आ पश्यति प्रति पश्यति परा पश्यति पश्यति ।
दिवमन्तरिक्षमाद्भूमिं सर्वं तद्देवि पश्यति ॥
(अथर्ववेद, शौनक शा., ४.२०.१)
…………………………………….मया॒ सो अन्न॑मत्ति॒ यो वि॒पश्य॑ति॒ यः प्राणि॑ति॒ य ईं॑ शृ॒णोत्यु॒क्तम् ।
अ॒म॒न्तवो॒ मां त उप॑ क्षियन्ति श्रु॒धि श्रु॑त श्रद्धि॒वं ते॑ वदामि ॥
(ऋग्वेद, १०.१२५.४)
जो अन्न भोग करता है, जो देखता है, जो प्राण धारण करता है और जो इस ज्ञान का श्रवण करता है, वह मेरी सहायता से यह सब करता है। और जो मुझे मानते-जानते नहीं, वे नष्ट हो जाते हैं। हे प्राज्ञ मित्र ! तू सुन, तुझे मैं श्रद्धेय ज्ञान को कहती हूँ।
वेद चार भागों में विभक्त हैं। आज कल की विकृत शिक्षा पद्धति के कारण सामान्य जन वेद शब्द का अर्थ केवल संहिता भाग से लेते हैं। परम्परा अनुसार वेद के अन्तर्गत शाखा संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद माने जाते हैं। अंतिम होने के कारण उपनिषद भाग वेदान्त भी कहलाता है।
वेदों को त्रयी भी कहा जाता है। त्रयी का अर्थ ऋक्, यजुस् एवं साम से है। ऋक् देव अर्चना के मन्त्र होते हैं, यजुस् कर्मकाण्ड के तथा साम गायन के। अथर्ववेद के मन्त्र भी ऋक् के अन्तर्गत ही आते हैं। किसी एक संहिता के कुछ मन्त्र कभी यथावत तो कभी किञ्चित परिवर्तित रूप के साथ अन्य संहिताओं में भी मिल सकते हैं।
ब्राह्मण कहा जाने वाला भाग विविध यज्ञों, संस्कारादि में संहिता के मन्त्रों के उपयोग से सम्बंधित है। आरण्यक एवं उपनिषद वनप्रान्तर के तपस्वियों द्वारा ज्ञान एवं रहस्य विद्याओं से सम्बंधित अंतर्दृष्टि एवं विमर्श से सम्बंधित हैं। उपनिषद शब्द का रहस्य अर्थ में प्रयोग कौटलीय अर्थशास्त्र में भी मिलता है।(१) राजन्य वर्ग के रहस्यात्मक ब्रह्मविद्या में प्रवीण एवं अधिकारी होने के उल्लेख उपनिषदों में अन्त:साक्ष्य के रूप में एवं पुराणों में भी मिलते हैं।
छान्दोग्य उपनिषद सामवेद के छान्दोग्य ब्राह्मण के अंतिम आठ अध्यायों में सङ्ग्रहीत है तथा विशाल कलेवर वाला है तथा बहुत प्राचीन है। इसमें अनेक कथाओं एवं प्रसङ्गों के माध्यम से तथा सम्वाद पद्धति का उपयोग करते हुये रहस्य विद्याओं के विमर्श एवं उपदेश हैं।
इसका नाम ‘छन्द’ पर आधारित है जिसका अर्थ केवल पद्यबद्ध रचना न हो कर ‘आच्छादित करने वाला’ है। ऋषि सत्य को विविध मानवीय एवं परिवेशगत तथ्यों एवं द्रव्यादि से आच्छादित देख उसे विविध छन्द एवं साम में व्यक्त करते हैं। इसी कारण सामवेद संहिता को छन्दोग संहिता भी कहा जाता है।
साम शब्द का एक रोचक योगार्थ वैदिक प्रक्रिया में मिलता है जिसमें ‘सा’ को ऋक् एवं ‘अम’ को स्वर बताया गया है। स्तुति या अर्चना एवं स्वर (गायन) का संयोग साम है।
ऋच्यध्यूढꣳसाम तस्मादृच्यध्यूढꣳ साम गीयत इयमेव साग्निरमस्तत्साम। (छा.उ.,१.६.१)
अर्थात ऋचा में अधिष्ठित साम का गायन किया जाता है। का साम्नो गतिरिति? स्वर इति होवाच (छा.उ.,१.८.४)। वैश्विक स्तर पर सामवेद स्वरबद्ध रचनाओं का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ है।
स्वर एवं गायन से सम्बंधित एक रहस्य प्रकरण छान्दोग्य उपनिषद के पाँचवें अध्याय के ग्यारहवें से तेरहवें खण्डों तक मिलता है। पाँच महाशाला महाश्रोत्रीय – उपमन्यु के पुत्र प्राचीनशाल, पुलुष के पुत्र सत्ययज्ञ, भल्लवि के पुत्र इन्द्रद्युम्न, शार्कराक्ष्य एवं अश्वतराश्व के पुत्र बुडिल, मिल कर मीमांसा करने लगे कि आत्मा कौन, ब्रह्म क्या – को नु आत्मा किं ब्रह्म?
