जैन कर्क रेखा पर स्थित है, जहाँ तक उत्तरायण सूर्य आता है और लौटकर मकर रेखा तक जाता है जो दक्षिण गोलार्ध में शून्य अक्षांश से उतनी ही दूरी पर है जितनी दूरी पर कर्क रेखा पर स्थित उज्जयिनी। कर्क रेखा पर स्थित होने के कारण भारतीय ज्योतिर्विदों ने उज्जयिनी को महाकाल की नगरी माना।
विक्रमादित्य शब्द में दो खंड हैं विक्रम और आदित्य। विक्रम का अर्थ सामान्यतया ‘पराक्रम’ समझा जाता है और आदित्य का अर्थ तो ‘सूर्य’ है ही। इस प्रकार विक्रमादित्य का अर्थ हुआ ‘शक्ति का सूर्य’। परंतु विक्रम शब्द में क्रम धातु है जिसका अर्थ है चलना। इसी से बना हुआ दूसरा शब्द ‘संक्रम’ है, जो सूर्य की गति के विषय में सर्वविदित है। सूर्य का संक्रम या संक्रमण आधुनिक ज्योतिषियों के लिए अपरिचित शब्द नहीं है। तो विक्रम का अर्थ हुआ विशेष क्रम और विक्रमादित्य का लाक्षणिक अर्थ हुआ आदित्य अर्थात् सूर्य का विशेष क्रम।
उज्जैन शब्द की व्युत्पत्ति उज्जयिनी से मानी जाती है। किन्तु ‘उदयिनी’ भी तो हो सकता है? प्राकृत ‘उज्जैणी’ या ‘उज्जैन’ स्पष्टत: संस्कृत शब्द ‘उदयिनी’ से व्युत्पन्न नहीं लगते? उज्जैन वास्तव में आदित्य के हमारे ‘मानक समय के रूप में मान्य’ उदय की नगरी ही तो थी! भारतीय कथा साहित्य का सुप्रसिद्ध ‘उदयन’ भी तो सूर्य का ही अन्य नाम है! इस प्रकार विक्रमादित्य, महाकाल तथा उज्जयिनी की व्युत्पत्ति पर विचार करने से यही ज्ञात होता है कि वह विशेष क्रम में विभिन्न राशियों में भ्रमण करते सूर्य का ही एक नाम है जिसे राजा मान लें तो उसकी राजधानी उदयिनी अथवा ‘उज्जैणी’ या फिर ‘उज्जयिनी’ है जहाँ सूर्य लौट कर आता है और उसी नगरी का समय संपूर्ण देश के लिए प्रामाणिक समय होने के कारण ‘महाकाल’ कहलाने का अधिकारी है। तो उस विशेष अर्थ में विक्रमादित्य के नवरत्न निसंदेह नव-ग्रह ही हैं।
शून्य अक्षांश से कर्क रेखा के २३ अंश २६ मिनट २२ सेकेण्ड तक के भाग को यदि तीन भाग में विभक्त करें तो एक भाग ७ अंश ४८ मिनट २० सेकेण्ड का होता है। अतः ये भागंश ० अक्षांश से ७ अंश ४८ मिनट २० सेकेण्ड तक, ७ अंश ४८ मिनट २० सेकेण्ड से १५ अंश ३६ मिनट ४० सेकेण्ड तक और १५ अंश ३६ मिनट ४० सेकेण्ड से कर्क रेखा तक हुए। यदि कर्क रेखा से प्रारम्भ करें तो दो भागांश क्षेत्र में भारतवर्ष तथा तीसरे भागांश में श्रीलंका की भूमि पड़ती है। भूमि के जिस भाग पर सूर्य रश्मियाँ सीधी पड़ती हैं, वही उस विशेष खंड में सूर्य की अवस्थिति का परिचायक है।
एक नियत स्थान तक आगे बढ़कर वापस मूल स्थान तक पहुँचना ‘सिंह विक्रांत’ कहलाता है। सिंह का स्वभाव है शिकार करने के लिए कुछ दूर तक आगे बढ़कर पुनः लौटना या पीछे की ओर सिकुड़ना। लौटने की क्रिया के लिये ही ‘सिंह विक्रांत’ या ‘सिंह विक्रमण’ शब्द है। कर्क रेखा तक उत्तर दिशा में चलकर पुन: दक्षिण की ओर विक्रमण करने वाला सूर्य ‘सिंह विक्रमी’ हुआ – सूर्य के एक माह तक कर्क राशि पर रहकर सिंह राशि के प्रारम्भ पर पहुँचना! यह सिंहासन बत्तीसी का रहस्य है। सूर्य सिंह राशि का स्वामी माना जाता है। कर्क तक आगे बढ़कर वह वापस लौटता है और अपने घर की राशि तक आकर वहाँ आसीन होता है।
