Boredom बोरियत नीरसता ऊब आदि नामों से प्रचलित मानसिक स्थिति की परिभाषा है – जब कुछ भी रुचिकर करने को नहीं हो। आधुनिक युग की उपज इस समस्या का अर्थ है, ऐसी मानसिक अवस्था जिसमें व्यक्ति को अपने कार्यों में अरुचि हो या वह उनपर ध्यान केंद्रित न कर पाए। विगत वर्षों में बोरियत पर अनेक अध्ययन हुए है जिससे पता चलता है कि साधारण सी प्रतीत होती यह समस्या उतनी साधारण भी नहीं!
वर्ष १९९६ में प्रकाशित Boredom: The Literary History of a State of Mind के लेखक पी एम स्पैक्स के अनुसार बोरियत (boredom) एक प्रकार की आधुनिक विलासिता है। इसकी उपज औद्योगिक क्रांति के साथ हुई। उससे पूर्व मानव इतिहास में जब हमारे पूर्वजों की मौलिक चिंतायें भोजन और घर थे, तब उनके पास बोरियत का विकल्प था ही नहीं।
वर्ष २०१७ के एक सर्वेक्षण के अनुसार ३० से ९० प्रतिशत वयस्क अमेरिकी और ९१ से ९८ प्रतिशत तक युवा अपनी दिनचर्या में कभी न कभी बोरियत का सामना करते हैं।
मनोविज्ञान के अनुसार बोरियत से सीधे सीधे जुड़े हैं – अकेलापन, क्रोध, दुःख और चिंता। निरंतर बोरियत में रहने वाले व्यक्तियों में अत्यधिक आहार, मादक पदार्थों का व्यसन, मद्यपान, द्यूत इत्यादि दुर्गुणों की सम्भावना भी बढ़ जाती है। वर्ष २००३ में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार जिन किशोरों ने कहा कि वे बहुधा बोर हो जाते हैं उनमें अपने अन्य साथियों की तुलना में धूम्रपान, मद्यपान और अन्य व्यसनों की सम्भावना पचास प्रतिशत अधिक पायी गयी।
Boredom: A Lively History में टूही पीटर लिखते हैं कि बोरियत से उसी प्रकार की मानसिक थकान होती है जैसे उन कार्यों के करने से जिनमें निरंतर ध्यान की आवश्यकता होती है, या वैसी अनुभूति होती है जैसी बन्दियों को होती है। सामान्यतया जिन व्यक्तियों को एक ही प्रकार का कार्य बारंबार करना पड़ता है, जिन्हें कार्य करने में उत्साह नहीं होता तथा इच्छा का अभाव होता है वैसे व्यक्ति बोर हो जाते हैं। यहाँ रोचक यह भी है कि लोगों को यदि कोई कार्य अत्यंत सरल लगता है तो वे बोर हो जाते हैं और कार्य कठिन लगे तो व्यग्रता (anxiety) होती है। अर्थात कहीं न कहीं समस्या व्यक्ति के भीतर होती है, न कि कार्यों में या वातावरण में।
वर्ष २०१२ में प्रो ईस्ट्वुड और सहयोगियों द्वारा प्रकाशित शोध The Unengaged mind defining boredom in terms of attention के अनुसार जिन व्यक्तियों में आत्म-अभिज्ञता (self-awareness) का अभाव होता है, वे अधिक बोर होते हैं। अर्थात ऐसे व्यक्ति को बहुधा स्वयं ही ज्ञात नहीं होता कि उन्हें क्या चाहिए! न ही वे अपनी भावनाओं का वर्णन सटीक रूप से कर पाते हैं। वे यह निर्धारित भी नहीं कर पाते कि उन्हें किस कार्य या वस्तु से प्रसन्नता मिलेगी या वे स्वयं क्या करना चाहेंगे। अर्थात कार्य परिवर्तन हो जाने पर भी वे बोर न हों ऐसा आवश्यक नहीं। ऐसे में इस समस्या का हल भला आत्म निरीक्षण के अतिरिक्त क्या हो सकता है? प्रो ईस्ट्वुड के अनुसार बोर होने वाले व्यक्तियों में एक और प्रवृत्ति होती है – ऐसे व्यक्ति सामान्यतया ध्यान केंद्रित नहीं कर पाने का कारण स्वयं को नहीं वरन अपने आस पास के वातावरण को मानते हैं।
