गौतम बुद्ध के अंतिम शिष्य सुभद्द थे। उन्हें दीक्षित करने के पश्चात महापरिनिर्वाणशय्या पर बुद्ध ने बिना पूछे ही आनन्द को तथागत के पश्चात संघ की दिशा क्या हो इसके बारे में बताना आरम्भ किया। इसे पच्छिमवाचा, अंतिम वाणी कहा जाता है।
आनन्द! तुम लोगों में से कुछ के मन में यह विचार उठ सकता है – अतीतसत्थुकं पावचनं नत्थि नो सत्था – शास्ता के वचन अतीत हुये, अब हमारे बीच कोई शिक्षक नहीं, किन्तु आनन्द इसे ऐसे समझो –
मया धम्मो च विनयो च देसितो पञ्ञत्तो सो वो ममच्चयेन सत्था। यथा खो पन् आनन्द, एतरहि भिक्खु अञ्ञमञ्ञं आवुसोवादेन समुदाचरंति, न खो ममच्चयेन एवन समुदाचरुतब्बं …
मेरे जाने के पश्चात मेरे द्वारा प्रतिपादित धम्म और स्थापित संघ ही तुम्हारे शास्ता होंगे।
आनन्द! तुम सब एक दूसरे को आवुसो अर्थात मित्र कह कर पुकारते हो परंतु मेरे जाने के पश्चात ऐसा न करो। कनिष्ठ भिक्षु को बड़े उसके नाम, कुलनाम या मित्र सम्बोधन से पुकार सकते हैं किन्तु एक वरिष्ठ भिक्षु को नवदीक्षित भिक्षु भंते या आदरणीय आयस्मा कह कर ही पुकारें।…
संघो ममच्चयेन खुद्दानुखुद्दकानि सिक्खापदानि समूहनतु…
मेरे जाने के पश्चात संघ क्षुद्र, लघु और अल्प महत्त्व की शिक्षाओं को यदि चाहे तो हटा दे।
चन्नस्स आनन्द भिक्खुनो ममच्चयेन ब्रह्मदंडो दातब्बो…
मेरे जाने के पश्चात भिक्षु चन्न को ब्रह्मदण्ड दिया जाय।
आनन्द ने पूछा – कतमो पम भंते ब्रह्मदंडो… भंते! ब्रह्मदण्ड क्या है?
चन्नो आनन्द भिक्खु यं इच्छेय्य तं वदेय्य सो भिक्खूनि नेव वत्तब्बो न ओवदितब्बो न अनु अनुसासितब्बो…
आनन्द! चन्न चाहे जैसी इच्छा हो कहे, भिक्षु उससे न बोलें, न उपदेश दे प्रेरित करें और न ही अनुशासित करें (अर्थात उपेक्षा करें)।
चन्न या चन्ना कौन था जिसके लिये अंतिम वचन में भी बुद्ध को बिना पूछे ही व्यवस्था देनी पड़ी?
गृहत्याग के पहले चन्न उनका सारथी था। चन्न ने ही उन्हें वे चार दृश्य (रोग, जरा, मृत्यु और संन्यास) दिखाये और समझाये, चन्न ने ही उन्हें कन्थक नाम के अश्व के साथ बाहर पहुँचाया और उनके राजकीय चिह्नों को ले कर वापस लौटा जिनमें उनके कटे केश भी थे। संबोधि-प्राप्ति के पश्चात बुद्ध से शिक्षा ले वह भी उनका शिष्य भिक्षु हो गया। स्पष्ट ही उसको अपने ऊपर बड़ा मान रहता था और वह अन्य भिक्षुओं की हेठी करता रहता था, निन्दा करता, उन्हें अपशब्द कह आलोचना करता। यहाँ तक कि सारिपुत्त और मोग्गल्लन तक को नहीं छोड़ता।
बुद्ध द्वारा अनेक निषेधों और अनुशासन के पश्चात भी वह नहीं माना और यथावत व्यवहार करता रहा। उससे बुद्ध इतने खिन्न रहते थे कि उन्हें उसके लिये उपेक्षा रूपी ‘ब्रह्मदण्ड’ की व्यवस्था करनी पड़ी। उनके देहत्याग के पश्चात ही चन्न ने यह जाना, उसे प्रायश्चित हुआ, शोक के कारण तीन बार मूर्च्छित हुआ, उसने क्षमा भी माँगी और कालांतर में अर्हत पद पाया।
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संसार की समस्त प्राचीन एवं कथित ‘बहुदेववादी’ संस्कृतियों में देव, देवता, ईश्वरादि मनुष्य के निकट हैं। वे मनुष्य सुलभ दोषों से भी युक्त पाये जाते हैं। हमारे यहाँ इसे लीला कहा जाता है। पूर्णत: निर्दोष या गुण-दोष से परे ईश्वर या तो अति उच्च दार्शनिक स्तर की स्थापना है या एकेश्वरवादी अब्राहमी मजहबों की जड़ता। यह विडम्बना ही है कि आजकल हमलोग इस मामले में इन्हीं एकेश्वरवादियों की स्थापनाओं से निर्देशित हो कथित प्रगतिशीलता की आड़ ले अपनी जड़ें ही काटते रहते हैं।
बुद्ध का नाम सुनते ही हमारे मन में उसी गुण दोष से परे ईश्वर जैसी अनुभूति होती है या उन्हें वैसा मान तर्क दिये जाते हैं। ७९ वर्ष की आयु तक तप और सन्देश देने वाला बुद्ध जैसा अर्हत अंतिम समय में भिक्षुओं के संघ के आपसी संबोधन को ले कर सन्देश देता है, क्षुद्र नियमों की तिलाञ्जलि की बात करता है और एक प्रिय भिक्षु के आचरण को आजन्म न सुधार पा उसके लिये प्रथम और अंतिम ‘ब्रह्मदण्ड’ की व्यवस्था करता है! उस स्तर के व्यक्ति के लिये यह कितना क्षुद्र लगता है!! नहीं?
