सुख का अर्थशास्त्र : सनातन बोध – 18 से आगे:
सनातन बोध की इस शृंखला में हमने बारम्बार यह देखा है कि अर्थशास्त्र के सिद्धांतों में जैसे जैसे मनोविज्ञान और मानवीय व्यवहार के सिद्धांत समाहित होते जा रहे हैं, वह सनातन बोध के समरूप होता जा रहा है। आज की कड़ी में व्यक्तियों के समूह से जुड़े कुछ संज्ञानात्मक पक्षपातों की चर्चा करते हैं – दूसरों को देखकर अनुकरण करने और अनजाने में ही उससे प्रभावित होने वाले संज्ञानात्मक पक्षपात।
वाद्यवृन्द वाहन प्रभाव (bandwagon effect) के नाम से जाने जाने वाले सिद्धांत की चर्चा सबसे पहले करते हैं। जिसका सार है – मनुष्य का भीड़ (सभी जो कर रहे हों) को देखकर प्रभावित होना। अर्थात जब कोई मत, बात या वस्तु प्रसिद्ध हो जाती है तो किसी व्यक्ति विशेष द्वारा उसे स्वीकार करने की सम्भावना बढ़ जाती है, राजनीति में जिसे ‘लहर’ कहा जाता है एवंं वेश भूषा में चलन (फैशन)। इसे दूसरों के कामों और मतों का अनुसरण करने की मानवी प्रवृत्ति कहें या सामाजिक प्रभाव, हम इस संज्ञानात्मक पक्षपात से कुछ इस प्रकार प्रभावित होते हैं जैसे काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाय एक लीक काजल की लागे है तो लागे है। मनोविज्ञान के अस्च अनुपालन प्रयोग (Asch conformity experiments) की व्याख्या भी इस संज्ञानात्मक पक्षपात से की जाती है। अन्य कई सिद्धांतों, जिनकी चर्चा हमने की, की ही तरह इस सिद्धांत का बोध भी पुरातन है। ‘गतानुगतिको लोकः’ की कथा तो आपने पढ़ी ही होगी। लोक में सभी अनुसरण करते हैं – लोकस्तदनुवर्तते।
इस भ्रान्ति का प्रभाव तो स्पष्ट ही है, हम वैसी वस्तुओं का प्रयोग और उन्हें एकत्रित करते हैं जिनकी हमें आवश्यकता नहीं। चलन में देखकर नए मतों से प्रभावित होते हैं। मानवी प्रवृत्ति हो या न हो, अपने मत और उत्पाद का प्रचार करने वालों को इस बात का संज्ञान अवश्य होता है। इस भ्रान्ति में आकर हम नए टीवी शो और खेल देखने लगते हैं। आवश्यकता नहीं होने पर भी महँगी वस्तुएं खरीदते हैं।नए उत्पाद के लिए प्रचार का महत्त्व उसी तरह तो है जैसे हाथी के गले में बँधा घण्टा – विना घण्टाटणत्कारे गजो गच्छन्न शोभते।
अन्य संज्ञानात्मक पक्षपातों की ही तरह पारंपरिक अर्थशास्त्र में वस्तुओं की माँग-आपूर्ति के समीकरण में इस कारक का कहीं उल्लेख नहीं होता। इसलिए यहाँ अर्थशास्त्र के सिद्धांत सत्य अनुमान लगाने में बहुधा विफल होते हैं। पद्मपत्रमिवाम्भसा अर्थात जल में रहकर भी कमल के पत्ते की तरह उसमें लिप्त नहीं होने की स्मृति भला किसे रहती है! लोगों से प्रभावित हुए बिना भला कौन रहता है! महाभारत में इसीलिए कहा गया है – वसन् विषयमध्येऽपि न वसत्येव बुद्धिमान्।
इसी प्रकार एक अन्य सिद्धांत है जिसे ज्ञान का अभिशाप (curse of knowledge) कहते हैं। यह भी हम सभी के साथ होता है। इसके अनुसार जब हम अन्य लोगों से बात करते हैं तो इस बात को प्रायः भूल जाते हैं कि हमारी विशेषज्ञता वाली बातें सामने वाले व्यक्ति के लिए अबूझ हो सकती हैं। इसका सबसे सरल उदाहरण है कि शिक्षक पढ़ाते हुए प्राय: ये भूल जाते हैं कि उनके लिए सरल लगने वाली बातें विद्यार्थियों के लिए कठिन होती हैं। इसी भाँति प्रबंधन में प्रतुक्त होने वाली शब्दावली श्रमिकों की समझ में नहीं आती और यह बात बहुधा प्रबंधन में बैठे व्यक्ति के संज्ञान में नहीं आती। इस आधुनिक सिद्धांत से पता चलता है कि गूढ़ रहस्यों को विष्णुशर्मा की तरह सुगम बनाकर बताना अब भी सभी के बस की बात नहीं – कथाच्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते।
समूह के मनोविज्ञान पर एक और प्रसिद्ध सिद्धांत है – बार्नम प्रभाव (barnum effect) अर्थात सामान्य बातों को सुनकर उसे अपने व्यक्तित्व से जोड़ लेना। राशिफल और ज्योतिष भविष्यवाणी करने वाले कुछ इस प्रकार की बातें करते हैं जो सबके लिए ही सच होती हैं परन्त्तु हम उन्हें स्वयं से जोड़कर देख लेते हैं और हमें सब कुछ सच लगता है। यह फ्रेमिंग प्रभाव (framing effect) की ही तरह है जिसकी चर्चा हम पिछले एक लेखांश में कर चुके हैं। आप अपना राशिफल छोड़ किसी और राशि का राशिफल पढ़ लें, वह भी आपको उतना ही सच प्रतीत होगा!