परस्पर निर्णय न ले पाने के कारण सभी मिल कर आरुणि उद्दालक के पास पहुँचे क्यों कि वह वैश्वानर आत्मा को भली भाँति जानते थे – आरुणि: सम्प्रतीममात्मानं वैश्वानरमध्येति।
आरुणि ने उन्हें देखा एवं समझ गये कि मैं सबको पूर्णरूपेण आश्वस्त नहीं कर सकता – न सर्वमिव प्रतिपत्स्येहन्ताहम् …। आरुणि ने कहा कि कैकेय अश्वपति आत्मरूप वैश्वानर को पूर्णरूपेण जानते हैं हम सब उन के पास चलें।
छ: जन अश्वपति के पास पहुँचे। राजा ने समझा कि ऋत्विक जन यज्ञ में धन की इच्छा से आये हैं। उन्हों ने स्वागत पश्चात उनसे रहने का अनुरोध किया कि जितना धन प्रदान करने का सङ्कल्प मैंने लिया है, वही आप लोगों को भी प्रदान करूँगा। अपनी यज्ञनिष्ठा बताते हुये राजा ने यह भी कहा कि मेरे राज्य में कोई चोर नहीं, न कोई कृपण, न मद्यप, न कोई अनाहिताग्नि है, न अल्पज्ञानी, न परस्त्रीगमन करने वाला तो स्वैरिणी स्त्री कहाँ होगी – न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपो नानाहिताग्निर्नाविद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुतो ! अर्थात मेरा राज्य आप सब के बसने हेतु उपयुक्त है।
आगन्तुकों ने कहा कि इस समय हम वैश्वानर आत्मा के बारे में जानने आये हैं, हमें उसके बारे में बतायें। राजा ने अगले दिन आने को कहा। अगले दिन पूर्वाह्नकाल में सभी ऋषि हाथों में समिधा ले कर पहुँचे – ते ह समित्पाणय: पूर्वाह्णे प्रतिचक्रमिरेतान्हानुपनीयैवैतदुवाच।
यहाँ भारतीय परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष उद्घाटित होता है। राजा के पास गये पाँचो जन महाश्रोत्रीय ब्राह्मण थे अर्थात श्रुतिविद्या में श्रेष्ठ स्तर के विद्वान थे किन्तु एक क्षत्रिय राजा के पास विद्या अध्ययन को गये। उस काल में बिना उपनयन किये अर्थात दीक्षित किये गुरु विद्या नहीं देते थे अत: वे महाश्रोत्रीय होते हुये भी शिष्य होने की इच्छा से उसी प्रकार हाथों में समिधा ले कर गये जिस प्रकार कोई वटुक गुरु के पास जाता है। राजा ने वर्णमर्यादा रखी तथा उन्हें सुपात्र जान कर बिना उपनयन के ही विद्या प्रदान करना आरम्भ कर दिया – तान्हानुपनीयैवैतदुवाच।
राजा ने पहले प्राचीनशाल से प्रश्न किया – आप किस आत्मा की उपासना करते हैं, कं त्वमात्मानमुपास्स? प्राचीनशाल ने उत्तर दिया – द्युलोक को। राजा ने उसे सुतेजा बताते हुये उसका वैश्वानर आत्मा से अभेद बताया तथा उसका महत्त्व बताते हुये कहा – अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियमत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्। आप अन्न का भक्षण करते हैं, आप प्रिय देखते हैं। वह अन्न का भक्षण करता है, वह प्रिय देखता है।