वर्ष २०१२ में वाटरलू विश्वविद्यालय के प्रो जेम्स डैंकर्ट ने एक शोध में पाया कि बहुधा बोर होने वाले व्यक्ति वैसे कार्य दक्षता से नहीं कर पाते जिनके लिए निरंतर ध्यान रखने की आवश्यकता होती है। साथ ही ऐसे व्यक्तियों में ध्यानाभाव एवं अतिसक्रियता विकार (ADHD) तथा अवसाद (depression) के लक्षणों के होने की सम्भावना भी अधिक होती है। Journal of Social and Clinical Psychology में वर्ष २०११ में प्रकाशित आठ सौ लोगों पर कराए गए एक अध्ययन के अनुसार भी बोरियत और अवसाद में प्रत्यक्ष सम्बंध पाए गए।
रोचक यह भी है कि आज के सूचना क्रांति के युग में बिना किसी कार्य या सूचना के रहना लगभग असम्भव है। हर पल सूचनाओं की भरमार है तथापि अध्ययनों के अनुसार बोरियत बढ़ी है। बच्चों के ‘स्क्रीन टाईम’ पर शोध करने वाली टेरेसा बेल्टन इस विरोधाभास का एक हल सुझाती हैं। उनके अनुसार बोर होने पर इन आधुनिक संचार के माध्यमों का सहारा लेने पर व्यक्ति आंतरिक स्रोतों अर्थात आत्मवलोकन या अन्य वास्तविक क्रियाकलापों के स्थान पर इन माध्यमों का सहारा लेने लगता है जिससे यह समस्या घटने के स्थान पर बढ़ जाती है। विकासवादी मनोविज्ञान के अनुसार भी मस्तिष्क और मानसिक अवस्थाऐं कार्य तो उसी प्रकार करती है जैसा आखेट और कृषि युग में करती थीं।
इन अध्ययनों में सबसे भयावह निष्कर्ष था वर्ष २०१० में International Journal of Epidemiology में प्रकाशित एक अध्ययन जिसमें १९८५ में ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा दिए गए उत्तरों का अध्ययन किया गया। इस अध्ययन में पाया गया कि जो लोग अधिक बोर होते हैं, उनके अल्पायु में मृत्यु की सम्भावना भी अधिक होती है। शोधकर्ताओं ने यह तर्क दिया कि बोर होने से व्यक्ति में अन्य अवांछित व हानिकर प्रवृत्तियों का जन्म होता है, जिससे व्याधियाँ तथा अन्य शारीरिक समस्याओं का जन्म होता है जो अंततः अल्पायु में मृत्यु का कारण भी हो सकती हैं।
बोरियत के लिए सम्भवतः शाब्दिक अर्थ हो — चिरकालिक नीरसता, पर अन्य भाषाओं के कुछ शब्दों के लिए सटीक शब्द ढूँढना कभी-कभी कठिन इसलिए होता है क्योंकि उन शब्दों से व्यक्त किए जाने वाले कार्य, भावनाएँ, सिद्धांत या समस्याएँ हमारी संस्कृति का भाग रहीं ही नहीं, यथा – तलाक़। इस शब्द के समानार्थक शब्द बन सकते है, पर इसके समांतर कोई शब्द संस्कृत में रहा हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। कारण स्पष्ट है – यह अवधारणा हमारी संस्कृति का अङ्ग रही ही नहीं। विवाह का अर्थ सनातन परम्परा में पूर्णतया भिन्न रहा और ऐसी समस्याएँ कालांतर में ही उत्पन्न हुईं। इसी प्रकार सनातन दर्शन के अनेक शब्द यथा कर्म, मोक्ष, निर्वाण, माया, लीला इत्यादि का पश्चिमी भाषाओं में बहुतायत से उपयोग होते हुए भी इनका सटीक अनुवाद विरले ही मिलता है।
इसी प्रकार– बोरियत (boredom) के लिए ऊब, नीरसता, विरक्ति जैसे पर्याय तो मिल सकते हैं परंतु boredom जैसी चिरकालिक मानसिक अवस्था का सनातन दर्शन में अभाव ही रहा। कारण हैं – द्रष्टाभाव वाला दर्शन, द्रष्टा और दृश्य का भेद तथा बाह्य दोषारोपण के साथ आन्तरिक अवलोकन। सनातन संस्कारों से जनित मानसिक अवस्था में इसका अभाव होना स्वाभाविक ही है। सनातन दर्शन का मूल है कर्म। संसार से मन हटने का नाम है – वैराग्य। जहाँ आधुनिक युग में मन ऊबने से boredom की समस्या उत्पन्न हो जाती है, वहीं सनातन दर्शन कहता है कि ध्यान से संसार से मन को हटाओ। कार्यों में लिप्त रह कर भी आसक्त नहीं होवो।