इसी प्रकार एक और सिद्धांत है जिसके अनुसार हम दूसरों की सामान्य सी बातों को भी प्रायः प्रतिकूल भाव (hostile attribution bias) और संशय से देखते हैं। जैसे कोई दो लोग आपस में बात कर रहे हों तो यह मान लेना कि वे हमारे बारे में ही बात कर रहे होंगे! जीवन में होने वाली अधिकतर मिथ्या धारणाओं और भ्रमों का मनोवैज्ञानिक सच है ये! हमें लगता है कि वे हमारे बारे में ही तो सोच रहे होंगे! समूह आरोपण भ्रान्ति (group attribution error) इस बात को चिह्नाङ्कित करता है कि हम प्रायः एक समूह के निर्णयों से उस समूह के व्यक्तियों के गुणों का निर्धारण कर लेते हैं या किसी व्यक्ति विशेष के गुणों से परिचय होने पर हम पूरे समूह के बारे में ही मत बना लेते हैं यथा किसी व्यक्ति के गुणों-अवगुणों से उसके धर्म, जाति, देश इत्यादि के बारे में धारणा बना लेना या किसी धर्म, जाति या देश का होने से किसी व्यक्ति के बारे में धारणा बना लेना। परन्तु वस्तुस्थिति यह होती है कि उस समूह में भी विभिन्नता होती है। भ्रान्ति को तर्क कि कसौटी पर कुछ इस तरह उतारना होता है –
लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥
इसी क्रम में निज सेवा भ्रान्ति (self-serving bias) का सिद्धांत कहता है कि हम अपनी सफलता के लिए अपने गुणों को श्रेय देते हैं और विफलता के लिए उन कारकों को जो हमारे नियंत्रण में नहीं। इस भ्रान्ति के चलते लोग प्राय: सफलता का श्रेय स्वयं को देते हैं पर विफलता का उत्तरदायित्व नहीं लेते। मनोविज्ञान के अतिरिक्त विकासवादी जीवविज्ञान के सन्दर्भ में इसकी व्याख्या इस शृंखला के प्रारम्भ में हम कर चुके हैं। यह भला वही बोध कथा नहीं है जो हमने बचपन में सुनी थी? एक यात्री ने जब एक माली से कहा कि तुम्हारी फुलवारी तो अत्यंत सुन्दर है तो माली ने कहा- भला क्यों न होगी, इतना परिश्रम जो करता हूँ! परन्तु कुछ महीनों के उपरांत वही यात्री जब वापस लौट रहा था तब उसने उजड़ी फुलवारी देखकर पुनः पूछा तो माली ने कहा – प्रभु की इच्छा! अपने को बुरा कौन कहता है? महाभारत के सौप्तिकपर्व के ये श्लोक पढ़िए तो, ये निज सेवा भ्रान्ति की परिभाषा ही तो है –
सर्वो हि मन्यते लोक आत्मानं बुद्धिमत्तरम् । सर्वस्यात्मा बहुमतः सर्वात्मानं प्रशंसति ॥
सर्वस्य हि स्वका प्रज्ञा साधुवादे प्रतिष्ठिता । परबुद्धिं च निन्दन्ति स्वां प्रशंसन्ति चासकृत् ।
सभी अपने आपको बुद्धिमान समझते हैं। सबको अपनी बुद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण जान पड़ती है और सभी दूसरों की बुद्धि की निंदा और अपनी बुद्धि की प्रशंसा करते हैं। सबकी दृष्टि में स्वयं की बुद्धि ही साधुवाद पाने योग्य ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित जान पड़ती है।
पुनश्च – वाद्यवृन्द वाहन प्रभाव से बचने के लिए इन पंक्तियों को पढ़िए। दिखावे पर न जाकर नट और साधू में अंतर करना सीखें –
जटिलो मुण्डी लुन्चित केशः, काषायम्बर बहुकृत वेशः ।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोकः, ह्युदर निमित्तं बहुकृत शोकः ॥