पिछले भाग से आगे …
फ़्रांस के समाजशास्त्री एमिले डरखाईम, जिन्हें समाजशास्त्र के जनक के रूप में भी जाना जाता है, ने उन्नीसवीं सदी के अंत में एक रोचक अध्ययन किया। यूरोप के कई देशों से एकत्रित किये गए आंकड़ों से उन्होंने आत्महत्या के कारणों की व्याख्या करने के प्रयास किये। इस अध्ययन का सबसे रोचक निष्कर्ष यह था कि जो लोग अल्पाल्प नियंत्रण में रहते हैं, जिनके बन्धन और दायित्व अपेक्षतया न्यून होते हैं अर्थात जो व्यक्तिगत रूप से अधिक स्वतंत्र हैं उनके आत्महत्या करने की सम्भावना उतनी ही प्रबल भी होती है। डरखाईम का निष्कर्ष था कि (सामाजिक) नियंत्रण और दायित्व (कर्तव्य) व्यक्ति के जीवन को संरचना और उद्देश्य देते हैं। इस शोध के पश्चात सैकड़ों ऐसे मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक अध्ययन हुए जिनमें इस तथ्य की पुष्टि हुई कि किसी व्यक्ति के सुखी तथा दीर्घायु होने का उसके सामाजिक एवं पारिवारिक सम्बन्धों से सीधा-सीधा सम्बन्ध है। जिस व्यक्ति के जितने अच्छे सम्बन्ध होते हैं, उनके सुखी एवं स्वस्थ होने की संभावना भी अधिक होती है। अर्थात साधारण शब्दों में कहें तो भोजपुरी की एक सरल कहावत ‘जंजाल नीमन, कंगाल ना नीमन’ इस शोध का सार है।
इस अध्ययन का दूसरा पक्ष यह है कि अतिशय वैयक्तिक स्वतंत्रता या स्वच्छंदता सुखी जीवन के लिए हानिकारक होती है! क्योंकि इसकी प्राप्ति में लोग अपने घर, व्यवसाय, सम्बन्ध सब कुछ तोड़ कर वैयक्तिक और व्यावसायिक संतुष्टि के पीछे भागते हैं। उन्हें अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता ही सर्वोपरि लगती है, उन्हें लगता है कि वही चरम सुख का आधार है अर्थात पुनः वही भ्रम वाली स्थिति। स्वतंत्रता से मिलने वाले सुख की मरीचिका में जिनसे वास्तविक सुख मिलना है, उन्हें ही छोड़कर हम सुख प्राप्त करना चाहते हैं। पश्चिमी देशों में वैयक्तिक स्वतंत्रता और स्वच्छंदता को सुख मान लेने की मरीचिका से भला कौन ग्रसित नहीं ! अति तो सर्वत्र वर्जित है पर इन अध्ययनों का निष्कर्ष यही तो है कि मूल्यों एवं दायित्यों के बिना स्वतंत्रता भला किस काम की।
इससे ही जुड़ा एक रोचक विषय है सामाजिक लज्जा (shame) का। मनोवैज्ञानिक सैली सटेल और स्कॉट लिलिएन्फ़िल्ड अपने अध्ययन में यह प्रश्न करते हैं– “क्या लज्जा उपयोगी हो सकती है?” पुनः बन्धनों एवं दायित्यों से परे पूर्ण वैयक्तिक स्वतंत्रता की ललक की तरह ही यहाँ भी लज्जा को हम पुरातन एवं रूढ़िवादी घोषित कर देते हैं। किसी को बुरा भला न कहने या लज्जित न करने की सीख हम सभी को दी जाती है। स्वयं के लिए भी आधुनिक सीख यही हो चली है कि न तो हमें किसी बात से लज्जित होना चाहिए, न किसी को करना चाहिए। परन्तु मनोविज्ञान की दृष्टि से कई अर्थों में लज्जा बहुत लाभकारी गुण है– स्वयं लज्जित अनुभव करना और दूसरों को भी उनकी भूल या अपराध पर करना। यदि किसी व्यक्ति को यह अनुभव होता है कि वह अपने किये पर लज्जित है तो उसे स्वयं को सुधारने में सुविधा होती है। लज्जा की अनुभूति, व्यसन से मुक्ति हेतु दृढ़ निश्चय लेने में बहुत उपयोगी सिद्ध होती है। व्यक्ति अपने को व्यसन से मुक्त करने का प्रयास करता है। मनोवैज्ञानिक यह निष्कर्ष निकालते हैं कि लज्जा का एक रचनात्मक सामाजिक उपयोग है। अतिशय वैयक्तिक स्वतंत्रता और लज्जा के रचनात्मक उपयोग, दोनों, विरोधाभासी विचारधारायें हैं परन्तु निष्कर्ष है दोनों का संतुलित होना।