सिंह के पश्चात सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है। भारत का दक्षिण भू-भाग (अर्थात १६ अक्षांश से ८ अक्षांश का भू-भाग) कुमारी अंतरीप या कुमारी कन्याओं का प्रदेश माना जाता है। उस प्रदेश पर सीधी किरणें प्रक्षेपित करने वाला सूर्य कन्यार्क हुआ। कन्याओं के उस देश की स्मृति के रूप में आज भी कुमारी अंतरीप का दर्शनीय कन्याकुमारी का मंदिर जगत प्रसिद्ध है। वहाँ से दक्षिण की ओर बढ़ता हुआ सूर्य जब विषुवत रेखा पर पहुँच जाता है और वहाँ उसकी किरणें सीधी पड़ती हैं, वह तुला राशि पर पहुँचा हुआ माना जाता है। विषुवत रेखा पर जब सूर्य पहुँच जाता है तो भूमण्डल का उत्तर और दक्षिण का भाग पूर्णत: सम तुला हुआ होता है अतः ‘तुला’ नाम इस दृष्टि से भी सार्थक है। तत्पश्चात आगे बढ़कर सूर्य जब वृश्चिक राशि पर पहुँचता है तो उज्जयिनी पर पड़ने वाली सूर्य की किरणें उतनी ही वक्र होती हैं जितना बिच्छू का डंक होता है। उससे आगे बढ़ने पर उज्जैन पर पड़ने वाली किरणें और भी अधिक वक्र हो जाती हैं और धनुष के समान दिखाई पड़ती हैं। यह ‘धनु’ का अर्थ है। उसके पश्चात समुद्र के मध्यगत मकर रेखा तक पहुँचकर सूर्य का पुन: उत्तरायण प्रारंभ होता है। मकर का स्वभाव अगाध जल में पहुँचकर पुन: स्थल की ओर लौटने का है, यही ‘मकर’ राशि नाम की सार्थकता है। वहाँ से संक्रमण करता हुआ सूर्य सर्वप्रथम स्थल भाग के निकट आता है। संभव है कि वह स्थल भाग किसी समय घड़े के घोण जैसा रहा होगा। कुंभ राशि का ‘कुम्भ घोण’ तथा तमिलनाडु का कुम्भकोणम दोनों में कोई सम्बंध है अवश्य, किन्तु क्या सम्बंध है, यह चिंतन का विषय है। कुम्भकोणम को संस्कृत में ‘कुम्भघोणम’(८) कहा जाता है। दक्षिण भारत की इस पावन भूमि पर प्रत्येक बारह वर्ष के पश्चात् कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। एक मान्यता के अनुसार यह माना जाता है कि ब्रह्मा ने अमृत से भरे कुम्भ को इसी स्थल पर रखा था। इस अमृत कुम्भ से कुछ बूंदे बाहर छलक कर गिर गई थीं, जिस कारण यहाँ की भूमि पवित्र हो गई। अत: इस स्थान को कुम्भकोणम के नाम से जाना जाता है। पुष्कर के अतिरिक्त भारत में यह एक और स्थल है जहाँ ब्रह्मा का मंदिर है।
उससे दक्षिण में बढ़ने पर अगाध समुद्र है जिसमें प्राणी के नाम पर केवल मीनों का निवास है अत: वह मीन राशि का प्रदेश कहलाया। वहाँ से आगे संक्रमण करके सूर्य लङ्कोदय की प्रसिद्ध नगरी लंका तक पहुँचता है। ‘मेष’ के नियोजन की आवश्यकता नहीं है क्योकि जो रेखा तुला की है वही मेष की है अर्थात भूमध्य रेखा, किन्तु लंका के उस स्थल के समीपवर्ती क्षेत्रों का अधिक ज्ञान रखने वाले संभवतः वहाँ मेढ़े की आकृति का कोई स्थल जानते हों या अब खोज सकें। भारतीय कथाओं का सुप्रसिद्ध नायक उदयन जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी, “वत्सराज” (वत्स = गाय का बछड़ा, राज = राजा अर्थात बछड़ों का राजा या वृष) नाम से चित्रित हुआ है। इस क्षेत्र-विशेष में सूर्य के वृषस्थ होने तथा वत्सराज उदयन की कथा में भी कोई उभयनिष्ठ तथ्य अवश्य होना