अनेक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के सत्य होने के प्रत्यक्ष प्रमाण होते हुए भी बहुधा लोग उन पर विश्वास नहीं करते। इसके विपरीत उन मान्यताओं पर सहज ही विश्वास कर लेते हैं जिनका कोई तार्किक आधार नहीं होता, जैसे – पृथ्वी चपटी है। यह प्रक्रिया नई नहीं है जिसे चर्च और तत्कालीन समाज की गैलीलियो एवं चार्ल्स डार्विन के सिद्धांतों के प्रति प्रतिक्रियाओं से जाना जा सकता है। यहाँ रोचक बात यह है कि लोगों को समस्या विज्ञान से नहीं, परंतु इस बात से होती है कि स्वयं की विचारधारा या संसार के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन उन्हें स्वीकार्य नहीं होता। स्वाभाविक है कि जिसकी दृष्टि जितनी संकीर्ण होती है, उसे नए सिद्धांतों से उतनी ही अधिक समस्या होती है। उसी प्रकार वैज्ञानिक मत जितने अधिक क्रांतिकारी होते हैं, उन्हें अस्वीकार करने की प्रवृत्ति भी उतनी ही अधिक होती है। साइण्टिफिक अमेरिकन में छपे एक आलेख के अनुसार इसका एक कारण कुछ धार्मिक विचारधाराओं में ‘मिथ्या पैगम्बर’ से प्रभावित होने का भय भी है। साइण्टिफिक अमेरिकन में जलवायु परिवर्तन को अस्वीकार करने से सम्बन्धित विषय पर छपे एक आलेख में वर्णन आया —
…if I’m a Christian – and more than 70 percent of Americans are – I’m taught to beware of false prophets. Beware of people saying things that sound good but are actually leading you to worship the created instead of the creator, Earth instead of God. …Any perceived Earth worship immediately triggers an ingrained response to reject.
अर्थात् यदि किसी विचारधारा में सम्पूर्ण एवं अंतिम सत्य ज्ञात होने तथा उसके परे किसी भी बात को शैतान इत्यादि की उत्पत्ति मानने की शिक्षा जितनी अधिक होगी, उसमें नए विचारों और सिद्धांतों को खुले मन से स्वीकार करने की प्रवृत्ति उतनी ही अल्प होगी।
इसका एक उदाहरण है – अमेरिका में किए गए सर्वेक्षणों में लोगों का विकासवाद को अस्वीकार करना और बाइबल में लिखित मान्यताओं को मानना। रोचक बात यह भी है कि जहाँ विज्ञान को सम्मान देने में अमेरिकी एकमत हैं ( यह उन सर्वेक्षणों में स्पष्ट भी हुआ), वहीं जब स्वयं की पांथिक मान्यताओं पर प्रश्न उठते हैं तो लोग उस विशेष मत को अस्वीकार भी कर देते हैं। समय के साथ भी इन आँकड़ों में विशेष परिवर्तन देखने को नहीं मिला। पिछले तीस वर्षों से इस मान्यता का प्रतिशत लगभग अपरिवर्तित ही रहा। वर्ष २०१२ में प्रकाशित एक अध्ययन में मनोवैज्ञानिकों ने पाया कि वैज्ञानिक तथ्य सत्य होते हुए भी व्यक्ति को उसकी पुरानी मान्यताएँ भूलने नहीं देते। हमारी मान्यताएँ मिथ्या होते हुए भी हमारे मस्तिष्क पर छायी रहती हैं। हमारी मान्यताओं के समर्थन नहीं करने वाले वैज्ञानिक मतों को मानने के लिए यह भी आवश्यक होता है कि हम अपनी मिथ्या मान्यताओं को प्रयत्नपूर्वक त्याग दें जो कि सरल नहीं होता। स्वाभाविक ही है कि यह उतना ही कठिन होता है जितनी रूढ़ियों और जड़ प्रक्रियाओं की अति द्वारा व्यक्ति शिक्षित होता है।
इसी प्रकार लोगों के व्यक्तिगत राजनीतिक मत से उपजे पक्षपात भी उन्हें तथ्यों की अनदेखी करने को प्रेरित करते हैं। स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक लीयोन फेस्टिंगर ने अपने एक शोध के निष्कर्ष को कुछ इस रूप में प्रस्तुत किया :
A man with a conviction is a hard man to change. Tell him you disagree and he turns away. Show him facts or figures and he questions your lisources. Appeal to logic and he fails to see your point.