ब्रूकिंग्स संस्थान के रिचर्ड रीवेस अमेरिका में लड़कियों के किशोरावस्था में गर्भवती होने, धूम्रपान, मादक पदार्थ से ग्रस्त स्थिति में वाहन चलाने जैसी समस्याओं के लिए सामाजिक लज्जा को प्रभावी ठहराते हैं। विधिसम्मत सम्पूर्ण व्यक्तिगत स्वतंत्रता की स्थिति में भी अविवेकपूर्ण निर्णयों को रोकने में इससे सहायता मिलती है, जब लोगों को स्वयं नहीं पता होता कि उनके लिए क्या उचित है, पथ्य है। वैधानिक दृष्टि से निषिद्ध न होते हुए भी कई ऐसे कार्य हैं जो व्यक्ति के लिए हानिकारक होते हैं। ऐसे में लज्जा जैसे सामाजिक मूल्य एक संतुलन प्रदान करते हैं। यहाँ भी व्यावहारिक मनोविज्ञान का वही सिद्धांत कार्य करता है कि हम बहुधा अपने निर्णय विवेकपूर्ण या तर्कसम्मत तथ्यों के आधार पर नहीं, वरन भावनाओं, भय, रूचि, घृणा, लज्जा इत्यादि के आधार पर करते हैं।
मानव व्यवहार में परिवर्तन के लिए ये बातें तर्कपूर्ण आंकड़ों और तथ्यों से अधिक प्रभावी होते हैं। धूम्रपान, मादकद्रव्य सेवन एवं किशोरावस्था में गर्भवती होने से होने वाली हानि के कितने ही शोध और तथ्य हों, उनसे अधिक प्रभावी सामाजिक दबाव और लज्जा होते हैं। पश्चिमी देशों में सम्बन्ध-विच्छेद से होने वाले मानसिक और स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव के कितने ही शोध क्यों न छप जायें, वैवाहिक सम्बन्ध-विच्छेद के आंकड़ों में कोई कमी नहीं आती। इसके विपरीत बिना इन अध्ययनों के ही पारंपरिक मूल्य वाले समाज में ये समस्याएं देखने को ही नहीं मिलतीं।
यह पाया गया कि धूम्रपान करने वालों को सामाजिक रूप से बुरा या कुरीति के रूप में देखने से धूम्रपान करने वालों में कमी आती है। वैधानिक रहते हुए भी धूम्रपान में कमी लाने का यह एक उत्कृष्ट ढंग हो सकता है कि इसे सामाजिक मूल्यों के विपरीत प्रचारित किया जाय। इसी प्रकार किशोरावस्था में गर्भवती हो जाने से होने वाले हानि का शमन करने के लिए यौन शिक्षा एक स्तर तक ही प्रभावी होती है। स्वतंत्रता के समर्थक इसमें लांछन नहीं मानते या लज्जा के रूप में नहीं देखना चाहते परन्तु मनोवैज्ञानिकों का एक वर्ग इसे यौन शिक्षा से अधिक प्रभावी मानता है।
प्रश्न यह नहीं है कि लज्जा प्रभावी है या नहीं, वरन यह है कि किन परिस्थितियों में सामाजिक लज्जा प्रभावी हो सकती है। वैधानिक एवं अवैधानिक दोनों ही अवस्थाओं में लज्जा प्रभावी हो सकती है। उदाहरण के लिये मदिरामत्त स्थिति में वाहन चलाने वाले को दण्ड के साथ-साथ सामाजिक रूप से भी लज्जित किया जाए तो वह अधिक प्रभावी होगा। रिचर्ड रीवेस लिखते हैं:
People are free to make bad choices; otherwise they are not really free at all. But bad choices they remain — and they ought to feel bad about them.