वैश्वानर आत्मा से सम्बंधित प्रश्न पर राजा ने इसी प्रकार शेष पाँच से भी प्रश्न पूछे तथा सबके उत्तर में रहस्य बताते हुये यही वाक्य दुहराया – अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियमत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्। वैश्वानर अग्नि का नाम है। अन्न को पचाने वाले को जठराग्नि कहा जाता है। अन्न है तो देह है, देह है तो उसमें अग्नि स्वरूप वैश्वानर आत्मा है। राजा ने भौतिक एवं आध्यात्मिक को तो जोड़ा ही, अधूरे ज्ञान की सीमा भी आलङ्कारिक रूप से बताई। कैसे बताई? यह कहा कि यदि मेरे पास नहीं आता तो तुम्हारा एक अंग गिर जाता या नष्ट हो जाता ! प्राचीनशाल से कहा कि तुम्हारी मूर्धा गिर जाती – मूर्धा ते व्यपतिष्यद्यन्मां नागमिष्य।
उपासना भेद से देह के विविध अङ्गों के जुड़ाव को रेखाङ्कित करते हुये राजा ने विराट की सम्पूर्णता एवं समस्त ज्ञान उपासना के ऐक्य को प्रतिपादित किया तथा यह भी कि अधूरा ज्ञान ले कर बैठे नहीं रहना चाहिये, पूर्णता हेतु लगे भी रहना चाहिये।
राजा के प्रश्न, उनके उत्तर एवं अंग के सम्बन्ध इस प्रकार हैं :
प्राचीनशाल – द्युलोक – सुतेजा – मूर्धा (गिर जाना)
सत्ययज्ञ – आदित्य – विश्वरूप – आँख (अन्धोऽभविष्यो)
इन्द्रद्युम्न – वायु – पृथग्वर्त्मा – प्राण (प्राणस्त उदक्रमिष्यत्)
शार्कराक्ष्य जन – आकाश – बहुल – उदर (सन्देहस्ते व्यशीर्यद्यन्)
बुडिल – जल – रयिवान् – मूत्राशय (बस्तिस्ते व्यभेत्स्यत्)
उद्दालक – पृथ्वी – प्रतिष्ठा – पाँव (पादौ ते व्यम्लास्येतां)
देखें कि पाँच तत्त्वों की यात्रा सबसे ऊपर के छठें से आरम्भ होती है। क्रम है – आदित्य (अग्नि), वायु, आकाश, जल एवं पृथ्वी)। क्रमश: ऊपर से नीचे तक प्रभावित अङ्गों का भी क्रम है – मूर्धा, उससे नीचे आँख, आँख से नीचे प्राण, प्राण से नीचे उदर, उदर से नीचे मूत्राशय तथा सबसे नीचे पाँव पृथ्वी पर, सबको आधार देते हुये। ध्यान देने योग्य यह भी है कि प्राकृतिक चिकित्सा में विविध अंग सम्बंधित उपचारों में भी पञ्चतत्त्वों का ऐसे ही उपयोग होता है।
एक बड़ा प्रश्न उठता है – आँख के पश्चात जिस प्राण की बात की गयी है, वह क्या है? क्या प्राण आँखों से नीचे मुख में रहते हैं या इसमें कोई रहस्य है? विचार कर लिया, देख लिया, खा पचा लिया, उत्सर्जन कर लिया तथा चल भी लिया, बोला ही नहीं ! वाणी की तो बात ही नहीं हुई !! जब कि उपनिषद है गायन से सम्बंधित वेद का जिसमें वाक् या वाच् या वाणी का ही महत्त्व है, बोलेगा ही नहीं सकता तो गायेगा कैसे?