फेस्टिंगर और उनके सहयोगियों ने शिकागो स्थित एक सम्प्रदाय का अध्ययन किया था जिसके संस्थापक अपने आपको पैगम्बर एवं इसा मसीह का अवतार मानते थे तथा उनका कहना था कि उन्हें ईश्वर से संदेश प्राप्त होते हैं। इस सम्प्रदाय की मान्यता थी कि २१ दिसम्बर १९५४ ग्रे. को प्रलय होगा। जब ऐसा नहीं हुआ तो एक लम्बी चुप्पी के पश्चात उस सम्प्रदाय ने घोषणा की कि उन्हें ईश्वर से नया संदेश प्राप्त हुआ कि उनके सम्प्रदाय के भरोसे के कारण ही सृष्टि बच गयी।
अध्ययन में पाया गया कि इस पैगम्बर की अन्ध-भक्ति में उक्त सम्प्रदाय के लोगों ने प्रलय होने के भरोसे सेवायोजन, व्यवसाय आदि का त्याग कर अपने घर इत्यादि भी बेच डाले थे। फेस्टिंगर का निष्कर्ष था कि इतना कुछ गँवा देने के पश्चात लोगों का भरोसा और दृढ़ होता गया और वे तर्क से परे होते गए! कालांतर में मनोविज्ञान में इसे अभिप्रेरित विचार (motivated reasoning) की संज्ञा दी गयी। अर्थात् उन बातों के लिए कारण ढूँढना जिनमें उन्हें विश्वास होता है, व्यक्ति की प्रवृत्ति होती है तथा उन बातों के कारणों की अनदेखी करना भी जिसमें वह विश्वास नहीं करना चाहता। इससे समय के साथ मिथ्या विश्वासों में व्यक्ति की दृढ़ता और भी बढ़ती जाती है। आश्चर्य नहीं कि जिन विचारधाराओं में किसी सङ्कीर्ण मत के लिए भी ऐसा कह दिया गया कि इसके परे कोई सत्य नहीं उसके मतावलम्बियों में वर्षों के भावनात्मक निवेश के पश्चात उस मत के परे सोचने की प्रवृत्ति समाप्त-सदृश ही हो जाएगी।
अभिप्रेरित विचार की अवधारणा आधुनिक मनोविज्ञान के सञ्ज्ञानात्मक पक्षपातों के इस निष्कर्ष से भी मेल खाती है कि व्यक्ति के तर्क उसकी भावनाओं से प्रभावित होते हैं। मिशिगन विश्वविद्यालय के प्रो. आर्थर लुपिया के अनुसार मनुष्य में संकट के समय विकासवाद से प्रेरित त्वरित प्रतिक्रियायें – संघर्ष करना या दौड़ भागना (fight-or-flight reflex) परभक्षी से सामना होने पर ही नहीं वरन सूचना के लिए भी यथावत कार्य करती हैं। अर्थात् नयी तथ्यपरक सूचना से सामना होने पर भी त्वरित प्रतिक्रिया में हम अपनी मान्यताओं और भावनाओं का पक्ष लेते हैं, तर्क पीछे रह जाता है और जहाँ हमें लगता है कि हम तर्क का सहारा ले रहे हैं, वहाँ भी बहुधा हम वास्तव में तथ्य का वस्तुनिष्ठ अवलोकन करने के स्थान पर अपनी मान्यताओं की पुष्टि के कारण ढूँढ़ रहे होते हैं।
एक वैज्ञानिक की भाँति अपनी मान्यताओं पर तार्किक प्रश्न करने के स्थान पर व्यक्ति का मस्तिष्क एक अधिवक्ता की भाँति अपनी मान्यताओं को सत्य सिद्ध करने के लिए तर्क ढूँढता है। यही नहीं लोगों को तथ्यों से अवगत कराने पर उनकी ‘अपनी मान्यतायें’ और दृढ़ भी हो जाती हैं! यथा, व्यक्ति वही समाचार माध्यम देखते हैं जिनसे उनके विचारों की पुष्टि होती है और उनके विचार और दृढ़ होते जाते हैं।