ऐसा लगता है क्यों कि वर्षों के मानसिक प्रक्षालन के कारण हम अब्राहमी सोच के अभ्यस्त हो गये हैं। जैसे ही अपनी नैसर्गिक बहुदेववादी परिधि में आते हैं, यह भी स्वीकार्य हो जाता है क्यों कि अवतारों की लीला में मनुष्य सम बातें तो होती ही हैं। आदि दम्पति शिव पार्वती आपस में साधारण जन की भाँति झगड़ते मनावन करते ही हैं!
… हम सब बहुत दूर तक भटक चुके हैं, लौटना होगा।
… बुद्ध का ब्रह्मदण्ड अंतिम उपाय है। जहाँ सब कुछ असफल हो जाता है, उपेक्षा का ब्रह्मदण्ड प्रभावी होता है। ऐसी स्थिति में सुधार हो या न हो किंतु ब्रह्मदण्ड का कोई विकल्प नहीं। बुद्ध ने इसे ‘ब्रह्म’ दण्ड क्यों कहा? जीवन भर आदर्श ब्राह्मण के मानक दुहराने वाले और लोगों को दीक्षित करते धर्मचक्र को गतिशील रखने वाले ‘अवतारी’ बुद्ध से और क्या अपेक्षा रखी जा सकती है?
इसके साथ ही यह भी द्रष्टव्य है कि बुद्ध की अंतिम वाणी में कोई कृत्रिमता नहीं, अपनी सीमाओं का सहज स्वीकार है और उनसे पार पाने का उद्योग भी। यात्रा महापरिनिर्वाण के पश्चात भी समाप्त नहीं हुई – चरथ भिक्खवे, चरथ …चरैवेति चरैवेति।
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ऐतरेय ब्राह्मण में इन्द्र हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित को ‘चरैवेति चरैवेति’ का उपदेश देते हैं :
नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा चरैवेति चरैवेति
(रोहित, श्रान्ताय नाना श्रीः अस्ति इति शुश्रुम, नृषद्वरः जनः पापः, इन्द्रः इत् चरतः सखा, चर एव इति, चर एव इति।)
रोहित! जो श्रान्त है अर्थात ठहरा हुआ है, उसके लिये श्री नहीं। ऐसा सुना गया है कि लोगों के बीच ठहरे हुये जन प्राय: पाप से ग्रस्त हो जाते हैं, इन्द्र निश्चय ही चलते रहने वाले का सखा है, अत: चलते रहो, चलते रहो!
पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हतश्चरैवेति चरैवेति
(चरतः जङ्घे पुष्पिण्यौ, भूष्णुः आत्मा फलग्रहिः, अस्य श्रमेण प्रपथे हतः सर्वे पाप्मानः शेरे, चर एव इति, चर एव इति।)
चलते रहने वाले की जाँघें पुष्प समान होती हैं, उसकी आत्मा उन्नत होती फलग्राही हो जाती है। उसके समस्त पाप पथ के श्रम से नष्ट हो जाते हैं। अत: चलते रहो, चलते रहो!
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति चरैवेति
(आसीनस्य भग आस्ते, तिष्ठतः ऊर्ध्वः तिष्ठति, निपद्यमानस्य शेते, चरतः भगः चराति, चर एव इति, चर एव इति।)
जो बैठा रहता है, उसका भाग्य भी बैठ जाता है। भाग्य उठ खड़ा होता है, जब वह उठता है। जब वह सोता है तो भाग्य भी सोता है और जब कोई चलता है तो भाग्य भी गतिमान रहता है। अत: चलते रहो, चलते रहो!
कलिः शयानो भवति सञ्जिहानस्तु द्वापरः उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं सम्पाद्यते चरंश्चरैवेति चरैवेति
(शयानः कलिः भवति, सञ्जिहान तु द्वापरः, उत्तिष्ठः त्रेता भवति, चरन् कृतं सम्पाद्यते, चर एव इति, चर एव इति ।)
कलि सोये रहना है, द्वापर (उठ कर भी) पड़े रहना है, त्रेता उठ खड़ा होना है और कृत चल पड़ना है। अत: चलते रहो, चलते रहो!
चरन्वै मधु विन्दति चरन्स्वादुमुदुम्बरम् सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति चरैवेति
(चरन् वै मधु विन्दति चरन् स्वादुम् उदुम्बरम् सूर्यस्य पश्य यो न तन्द्रयते चरन् चर एव इति, चर एव इति।)
चलने वाला ही मधु पाता है, स्वादिष्ट उदुम्बर फल पाता है, सूर्य को वही देख पाता है जो चलने से जी नहीं चुराता। अत: चलते रहो, चलते रहो!
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देखें तो बुद्ध वैदिक श्रमण परम्परा की ही एक शाखा हैं।