चाहिए। वत्सराज उदयन ने नागवन में ही अपनी प्रेयसी को प्राप्त किया था। यह नागवन वर्तमान मैसूर के पास का प्रदेश है, जहाँ के वनों में नाग अर्थात हाथियों की बहुलता है। और जब सूर्य की किरणें इस क्षेत्र पर लम्बवत पड़ती हैं तब सूर्य मिथुन राशि में ही होता है। नागवन में उदयन का उसकी पत्नी/प्रेयसी से मिलन (मिथुनत्व) क्या मिथुन राशि में सूर्य के होने का ही कोई रूपक है? क्या उदयन के नागवन में अपनी प्रेयसी से मिलन की कथा सूर्य के मिथुन राशि पर आने की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति नहीं प्रतीत होती? मिथुन के पश्चात तो सूर्य उदयिनी पति बन ही जाता है और अपनी प्रेयसी के नगर उज्जयिनी पहुँचकर ‘कर्कस्थ’ होता है। वासवदत्ता उज्जयिनी नरेश चण्ड प्रद्योत की ही तो कन्या थी! किन्तु कर्क या केकड़े का स्वभाव सदा स्थल से जल की ओर जाने का होने के कारण वह पुनः सागर – जल की ओर दक्षिणगामी होता है।
सूर्य के खगोलीय-अयन से संबंधित ज्योतिष शास्त्र की यह घटना भारतीय साहित्य में एक रोचक कथा का रूप धारण कर चुकी थी और वृद्धजनों के मुख से यत्र-तत्र सुनी जाती थी जिसका संकेत कालिदास ने भी किया है। कवि कालिदास ने मेघदूत में इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि उज्जयिनी के गाँव की चौपालों पर ग्रामीण जन आज भी वासवदत्ता तथा उदयन की प्रेमकथा रस ले लेकर गाते हैं :
प्राप्यावन्तीनुदयनकथाकोविदग्रामवृद्धान्, पूर्वोद्दिष्टामनुसर पुरीं श्री विशालां विशालाम् ।
स्वल्पीभूते सुचरितफले स्वर्गिणां गां गतानां, शेषै: पुण्यैर्हृतमिव दिव: कान्तिमत्खण्डमेकम् ॥
(मेघदूत, पूर्वमेघ, ३०)
मेगस्थनीज ने भी भारत के वृद्ध नागरिकों से सूर्य की कथा का श्रवण किया और उसका वर्णन उसने अपने शब्दों में किया :
“हरकुले(स) सौरसेन लोगों का इष्टदेव है और उसके दो प्रसिद्ध नगर हैं, एक मथुरा और दूसरा क्लिसबुरा जिसके पास ऐबोन्नी नदी बहती है। हरकुले(स) की पुत्री पांड्या का राज्य दक्षिण में पाण्ड्य प्रदेश में है। हरकुले(स) दायोनीस से १५ पीढ़ी पश्चात हुआ। शिव (शिवी) लोग अपने को हरकुल का वंशज मानते हैं।”
‘एज ऑफ नंदाज एंड मौर्याज’ ग्रंथ में श्री नीलकंठ शास्त्री ने इस उद्धरण की व्याख्या करने का प्रयास किया है और मदुरा को मथुरा तथा ऐबोन्नी को यमुना माना है, किन्तु यह व्याख्या भ्रामक प्रतीत होती है। वास्तव में दक्षिण की वह नगरी ‘मदुरा’ होनी चाहिये, जहाँ कुमारी-अंतरीप क्षेत्र या कन्याओं के प्रदेश के पांड्य राज्य की इतिहास-प्रसिद्ध राजधानी रही है। क्लिसबुरा और ऐबोन्नी की व्याख्या में पाश्चात्य अनुवादक संभवतः कोई भूल कर बैठे हैं। क्लिस्बुरा < क्लिस्ब्रा < सिब्रा < शिप्रा। अतः क्लिस्बुरा ‘शिप्रा’ का यूनानी संस्करण हो सकता है और ऐबोन्नी ‘अवन्ती’ का। अतः शुद्ध अर्थ यह होना चाहिये कि “दूसरी राजधानी ऐबोन्नी है जिसके पास क्लिसबुरा नदी बहती है।” हरकुले(स) ‘हरिकुल’ (सूर्यवंश) का ग्रीक रूप है और दायोनीस ‘दिनेश’ का। हरकुले(स) और दायोनीस से ध्वनिसाम्य होने के कारण मेगस्थनीज ने ये रूप स्वीकृत किये होंगे। सिकंदर से लोहा लेने वाले ‘शिवि’ लोग सूर्यवंशी थे यह कथा सरित्सागर से स्पष्ट है। सौरसेन भी ‘शूरसेन’ से नहीं, सूर्योपासक “सौर सेन” से सम्बद्ध हैं। इस प्रकार मेगस्थनीज के उद्धरण का स्पष्ट अर्थ यह है कि – “हरिकुलों की दो राजधानियाँ हैं – एक मदुरा और दूसरी शिप्रा के किनारे अवन्ती में तथा मदुरा में पाण्ड्य रानी का राज्य है। ‘हरि’ यदि विष्णु के अर्थ में भी हो तो द्वादश आदित्यों में सबसे छोटे भाई का नाम ‘विवस्वान’ था जो कालांतर में सूर्य तथा विष्णु नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसके सूर्य समान विक्रमी होने के कारण उसका नाम सूर्य हुआ या आकाशीय पिण्ड का नाम ही उसके नाम पर रखा गया, दोनों में से कुछ भी संभव है।
मेगस्थनीज ने जिस कथा को सुना था, उससे सम्बंधित घटना इतिहास-सम्मत भी है और प्रतीकात्मक भी। सूर्य उज्जयिनी में कर्कस्थ होता है और मदुरा में कन्या राशि पर। परंतु अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि विक्रमादित्य, उदयन, उज्जयिनी आदि की इस कहानी के माध्यम से ज्योतिष के विषय स्पष्ट करने का प्रयास भारत के कवि वर्ग ने क्यों किया होगा? पतञ्जलि के ‘महाभाष्य’ और सोमदेव के ‘कथा सरित्सागर’ आदि ग्रंथ इस विषय पर संभवतः कुछ प्रकाश डाल सकते हैं।
वत्सराज उदयन, विक्रमादित्य आदि की कथा सर्वप्रथम बृहत्कथा में लिखी गई थी और उनके द्वारा ज्योतिष के तथ्यों का भी प्रतिपादन किया गया था। ऐसा लगता है कि ‘बृहत्कथा’ के काल में ज्योतिष शास्त्र बहुत बढ़ा-चढ़ा था। वैसे तो यह सब है एक अटकलबाजी ही, किन्तु ‘बृहत्कथा’ में संभवत: ज्योतिष, भूगोल, इतिहास आदि अनेक विषयों की मनोहर कथाओं का समावेश किया गया था, परंतु परवर्ती पाठकों के लिए वह एक मनोहर कथा मात्र रह गयी। उसके पश्चात एक बहुत लंबा समय भारतीय ज्योतिष के पतन का आया, जिस काल का कोई ग्रंथ इस समय विद्यमान नहीं है। इसीलिए ‘स्टैंडर्ड टाइम’ के अर्थों में प्रयुक्त होने वाले ‘महाकाल’ शब्द का प्रयोग वर्तमान युग में प्राप्त ज्योतिष शास्त्र के ग्रंथों में नहीं मिलता, यद्यपि उज्जैन का उदयकाल ही उन सब में भी प्रमुख उदय काल माना गया है। ‘स्टैंडर्ड टाइम’ के अर्थों में जिस समय ‘महाकाल’ शब्द का प्रयोग होता रहा होगा, उस समय के ज्योतिष शास्त्र के विषय में बहुत अधिक अन्वेषण की आवश्यकता है। ‘कथा सरित्सागर’ और ‘बृहत्कथा’ मंजरी आदि की कहानियों के आधार पर ज्योतिष शास्त्र, भूगोल, इतिहास आदि के अनेक तथ्यों का शोध किया जा सकता है। आशा है विद्वान लोग इस दिशा में कार्य करेंगे और भारतीय ज्योतिष का वह विस्मृत ‘महाकाल’ पुनः अपने मूल स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सकेगा। इस से यह भी विदित होता है कि भारतीय कथाओं की बहुत-सी नामावलियाँ वास्तव में पारिभाषिक शब्दावली की बोधक है।
अन्त में समाहार स्वरुप यह अवश्य कहना है कि इन शब्दों का लेखक कोई ज्योतिष या खगोल शास्त्र का विद्वान् नहीं बल्कि एक साधारण किन्तु कौतुकप्रिय व्यक्ति है अतः विद्वान पाठकों से अपेक्षा है कि कौतुकी व्यक्ति के क्रियाकलापों को मन-रंजन की दृष्टि से ही देखें, ज्ञान-अर्जन की दृष्टि से नहीं क्योंकि मद-विक्रेता से अमृत की आशा नहीं की जानी चाहिये।
महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ, उल्लेख एवं टिप्पणियाँ :
(१) अथर्ववेद शौनक शाखा, १९.७ :
चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि । तुर्मिशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीर्भिः सपर्यामि नाकम् ॥१॥
हवमग्ने कृत्तिका रोहिणी चास्तु भद्रं मृगशिरः शमार्द्रा । पुनर्वसू सूनृता चारु पुष्यो भानुराश्लेषा अयनं मघा मे ॥२॥
पुण्यं पूर्वा फल्गुन्यौ चात्र हस्तश्चित्रा शिवा स्वाति सुखो मे अस्तु । राधे विशाखे सुहवानुराधा ज्येष्ठा सुनक्षत्रमरिष्ट मूलम् ॥३॥
अन्नं पूर्वा रासतां मे अषाढा ऊर्जं देव्युत्तरा आ वहन्तु । अभिजिन् मे रासतां पुण्यमेव श्रवणः श्रविष्ठाः कुर्वतां सुपुष्टिम् ॥४॥
आ मे महच्छतभिषग्वरीय आ मे द्वया प्रोष्ठपदा सुशर्म । आ रेवती चाश्वयुजौ भगं म आ मे रयिं भरण्य आ वहन्तु ॥५॥
(२) वर्ष पर्यन्त उत्तर दक्षिण दिशाओं में झुके दोलन करते प्रतीत होते सूर्य की आकाश में वह माध्य स्थिति जब वसन्त ऋतु का उत्तरी गोलार्द्ध में आरम्भ होता है।
(३) भूमध्य रेखा को यदि ऊपर अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित कर दें तो नाड़ीवृत्त प्राप्त होगा। किसी भी समय हमें उसका अर्द्धवृत्त भाग ही दिखता है।
https://www.youtube.com/watch?v=X7jQRGGb64g
(४)
(५) एता ह वै प्राच्यै दिशो न च्यवन्ते । सर्वाणि ह वा अन्यानि नक्षत्राणि प्राच्यै दिशश्च्यवन्ते तत्प्राच्यामेवास्यैतद्दिश्याहितौ भवतस्तस्मात्कृत्तिकास्वादधीत।
शतपथ २.१.२.[३]
(६) The precession periods from about 22,345 years to 28,800 years. Thus precession changes significantly throughout Earth’s history.
ψ = +49086 + 50.467718t – 13.526564×10–9t2 + 42246(0.1500192/(0.150019 + 2(–13.526564×10–9)t)2)cos(0.150019t – 13.526564×10–9t2 + 171.424°)
The equation generates precession periods that vary from 25,687.8 years to 25,691.6 for the 20 cycles (510,795 years) centered on the present (J2000 ±3600°), with the single cycle centered on the present (±180°) being 25,689.8 years. Thus the approximation 25,690 years is accurate to four significant digits over 20 cycles. (A long-term numerical solution for the insolation quantities of the Earth J. Laskar, P. Robutel, F. Joutel, M. Gastineau, A. C. M. Correia, and B. Levrard)
(७) महाभारत
(८) संस्कृत में घोण का अर्थ नाक या उसकी भाँति आकृति होती है। जब आप भारत के मानचित्र का वह अंश देखेंगे जिसमें कुम्भकोणम या कुम्भघोणं स्थित है तो आश्चर्यजनक होगा कि उस थलीय भाग की आकृति भी मनुष्य मुखाकृति के नाक की भाँतो लगती है। प्राचीन पात्रों में नासिका समान टोटी सहित पात्रों के बहुत अवशेष मिले हैं। सम्भव है कि कुम्भघोणं नाम इस कारण से दिया गया हो।
ध्वज चित्र साभार http://www.orbys.co.jp, Star chart generated with StellaNavigator 8.1 planetarium software, AstroArts Inc.