इसी क्रम में वर्ष १९७९ के एक प्रसिद्ध अध्ययन में यह पाया गया कि वैज्ञानिक तथ्यों के प्रति भी लोग इस प्रकार से प्रतिक्रिया देते हैं जिससे उनके पूर्वाग्रह तथा मान्यताओं की पुष्टि हो। इन सिद्धांतों का आजकल एक ही तथ्य पर विभिन्न समाचार माध्यमों द्वारा विपरीत निष्कर्ष सुनाने से उत्तम उदाहरण भला क्या होगा? येल विश्वविद्यालय के प्रो डैन कहन और सहयोगियों ने एक शोध में यह भी पाया कि विभिन्न विशेषज्ञों की उपस्थिति में किसे विशेषज्ञ माना जाय और किसे नहीं, यह भी हमारी मान्यताओं से प्रेरित होता है न कि विशेषज्ञ की दक्षता पर। अर्थात् किसी की तथ्यपरक विशेषज्ञता की भी अनदेखी कर मस्तिष्क किसी मूर्ख को विशेषज्ञ मान बैठता है। जिस प्रकार समाचार माध्यम अपना पक्ष सिद्ध करने के लिए किसी को भी विशेषज्ञ मान बुलाते हैं और अपनी विचारधारा की पुष्टि के लिए विशेषज्ञ को भी नकार देते हैं।
इन सिद्धांतों को इस प्रकार भी समझा जा सकता है —
गतानुगतिको लोके न कोऽपि पारमार्थिकः । गङ्गासैकतलिङ्गेन नष्टं मे ताम्रभाजनम् ॥
सनातन दर्शन में तो यह जगत् परिच्छिन्न और नित्य परिवर्तनशील ही है जहाँ प्रतिक्षण प्रत्येक वस्तु परिवर्तनगामी है। परिवर्तन वस्तु की पूर्व स्थिति की मृत्यु ही तो है। ज्ञान-विज्ञान, विद्या और अविद्या के बारे में भी उपनिषदों से उत्तम प्रक्रिया भला कहाँ मिल सकती है जहाँ प्रश्नोत्तर ही सृष्टि के गूढ़ रहस्यों के उद्घाटन का माध्यम है।
ईशोपनिषद् में विद्या और अविद्या के विषय में कथन है :
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह । अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते॥
(जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वही अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृत की प्राप्ति करता है।)
सनातन परम्परा में ज्ञान को परखने की तर्क-परम्परा रही है। वास्तविक अर्थ के अन्वेषण के लिए वाद-विवाद की परम्परा तो सदा से रही। तंत्रयुक्ति सम्भवतः तर्क का विश्व में प्राचीनतम ग्रन्थ है जिसमें परिषदों एवं सभाओं में शास्त्रार्थ की विधि वर्णित है।
शास्त्र तो हैं पर —
अधीयानोऽपि तन्त्राणि तन्त्रयुक्त्यविचक्षणः। नाधिगच्छति तन्त्रार्थमर्थं भाग्यक्षये यथा॥
( जिस प्रकार भाग्य के क्षय होने पर व्यक्ति को अर्थ (धन) की प्राप्ति नहीं होती है, उसी प्रकार यदि किसी ने तन्त्र शास्त्र का अध्ययन किया है किन्तु वह तन्त्रयुक्ति का उपयोग करना नहीं जानता तो वह शास्त्र का अर्थ नहीं समझ पाता है।)
किं बहुना? नेति नेति विचार-पद्धति को वेदान्त का ज्ञानमार्ग कहा जाता है, सच जानने का सम्यक विकल्प। अर्थात् इस परम्परा में ईश्वर के अस्तित्व को भी किसी विश्वास पर प्रतिष्ठित न कर न्याय-विचार कर एवं मतों का खण्डन कर परम-सत्य तक पहुँचना होता है- चरम विवेक-विचार पर प्रतिष्ठित मार्ग।