सनातन धर्म का प्रसार आवश्यक : यह लेख Maria Wirth के मूल आलेख ‘Hindu Dharma needs to spread‘ का अनुवाद है। मूल आलेख यहाँ देखा जा सकता है: https://mariawirthblog.wordpress.com/2016/09/02/hindu-dharma-needs-to-spread/। दो भागों में प्रस्तुत किये गये इस आलेख में लेखिका ने बहुत ही सरलता से सनातन धर्म के विरुद्ध जारी षड़यंत्र और धर्म के प्रसार की आवश्यकता समझाई है। |
अनुवाद: डॉ. भूमिका ठाकोर, उदयपुर
पिछले भाग में हमने पढ़ा कि कैसे सुनियोजित षड़यंत्र द्वारा सनातन धर्म के बारे में दुष्प्रचार किया गया और अभी भी नयी पीढ़ी को अपने मूल से अनभिज्ञ और कटा हुआ रखने के उद्देश्य वाली शिक्षा जारी है। सनातन धर्म के विरुद्ध ईसाई दुष्प्रचार की स्थिति यह रही कि सुदूर यूरोप की निचली कक्षाओं के विद्यार्थी कभी भारत की जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता के बारे में तो बढ़ चढ़ कर जानते थे किंतु वहाँ के समाज में व्याप्त भयानक नस्लभेद और जातीय हिंसा के बारे में कुछ नहीं जानते थे। अब आगे पढ़िये। |
सनातन धंर्म का प्रसार आवश्यक-1 से आगे…
चूँकि यह दावा कि ‘भारत में सबसे घोर जातिवाद है’, तब सनातन धर्म तथा हिन्दुओं को अपमानित और हतोत्साहित करने की रणनीति रहा, उनसे निष्पक्ष विवेचन की कोई अपेक्षा नहीं रखी जा सकती थी। यह स्थिति आज भी है। यदि निष्पक्ष विवेचन किया गया रहता तो यह स्पष्ट हो जाता कि भारतीयों की तुलना में अरबों एवं श्वेतों द्वारा मानवता के विरुद्ध किये गये अपराध कहीं बहुत बढ़ चढ़ कर थे। दासता, उपनिवेशवाद, अमेरिकियों का ईसाईकरण, मुस्लिम आक्रमण और वर्तमान समय में भी महिलाओं के साथ जारी भेदभाव, विशेषकर यहूदियों तथा अश्वेतों के विरुद्ध नस्लभेद, मजहब के नाम पर क्रूर दमन और आतंकवाद ने लक्ष लक्ष मनुष्यों का जीवन लील लिया।
भारतीय उन सबके भयावह क्रूरकर्मा इतिहास के पासंग भी नहीं और उन्हें रक्षात्मक होने की आवश्यकता नहीं है। तब भी हिन्दू उनके बुने जाल में फँस जाते हैं और रक्षात्मक हो जाते हैं। वे पिछड़ी जातियों या महिलाओं के पक्ष में और अधिक कानून बनाते हैं, किंतु निश्चित रूप से वे उन्हें संतुष्ट नहीं कर सकते जो संतुष्ट नहीं होना चाहते हैं।
भारतीय और विदेशी मीडिया में हिन्दुओं और उनकी परम्पराओं पर द्वेषपूर्ण आक्रमण जारी हैं, जिनके कर्णधार प्राय: हिन्दू नामधारी ‘मैकाले मानसपुत्र’ ही हैं। ऐसे आक्रमणों का भी वही उद्देश्य है जो मतारोपण द्वारा बच्चों को हिन्दू धर्म के बारे में विकृत और कपटपूर्ण जानकारी देने के पीछे है: भारतीय परम्परा की गहनता तथा गाम्भीर्य को कोई न जान पाये, हिन्दू तो और नहीं!
भारत और विश्व के सौभाग्यवश आज भी संस्कृत के विद्वान पण्डित विद्यमान हैं फिर भी मुख्यधारा में सम्मिलित लोग, विशेषत: युवजन, प्रेरणा प्राप्त करने हेतु पश्चिम की ओर उन्मुख होते हैं , जो उन्हें अंततोगत्वा दिशाहीन और विमूढ़ बना देते हैं।
क्या यह परिस्थितियों को ठीक करने का समय नहीं है? उदाहरण के लिये, विविध मतावलम्बियों वाली अगली वार्त्ता बैठक में अपना ढंग बदलिये और असुविधाजनक प्रश्न पूछिये, पूछिये कि ईसाइयत और इस्लाम किस आधार पर दावा करते हैं कि परमात्मा जो कि हम सबका सर्जक है, इतना निर्दयी एवं अन्यायी है कि वह सभी हिन्दुओं समेत करोड़ों मनुष्यों को बस एक जीवन जीने के कारण ही अनंत काल तक के लिये नर्क में झोंक देता है, भले वह जीवन कुछ दिन का ही क्यों न रहा हो या नेकी, सदाचार और सर्वोत्तम निष्ठा के साथ सौ वर्ष तक जिया गया हो?
यदि वे यह कहते हैं कि स्वयं परमात्मा ने ही इस सत्य का प्राकट्य किया है तो उनसे कहिये कि वेद (एवं अन्य धर्मग्रंथ) भी परमब्रह्म ने प्रकट किये हैं और वेद यह दावा करते हैं कि परमब्रह्म हम सभी में परम आनन्द रूपी चेतना के रूप में विद्यमान है और कोई भी शाश्वत रूप से अभिशप्त नहीं होता। सभी को स्वयं की दैवीय चेतना की अनुभव लब्धि करने के अवसर पर अवसर प्राप्त होते हैं।
अतएव चूँकि मत मतांतर विविध हैं, इस बारे में एक प्रज्ञ विमर्श की आवश्यकता है कि उन सबमें से किसके सत्य होने की सबसे अधिक सम्भावना है और जिसे सम्भवत: सत्य सिद्ध भी किया जा सकता है। हालाँकि, ईसाई और मुस्लिम प्रतिनिधि सत्य में रुचि न रखने वाले हो सकते हैं क्योंकि ऐसा करने से उनकी समस्त धार्मिक व्यवस्था का वह आधार ही संकट में पड़ जायेगा जो कि (केवल) असत्यापनीय मताग्रहों में अन्धविश्वास भर है।
अंत:, (किसी) संलाप या संवाद में सत्यनिष्ठा सुनिश्चित करने का दायित्त्व हिन्दू प्रतिनिधियों का है। वे (कदाचित मजहबी क्षुद्रता से पेट पालने वालों के अतिरिक्त) ईसाइयों एवं मुस्लिमों समेत सम्पूर्ण मानवता के हितार्थ अपने उत्तरदायित्त्व का निर्वहन करें।
अनेक ईसाई नास्तिक बन गये क्योंकि उनका उस तथाकथित ‘ईश्वर’ पर विश्वास नहीं रहा, किंतु उन्हें इसका भान ही नहीं था कि ईश्वर के सम्बन्ध में एक नितांत भिन्न दृष्टिकोण सम्भव हो सकता है, जो अनीश्वरवादी विचारधारा से अधिक समझदारी भरा है। यह दृष्टिकोण भारतीय ऋषियों का दृष्टिकोण है।
हिन्दू धर्म का प्रसार मानवता के हितार्थ आवश्यक है। यदि हिन्दू धर्म को भली भाँति जान लिया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि इसका चित्रण मानवता के लिये सबसे निकृष्ट विकल्प के रूप में किया गया ताकि किसी को पता न लगे कि यह वास्तव में सर्वश्रेष्ठ विकल्प है।