Teenage pregnancy qualifies for some “moral disapprobation.” It is a bad choice, for the parents, children and society. The principal solutions to teen pregnancy lie in traditional policy areas: better sex education and greater availability of contraception. But unless the social norm attached to teen pregnancy is a negative one, no amount of classes or contraception will work.
नीति निर्माताओं को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वैधानिक होते हुए भी वे बातें जो देश की अर्थव्यवस्था एवं सुख के लिए उपयुक्त नहीं हैं, वे स्वतंत्रता के नाम पर प्रोत्साहित न हों। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि लज्जा, लांछन इत्यादि सामाजिक रूप से नकारात्मक हैं, वैयक्तिक स्वतंत्रता और स्वतंत्र समाज होने ही चाहिए परन्तु किन स्थितियों में लज्जा उपयोगी और समाज के सुख का कारण हो सकती है स्वस्थ समाज के लिए इस बात का संज्ञान भी आवश्यक है। किसी को भी लज्जित न किया जाय, ऐसा समाज सैद्धांतिक रूप से तो आदर्श समाज है परन्तु वास्तव में भयावह! सामाजिक मूल्यों के बिना पूर्ण वैयक्तिक स्वतंत्रता मरीचिका है।
ये अध्ययन जनमानस में मूल्यों के महत्व और प्रत्यक्ष व्यवहारिक उदाहरणों के अतिरिक्त धर्म की परिभाषा से भी साम्य रखते हैं। धर्म विरुद्ध आचरण नहीं करना ग्रंथों में बार-बार कहा गया है और धर्म क्या है? इसका विस्तृत उत्तर देखें तो – जिसमें व्यवस्था एवं सिद्धांत समाहित हैं, तो अंततः इन अध्ययनों की बात ही प्रत्यक्ष होती है। धर्म के दस लक्षण हैं :
धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
दम अर्थात मन की स्वछंदता को रोकना तथा बुराइयों में भी अपने को पवित्र बनाए रखना और धी अर्थात भलीभांति समझना जैसी बातें स्पष्ट ही सामाजिक मूल्य रही हैं।
धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मों धारयते प्रजाः । यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥
गीता रहस्य में तिलक इसे कुछ इस प्रकार कहते हैं–
“धर्म शब्द धृ धातु से बना है। धर्म से ही सब प्रजा बंधी हुई है। यह निश्चय किया गया है कि जिससे सब प्रजा का धारण होता है वही धर्म है। यदि यह धर्म छूट जाय तो समझ लेना चाहिये कि समाज के सारे बंधन भी टूट गये; और यदि समाज के बंधन टूटे, तो आकर्षण शक्ति के बिना आकाश में सूर्यादि ग्रहमालाओं की जो दशा हो जाती है, अथवा समुद्र में मल्लाह के बिना नाव की जो दशा होती है, ठीक वही दशा समाज की भी हो जाती है। इसलिये उक्त शोचनीय अवस्था मे पड़कर समाज को नाश से बचाने के लिये व्यासजी ने कई स्थानों पर कहा है कि, यदि अर्थ या द्रव्य पाने की इच्छा हो तो ‘धर्म के द्वारा’ अर्थात समाज की रचना को न बिगाड़ते हुए प्राप्त करो, और यदि काम आदि वासनाओं को तृप्त करना हो तो वह भी ‘धर्म से ही’ करो।”
और फिर लज्जा को तो न केवल आभूषण माना गया है अपितु जहाँ लज्जा न हो वहाँ तो न रहने तक की बात की गयी है–
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता । पञ्च यत्र न वर्तन्ते न कुर्यात् तत्र संस्थितिः॥
पूर्ण रूपेण सहमति। अंत में गीता रहस्य में तिलक की व्याख्या सारे लेख का निचोड़ कर देती है ? अति उत्तम।