Ephemerides computation by www.alfcen.com
अद्भुत
भूगोल ज्योतिष व खगोलीय गणित खभी विषय नहीं रहे न ही इनकी शतांश जानकारी है अतः यह लेक का बड़ा भाग समझने की योग्यताभि नहीं।परन्तु इसने रोमांच व एक नई खिड़की खोल दी।
साधुवाद। धन्य हैं आप। जय हो ,जय हो।
दीप कुमार
सरल शब्दों में किये गये इस गहन विवेचन को समझ पाने का सामर्थ्य मुझमें नहीं। पर जितना भी समझ सका उसके लिए तथा ज्योतिषीय गणनाओं के पीछे की जटिलताओं के प्रति जिज्ञासा जागृत करने हेतु कोटिशः धन्यवाद गुरुदेव।
आपने लिखा है कि यह ज्योतिष के विद्वान के द्वारा नहीं किंतु को तक पर यह लेखक के द्वारा लिखा गया है या आप की सरलता है कि आपने अपने आप को विद्वान नहीं मानना है किंतु आप विद्वान से कम भी नहीं है साधुवाद ऐसे लेख के लिए
बहुत सारी जानकारियां मिली। हालांकि बहुत कुछ समझने की क्षमता नहीं है मुझमें।
इसे समझने के लिए जितने न्यूनतम ज्ञान की आवश्यकता होगी उसका शतांश भी नही है फिर भी रोचकता साहस का संचार कर ही देती है |प्रणाम
बहुत मार्मिक और गहन अध्ययन दर्शाने वाला लेख,
कुछ समझा कुछ समझने की क्षमता ही नही अभी…
जितना समझा उसके लिये कृतज्ञता पूर्वक प्रणाम,
जो न समझ पाया, उसके लिये प्रयत्न करूंगा,…
साधुवाद….
विक्रमादित्य एक वास्तविक राजा भी थे जिनका विक्रम संवत् अभी भी चल रहा है, जबकि भारत सरकार की अंग्रेजी शिक्षा कारण अज्ञानता के कारण तथाकथित राष्ट्रीय शक संवत् १९५७ के बाद अभी तक नहीं चल पाया। विक्रमादित्य एकमात्र भारतीय राजा हैं जिनका उल्लेख अरब तथा रोम के इतिहास में भी है। उज्जयिनी का सम्बन्ध उदय से है, निकट में एक उदयगिरि भी है जो प्राचीन वेधशाला थी। इसके निकट चन्द्र (इन्दु) नगर इन्दौर भी है (इन्दु + उर)।
कुम्भ शब्दका सामान्य अर्थ जल के लिये बर्तन है। इसके जैसा गोल आकाश भी कुम्भ है। किसी स्थान की उत्तर दक्षिण रेखा किसी स्थान पर कुम्भ जैसे आकाश को पूर्व तथा पश्चिम कपाल (मैत्रावरुण क्षेत्र, पूर्व भाग मित्र, पश्चिम भाग वरुण) में विभाजित करती है। सौर मण्डल का उत्तरी विन्दु नाक-स्वर्ग है जिसके चारों तरफ प्रायः २४ अंश के वृत्त में उत्तरी ध्रुव विन्दु २६,००० वर्ष में परिक्रमा करता है। याम्योत्तर रेखा का उत्तर विन्दु वसिष्ठ तथा तथा दक्षिण विन्दु अगस्त्य है जो उन दिशाओं के मुख्य तारा हैं। इस अर्थ में कुम्भकोणम् अगस्त्य का जन्मस्थान हो सकता है। तमिल में प, फ, ब, भ का एक जैसा उच्चारण होता है अतः कोणम् का घोणम् उच्चारण सम्भव है जिसका अर्थ नाक भी है। किन्तु भूगोल के लिये कुम्भ का अर्थ जल भण्डार है, यह डेल्टा क्षेत्र, समुद्र या नदी तट हो सकता है जहां कुम्भ मेला लगता है। कार्त्तिकेय काल में कुम्भ राशि (माघ मास) से वर्ष आरम्भ होता था जो वेदाङ्ग ज्योतिष में वर्णित है। दक्षिण में कावेरी डेल्टा उसका कुम्भ है जिसके कोण पर यह नगर है अतः यह कुम्भकोणम् कहा जाता है। संस्कृत में गद्य शैली की रचना को कुम्ब्या (ऐतरेय आरण्यक, ३/२/६) कहते हैं जो कुम्भकोणम् से सम्बन्धित हो सकता है।