यहीं इस उपनिषद का मुख्य प्रतिपाद्य अपना रूप उघाड़ता है। दूसरे मन्त्र का ही अंश है – पुरुषस्य वाग्रसो वाच ऋग्रस ऋच: साम रस:।
पुरुष का रस वाक् या वाणी है, वाणी का रस ऋक् है तथा ऋक् का रस साम है अर्थात वाणी का सत्त्व है उसका सामतत्त्व। देह रूपी पुरी में शयन करने वाले नारायण ही पुरुष कहलाते हैं – पुरि देहे शेते शी-ड पृषो, अत: स्त्री एवं पुरुष दोनों के लिये पुरुष संज्ञा का प्रयोग भी होता है।(२)
वागेवर्क् प्राण: साम द्वारा वाक् ऋक् का प्राण साम को बताया गया है। नितान्त सांसारिक स्तर पर देखें तो इसका अर्थ यही होता है कि बिना सत्त्व के वाणी का व्यर्थ उपयोग नहीं करना चाहिये। इस प्रकार की साधना की ही चरम परिणति ‘मौन व्रत’ में होती है जो एक प्रकार का अनुशासन तो होता ही है, मनन हेतु वाक् शक्ति को विराम देता है।
वायु नाम देख कर कोई भी सहसा ही प्राण को साँसों से जोड़ कर देख सकता है किन्तु पृथग्वर्त्मा शब्द एवं अनुक्रम से प्राण शब्द प्रयोग के परोक्ष होने की पुष्टि होती है तथा देव तो परोक्षप्रिय होते ही हैं ! (३) अन्य पाँच में तो प्रत्यक्ष रूप से देह के सम्बंधित अंग के नष्ट होने की बात की गयी है किन्तु वाणी के उपादान जीभ का प्रयोग न कर सीधे प्राण ही का चला जाना बता कर उसे गहन अर्थ दे दिया गया है। साम ही प्राण है – सामप्राणम्प्रपद्ये (शु. यजुर्वेद, काण्व शा., ३६.१.१)।
जो पाँच ऋषि उद्दालक के पास गये उनके आराध्यों को देखें तो सभी पृथ्वी रूपी आधार से परे हैं। वे सभी पृथ्वी की प्रतिष्ठा वाले उद्दालक के पास जाते हैं तथा वही उन्हें आगे का मार्ग स्वयं साथ चल कर दिखाते हैं। उपनिषदों को जो भौतिकता से नितान्त परे मानते हैं, उनके लिये यह सूक्ष्म सङ्केत भी है कि किसी पक्ष की उपेक्षा नहीं होनी चाहिये।
इस पक्ष पर भी विचार करें कि चार नीतियों साम, दाम, दण्ड एवं भेद का साम भी कहीं न कहीं गेय अर्थात आश्वस्त करने वाली वाणी से जुड़ा है। जिस प्रकार कूटनीति में रहस्य उपनिषद कहलाता है, उसी प्रकार कूटनीति का साम भी इस साम से जुड़ता है। सामगायन उद्गीथ कहलाता है तथा इसके तीन अक्षरों को ले कर छान्दोग्य उपनिषद में रहस्य उद्घाटन भी हैं।
यही उपनिषद आगे कहता है :
देवा वै मृत्योर्बिभ्यतस्त्रयीं विद्याम् प्रविशꣳस्ते छ्न्दोभिरच्छादयन्यदेभिराच्छादयꣳस्तच्छ्न्दसां छन्दस्त्वम्। (१.४.२)
मृत्यु के भय से देवों ने त्रयी विद्या में प्रवेश लिया और अपने को छन्दों से अपने को आच्छादित किया। जो आच्छादन करे वही छन्द है, आच्छादित करने वाले होने के कारण वे छन्द भी कहे गये।
यहाँ देवों का तात्पर्य शरीरस्थ देव शक्तियों से है। मनुष्य मर्त्य है, उसके अंगों में स्थित देवों को ही मृत्युभय होता है। जब हम इस बात को अश्वपति के प्रश्नों एवं उनके उत्तरों पर विवेचना के सन्दर्भ में गुनते हैं तो जीवन के समस्त पक्षों को एकात्म करते हुये सन्तुलित जीवन जीने का तथा उसी प्रकार जीते हुये मरने का मर्म उद्घाटित होता है। मृत्यु से, भय से जो मुक्त करे, जो जन जन में स्थित देवों को प्राण प्रदान करे, वही सामविद्या है – सा विद्या या विमुक्तये।
आधुनिक प्रबन्धन में प्रयुक्त युक्ति Balanced Scorecard को ऐसे नहीं देख सकते क्या?