और संसार का स्वरूप तो —
ब्रह्मस्य जागतस्यास्य जातस्याकाशवर्णवत्। अपुनः स्मरणं मन्ये साधो विस्मरणं वरम् ॥
अर्थात संसार का स्वरूप भ्रामक है। यहाँ तक कि नीला दिखने वाला आकाश भी दृष्टि-भ्रम ही है। संसार का स्वरूप असत् है ऐसा समझने पर दुखों से निवृत्ति मिल सकती है और अपनी प्रकृति की अनुभूति भी हो सकती है। यह दृश्य संसार भ्रम है – सत् और असत् का मिला-जुला रूप है। सनातन दर्शन में अनेक दृष्टांत आते हैं जिनमें व्यक्ति का अचानक संसार से मन हटा और वह दीक्षा लेकर, राजपाट का परित्याग कर वन में वैराग्य के मार्ग पर चल दिया। यहाँ boredom समस्या कैसे हो सकती है? boredom अर्थात असत में लगा मन और उसका ज्ञान नहीं। सनातन दर्शन में तो संसार से मन को हटाकर सत् का ध्यान करने की बात है। द्रष्टाभाव, द्रष्टा और दृश्य के अंतर के दर्शन में भला boredom का क्या औचित्य? यदि हम कार्यों और वस्तुओं को द्रष्टा बनकर देखें तो उनसे एक स्वाभाविक दूरी निर्मित हो जाती है। वे कार्य और वस्तुएँ हम पर कभी आच्छादित नहीं होतीं। कार्य हो या वस्तु, हम उसे उसी भाव में देख पाते हैं जो उसका सत्य स्वरूप है – ऐसे में boredom का अस्तित्व ही नहीं। समस्या कहाँ? सनातन दर्शन में तो ऊब का सकारात्मक उपयोग इस प्रकार है कि यदि व्यक्ति संसार के कटु अनुभव करके उससे ऊब गया है तो वह सच्चे सुख व कल्याण की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाता है।
पुनश्च, जिस प्रकार आधुनिक शोध संचार क्रांति के माध्यमों के आभासी सुख से बोरियत हो जाने की बात कर रहे हैं, उसी प्रकार अपने युग के सर्व सुख प्रतीत होने वाले साधनों से ऊब कर राजा भर्तृहरि ने कहा —
अतिक्रान्तः कालो लटभललनाभोगसुभगो, भ्रमन्तः श्रान्ताः स्मः सुचिरमिह संसारसरणौ ।
इदानीं स्वः सिन्धोस्तटभुवि समाक्रन्दनगिरः, सुतारैः फुत्कारैः शिवशिवशिवेति प्रतनुमः ।
दृष्टि सटीक नहीं हो तो ऊब तो होना ही है, पर उसे ‘जीर्ण ऊब’ में परिवर्तित कर व्याधि बना लेने से अच्छा है कि जीवात्मायें जब काम-कर्मों से ऊब जाएँ (ययाति सदृश), तो पहले सनातन दर्शन के अनुसार अपना वास्तविक स्वरूप जानने के लिए जिज्ञासा करें — अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।
बौद्ध दर्शन में भी यही दृष्टि है। बोरियत की उत्पत्ति का कारण वस्तुओं को सुख, दुःख इत्यादि से जोड़कर देखना – वेदना की उत्पत्ति। या तृष्णा/तण्हा इसलिए क्योंकि हमें निरंतर इच्छा होती है – आमोद की, उत्तेजना की। या संचार क्रांति के माध्यमों पर दूसरों के निरंतर ध्यानाकर्षण की। हल? थम कर आत्मवलोकन करना। और —
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥
अर्थात गुण और कर्म के विभाग के सत्य को तत्त्वसे जाननेवाला ज्ञानी पुरुष ‘सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’ ऐसा जानकर कर्म में आसक्त नहीं होता।
तब बोरियत की उत्पत्ति हो भी कैसे हो सकती है?