सन्दर्भ :
(१)
कौटलीय अर्थशास्त्र में उपनिषद शब्द के ये प्रयोग दर्शनीय हैं :
०१११६। परबलघातप्रयोगः, प्रलम्भनम्, स्वबलोपघातप्रतीकारः – इत्यौपनिषदिकं चतुर्दशमधिकरणम् ॥
०२१८१९। ऐन्द्रजालिकमौपनिषदिकं च कर्म ॥
०४३१३। व्याधिभयमौपनिषदिकैः प्रतीकारैः प्रतिकुर्युः, औषधैश्चिकित्सकाः शान्तिप्रायश्चित्तैर्वा सिद्धतापसाः ॥
०४३२३। स्नुहिक्षीरलिप्तानि धान्यानि विसृजेद्, उपनिषद्योगयुक्तानि वा ॥
०५१३७। इत्युपनिषत्प्रतिषेधः ॥
०७१३२ यदि वा पश्येत्”सन्धौ स्थितो महाफलैः स्वकर्मभिः परकर्माण्युपहनिष्यामि, महाफलानि वा स्वकर्माण्युपभोक्ष्ये, परकर्माणि वा, संधिविश्वासेन वा योगोपनिषत्प्रणिधिभिः परकर्माण्युपहनिष्यामि, सुखं वा सानुग्रहपरिहारसौकर्यं फललाभभूयस्त्वेन स्वकर्मणां परकर्मयोगावहं जनमास्रावयिष्यामि – ॥
०७१५१२ कृत्यपक्षोपग्रहेण वास्य दुर्गे राष्ट्रे स्कन्धावारे वा कोपं समुत्थापयिष्यामि, शस्त्राग्निरसप्रणिधानैरौपनिषदिकैर्वा यथेष्टमासन्नं हनिष्यामि – ॥
०९११५। प्रज्ञाशास्त्रचक्षुर्हि राजाल्पेनापि प्रयत्नेन मन्त्रमाधातुं शक्तः परानुत्साहप्रभाववतश्च सामादिभिर्योगोपनिषद्भ्यां चातिसंधातुम् ॥
१०६४८ यन्त्रैरुपनिषद्योगैस्तीक्ष्णैर्व्यासक्तघातिभिः ।
१२४२०। वनगूढा वा प्रत्यन्तस्कन्धमुपनिष्कृष्याभिहन्युः, एकायने वीवधासारप्रसारान् वा ॥
१३४१२। निष्किरादुपनिष्कृष्याश्वैश्च प्रहरेयुः ॥
१४१०१। चातुर्वर्ण्यरक्षार्थमौपनिषदिकमधर्मिष्ठेषु प्रयुञ्जीत ॥
(२)
देव परोक्षप्रिय होते हैं अत: उनसे सम्बंधित चर्चा में परोक्ष संज्ञाओं का प्रयोग किया जाता है।
इन्धो ह वै नामैष योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस् तं वा एतमिन्ध सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षेणैव परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः ॥
(बृहदारण्यक उपनिषद)
(३)
अथैतद्वामेऽक्षणि पुरुषरूपम् एषाऽस्य पत्नी विराट् तयोरेष सꣳस्तावो य एषोऽन्तर्हृद। (बृहदारण्यक उपनिषद)
विषय सम्बंधित अन्य लेख – ईशावास्योपनिषद